मुदालियर आयोग की अनुशंसाओं की सामान्य रूप रेखा प्रस्तुत करें ।
उत्तर— यह आयोग स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् गठित हुआ, द्वितीय आयोग है, परन्तु माध्यमिक शिक्षा का यह पहला आयोग है । हालांकि स्वतन्त्रता के पूर्व भी, 1882 में माध्यमिक शिक्षा के विषय में हन्टर आयोग का गठन किया गया, जिसने माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे । सन् 1919 में सैडलर शिक्षा आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य माध्यमिक शिक्षा के प्रारूपों में परिवर्तन लाना था । अतः इस आयोग की संस्तुतियों के सम्पादन में माध्यमिक शिक्षा परिषदों की स्थापना हुई । जाकिर हुसैन समिति ने माध्यमिक स्तर तक बुनियादी शिक्षा की योजना प्रस्तुत की, जिसे सर्वप्रथम आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा समिति (1939), लागू किया और इस दिशा में प्रयास के रूप में इलाहाबाद में अध्ययन के प्रशिक्षण महाविद्यालय की स्थापना हुई । तत्पश्चात् 1949 में सार्जेन्ट शिक्षा प्रतिवेदन ने शिक्षा योजना की व्यापक योजना प्रस्तुत की, जिसे क्रियान्वित करने का भार, भारतीय शिक्षा सलाहकार डॉ. ताराचन्द पर आ पड़ा । डॉ. ताराचन्द ने शिक्षा विशेषज्ञों का एक आयोग बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। 1951 में शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस माँग को फिर दुहराया । इस समय तक माध्यमिक शिक्षा एकमार्गीय होने के कारण अत्यन्त विस्तृत हो जाने पर भी निरुद्देश्य प्राय ही थी । अतः भारत सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 को मद्रास विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। अध्यक्ष के नाम पर इसे मुदालियर कमीशन भी कहते हैं ।
माध्यमिक शिक्षा का तात्कालिक स्वरूप (Existing Nature of Secondary Education)—आयोग ने विभिन्न राज्यों का दौरा करके मध्यमिक शिक्षा में व्याप्त दोषों का पता लगाया और 28 अगस्त 1953 को 244 पृष्ठों एवं 14 अध्यायों की रिपोर्ट सरकार समक्ष प्रस्तुत की। माध्यमिक शिक्षा प्रणाली का तात्कालिक स्वरूप व उसमें व्याप्त दोषों का विवरण अग्र है –
- माध्यमिक शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को जीविकोपार्जन हेतु सक्षम नहीं बनाती है, क्योंकि इस शिक्षा प्रणाली में जीवन सम्बन्धी कार्य प्रणाली तथा समस्याओं का बोध कराने की अपेक्षा पुस्तकीय ज्ञान को ही अधिक महत्व दिया जाता है ।
- विद्यालयों में प्रस्तुत शिक्षण विधियाँ छात्रों में विचार स्वातंत्र्य की भावना व स्वतः प्रेरणा की भावना विकसित करने में अक्षम हैं । अतः शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास के कारण योग्य छात्र इस व्यवसाय की ओर आकर्षित नहीं हो पा रहे हैं। शिक्षण पद्धति मुख्यतया रटने पर आधारित है और शिक्षा अत्यधिक परीक्षा केन्द्रित है ।
- माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष की होनी चाहिए और इसका प्रारम्भ प्राथमिक शिक्षा (जूनियर बेसिक) की कक्षा 5 उत्तीर्ण करने के बाद होना चाहिए अर्थात् यह शिक्षा 11 से 17 वर्ष तक की आयु के छात्र-छात्राओं को दी जानी चाहिए ।
- माध्यमिक शिक्ष की यह अवधि दो भागों में विभाजित की जानी चाहिए – (अ) 3 वर्ष तक जूनियर शिक्षा (ब) 4 वर्ष तक उच्चतर माध्यमिक शिक्षा ।
- कक्षा 11 व 12 वाली वर्तमान इन्टरमीडिएट कक्षा के स्वरूप को बदलकर 11वीं कक्षा को हाईस्कूल तथा 12वीं कक्षा के विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया जाना चाहिए ।
- स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का कर दिया जाना चाहिए और माध्यमिक कॉलेजों से विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्वविश्वविद्यालय पाठ्यक्रम रखा जाना चाहिए ।
- कक्षा 11 तक उत्तीर्ण छात्रों को विभिन्न व्यावसायिक व प्राविधिक संस्थानों में प्रवेश की अनुमति दी जानी चाहिए ।
- बहुउद्देशीय कॉलेजों/स्कूलों की स्थापना की जानी चाहिए तथा इन स्कूलों में पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण किया जाना चाहिए, जिससे कि छात्र अपने उद्देश्यों, रुचियों और योग्यताओं के अनुसार पाठ्यक्रम का चयन कर सकें ।
- ग्रामीण विद्यालयों में कृषि शिक्षा का विशेष प्रबन्ध होना चाहिए और उद्यान-कला, पशुपालन एवं कुटीर उद्योगों की भी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए |
- पर्याप्त संख्या में पॉलिटेक्निक और टेक्निकल विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए, जो कि या तो स्वतन्त्र रूप से स्थापित हों अथवा उद्देशीय विद्यालयों से सम्बद्ध हों। ये विद्यालय यथा सम्भव विभिन्न उद्योगों से सम्बन्धित कारखानों के पास होने चाहिए ।
- कृषि, इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि के उच्च शिक्षा केन्द्रों में प्रवेश के लिए उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के बाद एकवर्षीय पूर्व व्यवहारिक पाठ्यक्रम संचालित किया जाना चाहिए।
- भाषाओं के शिक्षण हेतु पाँच भिन्न भाषा समूहों पर विचार करना चाहिए— (i) मातृभाषा, (ii) प्रादेशिक भाषा यदि वह मातृभाषा न हो, (iii) संघीय भाषा, (iv) शास्त्रीय भाषायें— संस्कृत, अरबी, फरसी, लैटिन आदि, (v) अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा ।
- माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय बना, रहना चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा और यदि राष्ट्रीय भवना से उत्तेजित होकर पाठ्यक्रम से अंग्रेजी को हटा दिया जायेगा तो उसका हानिकारक प्रभाव पड़ेगा ।
- आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की अवधि को जिन दो स्तरों पर विभाजित किया है, उनके पाठ्यक्रम में निम्नांकित विषयों को स्थान दिया है –
- मिडिल अथवा जूनियर हाईस्कूल के विषय – माध्यमिक पठ्यक्रम में निम्न विषय रखे जायें-
(1) भाषायें (2) समाज विज्ञान (3) सामान्य विज्ञान (4) गणित (5) कला एवं संगीत (6) शिल्प (7) शारीरिक शिक्षा । पाठ्यक्रम क्रिया प्रधान हो ।
- उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर के विषय – इस स्तर पर पाठ्यक्रम में विविधता होनी चाहिए | कुछ अनिवार्य विषय सभी के लिए होंगे –
(1) भाषायें (2) सामान्य विज्ञान (3) सामाजिक अध्ययन (4) हस्त शिल्प इन विविध विषयों के अन्तर्गत निम्नांकित सात समूह होंगे-(1) मानव विज्ञान (2) विज्ञान (3) प्राविधिक (4) वाणिज्य (5) कृषि विज्ञान (6) ललित कलाएँ ( 7 ) गृह विज्ञान
- मिडिल अथवा जूनियर हाईस्कूल के विषय – माध्यमिक पठ्यक्रम में निम्न विषय रखे जायें-
- शिक्षण विधियाँ छात्रों में वांछित मूल्यों एवं दृष्टिकोणों का विकास करने में सक्षम होनी चाहिए । अत: इनका उद्देश्य केवल कुशलतापूर्वक सूचना प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए ।
- शिक्षण विधियों द्वारा विद्यार्थियों को विभिन्न समस्याओं के समाधान में प्राप्त ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने की योग्यता का विकास होना चाहिए तथा इनके व्यावहारिक उपयोग के पर्याप्त अवसर भी दिये जाने चाहिए ।
- माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में सम्मिलित प्रत्येक विषय के लिए विशेषज्ञ समीक्षकों की कमेटी बनायी जाये ।
