पिछड़े बालक से आप क्या समझते हैं ? पिछड़े बालक हेतु कक्षा-कक्ष शिक्षण की विवेचना करें।

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प्रश्न – पिछड़े बालक से आप क्या समझते हैं ? पिछड़े बालक हेतु कक्षा-कक्ष शिक्षण की विवेचना करें।
(What do you understand by backward children? Discuss the lassroom teaching for backwad children.)
उत्तर— पिछड़े बालकों के पिछड़ेपन के कारणों का सम्बन्ध उनके परिवार, विद्यालय तथा समाज व उनके अपने शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास के स्वरूप से होता : । इस संदर्भ में शिक्षाशास्त्रियों का विचार है— “समाजसेवकों और विद्यालय चिकित्सकों को मिलकर कार्य करना चाहिए ताकि पिछड़ेपन के कारणों की खोज की जा सके और उन बालकों के लिए उचित आधारों का प्रयोग किया जा सके ।” पिछड़े बालकों के पिछड़ेपन का निदान होने के बाद उन्हें सामान्य स्तर पर लाने के लिए उपचार व शिक्षा के सम्बन्धन में कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं —
  1. शारीरिक दोषों एवं रोगों का उपचार – कम सुनायी पड़ने वाले या कम देखने वाले छात्रों को आगे लाएँ व उनके बारे में जानकारी लें कि उन्हें समझ में आ रहा है या हीं तथा धीरे-धीरे व सहज ढंग से पढ़ाएँ ।
  2. पारिवारिक वातावरण में सुधार – बालकों के परिवार का वातावरण अच्छा न हो उसमें सुधार लाया जाए । इस संदर्भ में माता-पिता व परिवार के सदस्यों में तालमेल व ागरूकता लाई जाए तथा अच्छा पड़ौस व विद्यालय तथा परिवार का सहयोग काफी आवश्यक है ।
  3. आर्थिक सहायता – जो बालक निर्धन परिवार से सम्बन्धित हों उन्हें निःशुल्क शिक्षा था छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था हो ताकि वे शिक्षा के लिए आर्थिक रूप से सुदृढ़ हों ।
  4. विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था – पिछड़े बालकों का मन पढ़ने में लगे व उससे फलता मिले इसके लिए आवश्यक है कि विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाए । ठ्यक्रम में सरल विषयों को स्थान दें जो उनकी मानसिक योग्यता, रुचि, आवश्यकता के अनुकूल हों तथा वह उनके जीवन के लिए उपयोगी, जीवन से संबंधित और व्यावसायिक द्देश्यों की पूर्ति करने वाला हो। इसके लिए बुनियादी शिक्षा बहुत उपयुक्त हो सकती है योंकि व्यावसायिक पाठ्यक्रम ही ऐसे बच्चों के भविष्य को बना सकता है ।
  5. बालकों के प्रति संतुलित व सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण – माता-पिता, अभिभावकों, राक्षकों को चाहिए कि वे पिछड़े हुए बालकों के प्रति संतुलित दृष्टिकोण रखें और उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें ताकि उन्हें अपने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए स्वयं प्रेरणा प्राप्त हो और वे अपने को सामान्य बालकों के स्तर पर लाने का स्वयं प्रयास करें।
  6. विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग पिछड़े हुए बालकों के शिक्षण को संभव बनाने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि उनके शिक्षण में उनकी ग्रहण क्षमता रुचि और बौद्धिक स्तर के अनुकूल शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए। ये शिक्षण विधियाँ इस प्रकार हैं –
    1. सरल व रुचिकर शिक्षण विधियों का प्रयोग हो ।
    2. शिक्षण में विशेष सहायक सामग्रियों का प्रयोग हो जैसे दृश्य-श्रव्य सामग्री, वस्तुचित्र आदि ।
    3. मौखिक शिक्षण विधि का कम-से-कम प्रयोग किया जाए
    4. पढ़ाने की गति धीमी रहे। एक बार में अधिक न पढ़ाएँ ।
