भारतीय ज्ञान प्रणाली से आप क्या समझते हैं ? स्कूल पाठयक्रम पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – भारतीय ज्ञान प्रणाली से आप क्या समझते हैं ? स्कूल पाठयक्रम पर प्रकाश डालें ।
(What do you understand by Indian knowledge system? Throw light on the school curriculum.)

उत्तर – भारतीय ज्ञान प्रणाली भारतीय ज्ञान प्रणाली का अर्थ उस ज्ञान प्राप्ति से है जो शिक्षा संरचना के विभिन्न स्तरों पर छात्र सीखते हैं। मुख्यतः यह ज्ञान नियमित विधि के अन्तर्गत आता है, परन्तु अब ICT के कारण नियमित (Formal), अनियमित (Informal) तथा अनौपचारिक (Non-formal) ज्ञान का भेद कम होता जा रहा है। ज्ञान का संकेतन अथवा साधन पाठ्यक्रम माना जाता है ।

पाठ्यक्रम सुनिश्चित जीवन का दर्पण है जो ज्ञान के रूप में विद्यालय में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार के विषय, अनुभव तथा पाठान्तर क्रियाएँ आदि आ जाते हैं । शैक्षिक संस्थाओं, उच्च शिक्षा में अनुसंधान द्वारा भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है जहाँ पर ज्ञान को पाठ्यक्रम ही माना जाता है

पाठ्यक्रम शिक्षा का आधार है। पाठ्यक्रम द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति होती है । यह एक ऐसा साधन है जो छात्र तथा अध्यापक को जोड़ता है। अध्यापक पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्रों के मानसिक, शारीरिक, नैतिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक तथा रामाजिक विकास के लिए प्रयास करता है। पाठ्यक्रम द्वारा छात्रों को ‘जीवन कला’ (Art of Living) में प्रशिक्षण के अवसर मिलते हैं। अध्यापकों के दिशा-निर्देश प्राप्त होता है । छात्रों के लिए लक्ष्य निर्धारित होने से उनमें एकाग्रता आती है। वे नियमित रहकर कार्य करते हैं । पाठ्यक्रम एक प्रकार से अध्यापक के पश्चात् छात्रों के लिए दूसरा पथ-प्रदर्शक है । पाठ्यक्रम विषयों के साथ-साथ स्कूल के सारे कार्यक्रम आते हैं ।

(1) पाठ्यक्रम की सबसे लोकप्रिय परिभाषा कनिंघम (Cunningham) द्वारा दी गई मानी जाती है इसके अनुसार “ पाठ्यक्रम अध्यापक रूपी कलाकार (Artist) के हाथ में वह साधन (Tool) है जिसके माध्यम से वह अपने पदार्थ रूपी छात्र (Meterial) को अपने कलागृह रूपी स्कूल (Studio) में अपने उद्देश्य के अनुसार विकसित अथवा रूप (Mould) प्रदान करता है।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि कलाकार को अपने पदार्थ को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की बहुत स्वतन्त्रता है, क्योंकि कलाकार का पदार्थ निर्जीव है, परन्तु स्कूल में अध्यापक का पदार्थ अर्थात् छात्र सजीव है। पुराने समय में जबकि आवश्यकताएँ सीमित थीं, साधन सीमित थे, अध्यापक को अपने पदार्थ यानि कि छात्र को नया रूप देने में पूरी स्वतन्त्रता थी, परन्तु अब बदलती हुई परिस्थितियों में अध्यापक की यह महत्ता घट गई है, फिर भी निश्चय ही अध्यापक के हाथ में पाठ्यक्रम बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन है।

कैसवेल (Casvel) के अनुसार, “बालकों एवं उनके माता-पिता तथा शिक्षकों के जीवन में आने वाली समस्त क्रियाओं को पाठ्यक्रम कहा जाता है। शिक्षार्थी के कार्य करने के समय जो कुछ भी कार्य होता है उस सबसे पाठ्यक्रम का निर्माण होता है । वस्तुतः पाठ्यक्रम को गतियुक्त (Dynamic) वातावरण कहा गया है।”

माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary, Education Commission, 1952-53) के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन विषयों से नहीं, जो विद्यालय में परम्परागत रूप से पढ़ाये जाते हैं वरन् इसमें वे सारे अनुभव शामिल हैं, जिनको छात्र विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, वर्कशाप और खेल के मैदान तथा शिक्षकों के अगणित अनौपचारिक सम्पर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है, जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित कर सकता है और उनके सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता देता है । ”