- आयोग के विचार में धार्मिक शिक्ष विद्यालयों में केवल ऐच्छिक आधार पर और नियमित विद्यालय घण्टों से बाहर दी जा सकती है। ऐसी शिक्षा विशेष मत से सम्बन्धित बच्चों तक ही सीमित रहेगी और प्रबन्धकों एवं माता-पिता की सहमति से दी जायेगी । अतः धार्मिक शिक्षा को ग्रहण करने के लिए किसी छात्र को विवश नहीं किया जायेगा ।
- विद्यालय-विस्तृत समाज के अन्दर लघु समाज है । अतः जिन मूल्यों और दृष्टिकोणों का राष्ट्रीय जीवन के लिए महत्व है, उनको विद्यालय जीवन में प्रतिबिम्बित दि जाना चाहिए ।
- सभी विद्यालयों में N.C.C., First aid, Scouting, एवं जूनियर रेड क्रास व्यवस्था की जाए ।
- आयोग ने छात्रों की शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा सम्बन्धी सेवाओं के प्रति ध्यान दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए प्रत्येक स्कूल स्वास्थ्य सेवा की सुसंगठित योजना क्रियान्वित की जाने की अनुशंसा की है ।
- आयोग के विचार में बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम होनी चाहिए औ निबन्धात्मक प्रकार के परीक्षाओं में आत्मनिष्ठता के तत्व को वस्तुनिष्ठ परीक्षणों को करके और प्रश्नों के प्रकार में भी परिवर्तन द्वारा कम किया जाना चाहिए ।
- छात्रों की सर्वांगीण प्रगति व उपलब्धियों को जानने हेतु समय-समय उनके द्वारा कृत कार्य के अभिलेखों का मूल्यांकन करना चाहिए ।
- अन्तिम सार्वजनिक परीक्षा पर पूरक परीक्षा प्रणाली प्रारम्भ किया जाना चाहिए ।
- आयोग ने माध्यमिक स्तर पर योग्य अध्यापक प्रदान करने हेतु अध्यापक प्रशिक्षण की आवश्यकता का अनुभव किया। यह अध्यापक प्रशिक्षण दो प्रकार का हो— एक माध्यमिक शिक्षा पास अध्यापक जिसके लिए दो वर्षीय अध्यापक प्रशिक्षण होना चाहिए । दूसरे स्नातक परीक्षा पास अध्यापक, जिनका प्रशिक्षण काल अभी तो एक वर्ष का हो परन्तु बाद में दो वर्ष का कर दिया जाए। इस प्रकार ये अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाएँ दो प्रकार की होनी चाहिए, जिनमें प्रथम कोटि की प्रशिक्षण संस्थाएँ एक बोर्ड के अधीन होनी चाहिए तथा दूसरे प्रकार की स्नातकों की प्रशिक्षण संस्थाएँ विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध और उन्हीं के होनी चाहिए | इन संस्थाओं का नियन्त्रण पृथक संस्थाओं द्वारा होना चाहिए ।
- प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए अभिनव पाठ्यक्रम लघु गहन पाठ्यक्रम व्यावहारिक प्रशिक्षण कार्यशाला की व्यवस्था होनी चाहिए | अध्यापिकाओं के लिए अंशकालिक प्रशिक्षण की सुविधा हो तथा यौग्य अध्यापकों हेतु एम. एड. कोर्स का विधान हो ।
- अध्यापकों को शैक्षिक सेमिनार तथा कान्फ्रेंस में जाने हेतु अवकाश व यात्रा की सुविधायें दी जाये तथा उनके पाल्यों हेतु स्कूल स्तर की शिक्षा निःशुल्क की जाए।
- पाठ्यक्रम के विविधीकरण (Diversification of Courses) की व्यवस्था द्वारा ‘सामान्य मूल्य विषयों के साथ-साथ विशिष्ट व्यावहारिक विषयों के शिक्षण की व्यवस्था छात्रों के बहुमुखी विकास हेतु की जानी चाहिए ।
- विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था के लिए बहु-उद्देशीय विद्यालय खोले जायें, जिनमें व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को तैयार करते समय छात्रों के व्यक्तिगत भेदों का ध्यान रखा जाए ।
- माध्यमिक स्तर पर तकनीकी पाठ्यक्रमों के सुचारू रूप से संचालन हेतु अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् की स्थापना होनी चाहिए ।
- सभी शिक्षा संस्थाओं में प्रशिक्षित निर्देशन अधिकारियों तथा कैरियर मास्टर की सेवायें प्राप्त करने की व्यवस्था की जाए ।
- पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण कार्यक्रम पर सुझाव देते हुए आयोग ने केन्द्र व राज्यों में एक समन्वय समिति के गठन की सिफारिश की है।
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