    5. शारीरिक क्रियाओं तथा प्रयोगात्मक कार्यों पर अधिक बल दिया जाए । इस प्रकार उनकी शिक्षण विधि विशेष रूप से करके सीखने पर आधारित हो ।
    6. अर्जित ज्ञान का बार-बार अभ्यास कराया जाए ।
    7. समय-समय पर ऐतिहासिक, भौगोलिक व सांस्कृतिक स्थानों पर भ्रमण के लिए जाया जाए ।
    8. पाठ्य सहगामी क्रियाओं जैसे खेलकूद, कवि – गोष्ठी, वाद-विवाद प्रतियोगिता, अभिनय आदि का समय-समय पर आयोजन किया जाए ।
    9. नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए ।
  7. व्यक्तिगत ध्यान – पिछड़े बालकों के अध्ययन को सफल बनाने के लिए तथा सामान्य स्तर पर लाने के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर विशेष ध्यान रखा जाए। इसके लिए कक्षा में छात्रों की संख्या कम होनी चाहिए ।
  8. विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना – पिछड़े बालकों के अध्ययन को सफल बनाने के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना करना आवश्यक है जिनमें एक ही समान बालकों की शिक्षा संभव हो सके । इस प्रकार के विद्यालयों के बालकों में हीनता की भावना ग्रन्थि उत्पन्न नहीं हो पाती है। उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलता है जबकि सामान्य बालकों के साथ पढ़ने पर उनमें हीन भावना आ जाती है और वे निरुत्साहित होकर और अधिक पिछड़ जाते हैं।
  9. विशिष्ट कक्षाओं की विद्यालया में व्यवस्था – यदि पिछड़े बालकों के लिए पृथक विद्यालय न हो सके तो उनके लिए प्रत्येक विद्यालय में सामान्य छात्रों से पृथक विशिष्ट कक्षाएँ स्थापित की जाएँ। ये कक्षाएँ श्रेणीरहित होनी चाहिए ताकि छात्र अपनी रुचि व सम्मान के अनुकूल शिक्षा पा सके ।
  10. योग्य एवं सुप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति – पिछड़े बालकों की शिक्षा को सफल बनाने के लिए योग्य, अनुभवी तथा सुप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाए जो कि बालकों से सहानुभूति रखते हैं व उनसे निकट सम्पर्क रखें तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षण कार्य करें ।
  11. हस्तशिल्पों की शिक्षा – पिछड़े बालकों में तर्क और चिन्तन की शक्तियों का अभाव होता है । अतः, उनके लिए मूर्त विषयों के रूप में हस्तशिल्पों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए । बालकों की कताई – बुनाई, जिल्दसाजी व टोकरी बनाने के अतिरिक्त अगर तकनीकी कार्यों में रुचि है तो प्लम्बर, लकड़ी का काम व बिजली का कार्य सिखाया जाय साथ ही धातु, लकड़ी, बेंत व चमड़े का काम और लड़कियों को काढ़ना, बुनना, सिलाई, भोजन बनाना आदि । इसके अतिरिक्त उनकी रुचि के विषयों-कला, मेहदी, नृत्य व संगीत की शिक्षा देकर उनकी बौद्धिक अभिक्षमता कम होने पर भी कलात्मक अभिक्षमता को निखारा जा सकता है ।

इसके अतिरिक्त छोटे समूहों में शिक्षा, संस्कृति की शिक्षा आदि दी जानी चाहिए ताकि पिछड़े बालकों को कक्षा के योग्य व्यावहारिक शिक्षा दी जाए और उनके पिछड़ेपन को दूर गुणों व शिक्षा से उभारकर नवीनता लाई जा सके ।

पिछड़े बालकों हेतु कक्षा कक्ष शिक्षण
(Classroom Teaching For Backward Children) 
  1. विशेष कक्षाएँ (Special Classes) — ऐसी कक्षाओं तथा विषयों में जहाँ पिछड़े बालकों की संख्या अधिक होती है उन्हें सामान्य बालकों के साथ पढ़ाना लाभप्रद नहीं हो सकता है बल्कि निरन्तर असफलता से ये बालक मनोवैज्ञानिक हीनता के शिकार हो जाते हैं । अतः, इससे पहले कि ये लगातार कक्षा में फेल होते रहें उनके लिए पृथक कक्षाओं की व्यवस्था सामान्य विद्यालयों में ही कर दी जानी चाहिए ।
