पॉवलव के अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की विवेचना करें।

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प्रश्न – पॉवलव के अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की विवेचना करें।
(Discuss the Pavlove’s Classical Conditing theory.)

उत्तर – इस सिद्धान्त को अनुकूलित-अनुक्रिया का सिद्धान्त, प्रतिस्थापन सिद्धान्त तथा अनुबन्धन सिद्धान्त आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। वास्तव में अनुबन्धन का सिद्धान्त शरीर विज्ञान का सिद्धान्त है तथा इस अनुबन्धन क्रिया में उद्दीपन और प्रतिक्रिया में सम्बन्ध द्वारा सीखने पर बल दिया जाता है । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 1904 में रूसी शरीर शास्त्री आई०पी० पॉवलव ने किया था ।

इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए विद्वानों ने लिखा है कि अनुकूलित-अनुक्रिया का अर्थ अस्वाभाविक उत्तेजना के प्रति स्वाभाविक क्रिया करने से है । उदाहरणार्थ – किसी काले रंग की वस्तु को देखकर बालक का डर जाना अथवा गोल-गप्पे की दुकान देखकर लड़की के मुँह में पानी भर आना । धीरे-धीरे यह एक स्वाभाविक क्रिया बन जाती है । एक और उदाहरण लीजिए – मान लीजिये, कोई ‘तोताराम’ कहने से चिढ़ता है तो कोई ‘भगत जी’ कहने से और कोई ‘जलेबी’ की बात से । ऐसी इसलिए होता है कि चिढ़ने वाले व्यक्ति के जीवन में कोई ऐसी घटना घटित हो जाती है कि जिसकी याद आते ही उसे दुःख का अनुभव होता है । उस शब्द के स्मरण मात्र से वह दुःख पुनः जाग उठता है और व्यक्ति चिढ़ने लगता है । यह सब अचानक ही नहीं होता है बल्कि इस तरह की भावनाएँ धीरे-धीरे मन में घर कर रही हैं । अतः, इस प्रक्रिया में पहले जीवन में कोई अप्रिय घटना घटित होती है अप्रिय घटना का कोई विशेष कारण होता है। कारण किसी शब्द से जुड़ जाता है और उस शब्द को सुनते ही वह घटना ताजा हो जाती है। घटना से दुःख की अनुभूति होती है और अनुभूति से व्यक्ति दुःख का आभास होने के कारण चिढ़ने लगता है। इस उदाहरण से जिसे सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है उसका मूल आधार व्यक्ति की परिस्थिति सापेक्ष व्यवहार हैं। इसलिए कुछ लोग इसे व्यवहारवादी सिद्धान्त भी कहते हैं । व्यवहारवादियों में इस सिद्धान्त को मानने वालों में पॉवलाव, स्किनर तथा वाटॅसन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।

श्री लेस्टर एण्डरसन ने इस सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि कुछ मूल उद्दीपकों के प्रस्तुत किए जाने पर जो क्रियाएँ होती हैं उन्हें सहज या स्वाभाविक क्रियाएँ कहते हैं । अब यदि इस मूल उद्दीपक के साथ एक नया उद्दीपक और जोड़ दिया जाए और इसकी बार – बार पुनरावृत्ति की जाए तो एक स्थिति ऐसा आ जाती है कि यदि मूल उद्दीपक को हटा दिया जाए और उसके स्थान पर केवल नवीन उद्दीपक ही रहने दिया जाए तब भी व्यक्ति वही प्रतिक्रिया करता है जो उसने मूल उद्दीपक के साथ की थी । ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रतिक्रिया नए उद्दीपक के साथ सम्बद्ध हो जाती है। यही अनुकूलित-अनुक्रिया का सिद्धान्त है।

इस तथ्य की सामान्य व्याख्या इस प्रकार है—

“इस तथ्य की सामान्य व्याख्या यह है कि जब दो उत्तेजनाएँ बार-बार दी जाती हैं, पहले नई बाद में मौलिक, तो कुछ समय बाद पहली क्रिया भी प्रभावशाली हो जाती है । ”

