आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की संक्षिप्त विवेचना करते हुए विभिन्न विद्वानों द्वारा किए गये उनके वर्गीकरण पर प्रकाश डालिये।
प्रश्न – आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की संक्षिप्त विवेचना करते हुए विभिन्न विद्वानों द्वारा किए गये उनके वर्गीकरण पर प्रकाश डालिये।
उत्तर – डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा का मत है-‘ वर्तमान भारतीय आर्यभाषाओं का साहित्य में प्रयोग कम-से-कम तेरहवीं शताब्दी ईसवी के आदि में अवश्य प्रारम्भ हो गया था तथा अपभ्रंश का व्यवहार चौदहवीं शताब्दी तक साहित्य में होता रहा था। किसी भाषा को साहित्य में व्यवहत होने के योग्य बनने में कुछ समय लगता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, यह कहना अनुचित न होगा कि मध्यकालीन आर्य भाषाओं के अन्तिम रूप अपभ्रंशों से तृतीय काल की आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का आविर्भाव दसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग हुआ। ………इन आधुनिक आर्यभाषाओं में हमारी हिन्दी भी सम्मिलित है। इसका जन्मकाल भी दसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग मानना होगा । “
वस्तुतः इस विकास या परिवर्तन को हमें सही शब्दों में इस प्रकार कहना चाहिए कि बोलचाल की भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव ने अपभ्रंश को साहित्य के क्षेत्र में अपदस्थ कर स्वयं उनका स्थान उसी प्रकार ग्रहण कर लिया होगा जैसे आधुनिक युग में खड़ी बोली ने ब्रजभाषा को अपदस्थ कर सम्पूर्ण साहित्य पर अधिकार कर लिया था।
डॉ. श्यामसुन्दर दास अपभ्रंश और वर्तमान हिन्दी के मध्य एक तीसरी भाषा का रूप मानते हैं, जिसे कुछ विद्वानों ने ‘अवहट्ट’ कहा है तथा कुछ ने ‘पुरानी हिन्दी ‘। उनका कथन है —“ यद्यपि इसका ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है कि अपभ्रंश का कंब अन्त होता है और पुरानी हिन्दी का कहाँ से आरम्भ होता है, तथापि बारहवीं शताब्दी का मध्य भाग अपभ्रंश के अस्त और आधुनिक भावनाओं के उदय का काल यथाकथंचित् माना जा सकता है।” वस्तुत: यह ‘अवहट्ट’ अथवा ‘पुरानी हिन्दी’ अपभ्रंश और नई उभरती लोक भाषा का ही मिश्रित रूप था। डाक्टर सक्सेना भारतीय आर्य शाखा की भाषाओं के वर्तमान युग का प्रारम्भ प्राय: 1000 ई. से ही मानते हैं।
हम पहले बता आए हैं कि इन भाषाओं का विकास प्राकृतों से न होकर उस युग में बोली जाने वाली जनभाषाओं से हुआ। परन्तु विद्वानों ने उन जनभाषा को ही अपभ्रंश घोषित कर उत्पत्ति के अनुसार इन भाषाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया है –
1. शौरसेनी अपभ्रंश- इससे हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती एवं पहाड़ी भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। इनमें गुजराती और राजस्थानी का सम्पर्क प्रमुख रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से रहा है।
2. मागधी अपभ्रंश – बिहारी, बँगला, असमी और उड़िया।
3. अर्द्ध मागधी–पूर्वी हिन्दी |
4. महाराष्ट्री मराठी।
5. व्राचड़ अपभ्रंश–सिन्धी ।
6. केकय अपभ्रंश-लहँदा ।