    पृथक कक्षाओं में इन बालकों के समक्ष समायोजन व कुण्ठा जैसी समस्याएँ उत्पन्न नहीं होतीं । अध्यापक भी अब इनकी शैक्षिक प्रगति, आलेख, बौद्धिक क्षमता स्तर व उनकी विशिष्ट कमजोरियों को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षण सामग्री को विविध एवं सरल तरीकों से उनके समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, क्योंकि कक्षा में सभी बालकों का शैक्षिक उपलब्धि स्तर लगभग एक सा होता है। शिक्षक के समक्ष गति की समस्या भी नहीं आती है । वह बालकों की आवश्यकता के अनुसार किसी भी विषय इकाई की कक्षा में पुनरावृत्ति कर सकता है । उनके लिए पृथक् लक्ष्य निर्धारित कर सकता है । इसके अतिरिक्त सामान्य कक्षाओं में इन बालकों को औसत अथवा उच्च क्षमता वाले बालकों में प्रतिस्पर्धा करनी होती है जबकि इन विशेष कक्षाओं में सभी का स्तर लगभग समान होता है । अतः, वे अपने आप को अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं। शिक्षक द्वारा विशेष ध्यान दिए जाने के कारण ये विषय में रुचि भी लेने लगते हैं ।
    कुछ शिक्षाविद् पृथक् कक्षाओं की व्यवस्था को उचित नहीं मानते। उनके अनुसार सामान्य बालकों से अलग कर दिए जाने पर उनमें यह भावना घर कर सकती है कि उन्हें पिछड़ा हुआ समझा जाता है तथा सभी बालकों का स्तर निम्न होने के कारण आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन का भी अभाव हो सकता है । इसके अलावा संभव है कि वे समान प्रवृत्ति के बालकों के साथ रहने के कारण समस्यात्मक बालक बन जाएँ ।
  2. विशेष विद्यालय ( Special Schools) — ऐसे पिछड़े बालकों के संदर्भ में जिनमें पिछड़ेपन का कारण बौद्धिक न्यूनता या मन्दन अथवा कोई अत्यधिक विषम शारीरिक विकलांगता होती है, विशेष विद्यालयों की व्यवस्था करना ही न्यायोचित रहता है, क्योंकि उनकी अक्षमता इस स्तर की होती है कि वे सामान्य रूप से प्रयोग में आने वाली शिक्षण सामग्री तथा सहायक उपकरणों की आवश्यकता होती है जिन्हें सामान्य विद्यालयों में उपलब्ध करना संभव नहीं होता है । मानसिक न्यूनता व शारीरिक विकलांगता वाले बालकों के लिए पृथक्-पृथक् विद्यालय होते हैं । मानसिक न्यूनता वाले बालकों को जिन्हें किसी भी प्रकार से शिक्षित नहीं किया जा सकता है कुछ ऐसे व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे वे समाज पर बोझ न बनें व अपना जीवन यापन स्वयं कर सकें। इसके अतिरिक्त उन्हें सामाजिकता के सामान्य नियमों व अपने स्वयं के कार्यों को भली प्रकार कर सकने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ।
    शारीरिक रूप से विकलांग बालकों को उनकी विकलांगता की सीमा व प्रकृति के अनुरूप सहायता उपकरणों के उपयोग से शिक्षित किया जाता है। इन्हें भी व्यावसायिक व सामाजिकता का प्रशिक्षण दिया जाता है। विकलांगता के पूर्ण रूप से दूर हो जाने पर ( उपचारात्मक तरीकों से) इन बालकों को सामान्य विद्यालयों में स्थानान्तरित किया जा सकता है।
  3. विशिष्ट पाठ्यक्रम (Specified Curriculum) – सामान्य रूप से पाठ्यक्रम का निर्धारण औसत क्षमता वाले बालकों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। पिछड़े बालक (विशेष रूप से बौद्धिक न्यूनता वाले बालक) इस पाठ्यक्रम को कुशलता के साथ पूर्ण करने में असफल रहते हैं । अतः, उनके लिए सरल एवं छोटे पाठ्यक्रमों का, जो उनकी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, क्षमताओं व रुचियों के अनुरूप हो, निर्धारण करना उपयोगी रहता है। इन बालकों को विद्वान बनाने के स्थान पर उपयोगी नागरिक व कुशल कार्यकर्त्ता बनाना इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य होना चाहिए तथा काष्ठ शिल्प, गृह शिल्प, पुस्तक शिल्प आदि को इनके पाठ्यक्रम में समावेशित किया जाना चाहिए ।
