भाषा के विकास में अनौपचारिक एवं औपचारिक शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालें।

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प्रश्न – भाषा के विकास में अनौपचारिक एवं औपचारिक शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालें।
उत्तर – बच्चों के भाषा विकास तथा उनकी शिक्षा के बीच गहरा सम्बन्ध होता है; समुचित भाषा विकास के लिए समुचित शिक्षा बहुत आवश्यक है।
  • शिक्षा के मुख्य दो प्रकार हैं: –
  • 1. अनौपचारिक शिक्षा (informal Education) तथा
  • 2. औपचारिक शिक्षा (Formal Education)

जो शिक्षा बच्चों को अपने परिवार से मिलती है उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं । परिवार में माता-पिता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने बच्चों को नाना प्रकार की शिक्षा देते हैं। इस अर्थ में माता-पिता को अनौपचारिक शिक्षक (informal teachers) कहा जाता है। दूसरी ओर औपचारिक शिक्षा बच्चों को विद्यालय में विधिवत रूप से दी जाती है। यहाँ बच्चों को जिन शिक्षकों से शिक्षा मिलती है, उन्हें औपचारिक शिक्षक (formal teacher) कहा जाता है।

जहाँ तब भाषा विकास में शिक्षा के महत्त्व या भूमिका का प्रश्न है, दोनों तरह की शिक्षा अर्थात् औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा अपने-अपने संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। परिवार में माता-पिता अपने बच्चों के भाषा विकास में योगदान देते हैं, जबकि स्कूल में शिक्षक का योगदान महत्त्वपूर्ण है। माता-पिता तथा शिक्षकों के सही निर्देशन एवं सहयोग मिलने पर बच्चों की भाषा सामान्य रूप से विकसित हो पाती है। दूसरी ओर सही निर्देशन और सहयोग के अभाव में बच्चों की भाषा सही तौर पर विकसित नहीं हो पाती है और कई तरह के भाषा-दोष या भाषा- विकृति के विकसित होने की सम्भावना बन जाती है।

