वाइगोस्टकी के सामाजिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त की विवेचना करें ।

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प्रश्न – वाइगोस्टकी के सामाजिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त की विवेचना करें ।
(Describe the Vygotsky’s socio-cultural and socio-cognitive theory.) 

उत्तर – लेव वाइगोस्टकी एक रूसी मनोवैज्ञानिक थे जिनका जन्म सन् 1896 में सोवियत रूस में हुआ था । उसने प्याजे द्वारा विकसित संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त का कुछ सन्दर्भों में तो समर्थन किया है लेकिन कुछ सन्दर्भों में नहीं । जैसे, प्याजे ने अपने सिद्धान्त में बालक की परिपक्वता को तो महत्त्वपूर्ण माना लेकिन उसने बालक के सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण की अनदेखी की है जबकि वाइगोस्टकी बच्चे के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्त्वपूर्ण स्थान देता है और यही कारण है कि उसके संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त को सामाजिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। प्याजे ने अपने सिद्धान्त में यह स्पष्ट कहा था कि बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में उनकी संस्कृति एवं शिक्षा की भूमिका महत्त्वपूर्ण नहीं होती है जबकि वाइगोस्टकी का मानना है कि बच्चे चाहे जिस आयु के हों उनके संज्ञानात्मक विकास में उनकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का महत्त्वपूर्ण योगदान अवश्य रहता है । अर्थात् बच्चे का संज्ञानात्मक विकास अन्तरवैयक्तिक सामाजिक संदर्भ में सम्पन्न होता है । वाइगोस्टकी ने इस संदर्भ में होने वाले संज्ञानात्मक विकास से सम्बन्धित तीन संप्रत्ययों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है –

  1. वास्तविक विकास स्तर (Level of Actual Development) — विकास के इस स्तर का सम्बन्ध बालक की उस योग्यता से है जहाँ तक वह बिना किसी व्यक्ति की सहायता लिए अपना कार्य भली-भाँति स्वयं कर लेता है । विकास के इस स्तर को विकास का वर्तमान स्तर भी कहते हैं |
  2. संभावित विकास स्तर (Level of Proximal Development ) — विकास का संभावित स्तर वह कहलाता है जहाँ बालक स्वयं तो उस कार्य को नहीं कर पाता लेकिन दूसरों की सहायता या मार्गदर्शन प्राप्त करके उस कार्य को करने में सफल हो जाता है।
  3. निकटस्थ विकास क्षेत्र (Zone of Proximal Development) – प्रथम विकास स्तरों अर्थात् वास्तविक विकास स्तर तथा संभावित विकास स्तर के बीच के अन्तर को निकटस्थ या समीपस्थ विकास क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । इस क्षेत्र से अभिप्राय उन जटिल कार्यों की सीमा रेखा या विस्तार निर्धारित करने से है जहाँ तक बालक उन कार्यों को स्वयं तो स्वतंत्र रूप में नहीं कर सकता लेकिन दूसरे योग्य, अनुभवी एवं कुशल व्यक्तियों के सहयोग से उन्हें कर लेता है ।

उदाहरण के तौर पर मान लीजिए अभिसार गणित में तीन संख्याओं का लघुत्तम समापवर्तक अथवा महत्तम समापवर्तक तो स्वयं आसानी से कर लेता है लेकिन तीन से अधिक संख्याओं का LCM या HCF स्वयं नहीं कर पाता । तो वह क्रिया इस बालक के वास्तविक विकास स्तर को दर्शाती है। और यदि यही बालक तीन से अधिक संख्याओं का LCM या HCF अपने अभिभावकों, मित्रों, भाई-बहिनों या टयूटर की सहायता से आसानी से कर पाता है तो यह क्रिया इस बालक के निकटस्थ विकास क्षेत्र की परिधि तय करेगी। ठीक इसी प्रकार यदि कोई बालक स्वयं खड़ा नहीं हो पाता है लेकिन अपनी माँ के दोनों हाथों से सहारा पाकर खड़ा हो जाता है और कुछ समय बाद माँ की एक ऊँगली पकड़कर ही खड़ा हो जाता है और अन्ततः बालक बिना किसी सहारे के स्वयं खड़ा हो जाता है तो इस प्रकार एक के बाद एक क्रम से दी जाने वाली क्रमिक सहायता मचान अथवा पाड़ कहलाती है । ZPD का चित्रात्मक स्वरूप निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है —

वाइगोस्टकी ने इस तथ्य पर भी विचार किया कि व्यस्कों के साथ की गई सामाजिक ने अन्तः क्रिया बालकों के संज्ञानात्मक विकास में किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होती है। देखने में आया कि यह सब पारस्परिक शिक्षण के रूप में घटित होता है जिसमें शिक्षक या अन्य व्यक्ति तथा बालक बारी-बारी से क्रिया को इस तरीके से सम्पादित करते हैं कि जिसमें शिक्षक या अन्य व्यक्ति बालक के लिए एक आदर्श भूमिका के रूप में कार्य करे । साथ ही, इस विभिन्न अन्तः क्रियाओं के दौरान व्यक्ति मचान अथवा पाड़ का भी काम करता है जिससे भी उस बालक का संज्ञानात्मक विकास प्रभावित होता है । मचान अथवा पाड़ से तात्पर्य एक ऐसी मानसिक संरचना से होता है जिसका उपयोग बालक नए कार्यों अथवा नए प्रकार के चिन्तन को करते समय करता है । वास्तव में यह एक ऐसी सामाजिक अन्तःक्रिया है जिसे शिक्षण करते समय छात्र को दिए गए पाड़ को उसके निष्पादन के सन्दर्भ में समायोजित करने का प्रयास किया जाता है ताकि फिर बाद में बालक धीरे-धीरे बिना समर्थन प्राप्त किए ही अपने निष्पादन स्तर को बेहतर बनाए रख सके। ZED में मचान या पाड़ का एक महत्त्वपूर्ण साधन, संवाद या वार्तालाप होता है । वाइगोस्टकी का मत था कि बच्चों में प्रारम्भ में संप्रत्यय अव्यवस्थित, असंगठित, स्वाभाविक होते हैं लेकिन जब ऐसे बालक अपने से अधिक योग्य, कुशल एवं अनुभवी लोगों से वार्तालाप करते हैं तो इनके ये संप्रत्यय व्यवस्थित, क्रमबद्ध, तर्किक एवं तर्कसंगत हो जाते हैं । यह सब एक प्रकार से पारस्परिक शिक्षण का ही परिणाम है जिसमें शिक्षक एक मॉडल के रूप में कार्य करता है । निकटस्थ विकास क्षेत्र एक प्रकार से बालकों के लिए नए कार्यों को करने के लिए प्लेटफार्म तैयार करता है जो उसकी मानसिक संरचना को नए ढंग से चिन्तन करने में सहायता प्रदान करता है ।

वाइगोटस्की ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास में भाषा एवं चिन्तन के योगदान को भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। वे मानते हैं कि छोटे बालकों द्वारा भाषा का प्रयोग मात्र सामाजिक वार्तालाप हेतु नहीं किया जाता बल्कि इसका उपयोग वे अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने में भी करते हैं । बालक जंब आत्म-नियमन के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो इसे आन्तरिक भाषण या निजी भाषण कहा जाता है । इस बिन्दु पर प्याजे तथा वाइगोस्टकी एकमत नहीं है। प्याजे की दृष्टि में यह निजी सम्भाषण अपरिपक्व तथा आत्म-केन्द्रित होता है जबकि वाइगोस्टकी इसे बालक की प्रारम्भिक अवस्था के चिन्तन का महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं ।

वाइगोटस्की के अनुसार शुरू – शुरू में बालकों में भाषा एवं चिन्तन दोनों ही स्वतंत्र रूप से विकसित होते हैं जो कालान्तर में आपस में एक हो जाते हैं । उसका मत था कि सभी प्रकार के मानसिक कार्यों का सामाजिक या बाहरी उद्भव होता है । इसीलिए अपने चिन्तन पर ध्यान केन्द्रित करने से पूर्व बालकों को दूसरों के साथ बातचीत करने के उद्देश्य से भाषा को सीखना आवश्यक समझा जाता । इस प्रकार बालकों को लम्बे समय तक बाहरी दुनिया के सम्पर्क में रहकर वार्तालाप स्थापित करने की दृष्टि से भाषा का प्रयोग करते रहना पड़ता है । इसके बाद ही वे सही ढंग से बाहरी सम्भा प्रक्रिया से भीतरी सम्भाषण प्रक्रिया की उन्मुख हो पाते हैं तथा इस प्रक्रिया में दक्ष हो पाते हैं । यह प्रक्रिया 3 से 7 साल के बच्चों के बीच होती है जिसमें बच्चे स्वयं से बातचीत करना सीख लेते हैं । इसके बाद आत्म-बातचीत का यह सिलसिला बच्चों के स्वभाव में आ जाता है तथा वे बिना स्पष्ट रूप से बोले ही किसी कार्य को ठीक से करने की क्षमता विकसित कर लेते हैं जो आगे चलकर चिन्तन प्रक्रिया को सहज बना देती है। वाइगोटस्की का यह भी मत है कि ऐसे बच्चे जो अधिक से अधिक निजी सम्भाषण का उपयोग करते हैं वे सामाजिक रूप से उन बच्चों की अपेक्षा अधिक दक्ष होते हैं जो ऐसे सम्भाषण का उपयोग नहीं करते हैं या वस्तु कम करते हैं । अधिकांश शोध कर्त्ताओं ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि बच्चों के विकास में निजी सम्भाषण भी धनात्मक भूमिका रहती है। साथ ही, बालकों के संज्ञानात्मक विकास में शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी गई है जिसके अन्तर्गत दूसरे योग्य, कुशल, एवं ज्ञानवान लोगों का सहयोग लिया जा सकता है ।

संज्ञानात्मक विकास में भाषा के महत्त्व को स्वीकार करते हुए हीथरिगंटन तथा पार्क लिखते हैं—

“Language plays on important role in Vygotskian theory. As children begins to use social speech, egocontric speech and inner speech, they learn to communicate and to form thoughts and regulate intellectual functions.”

शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implications) — यदि हम वाइगोस्टकी के सिद्धान्त का मूल्यांकन करे तो हम इस सिद्धान्त की शैक्षिक उपयोगिता इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं—

  1. टेनेनबाम तथा लीपर के अनुसार-“जो माता-पिता अपने बच्चों के वैज्ञानिक कार्य में प्रबल भाषा का प्रयोग करते हैं उन बच्चों का संज्ञानात्मक विकास अपेक्षाकृत दृढ़ होता है । “
  2. टप्पन, माहन तथा अन्य के अनुसार—”ZPD में मचान या पाड़ का महत्त्वपूर्ण साधन संवाद होता है । “
  3. अजमिटिया के अनुसार के अनुसार–“सामाजिक अन्तः क्रिया से बच्चे विशिष्ट प्रकार के कौशल आसानी से सीख लेते हैं । “
  4. ऐस्टिंगटन, पासर और स्मिथ के अनुसार—“बालक अपने सहपाठियों के साथ अनतःक्रिया करके भी बहुत सीख लेते हैं। “
  5. रोवे तथा वर्टस्क के अनुसार — “अकेले सीखने के स्थान पर व्यस्क लोगों के साथ अन्तः क्रिया करके भली प्रकार सीखा जा सकता है । “
  6. यह सिद्धान्त सम्पूर्ण शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में छात्रों के सक्रिय बने रहने पर बल देता है।
  7. यह सिद्धान्त बालकों की शिक्षा में अध्यापक, माता-पिता एवं पारस्परिक शिक्षण के महत्त्व को स्वीकारता है ।
  8. यह सिद्धान्त बालकों के संज्ञानात्मक विकास में संस्कृति (Culture) को महत्त्वपूर्ण स्थान देता है ।
  9. यह सिद्धान्त सामाजिक संदर्भों पर विशेष ध्यान देता है ।
  10. यह सिद्धान्त सामाजिक संस्थाओं के महत्त्व को स्वीकार करता है ।
  11. भाषा एवं चिन्तन इस सिद्धान्त के दो प्रमुख आधार स्तम्भ हैं जो इस सिद्धान्त को प्याजे के सिद्धान्त से अलग करता है ।
  12. समीपस्थ विकास क्षेत्र इस सिद्धान्त का सबसे महत्त्वपूर्ण सप्रत्यय है ।

उपरोक्त विशेषताओं के बावजूद इस सिद्धान्त की सबसे प्रमुख सीमा यह है कि इस सिद्धान्त को प्याजे के सिद्धान्त की तरह प्रामाणिक परीक्षणों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्यों के आलोक में नहीं परखा गया है । अतः इस सिद्धान्त को ठोस मान्यता प्रदान करने की दृष्टि से इसे शोध अध्ययनों द्वारा वैधकरण करने की आवश्यकता है। फिर भी यह सिद्धान्त संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र से विशिष्ट स्थान रखता है ।

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