पॉवलाव का प्रयोग (Pavlov’s Experiment) — पॉवलाव ने अपने पालतू कुत्ते पर प्रयोग किया | उसने एक ध्वनि रहित कक्ष तैयार कराया तथा कुत्ते को भूखा रखकर प्रयोग करने वाली मेज के साथ बाँध दिया । कक्ष में एक खिड़की थी जिसमें से सब कुछ देखा जा सकता था | पॉवलाव ने कुत्ते की लार नली को काटकर इस प्रकार नियोजित भी किया ताकि कुत्ते के मुँह से टपकने वाली लार स्वतः ही काँच की ट्यूब में एकत्रित हो जाए । प्रयोग का आरम्भ इस प्रकार किया जाता था । पॉवलाव ने कुत्ते के सामने गोश्त का टुकड़ा रखा । स्वाभाविक है गन्ध और स्वाद के कारण गोश्त को देखते ही कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगी और वह काँच की ट्यूब में एकत्रित होती गई । एकत्रित हुई लार की मात्रा को माप लिया गया । प्रयोग के दूसरे चरण में पॉवलाव ने भोजन रखने के साथ-साथ घण्टी भी बजायी और कुत्ते के व्यवहार का निरीक्षण करने पर पाया कि इस बार कुत्ते के मुँह से बराबर लार टपकनी शुरू हो गई । इस प्रयोग को उसने कई बार दोहराया अर्थात् जब-जब कुत्ते को खाना दिया गया घण्टी भी बजायी गई । प्रयोग के अन्तिम चरण में उसने केवल घण्टी बजाई, खाना नहीं दिया और प्रतिक्रिया को देखा। उसने देखा कि कुत्ता अब भी पहले की तरह लार टपका रहा है। इससे उसने यह निष्कर्ष निकाला कि कुत्ता घण्टी की आवाज से प्रतिबद्ध हो गया है। इस प्रयोग में भोजन प्राकृतिक या स्वाभाविक उद्दीपन है, घण्टी कृत्रिम या अस्वाभाविक उद्दीपन तथा लार का टपकना अनुक्रिया है। प्रयोग की एक प्रमुख मान्यता यह भी है कि यहाँ दो उत्तेजनाएँ साथ-साथ दी जाती हैं । घण्टी का बजना तथा भोजन का दिया जाना साथ-साथ चलता है । अन्त में भोजन नहीं दिया जाता केवल घण्टी ही बजायी जाती है । परिणामतः अनुक्रिया वही हुई जो भोजन दिए जाने के समय होती थी । गिलफर्ड ने इस तथ्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि जब दो उद्दीपक साथ-साथ बार-बार प्रस्तुत किए जाते हैं, पहले नया तथा बाद में मौलिक तो पहला भी कालान्तर में प्रभावशाली हो जाता है।

इस प्रयोग का परिणाम यह रहा कि कुत्ते ने यह सीखा कि जब जब घण्टी बजेगी उसे खाना मिलेगा । यह बात सीखने पर उसके मुँह से लार टपकनी शुरू होती है । इस प्रकार के सीखने को ही ‘अनुबन्धन द्वारा सीखना’ कहते हैं ।