पंजाबी भाषा का सम्बन्ध कुछ लोग केकय अपभ्रंश से मानते हैं। पंजाबी और जम्मू प्रदेश की भाषा डोंगरी में काफी समानता है। किन्तु कालान्तर में उस पर शौरसेनी अपभ्रंश का बहुत प्रभाव पड़ा था। पहाड़ी भाषाओं की उत्पत्ति भी कुछ लोगों ने खस नामक अपभ्रंश से मानी है, किन्तु बाद में ये भी राजस्थानी से प्रभावित हुई थी। वस्तुतः ये सभी भाषाएँ बोलचाल की भाषाएँ थीं और कालान्तर में इनमें से कुछ साहित्यिक भी बन गईं और कुछ बोलचाल की ही बनी रहीं। बोलचाल की और साहित्य की भाषा के रूप और अन्तर को आधुनिक खड़ीबोली के उदाहरण द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है। खड़ी बोली हिन्दी – भाषी प्रदेश के नगरों की बोलचाल की भी भाषा है और साहित्य की भी। भाषा के इन दोनों रूपों में अन्तर तो रहता है परन्तु इतना नहीं कि उन्हें नितान्त भिन्न मान लिया जाय। अस्तु, डॉ. ग्रियर्सन ने अपने ‘भाषा तत्त्व’ नामक ग्रन्थ के आधार पर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को तीन उपशाखाओं में विभक्त किया है, जिनके अन्दर उन्होंने छह भाषा- समुदाय माने हैं। उनका वर्गीकरण निम्नलिखित है –
1. बाहरी उपशाखा (बहिरंग )
(1) पश्चिमोत्तरी समुदाय
1. लहँदा, 2. सिन्धी
(2) दक्षिणी समुदाय
3. मराठी
(3) पूर्वी समुदाय
4. उड़िया, 5. बँगला, 6. आसामी (जिसे अब ‘असमी’ कहा जाता है), 7. बिहारी
2. बीच की उपशाखा ( मध्यवर्ती)
(4) बीच का समुदाय
8. पूर्वी हिन्दी
3. भीतरी उपशाखा ( अन्तरंग )
(5) अन्दर का समुदाय
9. पश्चिमी हिन्दी, 10. पंजाबी, 11. गुजराती, 12. भीली, 13. खानदेशी, 14. राजस्थानी
(6) पहाड़ी समुदाय
15. पूर्वी या नेपाली, 16 बीच की पहाड़ी, 17. पश्चिमी पहाड़ी ।
उपर्युक्त वर्गीकरण में बाहरी, भीतरी और बीच की तीन उपशाखाओं का नाम आता है। इन्हें विद्वानों ने क्रमश: बहिरंग, अन्तरंग और मध्यवर्ती नाम दिया है। बहिरंग और अन्तरंग का विभाजन भारत में आर्यों के दो बार आने की कल्पना पर किया गया है। पूर्वागत आर्यों को भाषाएँ बहिरंग कहलाईं और परागत अर्थात् बाद में आने वाले आर्यों की अन्तरंग | इन दोनों के मध्यवर्ती प्रदेश की भाषाएँ मध्यवर्ती कहलाई।
डॉ. ग्रियर्सन ने इन अत्तरंग और बहिरंग भाषाओं में कुछ ऐसे भेद बताये हैं, जिनके कारण इनमें भिन्नता आ गई है। ये भेद अग्रलिखित हैं
(1) उच्चारण सम्बन्धी भेद-अन्तरंग भाषाओं में दत्त्य ‘स’ का उच्चारण प्रायः शुद्ध होता है, जबकि बहिरंग भाषाओं में इसका अनुप्रभाव है। बहिरंग उपशाखा की पश्चिमोत्तर वर्ग की सिन्धी भाषा में ‘स’ का ‘ह’ हो जाता है, जैसे—’कोस’ का ‘कोह’। दूसरी ओर बंगला आदि पूर्वी वर्ग की भाषाओं में यही ‘स”श’ तथा ‘ष’ हो जाता है। साथ ही महाप्राण तथा अल्पप्राण परिवर्तित हो जाते हैं। ‘म्ब’ का ‘म’ अथवा ‘व’ तथा ‘इ’ और ‘उ’ परस्पर बदल जाते हैं।
(2) रचनात्मक तथा व्याकरणिक भाषा – विज्ञान का यह सिद्धान्त है कि भाषाएँ वियोगावस्था से क्रमशः विकसित होते-होते संयोगावस्था में आती हैं। जो भाषा जितनी संयोगात्मक होगी वह उतनी ही प्राचीन होगी। प्रायः सभी अन्तरंग भाषाएँ उस समय तक वियोगावस्था में दिखाई पड़ती हैं, जबकि बहिरंग भाषाएँ संयोगावस्था तक पहुँच चुकी होती हैं। इसका कारण यह है कि अन्तरंग भाषाओं के प्रायः सभी मूल प्रत्यय नष्ट हो गये हैं जिनका काम प्रायः विभक्तियों से लिया जाता है, जो संज्ञा से पृथक् समझी जाती हैं, किन्तु बहिरंग भाषा कुछ अधिक विकसित होने के कारण उनमें प्रत्यय शब्द में ही समाकर रह जाते हैं। जैसे-हिन्दी सम्बन्ध कारक ‘का’, ‘के’, ‘की’ लगाकर बनाया जाता है। इन्हें संज्ञा से पृथक् ही समझा जाता है; जैसे ‘घोड़े का’ में ‘का’ प्रत्यय अलग है। यही कारक बंगला में, जो बहिरंग भाषा है, संज्ञा में ‘एर’ लगाकर बनता है और यह चिह्न संज्ञा का एक भाग हो जाता है। जैसे—’घोड़ार, इसमें सम्बन्ध कारक ‘र’ संज्ञा ‘घोड़ा’ के साथ मिला हुआ है।