ड्यूवी (Dewey) के अनुसार, “पाठ्यक्रम केवल अध्ययन की योजना या विषय-सूची ही नहीं बल्कि कार्य और अनुभव की सम्पूर्ण श्रृंखला है। पाठ्यक्रम समाज में कलात्मक ढंग से परस्पर रहने के लिए बच्चों के प्रशिक्षण का शिक्षकों के पास एक साधन है । ” संक्षेप में, पाठ्यक्रम सुनिश्चित जीवन का दर्पण है जो विद्यालय में प्रस्तुत किया जा है ।

स्कूल पाठ्यक्रम के कार्य
(Functions of School Curriculum)

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम 1988 ने स्कूली पाठ्यक्रम की संरचना करते हुए कहा कि छात्रों में निम्नलिखित योग्यताओं के विकास पर जोर दिया जाए

  1. सामाजिक जीवन तथा पढ़ाई आगे जारी रखने के लिए आवश्यक भाषा तथा अभिव्यक्ति की योग्यता
  2. ऐसी क्षमताएँ जिनमें हिसाब-किताब करने में दक्षता प्राप्त हो सके और दक्षता का दैनिक जीवन में तथा शिक्षण में उपयोग हो सके ।
  3. शारीरिक रूप में स्वस्थ और तंदुरुस्त बने रहने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो सकें, तदनुकूल व्यवहार और आचरण बन सके और सामान्य विकास संभव हो सके ।
  4. मानव जीवन में यौनवृत्ति की भूमिका और महत्त्व को समझना तथा यौनवृत्ति के प्रति और साथ ही दूसरे लिंग के व्यक्तियों के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाना ।
  5. ऐसे गुणों का विकास जिनसे मनुष्य विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में प्रसन्न रह सके और समाज में प्रभावशाली बन सके जैसे मित्रता, सहयोग की भावना, दया, आत्म-अनुशासन, आत्मलोचना, आत्म नियंत्रण विनोद, साहस, सामाजिक न्याय के प्रति प्रेम, आत्म-संचयन आदि ।
  6. नैतिक और चारित्रिक मूल्यों का निर्माण जैसे ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, निर्भरता, शालीनता, निडरता, दया आदि ।
  7. पूर्व व्यावसायिक और व्यावसायिक दक्षता, कठोर परिश्रम करने की इच्छा, उद्यम की भावना और उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक शारीरिक श्रम तथा कार्य संतुष्टि।
  8. जीवन के विभिन्न अवसरों पर सौन्दर्य की सराहना करने और उसकी खोज करने की क्षमता को बढ़ावा देना तथा उसे अपने वैयक्तिक जीवन में आत्मसात् करना ।
  9. विविध तथा स्वतंत्र विचारधारा और नए सम्बन्ध एवं सहयोग की खोज करने की योग्यता ।
  10. स्वाध्याय तथा आजीवन अध्ययन की आदत डालना जिससे अध्ययनशील समाज का निर्माण हो सके ।
  11. पर्यावरण तथा उसके सीमित संसाधनों को समझने और प्राकृतिक संसाधनों एवं ऊर्जा के संरक्षण की आवश्यकता ।
  12. बड़े परिवार और अधिक जनसंख्या के विभिन्न परिणामों और जनसंख्या वृद्धि को रोकने की आवश्यकता को समझना ।
  13. राष्ट्रीय प्रतीकों की जानकारी और देश की अस्मिता एवं एकता के सिद्धान्तों को बनाए रखने की इच्छा और दृढ़ संकल्प ।
  14. विभिन्न प्रकार की विविधताओं की सराहना करने और उनके भेदभाव को सहन करने की क्षमता तथा वैकल्पिक मूल्य प्रणालियों को चुनने की योग्यता ।
  15. सभी की मूलभूत विशेषताओं के प्रति जागरूकता तथा विश्व-मातृत्व की आवश्यकता एवं साथ ही मानव मूल्यों तथा सामाजिक न्याय के प्रति दृढ़ता ।
  16. ऐसी वैज्ञानिक प्रवृत्ति जिसमें जाँच-पड़ताल करने की भावना, प्रश्न पूछने का साहस और सोद्देश्यता के गुणों का विकास हो सके और जिनसे अज्ञानता, अंधविश्वास और भाग्यवाद को समाप्त किया जा सके ।
  17. पूछताछ के वैज्ञानिक तरीकों का ज्ञान और समस्याओं को हल करने में उनका उपयोग ।
  18. देश के स्वाधीनता संग्राम और सामाजिक पुनर्जागरण में स्वाधीनता सेनानियों तथा समाजसेवकों के बलिदान तथा योगदान की सराहना और उनके विचारों का अनुसरण करने की इच्छा |
  19. समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और अहिंसा के राष्ट्रीय लक्ष्यों को समझना और जीवन में उन्हें व्यवहार में लाना ।

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