वॉटसन का प्रयोग (Watson’s Experiment) — वॉटसन ने भी अपने ग्यारह वर्षीय पुत्र के साथ एक प्रयोग किया। वॉटसन ने उसे एक खरगोश लाकर दिया। उसके पुत्र अलबर्ट ने उसे बहुत प्यार करना शुरू कर दिया । वह उसके साथ खेलती तो कभी उसके ऊपर हाथ फेरता । इसके पश्चात वॉटसन ने खरगोश के साथ अलबर्ट के प्यार करने के साथ दौरान एक जोदार डरावनी ध्वनि उत्पन्न की । इस डरावनी ध्वनि को अलबर्ट के खरगोश के साथ प्यार करने के दौरान दोहराया गया । यह आवाज उसी समय की जाती थी जब बालक खरगोश के साथ खेलता था । इसके पश्चात् ध्वनि उत्पन्न करनी बन्द कर दी । देखने में आया कि बालक अब केवल खरगोश को देखकर ही डरने लगा । इस प्रकार भय की अनुक्रिया खरगोश (कृत्रिम उद्दीपन) के साथ अनुबन्धित हो गई और इस अनुबन्धन के परिणामस्वरूप उसने खरगोश के बालों जैसे अन्य जानवरों से भी डरना शुरू कर दिया अर्थात्, वह कृत्रिम उद्दीपक से भी भयभीत होने लगा । इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि सीखने की क्रियाओं को अनुबन्धन प्रक्रिया के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है ।

सिद्धान्त से सम्बन्धित नियम :