(3) बहिरंग भाषाओं में भूतकालीन क्रियाओं के साधारण रूपों से ही अनेक कर्ताओं का पुरुष और वचन जाना जा सकता है, क्योंकि भूतकालीन क्रिया का रूप कर्त्ता पुरुष के अनुसार ही परिवर्तित होता रहता है। जैसे मराठी में ‘गेलों’ (मैं गया) और ‘मेला’ (वह गया), बँगला में ‘मारिलाम’ शब्द भी उसके कर्ता के उत्तम पुरुष होने की सूचना देता है। किन्तु अन्तरंग भाषाओं में भूतकालीन क्रियाएँ सभी पुरुषों में एक-सी रहती हैं। जैसे- हिन्दी में ‘मैं गया’, ‘तू गया’, ‘वह गया’। सभी में ‘गया’ समान है।
(4) बहिरंग भाषाओं की भूतकालिक क्रियाओं में सर्वनाम भी उनकी क्रियाओं में ही अन्तर्भूत रहता है, जबकि अन्तरंग भाषाओं में सर्वनाम अपना पृथक् रूप संभाले रहा है।
(5) बहिरंग शाखा की भाषाओं के शब्द तथा धातुओं में साम्य है।
(6) श्री रामप्रसाद चन्द ने तो अन्तरंग और बहिरंग ‘भाषा – भेद की वंशात्मक कारणों से भी पुष्टि की है। उसका मत है कि अन्तरंग आर्य डालिको सिफैलिक जाति के और बहिरंग आर्य ब्रेकी सिफैलिक जाति के थे, अतः उनकी भाषाओं में भेद होना स्वाभाविक है।
डॉ. ग्रियर्सन ने उपर्युक्त भेदों के आधार पर ही अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया था। परन्तु प्रसिद्ध भारतीय भाषाशास्त्री डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या भारतीय आर्यभाषाओं का सूक्ष्म विवेचन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हार्नले और ग्रियर्सन द्वारा बताये गये भेद तर्कसंगत नहीं हैं, अतः उपर्युक्त विभाजन साधारण नहीं माना जा सकता। ग्रियर्सन के सभी तर्कों का तर्कसंगत खण्डन करते हुए डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने जो आधार दिये हैं, वे निम्नलिखित हैं
(1) ‘स’ सम्बन्धी परिवर्तन सभी बहिरंग भाषाओं में नहीं पाया जाता । सिन्धी तथा लहँदा भाषाओं में ‘स’ का ‘ह’ अथवा ‘श’ होना अन्तरंग भाषाओं में भी पाया जाता है; जैसे-
तस्य कोस = कोह, पश्चिमी हिन्दी में केसरी का केहरी, 1 एकादश का ग्यारह, क्षदश का बाहर हो जाता है। तस्स, ताह H ता (ताको, तहि)
(2) महाप्राण व अल्प्राण का अभेद – गुजराती, राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी आदि अन्तरंग भाषाओं में भी महाप्राण और अल्पप्राण का अभेद पाया जाता है; जैसे- भगिनी से बहिन, वेश से भेस, विभूति से भभूत, वाष्प से भाप आदि ।
(3) ‘म्ब’ का ‘म’ तथा ‘ब’ हो जाना अन्तरंग में भी पाया जाता है। जैसे पश्चिमी हिन्दी में जम्बु का जामुन, अम्बी का अमियाँ, निम्बु का नींबू आदि। इसी प्रकार ‘इ’ तथा का परस्पर बदल जाना अन्तरंग में भी पाया जाता है। जैसे पश्चिमी हिन्दी में खुलना, बुनना, तथा बिन्दु, बूँद आदि ।
(4) सप्रत्यय तथा विभक्ति-प्रधान शब्द बहिरंग में ही नहीं, अपितु अन्तरंग में भी पाये जाते हैं; जैसे—ब्रज में मैं (मैंने), तैं (तूने), घोड़ेहि (घोड़े को ) । पश्चिमी हिन्दी में माथे (माथे पर), भूखों (भूख से) आदि ।
