विभिन्न भाषाई कौशलों की संकल्पना पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर – जीवन में भाषा का बड़ा महत्त्व है । प्राणी की भाषा जितनी समुन्नत होगी प्राणी उतनी ही उन्नति कर पायेगा, ऐसी सम्भावना है। भाषा सांकेतिक अथवा व्यक्त हो सकती है। कुछ जीव जो बोल नहीं पाते हैं अपनी शारीरिक हरकतों से ही अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर लेते हैं किन्तु इस प्रकार से विचारों की अभिव्यक्ति बड़ी सीमित होती है। प्राणी की भाषा जैसे-जैसे समुन्नत तथा परिष्कृत होती है उसके विचारों के आदान-प्रदान करने की क्षमता उतनी ही बढ़ जाती है। मनुष्य भी एक प्राणी है, किन्तु अपनी भाषा शक्ति के कारण ही वह विश्व के अन्य प्राणियों पर शासन कर रहा है। भाषा के कारण ही मनुष्य ने अपना शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक विकास किया है। सामाजिक संस्कृति, औद्योगिक प्रतिष्ठानों तथा नये-नये उपयोगी संगठनों का निर्माण मनुष्य ने केवल अपनी भाषा – क्षमता के कारण ही सम्भव बनाया ।
श्रवण (सुनना), बोलना, पढ़ना तथा लिखना सामान्यतः ये चार आधारभूत भाषायी कौशल हैं। भाषा के क्षेत्र में व्यक्ति तभी उन्नत हो सकता है जब वह अच्छा तथा कुशल वक्ता होता है। श्रोता के लिए श्रवण (सुनना) की दक्षता तथा योग्यता का होना आवश्यक है। शरीर में कर्ण (कान) वह अंग है जो सुनने का कार्य करते हैं। बाहरी वातावरण में जो भी ध्वनि आती है वह वायुमण्डल में तरंगों के माध्यम से कानों तक पहुँची है। कान उन तरंगों को ग्रहण करते हैं तथा तरंगों को मस्तिष्क में भेजते हैं। मस्तिष्क उन तरंगों को ध्वनि संकेतों में परिवर्तित कर उन्हें सार्थकता प्रदान करते हैं ।
संरचना की दृष्टि से अध्ययन करें तो हम कान (कर्ण) को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं –
(1) अन्तस्थ कर्ण,(2) मध्य कर्ण तथा(3) बाह्य कर्ण ।
श्रवण तन्त्र
इस तन्त्र में बाह्य भाग शरीर के बाहर बना दिखाई देता है जिसके मध्य एक छेद भी दिखाई देता है । छिद्र श्रवण-नलिका से जुड़ा होता है । बाह्य-कर्ण की रचना ऐसी होती है जो बाह्य- ध्वनि तरंगों को ग्रहण कर सरलता से मध्य भाग को पहुँचाती है । श्रवण – नलिका में बड़ी मात्रा में रोयें तथा कर्ण – मोम (Ear Wax) ग्रन्थि होती है । जो कान में धूल तथा छोटे कीड़े आदि को जाने से रोकती है । बाह्य ध्वनि तरंगों के आघात में मुग्दर तरंगों के अनुरूप क्रियाशील होता है तथा कर्ण-पटल पर तद्नुसार ही आघात करता है । यह ध्वनि में बदलते हैं ।
सुनने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण भाषा कौशल है बोलना । भाषा को इस प्रकार से बोला जाय कि सुनने वाला उसे ठीक प्रकार से अर्थ ग्रहण करते हुए स्पष्ट रूप से सुन सके। बोलने के कौशल का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से शब्दोच्चारण, धारा प्रवाहिता तथा सार्थकता से है । उच्चारण स्पष्ट तथा शुद्ध हो, बोलने में धारा प्रवाहित हो, वाक्यांश टूटे-फूटे न हों तथा भाषा से व्यक्त विचारों की सार्थकता स्पष्ट होनी चाहिए ।
भाषा-कौशलों के श्रेणी में अगला कौशल पढ़ना है। पढ़ने के कौशल का सम्बन्ध वाचन से है। वाचन सस्वर हो सकता है अथवा मौन । वाचन इसी प्रकार गहन हो सकता है अथवा द्रुत | सस्वर तथा मौन आदि प्रकार के वाचनों की आगे विस्तर से चर्चा की है। सुनना तथा पढ़ना दोनों ही शब्द भण्डार में वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
भाषा के आ कौशलों में लिखने का कौशल भी अपना महत्त्व रखता है। बोलना तथा लिखना विचार अभिव्यक्ति के उत्तम माध्यम हैं। जिस प्रकार से बोलना स्पष्ट होना चाहिए ठीक उसी प्रकार से लेख भी सुपाठ्य तथा सुन्दर होना चाहिए। लिखना सीखने के लिए हम विविध नियमों, विधियों तथा प्रकारों का प्रयोग करते हैं। वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों का निवारण, सुलेख, अनुलेख प्रतिलेख, श्रुतलेख आदि द्वारा लिखित कौशल का विकास करते हैं। इसी प्रकार गृह कार्य, कक्षा कार्य, अक्षर-विन्यास आदि का सीधा सम्बन्ध लेखन कौशल से है ।
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