सीखने के पठार से आप क्या समझते हैं ? अधिगम में पठार के कारणों की विवेचना करें ।

दूसरे शब्दों में, सीखने के वक्र में एक अवस्था ऐसी भी आती है जब वक्र नीचे या ऊपर जाने के स्थान पर सीधी रेखा में आ जाता है, अर्थात् वक्र आधार रेखा के समान्तर सीधी रेखा में चलने लगता है। ये पठार निश्चित तौर पर सीखने की गति में अवरोध उत्पन्न करते हैं । वस्तुतः सीखने में पठार आना आवश्यक एवं स्वाभाविक है । इनके उपस्थित होने पर व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम इन पठारों की अनदेखी करने लगें और लापरवाह हो जाएं। पठार-काल एक प्रकार से पाचन-काल होता है, उदाहरणार्थ- जिस प्रकार एक बार किए गए भोजन को पचाए बिना शरीर दूसरा भोजन ग्रहण नहीं करता उसी प्रकार हमारा मस्तिष्क भी पूर्व अर्जित ज्ञान को बिना ठीक से सीखे अथवा समझे आगे बढ़ना नहीं चाहता। सीखने में पठार आने के अनेकों कारण हो सकते हैं । ये पठार कब या कितने समय के लिए आते हैं, इसका कोई निश्चित समय नहीं होता । ये एक व्यक्ति के सीखने में जल्दी और उसी कार्य को दूसरे के सीखने में देरी से आ सकते हैं। इसका उपयुक्त उदाहरण- टाइपिंग है जिसमें पठारों का आना अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में रैक्स तथा नाइट लिखते हैं—“ सीखने पठार तब आते हैं जब व्यक्ति सीखने की एक अवस्था पर पहुँच जाता है और दूसरी में प्रवेश करता है ।’ यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि ये पठार कंब तक रहते हैं । इसका उत्तर देते हुए सोरेन्सन लिखते हैं—‘‘सीखने की अवधि में पठार साधारणत: कुछ दिनों, कुछ सप्ताहों या कुछ महीनों तक रहते हैं। ”
कुछ विद्वानों ने पठार को निश्चित शब्दों में इस प्रकार परिभाषित किया है-
रॉस (Ross)—‘‘सीखने की प्रक्रिया की एक मुख्य विशेषता पठार है । ये उस अवधि को बताते हैं जब सीखने की प्रक्रिया में कोई उन्नति नहीं होती है । ”
बोरिंग, लेंगफील्ड तथा वेल्ड – ” पठार का रूप प्राकृतिक होता है, इन्हें समाप्त किया जा सकता है तथा पठार जैसी स्थिति सदैव नहीं रहती है । ”
रच—“पठार व अवस्था है जिसमें अधिगम का आभास नहीं होता है, अधिगम वक्र में यह समतल (सपाट) दिखाई देता है । ”
पठारों के कारण (Causes of Plateaus) — अधिगम में पठार बनने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
- दैहिक सीमा (Physiological Limit)—अधिगम की परिस्थिति में दैहिक सीमा का भी प्रदर्शन हो सकता है । यह वह सीमा है जिसके उत्पन्न होने पर कार्य में उन्नति रुक जाती है । यह कार्यक्षमता की अन्तिम सीमा है, अर्थात् दैहिक सीमा का तात्पर्य व्यक्ति के अन्तिम क्षमता स्तर से है । इसके बाद जितनी भी अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाएँ, कार्य में पुन: प्रगति का प्रदर्शन सम्भव नहीं हो पाता है। रच ने लिखा भी है, “कार्य करने की उत्तम विधियों, समुचित प्रेरणा एवं अथक प्रयास के बावजूद व्यक्ति का भी निष्पादन अन्त में उस बिन्दु पर पहुँचता है जिसके बाद उन्नति बिल्कुल ही नहीं प्रदर्शित होती है; इसे ही दैहिक सीमा कहते हैं।” इससे स्पष्ट है कि दैहिक सीमा व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित की जा सकने वाली क्षमता का अन्तिम स्तर है। जैसे 100 मीटर की दौड़ को 9.5 सेकण्ड से कम में कुछ ही लोग तय कर पाते हैं और कोई व्यक्ति अत्यधिक तैयारी के बावजूद इसे 9 सेकण्ड से कम समय में नहीं तय कर पाया है। इस गोचर पर वैयक्तिक भिन्नताओं का स्पष्टतया प्रभाव पड़ता है; जैसे—कम बुद्धिमान, अस्वस्थ एवं कम अनुभवी व्यक्ति में यह सीमा शीघ्र प्रदर्शित होती है ।