(5) कर्त्ता में पुरुष तथा वचन का बोध सभी भूतकालिक क्रियाओं के रूपों से नहीं होता, केवल अकर्मक क्रियाओं के भूतकाल से होता है। सकर्मक क्रियाओं के भूतकालिक रूपों में से पूर्वी तथा पश्चिमी बहिरंग तथा अन्तरंग भाषाओं में बहुत अन्तर है। सभी पूर्वी और सभी पश्चिमी कर्मणिप्रधान है अतः सकर्मक भूतकालिक क्रियाओं से कर्त्ता के पुरुष तथा वचन का बोध केवल पूर्वी बहिरंग भाषाओं में हो सकता है, पश्चिमी भाषाओं में नहीं। उधर पूर्वी हिन्दी में भी ऐसा ही होता है।
(6) भूतकालिक क्रियाओं में सर्वनाम का अन्तर्भुक्त होगा अब बहिरंग भाषाओं तथा क्रियाओं में नहीं पाया जाता।
(7) न तो सब धातु बहिरंग में ही समान हैं और न अन्तरंग में ही। जैसे बँगला तथा बिहारी भाषाओं के शब्द मराठी से नितान्त भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त जो शब्द बहिरंग में भी पाये जाते हैं, वे अन्तरंग में भी मिलते हैं। जैसे बिहारी, बंगला, सिन्धी, लहँदा तथा मराठी में पाये जाने वाले शब्द गुजराती तथा पश्चिमी में भी पाये जाते हैं।
8. यदि श्री रामप्रसाद चन्द्र के अनुसार अन्तरंग और बहिरंग जाति के आर्य भिन्न जातियों के थे, तो उत्तर प्रदेश के कनौजिया (का न्याकुब्ज) ब्राह्मण तथा लहँदा और पश्चिमी पंजाबी भाषा बोलने वाले आर्य भिन्न जातियों के हुए, परन्तु ऐतिहासिक वंशावली के आधार पर वे एक ही जाति के ठहरते हैं। दूसरी ओर बंगाली अपने को मध्यदेशीय में आर्यों के वंशज मानते हैं, न कि पश्चिमी भारत तथा महाराष्ट्र से आकर बंगाल और बिहार में बने बहिरंग आर्यों के। अतः वंश और जाति के अनुसार अन्तरंग और बहिरंग भेद शून्य और भ्रामक है।
(9) आर्यों का भारत में दो बार आना भी मान्य नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि इसके विपरीत आर्यों का पहले ही सप्तसिन्धु में निवास करना एक प्रकार से प्रमाणित हो चला है। इस प्रकार अन्तरंग और बहिरंग का प्रश्न ही नहीं उठता। (दृष्टव्य – अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता आर्यों की न मानी जाकर, द्रविड़ों की या उनसे भी प्राचीन किसी जाति की मानी गई है। परन्तु कुछ विद्वान् उसे आर्य-सभ्यता ही मानते हैं। वस्तुतः अन्तरंग – बहिरंग का यह भेद और उलझन आर्यों के दो बार भिन्न-भिन्न कालों में भारत- प्रदेश की कल्पना के कारण उत्पन्न हुई है। इस कल्पना का अभी तक कोई तर्कसंगत ऐतिहासिक आधार नहीं मिल सका है और इसी कल्पना के कारण भाषा – शास्त्री उत्तर भारतीय भाषाओं का मनमाना वर्गीकरण करते रहे हैं।
(10) उपर्युक्त तर्कों के साथ ही डाक्टर सुनीत कुमार चटर्जी का यह भी कहना है कि भारत में मध्य प्रदेश की भाषा पश्चिमी हिन्दी है। अतः उसे अन्य भाषाओं के साथ न खकर केन्द्रीय भाषा मानना चाहिए। दूसरी बात यह है कि सुदूरपूर्व को और सुदूर पश्चिमी को एक साथ नहीं रखा जा सकता। इस सबका सम्बन्ध पश्चिमी हिन्दी से है, अतः उसे ही केन्द्रीय भाषा मानना चाहिए। उन्होंने इसी कारण पश्चिमी हिन्दी को केन्द्रीय भाषा मानकर भारतीय आर्य-भाषाओं का निम्नलिखित वर्गीकरण किया है –
(1) उदीक (उत्तरीं वर्ग – हिन्दी, लहँदा, पंजाबी)।
(2) प्रतीच्य (पश्चिमी) वर्ग-गुजराती, राजस्थानी ।
(3) मध्यदेशीय वर्ग – पश्चिमी हिन्दी |
(4) प्राच्य (पूर्वी वर्ग ) – पूर्वी हिन्दी, बिहारी, उड़िया, बँगला, असमी
(5) दक्षिझात्य (दक्षिणी) वर्ग-मराठी।
सुनीति बाबू पहाड़ी भाषाओं का मूलाधार पैशाची, दरद या खश भाषा को मानते हैं। उनका कहना है कि बाद में ये पहाड़ी भाषाएँ राजस्थान की प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं से विशेष प्रभावित हो गई थीं।.
ग्रियर्सन का दूसरा वर्गीकरण- डॉक्टर चटर्जी के नवीन वर्गीकरण को देखकर ग्रियर्सन महोदय को अपनी भूल मालूम पड़ी और उन्होंने पश्चिमी हिन्दी को केन्द्र मानकर पुनः निम्नलिखित वर्गीकरण किया—
(क) मध्यदेशीय भाषा –
1. पश्चिमी हिन्दी |
(ख) अन्तर्वर्ती अथवा मध्य भाषाएँ –
(अ) मध्यदेशीय भाषा से विशेष घनिष्ठता वाली-
2. पंजाबी, 3. राजस्थानी, 4. गुजराती, 5. पूर्वी पहाड़ी, खसकुरा अथवा नेपाली, 6. केन्द्रस्थ पहाड़ी, 7. पश्चिम पहाड़ी ।
(आ) बहिरंग भाषाओं से अधिक सम्बन्ध
8. पूर्वी हिन्दी |
(ग) बहिरंग भाषायें
(अ) पश्चिमोत्तर वर्ग
9. लहँदा, 10. सिन्धी ।
(आ) दक्षिणी वर्ग –
11. मराठी।
(इ) पूर्वी वर्ग
12. बिहारी, 13. उड़िया, 14, बँगला, 15. असमी।
ग्रियर्सन ने भीली को गुजराती और खानदेशी को राजस्थानी में अन्तर्भुक्त माना है। चटर्जी और ग्रियर्सन ने उपर्युक्त वर्गीकरण से डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा चटर्जी महोदय के वर्गीकरण को ही अधिक तर्कसंगत मानते हैं। उसी को आधार बनाकर उन्होंने अपना ‘स्वाभाविक वर्गीकरण’ प्रस्तुत किया है। परन्तु उन्होंने पश्चिमी हिन्दी को केन्द्रीय भाग नहीं माना है। उसे मध्यदेशीय भाषाओं में स्थान देकर इस प्रकार अपना नया वर्गीकरण प्रस्तुत किया है –
(क) उदीच्य (उत्तरी ) –
1. सिन्धी, 2. लहँदा, 3. पंजाबी ।
(ख) प्रतीच्य (पश्चिमी) –
4. गुजराती।
(ग) मध्यदेशीय (बीच का) –
5. राजस्थानी, 6. पश्चिमी हिन्दी, 7. पूर्वी हिन्दी, 8. बिहारी ।
(घ) प्राच्य (पूर्वी) –
9. उड़िया, 10. बंगला, 11. असमी।
(ङ) दाक्षिणात्य (दक्षिणी ) –
12. मराठी।
डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा के उपर्युक्त वर्गीकरण में और ग्रियर्सन महोदरय के वर्गीकरण में बहुत साम्य है। पहाड़ी भाषाओं के विषय में इनका मत चटर्जी महोदय के मत के ही समान वेबर ने अपने वर्गीकरण में इन भाषाओं को उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी, मध्यदेशीय आदि अनेक वर्गों में विभाजित किया है।
आर्य भाषाओं का उपर्युक्त वर्गीकरण उनकी मूल जननी विभिन्न अपभ्रंशों को मानकर उनके आधार पर ही किया गया प्रतीत होता है। वस्तुतः अपभ्रंशों को इन भाषाओं से विशेष कर हिन्दी, अधिक सम्बन्ध नहीं था। अपभ्रंश प्राकृतों से प्रभावित थीं। उनका रूप संयोगात्मक था, जबकि अधिकांश आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ वियोगात्मक हैं। इसलिए इनका विकास अपभ्रंशों से न माना जाकर विभिन्न क्षेत्रीय बोलचाल की भाषाओं से ही माना जाना चाहिए। केवल हिन्दी ही नहीं, समस्त आधुनिक उत्तर भारतीय भाषाएँ अपना वर्तमान ‘साहित्यिक ‘ रूप प्राप्त करने से पूर्व निश्चित रूप से बोलचाल की भाषाएँ थीं।
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