  1. समय सिद्धान्त (Time Principle) — इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने में उत्तेजकों के मध्य समय का अन्तराल एक महत्त्वपूर्ण कारक है। दोनों उद्दीपनों के मध्य समय अन्तराल जितना अधिक होगा उद्दीपनों का प्रभाव भी उतना ही कम होगा। एक आदर्श स्थिति में दोनों उद्दीपनों के मध्य लगभग पाँच सेकेण्ड का समय अन्तराल सबसे अधिक प्रभावी रहता है । इसके लिए आवश्यक है कि पहले नवीन या कृत्रिम उद्दीपन दिया जाए और इसके तुरन्त बाद पुराना या प्राकृतिक उद्दीपन दिया जाए, अर्थात् एक उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया समाप्त होने से पहले ही दूसरा उद्दीपन प्रस्तुत कर देना चाहिए । पॉवलाव के प्रयोग में इसीलिए पहले घण्टी बजाई गई उसके बाद खाना दिया गया ।
  2. तीव्रता का सिद्धान्त (Principle of Intensity) — इस सिद्धान्त के अनुसार यदि हम यह चाहते हैं कि कृत्रिम उद्दीपक अपना स्थायी प्रभाव बनाये रखें तो इसके लिए उसका प्राकृतिक उद्दीपक की तुलना में अधिक सशक्त होना एक अनिवार्य शर्त है, अन्यथा प्राकृतिक उद्दीपक के सशक्त होने पर सीखने वाला कृत्रिम उद्दीपक अर्थात् नए उद्दीपक पर कोई ध्यान नहीं देगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अनुकूलित (प्रतिबन्ध) अनुक्रिया के लिए नए उद्दीपक में अनुक्रिया उत्पन्न करने की सामर्थ्य होनी चाहिए। पॉवलाव के प्रयोग में यदि भोजन कुत्ते को घण्टी बजने से पहले ही दे दिया जाता तो कुत्ता घण्टी की आवाज पर कोई ध्यान नहीं देता।
  3. एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Consistency ) – एकरूपता के इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुबन्धन की प्रक्रिया उसी स्थिति में सुदृढ़ होती है जब एक ही प्रयोग प्रक्रिया बार-बार बहुत दिनों तक ठीक उसी प्राकर दोहराया जाए जैसा कि प्रयोग को उसके प्रारम्भिक चरण में क्रियान्वित किया गया था। उदाहरण के तौर पर यदि वॉटसन के प्रयोग में बालक को खरगोश से डराने का अनुबन्धन किया गया और वह भविष्य में यहाँ तक डरने लगा कि उसे प्रत्येक सफेद रोयेंदार चीज भयभीत करने लगी तो अब यदि भविष्य में इस अनुबन्ध के सामान्यीकरण की सत्यता की जाँच करने की आवश्यकता पड़े तो प्रायोज्य (बालक) के सम्मुख सफेद रोयेंदार वस्तु ही प्रस्तुत की जाए न कि प्रयोग को किसी काले चूहे पर सत्यापित करने का प्रयास हो ।
  4. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition) — इस सिद्धान्त की यह मान्यता है कि किसी क्रिया के बार-बार करने पर यह स्वभाव में आ जाती है और हमारे व्यक्तित्व का एक स्थायी अंग बन जाती है । अतः, सीखने के लिए यह आवश्यक है कि दोनों उद्दीपक साथ-साथ बहुत बार प्रस्तुत किए जाएं । एक-दो बार की पुनरावृत्ति से अनुकूलन सम्भव नहीं होता । यही कारण है कि पॉवलाव के प्रयोग में कई बार घण्टी बजाने के बाद ही कुत्ते को भोजन दिया जाता था। इसी प्रकार वॉटसन ने भी सबसे पहले बालक को खरगोश से डराया, बिल्ली से डराया तथा अन्य सफेद रोयेंदार वस्तुओं से डराया । इसी का यह परिणाम निकला कि बालक भविष्य में प्रत्येक रोयेंदार चीज से डरने लगा ।
  5. व्यवधान का सिद्धान्त (Principle of Inhibition ) — इस नियम के अनुसार अनुबन्धन की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि उस कक्ष का वातावरण जहाँ प्रयोग किया जा रहा है, शान्त एवं नियंत्रित होना चाहिए । इसीलिए दो उद्दीपनों के अतिरिक्त अन्य कोई उद्दीपन चाहे वह ध्यान आकर्षित करने वाला अथवा ध्यान बाँटने वाला नहीं होना चाहिए | पॉवलाव ने इसी कारण अपना प्रयोग एक बन्द कमरे में किया जहाँ कोई आवाज भी नहीं पहुँच पाती थी । जहाँ तक कि कुत्ते की अनुबन्धन क्रिया के समय पॉवलाव के शिष्यों ने स्वयं पॉवलाव को भी कुत्ते को नहीं देखने दिया, क्योंकि उनकी उपस्थिति कुत्ते की अनुक्रिया अपने में व्यवधान पैदा कर सकती थी । यही कारण है कि अपने प्रोफेसर की उपस्थिति में छात्र-अध्यापक उतना अच्छी तरह से पाठ नहीं पढ़ा पाते जितना कि उसके चले जाने के बाद पढ़ाते हैं ।
अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of the Theory)— इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न प्रकार की गई है —
  1. यह सिद्धान्त मानव को एक मशीन या यन्त्र मानकर चलता है । वास्तव में मानव मशीन नहीं है। वह चिंतन, तर्क एवं कल्पना के आधार पर अपनी क्रियाओं का संचालन करता है।
  2. अनुबन्धन से सीखना खतरनाक हो सकता है। बालक जन्म लेते ही इच्छित और अनिच्छित अनुबन्धन से बँधता जाता है। बालक किन्हीं भी प्राकृतिक प्रतिक्रियाओं को किसी भी कृत्रिम उत्तेजक से सम्बन्धित कर सकते हैं। इस प्रकार बालक को चाहे डरपोक, बहादुर, नटखट, अच्छा, प्रसन्न या सुस्त बनाया जा सकता है ।
  3. अनुकूलित अनुक्रिया द्वारा सीखने में अस्थायित्व होता है। जिस प्रकार निरन्तर अभ्यास से यह क्रिया दृढ़ हो जाती है उसी प्रकार यदि उत्तेजनाओं के सम्बन्धों को शून्य कर दिया जाए तो धीरे-धीरे वह अनुक्रिया प्रभावहीन हो जाती है और कोई सीखना नहीं होता है।
  4. यह सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं करता है। यह केवल उन परिस्थितियों का वर्णन करता है जिनमें सीखने की क्रिया होती है ।
  5. इस सिद्धान्त की सहायता से सीखने की प्रारम्भिक साधारण क्रियाओं को तो समझा जा सकता है, परन्तु उच्च-स्तरीय विषय तथा विचारों को समझना तथा वर्णन करना कठिन है।

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