मातृभाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के उद्देश्य का वर्णन करें।
प्रश्न – मातृभाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के उद्देश्य का वर्णन करें।
उत्तर – मातृभाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के उद्देश्य
(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य – ज्ञानात्मक उद्देश्य का तात्पर्य बालक को भाषायी तत्त्वों का ज्ञान-प्रदान करना है। इसे बिन्दुवार यों देखें
(1) बालकों को भाषा का ज्ञान प्रदान करना।
(2) शब्दों का अर्थबोध अर्थात् मुख्यार्थ, लक्ष्यार्थ, व्यंग्यार्थ, सामाजिक एवं व्याकरणिक अर्थ से परिचित कराना।
(3) वाक्य के घटकों तथा वाक्य-विस्तार का ज्ञान ।
(4) भाषा के विषय-वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना ।
(5) हिन्दी भाषा के रचनात्मक कार्यों का ज्ञान एवं मूल्यांकन |
(6) भाषा के साहित्य के विविध रूपों की जानकारी ।
(7) साहित्य की विभिन्न विधाओं, यथा-कहानी, कविता, निबन्ध, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, उपन्यास, एकांकी, नाटक आदि का ज्ञान प्राप्त करना ।
(8) हिन्दी साहित्य के इतिहास की रूप रेखा का ज्ञान प्राप्त करना
(9) भाषा और साहित्य का मौखिक एवं लिखित ज्ञान प्राप्त करना ।
(10) मौखिक रूप से ज्ञानार्जन के अंतर्गत सस्वर वाचन, व्याख्यान, भाषण, काव्य-पाठ, वाद-विवाद, आशु-भाषण, साक्षात्कार, वार्तालाप, पहेलियाँ, अन्त्यांक्षरी, प्रश्नोत्तरी आदि उल्लेखनीय है।
(11) लिखित ज्ञान के अंतर्गत कहानी लेखन, कविता लेखन, पत्र-लेखन, आत्मकथा, संवाद लेखन, जीवनी लेखन, उपन्यास लेखन आदि महत्त्वपूर्ण हैं |
(2) कौशलात्मक उद्देश्य–कौशलात्मक उद्देश्य का तात्पर्य भाषिक तत्त्वों की प्रायोगिक कुशलता से है। अर्थात् भाषित तत्त्वों को कुशलतापूर्वक प्रयोग कराने की क्षमता का विकास ही कौशल है। भाषा के चार महत्त्वपूर्ण तत्त्व – पढ़ना, लिखना, बोलना और सुनना आते हैं और भाषा पर पकड़ और विकास हेतु इन कौशलों का विकास आवश्यक है। कौशलात्मक उद्देश्य का सम्बन्ध बोलक का उच्चारण क्षमता, वर्तनी की शुद्धता, व्याकरणिक दक्षता आदि का परिमार्जन करना है। इन कौशलों को इस प्रकार बिन्दुवार देखा जा सकता है –
(1) सस्वर पाठ द्वारा वाचिक एवं अभिव्यक्ति क्षमता का विकास |
(2) दूसरों की बातों को सुनकर ग्रहण करने की क्षमता का विकास |
(3) लिखकर भावों एवं विचारों को प्रकट करने की क्षमता का विकास।
(4) शुद्ध तथा सुस्पष्ट वाचन क्षमता का विकास।
(5) गद्य-पद्य अर्थात् कहानी, कविता, नाटक आदि पढ़ कर अर्थ-ग्रहण क्षमता का विकास!