गेट्स व अन्य के अनुसार– “शारीरिक सीमा योग्यता की वह मात्रा है जिसका कि एक विशेष व्यक्ति अतिक्रमण नहीं कर सकता, क्योंकि जन्म से प्राप्त गतिविधि एवं मानसिक प्रतिक्रियाओं की गति की जटिलता की सीमाएँ निश्चित होती हैं ।मनोशारीरिक सीमा (Physiological Limit) — सीखने में पठार इसलिए आता है कि व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक सीमा होती है। उसके बाद उसे थकान आ जाएगी, सिरदर्द प्रारम्भ हो सकता है । सीमा के बाद व्यक्ति कुछ नहीं सीख सकता । रायबर्न लिखता है कि ‘प्रत्येक कार्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति में अधिकतम कुशलता होती है, जिससे आगे वह नहीं बढ़ सकता, इसको शारीरिक सीमा कहते हैं। जब व्यक्ति इस सीमा पर पहुँच जाता है तब उसके सीखने में पठार बन जाता है । “
- नकारात्मक कारक (Negative factors) — सीखने में रुचि का अभाव, व्यक्ति की परिपक्वता का अभाव, ज्ञान का अभाव, प्रेरणा, जिज्ञासा का अभाव, थकान, निराशा, आलस्यता, मानसिक तनाव, उत्साहहीनता का अभाव, दूषित वातावरण एवं पारिवारिक कठिनाइयाँ, बीच-बीच में ध्यान भंग होना, भविष्य में पुरस्कार की आशा न होना इत्यादि ऐसे कारक हैं जिनसे सीखने की गति बहुत ही धीमी, लगभग रुक जाने की स्थिति में आ जाती है जिससे पठार बन जाते हैं ।
- कार्य की जटिलता (Complexity of the work) — सीखे जाने वाले कार्य में जितनी अधिक जटिलता होगी, उसके सीखने में शिथिलता आती जाएगी । यहाँ तक कि पठार बन जाएगा। बालक की क्षमता, योग्यता एवं रुचि के अनुसार ही सीखने का कार्य बालक को दिया जाना चाहिए अथवा पठार को दूर करने के उपाय ढूँढ़ने चाहिए । साथ ही, सीखने के लिए अधिक मात्रा में सामग्री नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से सीखने वाले में अरुचि, थकान, व अवधान में विचलन के संकेत दिखलाई पड़ जाते हैं ।
- सीखने की अनुचित विधि (Wrong method of learning)– शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने नई-नई विधियों का आविष्कार किया है। छोटे-छोटे बच्चों को खेल-खेल के माध्यम से ज्ञान दिया जाना सम्भव हो गया है। छात्र, विषय, रुचि एवं क्षमताओं के अनुसार अध्यापन की विधियों का चुनाव करके छात्र को ज्ञान दिया जाना चाहिए । इसी प्रकार छात्र ने सीखने की कोई गलत विधि अपना ली है तो शीघ्र ही पठार आ जाएगा । ऊँगलियों से गिनती करने वाला छात्र बड़ी संख्याओं के गिनने में थकान एवं जटिलता का अनुभव करेगा एवं उसमें शीघ्र ही पठार आ जाएगा । पठार को दूर करके ही सीखने की प्रक्रिया तेज की जा सकेगी ।