  4. शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods) – न्यून बौद्धिक क्षमता अथवा विषय इकाई के मूल सिद्धान्तों की अज्ञानता के कारण पिछड़े बालक सामान्य रूप से प्रचलित शिक्षण विधियों जैसे— व्याख्यान, व्याख्यान – प्रदर्शन आदि से सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । अतः, इनके शिक्षण के लिए इन विधियों में पर्याप्त परिमार्जन की आवश्यकता होती है। इन्हें स्थूल सामग्री और प्रत्यक्ष अनुभवों की सहायता लेकर तथा विषय-वस्तु की छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटकर सरल तरीकों से पढ़ाया जाना चाहिए । पढ़ाई गई इकाइयों की बार-बार पुनरावृत्ति व अभ्यास भी बहुत आवश्यक होता है। दृश्य-श्रव्य सामग्री का आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए तथा उन्हें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते रहना चाहिए | सांवेगिक अथवा अन्य कारणों से पिछड़ जाने वाले बालकों के लिए अभिनय, प्रोजेक्ट विधि, खेल विधि आदि नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग इस उपचारात्मक शिक्षण में विशेष महत्त्व रखता है।
  5. विशेष अध्यापक ( Special Teachers ) – पिछड़े बालकों के लिए विशेष कक्षाओं, विशिष्ट पाठ्यक्रम व परिमार्जित शिक्षण विधियों को अपनाने का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है जबकि शिक्षक सब परिवर्तनों को प्रभावी व सफल रूप दे सके । ऐसा शिक्षक अधिक व्यावहारिक व अनुभवी होना चाहिए। उसे बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान हो, बालकों की विशिष्ट कमियों व कठिनाइयों को समझने की क्षमता व रुचि रखता हो तथा उसमें पर्याप्त धैर्य हो ताकि वह बालकों के लगातार असफल होने पर भी अपने आपको निरन्तर सफलता के प्रयास के काम में लगाए रखे ।
  6. पाठ्यान्तर क्रियाएँ, विविध अनुभव तथा वर्गीकृत पाठ्यक्रम (Co-curricular Activities, Varied Experiences and Diversified Courses) — विद्यालयों में पाठ्यान्तर् क्रियाओं की उचित व्यवस्था का न होना प्रायः सामान्य व उच्च प्रतिभा सम्पन्न बालकों में भी शिक्षा के प्रति अरुचि उत्पन्न कर देता है। उच्च प्रतिभासम्पन्न बालक की अपनी विशेष क्षमताओं व जिज्ञासाओं की संतुष्टि के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो पाते हैं; जैसे— पुस्तकालय में उनके स्तर की ज्ञानवर्धक अथवा स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने वाली पुस्तकों का अभाव, खेल कक्ष में खेल सामग्री का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना, शैक्षिक उद्देश्य के परिश्रमण व पिकनिक की व्यवस्था का न होना आदि। इन्हीं सब कारणों से ये बालक कुण्ठित हो जाते हैं। शिक्षा के प्रति अरुचि दिखाते हैं और अपनी क्षमताओं के अनुरूप उपलब्धि का प्रदर्शन नहीं करते। अतः इन्हें भी पिछड़े बालकों की श्रेणी में शामिल कर लिया जाता है | अन्य सामान्य क्षमताओं वाले, शैक्षिक रूप से पिछड़े तथा बौद्धिक न्यूनताओं वाले बालकों के लिए भी पाठ्यान्तर क्रियाओं का इतना महत्त्व होता है। अतः, समस्त वर्गों के पिछड़े बालकों के लिए विशिष्ट पाठ्यक्रम के अतिरिक्त खेल-कूद, मनोरंजन व पुस्तकालय आदि की उचित व्यवस्था का होना अति आवश्यक हैं। साथ ही बालकों को उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप अभिनय, नृत्य, संगीत, कला व नेतृत्व प्रदर्शन के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। संभव हो तो इन्हें अभिव्यक्त कलाओं का भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाए। इसके अतिरिक्त इन बालकों को अपनी विशिष्ट क्षमताओं, रुचियों, आयु व बौद्धिक स्तर अनुरूप वर्कशॉप प्रशिक्षण, विभिन्न हस्तकलाओं का प्रशिक्षण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, ऑनर्स पाठ्यक्रम, एन.सी.सी., सुरक्षा नियमों, प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उनमें निश्चित रूप से शिक्षा के प्रति उचित दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सहायक होगी ।