  1. अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education) — बच्चों के भाषा विकास को उन्नत बनाने में माता-पिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके द्वारा मिलने वाली शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा कहलाती है। इस संदर्भ में माता-पिता की भूमिका या उनके महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
    1. बच्चों के भाषा विकास में पारिवारिक वातावरण का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यहाँ बालक का सम्बन्ध अपने माता-पिता, अपने भाई-बहन तथा अन्य वयस्कों के साथ काफी घनिष्ठ होता है। अतः माता-पिता को चाहिए कि अपने पारिवारिक वातावरण को अधिक उत्तेजक बनाने का प्रयास करें ताकि बच्चों का भाषा- विकास समुचित रूप से हो सके।
    2. बच्चों में भाषा- विकास के लिए श्रवण संवेदना का विकसित होना आवश्यक है। बच्चे जिस शब्द को सुनते हैं, केवल उसी को सिखते हैं। अतः माता-पिता को चाहिए कि बच्चों से बातचीत करते समय नए-नए शब्दों का उपयोग करें ताकि उसकी शब्दावली (vocabulary) अधिक-से-अधिक विकसित हो सके।
    3. यह भी सत्य है कि बच्चे दूसरे लोगों को किसी शब्द को जिस ढंग से या जिस रूप में बोलते हुए सनते हैं, वे भी उसी रूप में उन शब्दों का बोलना सीख लेते हैं। अतः माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के सामने शब्दों का उच्चारण शुद्ध रूप में और ‘ स्पष्ट तौर पर करें ताकि बच्चे उन शब्दों का सही-सही उच्चरण करना सीख सकें ।
    4. भाषा विकास में बच्चों के साथ बातचीत ( babytalk) भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। अतः माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों के साथ बातचीत अवश्य करें। लेकिन बातचीत करते समय कई बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है। (i) माता-पिता को चाहिए कि शब्दों का उच्चारण शुद्ध रूप में करें। (ii) उन्हें चाहिए कि बातचीत करते समय मातृभाषा के साथ-साथ दूसरी भाषाओं को सीखने के लिए भी बच्चों को प्रेरित करें। (iii) बातचीत धीरे-धीरे करें तथा सरल वाक्यों का उपयोग करें ताकि बच्चों को शब्दों को समझने में सुविधा हो।
    5. बच्चों के भाषा विकास में कहानी तथा गीत का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतः माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को कहानी या गीत सुनाकर उनकी भाषा को विकसित करने का प्रयास करें। यहाँ सावधानी रखना चाहिए कि बच्चों को ऐसी कहानी या गीत सुनाएँ जो उनकी उम्र के अनुकूल हो और उसमें उनकी रुचि हो ।
    6. माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को पुस्तक पढ़ने, समाचार पत्र पढ़ने अथवा पत्रिका पढ़ने का अवसर दें। इस बात को ध्यान में रखें कि पढ़ने की सामग्री उनकी आयु तथा योग्यता एवं रुचि के अनुकूल हो ।
    7. माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को बोलने का भी अवसर दें। अध्ययनों तथा निरीक्षणों से पता चलता है कि जब बच्चों को कोई कहानी सुनाने के पहले यह निर्देश दिया जाता है कि तुम्हें भी इस कहानी को सुनाना होगा, तो उनकी रुचि बढ़ जाती है और वे ध्यानपूर्वक उसे सुनते हैं। अध्ययनों से यह भी ज्ञातव्य है कि जब बच्चों को सीखे गए शब्दों या कहानी या गीत को दुहराने या अभिव्यक्ति करने का अवसर दिया जाता है तो उनकी भाषा अधिक उन्नत बन जाती है और शब्दावली बढ़ जाती है।
    8. भाषा के विकास में खेल की भी बड़ी अहमियत है। खेल के मैदान में बच्चों को नए-नए शब्दों को सुनने का अवसर मिलता है, जिन्हें वे सहज रूप से सीख लेते हैं। इसके साथ-साथ उन्हें सीखे गए शब्दों की अभिव्यक्ति करने या बोलने का अवसर मिलता है। इस तरह उनकी शब्दावली विकसित होती रहती है। अतः माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को खेलने का अवसर दें। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बुरे बच्चों के साथ खेलने से वे बुरे शब्दों को सीख लेते हैं। इसलिए अपने बच्चों को केवल ऐसे बच्चे के साथ खेलने देना चाहिए जो अच्छे पारिवारिक वातावरण के हों।
    9. बच्चों के समुचित भाषा – विकास के लिए माता-पिता को चाहिए कि वे उन्हें दोषपूर्ण वातावरण से अलग रखें। इसके साथ-साथ यदि किसी बालक में कोई भाषा-दोष हो तो उसे भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यह दोष उच्चारण से सम्बन्धित, अर्थ से सम्बन्धित या व्याकरण से सम्बन्धित हो सकता है। जैसे— यदि कोई बालक यह वाक्य लिखता है कि “सीता ने भात खाई”, तो माता-पिता को चाहिए कि वे इस वाक्य को शुद्ध करें और बतलाएँ कि सही वाक्य होगा, “सीता ने भात खाया।” उसे व्याकरण के नियम को बतलाना चाहिए।
      इस प्रकार माता-पिता अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से बच्चों में समुचित भाषा-विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
  2. औपचारिक शिक्षा (Formal Education)– बच्चों के भाषा- विकास में औपचारिक शिक्षा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस शिक्षा के माध्यम से शिक्षक बालकों की भाषा को समुचित रूप में विकसित होने में सहायक हो सकते हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं: –
    1. वर्ग में शिक्षकों को चाहिए कि वे किसी शब्द का उच्चारण शुद्ध रूप में तथा स्पष्ट रूप में करें। कारण यह कि बच्चे जिस रूप में किसी शब्द का उच्चारण सुनते हैं, उसी रूप में उसका उच्चारण करना सीख लेते हैं। एक बालक ने एक दिन अपने पिता के सामने ‘टंगू’ शब्द का उच्चारण किया। पिता के पूछने पर उसने इस शब्द का अर्थ जीभ बताया। खोज करने पर पता चला कि एक दिन वर्ग शिक्षक ने अंग्रेजी के टंग (tongue) शब्द का उच्चारण ‘टंगू’ किया था। परिणामतः बच्चे ने भी टंगू उच्चारण करना सीख लिया। अतः शिक्षक को अपने वर्ग में काफी सावधान रहना चाहिए ताकि बच्चे गलत उच्चारण करना सीख न सकें। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बच्चे अपने शिक्षक को ‘मॉडेल’ (Model) मान का उनके व्यवहारों का अनुकरण करके सीखते हैं।
    2. वर्ग लेते समय शिक्षकों को व्यक्ति- भिन्नता सिद्धान्त (theory of individual differences) का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि बच्चे बुद्धि, रुचि, आवश्यकता आदि के दृष्टिकोण से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। शिक्षकों को चाहिए कि बच्चों के साथ उनकी योग्यता, रुचि या आवश्यकता के साथ समायोजन स्थापित करें ताकि उनमें आत्मविश्वास विकसित हो सके और वे शिक्षक से नए-नए शब्दों को सीखने का अवसर पा सकें।
    3. शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा करें; क्योंकि रुचि के अभाव में वे शिक्षक की ओर ध्यान नहीं दे पाते हैं और नए-नए शब्दों को सीखने में सक्षम नहीं हो पाते हैं।
    4. शिक्षक को चाहिए कि वर्ग में बच्चों को आवश्यकता के अनुसार कहानी सुनाएँ । कहानी सुनाते समय यह ध्यान रखें कि वह बच्चों की आयु तथा रुचि के अनुकूल हो। यह भी ध्यान रखें कि कहानी कहते समय शुद्ध एवं स्पष्ट भाषा का उपयोग करें।
    5. शिक्षकों को चाहिए कि वे वाद-विवाद की व्यवस्था करके बच्चों को बोलने का अवसर दें। अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसा करने से बच्चों की शब्दावली बढ़ती है, बोलने का संकोच दूर होता है, और आत्मविश्वास सबल होता है। इसीलिए कहा गया है कि प्रभावी भाषा के लिए वाद-विवाद सहायक होता है।
    6. शिक्षकों को चाहिए कि बच्चों के लिए खेल- -कूद की व्यवस्था करें। बच्चे खेल के माध्यम से नए शब्दों को सहज रूप से सीख लेते हैं। इसके अतिरिक्त खेल के मैदान में उन्हें बोलने या अभिव्यक्ति करने का भी अवसर मिलता है। इससे शब्दावली बढ़ती है तथा भाषा शुद्ध बनती है।
    7. शिक्षकों को चाहिए कि वर्ग के बच्चों के लिए उनकी आयु के अनुकूल पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के पढ़ने का अवसर दें। स्वपठन (selfreading) भी भाषा विकास में काफी सहायक होता है।
    8. शिक्षकों को चाहिए की वे बच्चों की भाषा की त्रुटियों को दूर करने का प्रयास करें। यदि कोई बालक गलत उच्चारण करता हो तो उसे अकेले में सही उच्चारण बतला दें। यदि कोई बालक भाषा-दोष अथवा वाणी-विकृति का शिकार हो तो उसके उपचार की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भाषा विकास में शिक्षकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे औपचारिक शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थियों की भाष को समुचित रूप में विकसित होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

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