- पुरानी आदतों तथा नई आदतों में संघर्ष (Conflict between old and new habits) — पुरानी आदतों से अभ्यस्त छात्र जब नए तरीके को अपनाता है तो उसे दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जिससे उसमें पठार आ जाता है । बाएँ हाथ से लिखने का आदी छात्र दाएँ हाथ से लिखने के लिए जोर देता है तो उसको अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। वास्तव में पुरानी आदतें शक्तिशाली होने के कारण नई आदतों के सीखने में बाधा डालती है।
- जटिल कार्य के केवल एक पक्ष पर ध्यान (Emphasis on one aspect of complex work)—किसी भी जटिल कार्य को सीखने के लिए उसके प्रत्येक अंश पर ध्यान देना चाहिए । जटिल कार्य के प्रत्येक भाग के एक-एक हिस्से को सीखने के बजाए समग्र रूप से सीखना चाहिए। सितार बजाने के लिए सितार को ठीक ढंग से सँभालने, ऊँगलियों को तार पर रखकर उसे बजाने, ताल ठीक रखने एवं उपकरण को एक साथ भार सीखना चाहिए। यदि केवल उँगलियाँ चलाते रहें और सितार को संभालना न आया तो शीघ्र ही पठार आ जाएगा ।
- प्रेरणा का अभाव (Lack of motive) – सीखते समय यदि छात्र को उत्साहित एवं प्रेरित नहीं किया गया तो कुछ देर बाद ही बालक में सीखने के प्रति अरुचि जाग्रत हो जाएगी जो पठार बनने का माध्यम बन सकती है ।
सीखने वाले की शारीरिक एवं मानसिक दशा का बार-बार मूल्यांकन करना चाहिए । इससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक तैयारी क्षमता एवं रुचि का पता चलता रहेगा ।छात्र को लगातार प्रेरणा देते रहना चाहिए जब तक सीखने का लक्ष्य पूरा न हो जाए । प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित हो जाने पर उससे जो पुरस्कार मिलेगा उस पुरस्कार की कल्पना मात्र से बालक अधिक से अधिक विषयों के सीखने की चेष्टा अध्ययन के द्वारा करता है ।
- प्रेरणा एवं रुचि के अभाव में पठार उत्पन्न हो सकते हैं, अतः प्रयोज्य को पूरी रुचि के साथ कार्य करना चाहिए ।
- कार्य के प्रति तटस्थ दृष्टिकोण अपनाने पर पठार पैदा हो सकते हैं, अतः व्यक्ति को समुचित तालमेल के आधार पर कार्य करना चाहिए ।
- थकान एवं अस्वस्थता भी पठार में सहायक है, अतः इन पर नियन्त्रण करना चाहिए ।
- संवेगात्मक अस्थिरता पठार को बढ़ावा देती है, अतः व्यक्ति को स्थिर मन से कार्य करना चाहिए ।
- कार्य को बाधक प्रभावों से बचाया जाना चाहिए अन्यथा पठार का प्रादुर्भाव हो सकता है ।
- यदि सीखने में समुचित विधि का उपयोग नहीं किया जा रहा है तो पठार उत्पन्न हो सकता है । अतः, सामग्री के स्वरूप को ध्यान में रखकर विधि का चयन करना चाहिए ।
- सीखने में शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं की एक सीमा होती है । पठार आ जाने पर कुछ विश्राम देने से शरीर और मस्तिष्क नए सिरे से सीखने के लिए तरोताजा हो जाते हैं ।
- अध्यापक का व्यवहार स्फूर्तिदायक होना भी पठार निवारण के लिए आवश्यक है।
- पठार से बचने के लिए अध्यापक को पाठ्य सामग्री का संगठन इस प्रकार से करना चाहिए कि सामग्री का संगठन ‘सरल से कठिन की ओर’ हो ।
- सीखने का पर्यावरण उपयुक्त हो जिससे सीखने वाला अपने ध्यान को एकाग्र कर सके ।
- पाठ को रोचक बनाकर उसमें नवीनता लाने से पठार दूर हो सकते हैं ।
सोरेन्सन ने कहा है कि “शायद ऐसी कोई विधि नहीं है जिससे पठारों को बिल्कुल समाप्त किया जा सके, उनकी संख्या तथा अवधि को कम किया जा सकता है । “
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