(3) अभिरुचि परक या रसात्मक उद्देश्य – इस उद्देश्य का तात्पर्य भाषा शिक्षण द्वारा पढ़ी जाने वाली विषय-वस्तु के प्रति छात्रों की रुचि और रुझान जाग्रत करना है। दूसर शब्दों में, बालकों को भाषा शिक्षण के द्वारा विषय वस्तु की ओर प्रेरित किया जाना तथा जिज्ञासा उत्पन्न करना। इसके द्वारा दो उद्देश्यों की प्राप्ति होती है
(1) साहित्य के रसास्वादन करने की योग्यता का विकास ।
(2) साहित्य की समीक्षा एवं समालोचना करने की योग्यता का विकास।
इस प्रकार रसात्मक उद्देश्य का तात्पर्य छात्रों में साहित्य के प्रति रुचि पैदा कर उसके रसात्मक अभिव्यक्ति का संचार करना है। इस रसात्मक अभिरुचि को क्रियाशील करने का कार्य विद्यालय में आयोजित विविध गतिविधियाँ, यथा— प्रार्थना सभा, बाल-सभा, सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं विभिन्न प्रतियोगिताएँ करती हैं। बालकों के लिए आयोजित वाद-विवाद, भाषण, काव्य पाठ आदि प्रतियोगिताएँ तथा आकाशवाणी एवं दूर-दर्शन द्वारा प्रसारित बाल-केन्द्रित कार्यक्रम को प्रायोजित कर इस उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है।
(4) अर्थग्रहणपरक उद्देश्य – अर्थग्रहणपरक उद्देश्य का तात्पर्य छात्रों में सुनकर या पढ़कर अर्थग्रहण करने की क्षमता का विकास है। उदाहरणार्थ, बालक किसी भाषण को सुनता है, कोई दृश्य देखता है या फिर काव्य या नाटक को पढ़ता है। पढ़कर उसके निहितार्थ को समझ सकता है तथा उसमें निहित मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप लक्ष्य निर्धारण करता है। साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, समाचारों एवं समसामयिक घटनाओं से अवगत होकर तद्नुरूप प्रतिक्रिया व्यक्त करने की योग्यता प्राप्त करता है।
(5) अभिवृतिपरक एवं सर्जनात्मक उद्देश्य-अभिवृतिपरक उद्देश्य का तात्पर्य छात्रों में संवेदनशीलता एवं सहृदयता परम आवश्यक है क्योंकि सहृदयता ही काव्य या गद्य के पात्रों के साथ तादात्म्य स्थापित करती है और रस या आनंद की प्राप्ति होती है। काव्यानंद या सहित्यानंद ही भाषा का प्राणतत्व है जो छात्रों में साहित्य के प्रति अभिरुचि को जाग्रत करता है। साथ ही प्रेम सहिष्णुता का विकास होता है। ये प्रवृत्तियाँ प्रेरक का कार्य करती हैं और छात्र महापुरुषों की जीवनी, शिक्षाप्रद रचनाएँ, लेख, कहानियों को पढ़ने की ओर प्रवृत्त होता है।
छात्रों में अभिवृतिपरक संवेदनशीलता उनकी सर्जनात्मक क्षमता के उद्वेलन का कारण बनती हैं। पढ़े हुए चरित्रों या देखी-सुनी घटनाओं से प्रेरित होकर छात्रों में सर्जनात्मक क्षमता की अभिवृद्धि होती है। इस प्रकार मननशील चिंतन प्रवृत्ति एक सर्जक के रूप में परिवर्तित होती है। प्रेम और सहिष्णुता – सहृदयता जैसे गुणों के द्वारा बालक का चरित्र-निर्माण होता है और उसका व्यक्तित्व बहुमुखी आयाम प्राप्त करता है ।
रायबर्न ने सृजनात्मकता की परिभाषा देते हुए कहा है— “सृजनात्मक कार्य वास्तव में जो कुछ पहले पढ़ा या सुना गया है उसकी आवृत्ति मात्र ही नहीं है बल्कि इसके लिए ज्ञान का ठोस आधार तथा उन विचारों की पृष्ठभूमि आवश्यक है जिन्हें अब तक मस्तिष्क आत्मसात् कर चुका है। इस पृष्ठभूमि के आधार पर वह नई व मौलिक रचना सृजन में समर्थ हो सकता है। बालक कहानी, कविताओं तथा पत्र लिखने, सूक्तियों आदि की रचना का अभ्यास कर अपनी सृजनशीलता या मौलिकता का विकास करते हैं। “
इस प्रकार मातृभाषा के रूप में हिन्दी भाषा शिक्षण का उद्देश्य बहुआयामी है। भाषा एवं साहित्य के सम्पूर्ण विषय-वस्तु, यथा- भाषायी व्याकरण एवं उसके प्रयोग और विशेषताओं के ज्ञान के साथ-साथ साहित्य का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना, उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन तथा सृजन जैसे वृहत उद्देश्यों को केन्द्र में रखकर हिन्दी भाषा का मातृभाषा शिक्षण के रूप में शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण अपेक्षित है।
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