भारतीय चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका का आकलन कीजिए बिहार के 2015 के चुनाव को जाति की भूमिका ने किस सीमा तक प्रभावित किया।
भारतीय राजनीति की मुख्य विशेषता है, परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना / स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भारतीय राजनीति का आधुनिक स्वरूप विकसित हुआ । अतः यह संभावना व्यक्त की जाने लगी कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित होने पर भारत में जातिवाद समाप्त हो जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ अपितु जातिवाद न केवल समाज में ही वरन राजनीति में भी प्रवेश कर उग्र रूप धारण करता रहा।
भारत में विद्यमान जातिवाद ने न केवल यहाँ की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक प्रवृत्तियों को ही प्रभावित किया अपितु राजनीति को भी पूर्ण रूप से प्रभावित किया है। जाति के आधार पर भेदभाव भारत में स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व भी था किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रजातंत्र की स्थापना होने पर समझा गया कि जातिगत भेद मिट जाएगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ। राजनीतिक संस्थाएँ भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी परिणामस्वरूप जाति का राजनीतिकरण हो गया। भारत की राजनीति में जाति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। केंद्र ही नहीं राज्य स्तरीय राजनीति भी जातिवाद से प्रभावित है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक है, क्योंकि राष्ट्रीय एकता एवं विकास मार्ग अवरुद्ध हो रहा है।
भारतीय राजनीति में जातिगत राजनीति उतनी ही पुरानी है, जितनी कि हमारी आजादी । यह अलग बात है कि उस समय समाज के सभी वर्गों में समानता के लिए दलित और पिछड़ों को राजनीति में भागीदारी देने की बात हुई। आजादी मिलते ही जब 1952 में अंतरिम सरकार के लिए चुनाव की बात हुई तो कांग्रेस पार्टी ने सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व के नाम पर दलित, पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों को टिकट दिया।
भारत में कार्य कर रहे कुछ राजनीतिक दल तथाकथित अगड़ों एवं पिछड़ों के आधार पर चुनावों में समीकरण स्थापित करने हेतु जातीय मानसिकता को बढ़ावा देते हैं। वर्तमान दौर में आरक्षण के मुद्दे को आधार बनाकर विभिन्न राजनीतिक दल चुनावी राजनीति में जातीय हितों पर आधारित भावनाओं को प्रसारित कर अपना राजनीतिक हित साधनों का प्रयास कर रहे हैं।
बिहार में हुए 2015 के चुनाव में जाति की भूमिका – जातिगत राजनीति के संबंध में बिहार देश के अन्य राज्यों से काफी आगे निकल गया है। वर्तमान में बिहार की राजनीति अगड़ों एवं पिछड़ों के बीच बंटकर रह गई है। वर्ष 2015 में हुए चुनाव में भी वोट जाति आधारित समीकरणों पर ही डाले गए। यद्यपि राजनीतिक पार्टियों ने शिक्षा, विकास और रोजगार जैसे मुद्दों को उठाया लेकिन मूल मुद्दा जाति पर ही आधारित रहा। जातिगत समीकरणों पर विशेष ध्यान दिया गया। चाहे उम्मीदवार का चयन हो या किसी क्षेत्र विशेष के लिए राजनीतिक पार्टियों के लिए तैयार की गई रणनीति हो।
यद्यपि 2010 एवं 2014 के चुनाव में बिहार में विकास के मुद्दों की प्राथमिकता रही, लेकिन 2015 के चुनाव में एक बार फिर जाति ने अपना वर्चस्व चुनाव के दौरान कायम कर लिया। टिकट वितरण की प्रक्रिया में भी जातिगत समीकरण को वरीयता दी गई। जिस विधानसभा क्षेत्र में जिस जाति की आबादी अधिक थी, उसी जाति के व्यक्ति को प्रायः सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार बनाया। 2015 के चुनाव में दलित और पासवान ने एन. डी. ए का समर्थन किया तो कुर्मी जाति के लोगों ने नीतिश कुमार का समर्थन किया। राजद और जद (यू) के महागठबंधन ने बिहार के अंदर 2015 के चुनाव में जाति को दो भागों में अगड़ों एवं पिछड़ों में विभाजित कर दिया। और अपने मुख्य वोटरों यादव और कुर्मी को अपने पक्ष में कर लिया। अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने महागठबंधन के उम्मीदवारों को ही मतदान किया, जिसका परिणाम हुआ कि चुनाव में महागठबंधन की सरकार बनी। और नीतिश कुमार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बने।
निष्कर्ष – जाति का राजनीतिकरण, ‘आधुनिकीकरण’ के मार्ग में बाधक सिद्ध हो रहा है, क्योंकि जाति को राष्ट्रीय एकता, सामाजिक साम्प्रदायिक सद्भाव एवं समरसता का निर्माण करने हेतु आधार नहीं बनाया जा सकता। भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में जाति प्रथा किसी न किसी रूप में विद्यमान अवश्यक होती है। यह एक गंभीर सामाजिक कुरीति है। जाति प्रथा अत्यंत प्राचीन संस्था है। वैदिक काल में भी वर्ग – विभाजन मौजूद था, जिसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता था। यह जातिगत न होकर गुण व कर्म पर आधारित था।
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