निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें । (i) कोर करीक्लुयम (ii) सुसम्बद्धता तथा सम्मिश्रण ।

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प्रश्न – निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें । (i) कोर करीक्लुयम (ii) सुसम्बद्धता तथा सम्मिश्रण ।

उत्तर – ‘कोर’ शब्द ‘सामान्य, केन्द्रीभूत, निश्चित एवं आवश्यक’ शब्दों के मिले-जुले रूप के पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। अतः ‘कोर करीक्युलम’ के अन्तर्गत उस ज्ञान एवं अनुभव को समाहित किया जाता है जो सभी छात्रों के लिए (चाहे वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हों) सामान्य रूप से आवश्यक माना जाता है। प्रसिद्ध पाठ्यक्रम विशेशज्ञ हिल्डा टाबा (Hilda Taba) के अनुसार, ‘कोर करीक्युलम’ में समूहित विषय-वस्तु जीवन के कार्यों, सम-सामयिक समस्याओं तथा आवश्यकताओं से सम्बन्धित विषयों में सुसम्बद्धता पर आधारित होती है। साथ ही इसके कार्यक्रमों को जीवन की समस्याओं तथा छात्रों की अभिरुचियों से सम्बद्ध करने का प्रयास किया जाता है ।

इस प्रकार कोर-पाठ्यक्रम में कुछ विषय (जिनका ज्ञान सभी के लिए आवश्यक होता है) तो अनिवार्य होते हैं तथा कुछ ऐच्छिक । ऐच्छिक विषयों को व्यक्तिगत रुचियों एवं क्षमताओं के अनुसार चुना जा सकता है । इसके अन्तर्गत प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार की समस्याओं के सम्बन्ध में ऐसे अनुभव प्रदान किये जाते हैं। जिनके द्वारा वह अपने भावी जीवन में अपने भावी जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या का सरलता से समाधान करके कुशल एवं उत्तम नागरिक बन सके । इस प्रकार इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज दोनों का विकास करना है ।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में भी राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा एक सामान्य केन्द्रीभूत पाठ्यक्रम पर आधारित की गई है जिसके अन्तर्गत भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिजास, संवैधानिक मूल्यों तथा राष्ट्रीय अस्मिता से सम्बन्धित अन्तर्वस्तु को समाहित करने का प्रयास किया गया है। ये तत्व विषयों की परिधि से हटकर भारतीय मूल्यों – सामान्य सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, लोकतन्त्र, धर्म-निरपेक्षता, समानता, सामाजिक बाधाओं का निराकरण, पर्यावरण का संरक्षण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास तथा छोटे परिवार के मानदण्ड आदि को प्रोत्साहन प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकेंगे।

(ii) सुसम्बद्धता (Correlation) – ज्ञान एक इकाई है, किन्तु इसके विशाल भण्डार को देखते हुए अपनी सुविधा के लिए मनुष्य को ज्ञान को अनेक शाखाओं एवं उप-शाखाओं में विभाजित कर लिया है। ज्ञान की इन्हीं शाखाओं एवं उप-शाखाओं से विभिन्न विषयों का उदय हुआ है । अत: कुछ विद्वानों का मानना है कि विभिन्न विषयों को पूर्णतया अलग मानकर उनका अध्ययन-अध्यापन अप्राकृतिक एवं अनुचित है। उनके अनुसार विभिन्न विषयों को परस्पर सम्बद्ध करके पढ़ाया जाना चाहिए । अतः सुसम्बद्धता की अवधारणा विभिन्न विषयों को सम्बन्धित करके पढ़ाने से विकसित हुई है। सुसम्बद्धता की अवधारणा से ही सुसम्बद्धता पाठ्यक्रम का प्रतिमान विकसित हुआ ।

सुसम्बद्ध पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विभिन्न पाठ्य-विषयों का परस्पर सम्बद्ध करके पढ़ाने के प्रयोग किये गये हैं। इसमें एक विषय का अधिगम दूसरे विषय के अधिगम का पुनर्बलन करता है । इस व्यवस्था में प्रत्येक विषय अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखता है तथा प्रत्येक के लिए विद्यालय की समय-सारिणी में अलग-अलग समय की भी व्यवस्था रहती है, किन्तु प्रयास यह किया जाता है कि एक समय पर विभिन्न विषयों के समान प्रकरणों का शिक्षण किया जाए । उदाहरणार्थ- इतिहास विषय के अन्तर्गत जिस काल का ज्ञान का प्रदान किया जा रहा हो, साहित्य के अन्तर्गत उसी काल का साहित्य भी पढ़ाया जाना चाहिए। इससे पाठ्यक्रम के बोझ को कम करने में सहायता मिल सकेगी।

सुसम्बद्धता का तात्पर्य यह नहीं है कि अनावश्यक रूप से विषयों का सम्बद्ध करने का प्रयास किया जाये या दो विषयों को इतना अधिक सम्बन्धित मान लिया जाए कि उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए । अतः समुचित सम्बद्धता निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए –

  1. सम्बद्धता विषय की प्रकृति तथा बालकों की मानसिक विकास की अवस्था पर आधारित होनी चाहिए ।
  2. किसी प्रकरण विशेष के अध्यापन में शिक्षक को तत्सम्बन्धी दूसरे विषयों की सामग्री का अधिकतम प्रयोग करना चाहिए, किन्तु इनका प्रयोग उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जहाँ वे प्रकरण को अधिक बोधगम्य बनाने में सहायक सिद्ध हों ।
  3. कुछ विषयों का पहले से ही एक समूह होता है तथा उनमें कुछ निश्चित सम्बन्ध होता है । इन विषयों को पढ़ाने में उनकी पूर्व सम्बद्धता का ध्यान रखना चाहिए । उदाहरण के लिए – गणित समूह में अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित को सम्बद्ध किया जा सकता है । इसी प्रकार उच्चरण, शब्द लेखन, वाक्य लेखन, व्याकरण एवं निबन्ध लेखन को परस्पर सम्बद्ध किया जना चाहिए ।
  4. विभिन्न विषयों के अध्ययन एवं सामुदायिक जीवन में सदैव सम्बद्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए, क्योंकि कोई भी ज्ञान जब तक मानवीय की सम ओं में सहायक नहीं होता, निरर्थक होता है । अध्ययनों का महत्त्व उनकी सामाजिक सार्थकता पर ही निर्भर करता है ।
  5. सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक अध्ययनों में भी अधिक-से-अधिक सह-सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए । इससे बोध एवं अधिगम का क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्ध स्थापित होता है। उदाहरण के लिए – निबन्ध लेखन के लिए विषय का चयन अध्ययन की अन्य शाखाओं तथा विद्यालयी जीवन के बाहर से किया जा सकता है । इसी प्रकार हस्तकार्य का अभ्यास भाषा, इतिहास एवं विज्ञान के विषयों के अन्तर्गत कराया जा सकता है तथा अंकगणितीय समस्याओं को अर्थशास्त्र, विज्ञान, उद्योग आदि विषयों से लकर सम्बद्धता स्थापित करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।

(iii) सम्मिश्रण या फ्यूजन (Fusion) : सामाजिक जीवन की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई जटिलताओं के निराकरण हेतु शिक्षाविद् एवं विषय विशेषज्ञ निरन्तर नवीन ज्ञान की खोज में रत रहे हैं, जिनक परिणामस्वरूप अनेक नये विषयों एवं उप-विषयों का उदय हुआ है तथा ज्ञान के भण्डार की सतत् होती जा रही है। ज्ञान के नवीन क्षेत्रों में विशिष्टीकरण को जन्म दिया है जिसके परिणामस्वरूप एसे व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है जो – न केवल किसी क्षेत्र विशेष बल्कि उसकी भी किसी एक विशिष्ट लघुतम इकाई के विस्तृत एवं सूक्ष्म अध्ययन में लगे हुए हैं। इन अध्ययनों के फलस्वरूप ज्ञान के भण्डार में और बढ़ोत्तरी होती जा रही है । अतः मनुष्य को अपने सफल दैनन्दिन जीवन के लिए अधिक-से-अधिक विविध प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक होता जा रहा है । मनुष्य के लिए ज्ञान की इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु अनिवार्य सामान्य पाठ्यक्रम के पाठ्य-विषयों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है तथा बालकों के बस्ते को बोझ बढ़ता ही जा रहा है । इस प्रकार पाठ्यक्रम बहुत अधिक बोझिल हो गया है । पाठ्यक्रम की बोझिलता का एक प्रमुख कारण यह भी है कि किसी भी विषय को, उसकी उपादेयता को कम किये बिना पाठ्यक्रम से निकाल * पाना कठिन होता है ।

इस स्थिति का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण करने के उपरान्त शिक्षाविदों तथा विषय-विशेषज्ञों ने इसका समाधान इस रूप में प्रस्तुत किया कि अधिकाधिक आवश्यक ज्ञान को कम समय में प्रदान करने हेतु मिलते-जुलते विषयों को सम्मिश्रण या समूहीकरण करके उन्हें एक अध्ययन-क्षेत्र के रूप में पढ़ाया जाये । पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करने की दृष्टि से पाठ्य-विषयों का विश्लेषण करने पर यह अनुभव किया गया है कि जहाँ एक ओर कोई भी विषय ऐसा नहीं लगता जिसे अनिवार्य सामान्य पाठ्यक्रम (कोर करीक्युलम) से पूर्णतया बाहर निकाल दिया जाए, वहीं दूसरी ओर लगभग सभी विषयों में कुछ प्रकरण अथवा अंश ऐसे हैं जिन्हें निकालने से कोई विशेष नुकसान नहीं है । इसी प्रकार कुछ प्रकरणों की विस्तृत विवेचना के स्थान पर उनकी सामान्य चर्चा से भी काम चल सकता है ।

इन निष्कर्षों ने सम्मिश्रण अथवा समूहीकरण (Fusion) की अवधारणा को जन्म दिया । अत: फ्यूजन से तात्पर्य ज्ञान के विस्तृत क्षेत्र के आवश्यक अंगों को सम्मिश्रित ढंग से प्रस्तुत करना है। इस प्रकार फ्यूजन के अन्तर्गत स्कूल स्तर पर इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र विषयों को सम्मिश्रित या समूहीकरण करके ‘सामाजिक विज्ञान’ के रूप में तथा भौतिकी, रसायन, वनस्पति विज्ञान, प्राणिविज्ञान आदि वैज्ञानिक विषयों को सम्मिश्रित कर ‘सामान्य विज्ञान’ विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है । फ्यूजन के अन्तर्गत विभिन्न अधिगम क्षेत्रों का भी समूहीकरण किया जाता है। उदाहरण के लिए सुलेख, वर्तनी, उच्चारण, पठन तथा अन्य भाषा- कौशल भाषा-कला के रूप में पढ़ाया जाता है। इसी प्रकार कुछ विषयों को उप-विषयों के रूप में समूहीकृत किया जाता है जैसे- अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित को गणित के अन्तर्गत ही पढ़ाया जाता है ।

इस प्रका ‘फ्यूजन’ की अवधारणा से मिश्रित पाठ्यक्रम (Fused Curriculum) अथवा व्यापक क्षेत्रीय पाठ्यक्रम (Broad Eield Vurriculum) का उदय हुआ है ।

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