  7. समय-सारणी ( Time Table ) – पिछड़े बालक प्रायः अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते तथा सामान्य बालकों के साथ प्रगति में असमर्थता का अनुभव करते हैं । अतः, इनके लिए समय-सारणी का निर्धारण पृथक् रूप से किया जाना उचित रहता है । यह समय-सारणी लचीली होनी चाहिए तथा उसमें पीरियड्स छोटे होने चाहिए । संभव है कि ये बालक कभी किसी विषय की विशेष समस्या को समझने व सीखने में सामान्य से अधिक समय ले लें अथवा अभी किसी विषय को निर्धारित पीरियड में पढ़ने में अरुचि दिखाएँ । अतः सामान्य कंक्षाओं में भी पिछड़े बालकों की समस्याओं को दूर करने के उद्देश्य से समय-सारणी में परिवर्तन करने की स्वतंत्रता शिक्षक व्यवस्थापकों को होनी अनिवार्य है । इसके अतिक्ति समय-सारणी बनाते समय इन बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न पाठ्येत्तर व पाठ्यान्तर क्रियाओं को भी उचित महत्त्व, स्थान व समय मिले इसका ध्यान रखना चाहिए ।
  8. परीक्षा प्रणाली ( Examination System)– कभी-कभी दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली भी बालकों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी होती है। जैसे— सभी प्रश्न-पत्रों का पूर्ण रूप से आत्मनिष्ठ होना, परीक्षा में पाठ्यक्रम से बाहर की विषय वस्तु पर प्रश्न पूछ लेना, प्रश्न-पत्र की भाषा का अस्पष्ट होना, बालक को प्रत्युत्तर देने के लिए पर्याप्त समय न मिल पाना, परीक्षकों द्वारा उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन में लापरवाही बरतना तथा सभी बालकों के लिए समान मानकों का निर्धारण कर देना आदि । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पिछड़ापन समान आयु वर्ग व समान क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि के आधार पर आँका जाना चाहिए न कि कक्षा के सभी विभिन्न आय वर्गों व क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि के आधार पर । अतः, परीक्षकों को चाहिए कि पिछड़े वर्ग की शैक्षिक उपलब्धि परीक्षा लेते समय इन सब बातों का ध्यान रखें, प्रश्न-पत्रों को अधिक वस्तुनिष्ठ बनाएँ, सरल भाषा का प्रयोग करें तथा प्रश्न-पत्र में उन सभी पाठ्यांशों से प्रश्न पूछे जिनको वह कक्षा में पढ़ा चुके हैं । प्रायः कुछ धीमी गति से सीखने व प्रत्युत्तर देने वाले बालक प्रश्न-पत्र को पूरा करने में सामान्य से अधिक समय लेते हैं । अतः, समय का निर्धारण इन बालकों की गति को ध्यान में रखते हुए करें । साथ ही इन बालकों के मूल्यांकन में प्राप्तांकों के अतिरिक्त उनके शैक्षिक व व्यक्तिगत इतिहास, एनेकडोट्ल आलेख, प्रगति आख्या, सामूहिक आलेख आदि का समावेश रहना चाहिए ।

परीक्षण प्रणाली व मूल्यांकन के तरीकों में परिमार्जन के अतिरिक्त पिछड़े बालकों की उपलब्धि को बढ़ाने के लिए परीक्षाफल को शीघ्र घोषित करना चाहिए तथा सफल व असफल दोनों ही वर्गों के बालकों को किसी न किसी रूप में प्रोत्साहित करते रहना चाहिए और फीडबैक, पुरस्कार तथा प्रलोभन आदि का प्रयोग करना चाहिए ।

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