पाठ्यक्रम विकास से क्या तात्पर्य है ? उसकी आवश्यकता एवं महत्व पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – पाठ्यक्रम विकास से क्या तात्पर्य है ? उसकी आवश्यकता एवं महत्व पर प्रकाश डालें ।

उत्तर- पाठ्यक्रम विकास शिक्षा के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने की एक अभिन्न प्रक्रिया है । वास्तव में पाठ्यक्रम वह क्षेत्र है जिससे शिक्षण प्रक्रिया विकास की ओर अग्रसित होती है। शिक्षण प्रक्रिया पाठ्यक्रम में नये-नये संशोधन करने का प्रयास करती है और प्रतिफलस्वरूप पाठ्यक्र शिक्षण प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बनाता है ।

शिक्षण प्रक्रिया में पाठ्यक्रम उद्देशों की प्राप्ति का एक प्रमुख साधन है जो आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं को प्रकट करते हैं क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, अतः समय परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताएँ एवं विचार परिवर्तित होते रहते हैं। यही कारण है कि विद्यालयों में शिक्षण पाठ्यक्रम राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुसार बदलता एवं संशोधित होता रहता है । आधुनिक युग में विद्यालय पाठ्यक्रम भी आधुनिक हो गया आज मनुष्य अपने बच्चों को नवीन एवं आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ संबंधित देखकर गर्व अनुभव करते हैं। लेकिन कुछ लोग इसकी आलोचनात्मक व्याख्या भी करती हैं ।

पाठ्यक्रम विकास की आवश्यकता (Need of curriculum development) : शिक्षक शिक्षार्थी तथा विद्यालयी पाठ्यक्रम परस्पर संयोजित एवं अन्तः निहित हैं। शिक्षक का प्रमुख कार्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना होता है । जिस स्थान पर वह यह कार्य संपन्न किया जाता है, उस स्थान को विद्यालय कहा जाता है। शिक्षक को विद्यालय पाठ्यक्रम के द्वारा ही यह ज्ञात होता है कि उसे क्या तथा कैसे करना चाहिए । पाठ्यक्रम के अभाव में कोई भी शिक्षक विद्यार्थी की वृद्धि एवं विकास नहीं कर सकता अतः विद्यार्थी की वृद्धि तथा विकास के लिए हमें इस प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है, जो विद्यार्थी की वृद्धि एवं विकास से सम्बन्धित हो और उन्हें अपने निर्धारित लक्ष्यों तक पहुँचा सके । अतः हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में वृद्धिशील तथा विकासशील पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों को मार्ग दर्शन कर सके ।

पाठ्यक्रम विकास का महत्त्व (Importance of curriculum development) : पाठ्क्रम के महत्त्व या उपयोगिता (Utility) पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कनिंघम (Cunningham) लिखते हैं “यह (पाठ्यक्रम) कलाकार (शिक्षक) को हाथों में एक ऐसा उपकरण है जिसकी सहायता से वह अपनी सामग्री (छात्र) का अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार अपने कलागृह (विद्यालय) में निर्माण करता है । ”

It (curriculum) is a tool in the hands of the artist (teacher) to mould his material (pupil) according to his ideal (objectives) in his studio ( school).”

शिक्षण तकनीकी के रूप में देखें तो हम पाते हैं कि किसी भी शैक्षिक प्रक्रिया के तीन पहलू होते हैं—(1) शिक्षा क्यों ? (why of Education), (2) शिक्षा कैसे (How of Education) तथा (3) शिक्षा में क्या (What of Education) । इसमें प्रथम पहलू – ‘शिक्षा क्यों’ का सम्बन्ध शिक्षा के उद्देश्यों से होता है, ‘शिक्षा कैसे’ का सम्बन्ध शिक्षण विधियों से होता है तथा ‘शिक्षा में क्या’ का सम्बन्ध शिक्षा के पाठ्यक्रम से होता है इस प्रकार पाठ्यक्रम का सीधा सम्बन्ध शिक्षा के उद्देश्य तथा शिक्षण विधियों से होता है । पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक साधन है तथा शिक्षण विधियों का चयन भी अध्यापक पाठ्यक्रम के अनुसार ही करता है । इस प्रकार पाठ्यक्रम उद्देश्यों तथा शिक्षण विधियों दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण है।

पाठ्यक्रम की महत्ता तथा उपयोगिता निम्नांकित बिन्दुओं से भी स्पष्ट है –

  1. सुव्यवस्थित शिक्षा व्यवस्था (Well-organised Education System)- पाठ्यक्रम प्रचलित शिक्षा व्यवस्था तथा प्रणाली को सुव्यवस्थित करता है। इससे यह निश्चित करने में सुविधा रहती है कि शिक्षा के किस स्तर पर कौन-कौन से अनुभव प्रदान करने हैं । पाठ्यक्रम की सहायता से ही यह निश्चित करने में सुविधा रहती है कि छात्रों में विभिन्न स्तरों पर कौन-कौन सी दक्षताएँ, तथा रुचियों का विकास करना है ।
  2. उद्देश्यों की प्राप्ति (Attainment of Objectives) समाज की सैक्षिक आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किय जाता है। पाठ्यक्रम के अभाव में शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति असम्भव है। पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षण कार्य सम्भव नहीं है ।
  3. शिक्षण सामग्री का निर्धारण (Determination of Study Material) – पाठ्यक्रम हमें है कि क्या पढ़ाना है । इसकी सहायता से शिक्षा के विभिन्न स्तरों तथा कक्षाओं के लिए पाठ्य-सामग्री का निर्धारण करने में सहायता मिलती है। पाठ्यक्रम ही बताता है कि विभिन्न कक्षाओं में क्या पढ़ाया जाय । जहाँ सुस्पष्ट पाठ्यक्रम नहीं होता है वहाँ यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि शिक्षक द्वारा क्या पढ़ाया जाय ।
  4. स्तर बनाये रखने में सहायक (Helpful in Maintain the Standard)- सुनिश्चित पाठ्यक्रम शिक्षा के स्तर को बनाये रखने में सहायता करता है पाठ्यक्रम ही वह तत्त्व है जो विभिन्न कालों तथा समाजों में शिक्षा के स्तर में एकरूपता लाता है । पाठ्यक्रम के आधार पर ही दो या अधिक-प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव हो पाता है । पाठ्यक्रम के विश्लेषण से हम बहुत मात्रा में शिक्षा के स्तर के उत्थान एवं पतन का भी विश्लेषण कर सकते हैं ।
  5. मूल्यांकन प्रक्रिया में सहायक (Helpful in Evaluation Process)-पाठ्यक्रम के कारण ही मूल्यांकन प्रक्रिया सरल, सहज तथा वैज्ञानिक बनती है । निश्चित पाठ्यक्रम होने पर ही छात्रों की योग्यताओं तथा क्षमताओं का सही मूल्यांकन सम्भव हो पाता है । पाठ्यक्रम के अभाव में मूल्यांकन किया जायेगा तो उसमें वैधता एवं विश्वसनीयता का अभाव होगा ।
  6. पाठ्य पुस्तकों के निर्माण में सहायक (Helpful in Preparing Textbooks)पाठ्यक्रम की सहायता से ही सुनिश्चित पाठ्य पुस्तकों की रचना करना सम्भव होता है । पाठ्यक्रम के अभाव में सामान्य पुस्तकें तो लिखी जा सकती हैं परन्तु पाठ्य-पुस्तकें नहीं । हम यह भी जानते हैं कि पाठ्य पुस्तकों के अभाव में शिक्षा को व्यवस्थित रूप करना सम्भव नहीं होता है ।
  7. उचित शिक्षण विधियों का चयन (Selection of Proper Teaching Method)पाठ्यक्रम ही शिक्षण विधियों का निर्धारण करता है। जैसा पाठ्यक्रम होगा तदनुरूप ही शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जाता है यही कारण है कि हिन्दी भाषा की शिक्षण-पद्धतियाँ रसायन विज्ञान की शिक्षण पद्धतियों से भिन्न होती हैं । पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षक के लिए शिक्षण विधियों का चयन करना बड़ा कठिन हो जाता है ।
  8. समय एवं शक्ति की बचत (Saving of Time and Energy)-पाठ्यक्रम के कारण ही शिक्षक तथा छात्र अनेकानेक निरर्थक क्रियाओं से बच जाते हैं। वे अपनी क्रियाओं को पाठ्यक्रम की सीमाओं में ही सीमित रखते हैं । इससे उनके समय तथा शक्ति की बचत होती है । पाठ्यक्रम के कारण ही अध्यापक यह सुनिश्चित कर पाता है कि उसे क्या और कब पढ़ाना है । वह अपने शिक्षण की योजना बना पाता है तथा छात्र भी यह जान लेते हैं कि उन्हें क्या और कब पढ़ाना है। पाठ्यक्रम के कारण इन्हें इधर-उधन भटकने की आवश्यकता नहीं रहती है । इससे छात्र एवं शिक्षण दोनों को ही सुविधा मिलती है ।
  9. दार्शनिक चिन्तन की पहचान (Identification of Philosophical Thinking)येक पाठ्यक्रम पर तत्कालीन प्रचलित दार्शनिक चिन्तन की छाप होती है। जैससा दार्शनिक चिन्तन प्रचलित होगा, तदनुरूप ही पाठ्यक्रम विकसित होगा । यही कारण है कि आदर्शवादी प्रकृतिवादी, यथार्थवादी, साम्यवादी, समाजवादी तथा प्रयोजनवादी दार्शनिक विचारधाराओं में हम पृथक-पृथक प्रकार के पाठ्यक्रम देखते हैं। वास्तव में ये दर्शन पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति की आशा रखते हैं। पाठ्यक्रम से हम दार्शनिक चिन्तन का पता लगता सकते हैं ।

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