सृजनात्मक बालकों की शिक्षा पर प्रकाश डालें।
- शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों को आदरपूर्ण भाव से समझें ।
- शिक्षक बालकों के कल्पनात्मक एवं असाधारण विचारों के प्रति भी आदर भाव रखें जिससे बालक सृजनशील हो सके ।
- बालकों को इस बात का अहसास कराया जाए कि शिक्षक की दृष्टि से उनके विचारों का मूल्य है |
- स्वतः प्रेरित अधिगम तथा उनके मूल्यांकन पर बल दिया जाए साथ ही मूल्यांकन इस प्रकार किया जाए कि छात्र के अन्दर अपने व्यवहार के कारण एवं परिणामों को देखने की योग्यता में वृद्धि हो ।
- शिक्षक छात्रों की स्वक्रिया पर बल दें और उन्हें स्वक्रिया हेतु प्रोत्साहित करें ।
- अनुक्रियात्मक वातावरण के प्रति विशेष ध्यान रखा जाए ताकि बालक संगत प्रतिक्रिया करने में सक्षम हों एवं उनमें सृजनात्मकता विकसित हो सके ।
- शिक्षकों को कर्तव्य है कि वे बालकों की तत्पर संकल्पनाओं का संशोधन करें । इसके अन्तर्गत अवरोध पैदा करने की जगह पुनर्परीक्षण किया जाए और बालकों को अनुकूल सहायता प्रदान की जाए।
- अपनी संभावनाओं के विषय में बालकों में आत्मधारण का विकास करना भी शिक्षकों का कर्त्तव्य है ।
- विद्यालय में समस्या समाधान की अन्य अनुशासित प्रक्रियाएँ होनी चाहिए ।
- सामग्री के पैकेजों सम्बन्धी जटिल कार्यक्रम की व्यवस्था ।
- सृजनात्मक चिन्तन के अभ्यास और अध्यापन के लिए साधन के रूप में सृजनात्मक कलाएँ स्थापित होना ।
- सृजनात्मक चिन्तन के अभ्यास एवं अध्यापन के लिए साधन के रूप में बनाए गए साधन और पठन कार्यक्रम |
- विद्यालय में सृजनात्मक चिन्तन व अधिगम के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने के लिए पाठ्यक्रम सम्बन्धी तथा प्रशासन सम्बन्धी प्रबन्ध होना चाहिए ।
- विद्यालय में समय-समय पर अभिप्रेरणा, पुरस्कार व प्रतियोगिता आदि सम्पन्न की जानी चाहिए ।
- परीक्षण परिस्थितियों को सुविधानुसार बनाने के लिए विद्यालय में व्यवस्था होनी चाहिए ।
उपर्युक्त सभी बातों पर ध्यान देने के अतिरिक्त विद्यालय में यह ध्यान देना चाहिए कि विद्यालय में अनेक माध्यमों में अपसरण उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाए, जैसे— लिखित भाषा, वाणी, गीत, संगीत, कला आदि ।
गिलफोर्ड ने विचारों और आकार उत्पादनों के लिए तीन मुख्य अवसरण उत्पादन योग्यताएँ— धाराप्रवाहिता, मौलिकता तथा नम्यता बताई हैं, इनकी ओर भी शिक्षक को प्रारम्भ में ही ध्यान देना चाहिए तथा इसमें शीघ्रता भी नहीं अपनानी चाहिए तथा ऐसे प्रयासों के लिए पुरस्कृत किया जाना चाहिए जो परम्परा से अपनी मौलिकता से सम्बन्धित हों । सृजनात्मक व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से विद्यालय के वातावरण पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए । इसके लिए अध्यापक छात्र सम्बन्ध, अध्यापक-प्रधानाध्यापक सम्बन्ध, विद्यालय अभिभावक सम्बन्ध मधुर होने चाहिए। सेमिनार, संगोष्ठी, अध्यापक-अभिभावक संघ, काम देना, काम लेना आदि माध्यमों से अनुशासन स्थापित किया जाना चाहिए । पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का विकास भी आवश्यक है। इनके अतिरिक्त विद्यालय में पाठ्येत्तर पुस्तकों की व्यवस्था, बुलेटिन बोर्ड, विद्यालय पत्रिका, कक्षा पुस्तकालय, साहित्यिक एवं वाद-विवाद सभाएँ, ड्रामेटिक क्लब, प्रिय अभिरुचियों, प्रदर्शनी, मेले, विद्यालय शिविर, पिकनिक तथा सरस्वती यात्राएँ, स्काउटिंग, एन. पी. सी., सरकारी भण्डार, सामूहिक कार्य तथा खेल आदि के माध्यम से बालकों में सृजनात्मकता विकसित की जा सकती है ।
व्यक्ति की सृजनात्मक योग्यता को विकसित करना समाज एवं देश का परम कर्त्तव्य है अतएव वे सृजनशील प्रतिभाओं की उपलब्धि एवं अनुप्रयोग के लिए समुचित कार्यक्रम प्रस्तावित करें तथा ऐसे बालकों की शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध कर उनकी प्रतिभा को प्रस्फुटित एवं विकसित होने का समुचित अवसर दें जिससे वे देश, समाज, जाति आदि को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा सकें ।
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