गृहयुद्ध का स्वरूप (Nature of the Civil War)

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now

गृहयुद्ध का स्वरूप (Nature of the Civil War)

history - inp24

इंग्लैंड में दस वर्षों तक चलने वाले गृहयुद्ध के स्वरूप के सवाल पर आधुनिक इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और आयरलैंड में यह युद्ध अलग-अलग लक्ष्यों को लेकर लड़ा गया था। जहाँ एक ओर इंग्लैंड में गृहयुद्ध राजनीतिक और धार्मिक विचारधाराओं की लड़ाई थी, वहीं दूसरी ओर स्कॉटलैंड प्रेस्बिटेरियन धर्म को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा दिये जाने के लक्ष्य से युद्ध लड़ रहा था। आयरलैंड के निवासी स्वयं को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने और अपने देश में प्रोटेस्टेंट धर्म की प्रधानता कायम करने के उद्देश्य से राजा का सहयोग कर रहे थे। इस तरह उद्देश्य की भिन्नता के कारण इसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं था और मूलत: इसे विचारों का युद्ध की संज्ञा दी जा सकती है।
हालांकि इंग्लैंड के गृहयुद्ध में ज्यादातर कुलीन, जमींदार और निम्नवर्गीय जनता राजा के पक्ष में थे और अधिकांश मध्यम वर्ग और नगर निवासी संसद के पक्ष में किन्तु इसे वर्ग विशेष का टकराव नहीं कह सकते। यहाँ तक कि लॉर्डस सभा और कॉमन्स सभा के सदस्यों में भी गृहयुद्ध के प्रश्न पर एकता नहीं थी। लॉड्स सभा के तीन-चौथाई सदस्य संसद की पक्ष में थे। अतः गृहयुद्ध में दलबन्दी का आधार धार्मिक भिन्नता और निजी स्वार्थ की पूर्ति थी । वस्तुत: इंग्लैंण्ड के गृहयुद्ध को सामाजिक और धार्मिक तनाव का साकार रूप की संज्ञा दी जा सकती है। इतिहासकारों के एक वर्ग के गृहयुद्ध में संसद और राजा के दलों को मार्क्स के क्रमश: बुर्जुआ प्रगतिशील एवं पूंजीपति थे व राजा के समर्थक पुराने विचार के सामन्तवादी थे। लेकिन यह सत्य साबित नहीं हुआ। इंग्लैंड का गृहयुद्ध सामाजिक तनाव एवं धार्मिक मतभेद की लड़ाई थी। यह मतभेज तथा तनाव सन् 1640 ई. तक अपनी चरम अवस्था में पहुँच चुका था और जल्द ही इसने खुले संघर्ष का रूप धारण कर लिया।
क्या चार्ल्स की दृष्टि से बादशाह पर मुकदमा चलाने का कोई वैधानिक आधार था ही नहीं, क्योंकि राजा के विरुद्ध कोई आदेश जारी नहीं किया जा सकता । पुनः न्यायालय के न्यायाधीश एक ही दल के सदस्य थे। इसलिए इन न्यायाधीशों द्वारा अपेक्षित निष्पक्षता की आशा करना बेकार ही था। वस्तुत: पहले से बनाई गई योजना को लागू करने के उद्देश्य से केवल बदले की भावना से ओतप्रोत होकर ही न्यायालय की स्थापना केवल दिखाने के लिए ही की गयी थी। ऐसे न्यायालय का अस्तित्व और उसका निर्णय वैधानिक दृष्टि से ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। राजा हत्यारे निरंकुश शासन के बदले संसदीय सरकार की स्थापना ही हो सकी और न ही सैनिक शासन में प्रजा की स्वतंत्रता सुरक्षित रह सकी। अतएव राजा के इस प्रकार की हत्या का कोई औचित्य नहीं था ।
चार्ल्स प्रथम की हत्या को मात्र राजनीतिक और चारित्रिक दृष्टिकोणों से ही सही ठहरया जा सकता है। क्रामवेल ने इस विषय में ठीक ही का था कि “यह एक निर्दयतापूर्ण आवश्यकता थी । ” ( It was a Cruel necessity) यह कदम निर्दयतापूर्वक इसलिए था कि देश संप्रभु के विरुद्ध इतना कठोर कार्य करना पड़ा। यद्यपि इसे जरूरी इसलिए कह सकते हैं कि इसके बिना इंग्लैंड में जनता की सारी आकांक्षाएं मिट्टी में मिल जाती और उनकी सारी स्वतंत्रताएँ समाप्त हो जाती। चार्ल्स प्रथम अपने अधिकारों पर किसी भी प्रकार की सीमा निर्धारित करने के लिए कतई राजी नहीं था। संसद और सेना द्वारा प्रस्तुत समझौतों के प्रस्ताव को उसने ठुकरा दिया। इसीलिए चार्ल्स प्रथम जैसे कपटी राजा को संसद और सेना ने मौत के घाट उतारने में जरा भी हिचक नहीं प्रकट की। हालांकि उसकी हत्या के बाद इंग्लैंड में सांविधानिक विकास का मार्ग खुल गया, लेकिन राष्ट्र में अमन और सुरक्षा नहीं कायम हो पायी। राजा की नृशंस हत्या के कारण देश में राजसत्ता के प्रति लोगों की आस्था में बढ़ोत्तरी हुई और अल्पकालीन शासन के बाद इंग्लैंड में सन् 1660 ई में राजसत्ता की पुनर्स्थापना हुई।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *