स्मृति की परिभाषा दीजिए एवं स्मृति में निहित प्रक्रियाओं की विवेचना करें ।
उत्तर – स्मरण को शक्ति सिद्धान्तवादियों ने एक मानसिक शक्ति माना । उनके अनुसार स्मरण एक मानसिक शक्ति है, जिसे अभ्यास या प्रशिक्षण द्वारा बढ़ाया जा सकता है । परन्तु, आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार स्मरण एक मानसिक प्रक्रिया है, मानसिक शक्ति नहीं है । जिस प्रकार सवंदेना, प्रत्यक्षीकरण, ध्यान, आदि मानसिक प्रक्रियाएँ हैं, उसी प्रकार स्मरण भी एक मानसिक प्रक्रिया है । इस मानसिक प्रक्रिया द्वारा पूर्व अनुभूतियों या सीखी गई बातों को व्यक्ति वर्तमान चेतना में लाता है। किसी विषय को सीखते समय स्नायु कोशों में संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं, जिन्हें स्मृति चिह्न कहते हैं। स्मृति चिह्न के निर्माण की इसी प्रक्रिया को धारण कहते हैं। धारणा के आधार पर ही व्यक्ति सीखे गए विषय को चेतना में ला पाता है। सीखी गई बात या पूर्वअनुभव वास्तव में स्मृति चिह्न के रूप में ही सुरक्षित रहते हैं। स्मृति चिह्न के दुर्बल हो जाने या मिट जाने पर व्यक्ति अपने पूर्वअनुभव को अपनी वर्तमान चेतना में लाने में सफल नहीं होता है। इसे हम विस्मरण कहते हैं । अतः, पहले सीखी गई सामग्री के स्मृति चिह्नों को धारण करने तथा उन्हें वर्तमान चेतना में लाने की क्रिया को स्मरण कहते हैं । बेरोन ने भी इसी अर्थ में स्मरण या स्मृति को परिभाषित किया है। उनके अनुसार, “स्मृति वह संज्ञानात्मक तंत्र है, जिसके द्वारा हम सूचना को संजित करते हैं तथा उसे पुनः स्मरण में लाते हैं । ”
उपर्युक्त परिभाषा के विश्लेषण से स्मरण या स्मृति की निम्नलिखित अवस्थाओं या संघटकों का पता चलता है—
- संकेतन (Encoding) – स्मृति या स्मरण की पहली अवस्था या संघटक संकेतन है। इसका अर्थ यह है कि वाह्य उद्दीपन से किसी ज्ञानेन्द्रिय के उत्तेजित होने पर जो सूचना प्राप्त होती है, उसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क में समृति चिह्न का निर्माण होता है ।
- संचयन ( Storage) – स्मरण की यह दूसरी अवस्था का संघटक है। इसका अर्थ यह है कि पहली अवस्था में जिन स्मृति चिह्नों का निर्माण होता है, वे इस अवस्था के कुछ समय के लिए सुरक्षित रहते हैं।
- पुनः प्राप्ति (Retrieval) — स्मृति या स्मरण की तीसरी अवस्था को पुनः प्राप्ति कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि पहली अवस्था में जिस सूचना को व्यक्ति स्मृति चिह्न के में ग्रहण करता है तथा दूसरी अवस्था में संचित करता है, उसे तीसरी अवस्था में दुहराता रूप
उदाहरण – एक बालक को यह बतलाया गया कि ताजमहल को मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था। इस सूचना को उसने अपनी ज्ञानेन्द्रिय (कान) द्वारा ग्रहण किया, जिसका स्मृति चिह्न उसके मस्तिष्क में बन गए । इसे स्मृति की पहली अवस्था या संघटक कहा जाएगा । यह स्मृति चिह्न उसके मस्तिष्क में धारित हो गया । इसे स्मृति की दूसरी अवस्था कहा जाएगा । कुछ दिनों के बाद यह पूछे जाने पर कि ताजमहल किसने बनवाया था, उस बालक ने तुरंत उत्तर दिया कि ताजमहल को शाहजहाँ ने बनवाया था। इसे स्मृति की तीसरी अवस्था कहेंगे ।
इससे स्पष्ट हुआ कि स्मृति की उपयुक्त तीन अवस्थाएँ या संघटक होते हैं । स्मृति में निहित प्रक्रियाएँ (Processes involved in Memory) — स्मरण अथवा स्मृति में निम्नलिखित पाँच अवस्थाएँ या प्रक्रियाएँ निहित होती हैं—
- सीखना (Learning) – सीखना वास्तव में स्मरण की पहली अवस्था है । इसके बिना स्मरण सम्भव हो ही नहीं सकता है। पहले हम किसी विषय को सीखते हैं, जिससे मस्तिष्क में स्मृति-चिह्न का निर्माण होता है । उस विषय में सम्बन्धित अनुभव स्मृति चिह्न के रूप में सुरक्षित रहते हैं । इसलिए, हम उस विषय का स्मरण कर पाते हैं । यदि हम उस विषय को सीखें ही नहीं तो न उसके स्मृति चिह्न बनेंगे और न उसका स्मरण सम्भव होगा । अतः स्मरण की एक आवश्यक शर्त शिक्षण या सीखना है ।
- धारण (Retention) – स्मरण की दूसरी अवस्था यह प्रक्रिया धारण या धारणा है। धारण का अर्थ वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मस्तिष्क में स्मृति चिह्न बनते हैं। इसे सभी मनोवैज्ञानिक स्वीकार करते हैं । परन्तु, स्मृति चिह्न के स्वरूप के सम्बन्ध में मतभेद है, कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार स्मृति चिह्न का तात्पर्य स्नायु-कोश में होने वाले परिवर्तनों से है । कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिकों के अनुसार स्नायु पथ में होने वाले परिवर्तन को स्मृति चिह्न कहते हैं । इसी तरह, कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है कि स्मृति चिह्न वास्तव में पूर्वअनुभवों का प्रतिबिम्ब है। स्पष्टतः स्मृति चिह्न के स्वरूप के सम्बन्ध में सहमति नहीं है। फिर भी, सभी मनोवैज्ञानिक इतना स्वीकार करते हैं कि स्मृति चिह्न सबल भी होते हैं और दुर्बल भी । कई कारणों से सबल स्मृति चिह्न क्रमशः दुर्बल या क्षीण बन सकते हैं । अतः, स्मृति चिह्न हमारे मस्तिष्क में स्थाई रूप से सुरक्षित नहीं रहते, बल्कि समय – अन्तराल तथा अन्य कारणों से दुर्बल होते जाते हैं या मिट जाते हैं ।
स्मरण के लिए धारणा एक आवश्यक शर्त है । धारणा के अभाव में किसी चीज का स्मरण सम्भव नहीं है । स्मरण की कुशलता स्मृति चिह्न की कुशलता पर आधारित है। जिस विषय के स्मृति चिह्न सबल बनते हैं, वह विषय अधिक दिनों तक याद रहता है तथा व्यक्ति उसका प्रत्यावाह्न आसानी से कर पाता है। जिस विषय के स्मृति चिह्न कमजोर बनते हैं वह विषय अधिक समय तक याद नहीं रहता है और व्यक्ति प्रत्यावाह्न आसानी से नहीं कर पाता है । जैसे-जैसे स्मृति चिह्न दुर्बल होते जाते हैं, उस विषय की स्मृति क्षीण होती जाती है और अन्त में उसका विस्मरण हो जाता है । अतः स्मृति चिह्न मस्तिष्क में जब तक पूर्ण या आंशिक रूप में सुरक्षित रहते हैं, तब तक सम्बन्धित विषय का पूर्ण या आंशिक स्मरण रहता है और जब वे क्षीण हो जाते हैं या मिट जाते हैं तो उस विषय का स्मरण नहीं हो पाता है। इसीलिए कहते हैं कि धरणा की असफलता का अर्थ स्मरण की असफलता है।
- प्रत्यावाह्न (Recall or Recalling) – प्रत्यावाह्न स्मरण की तीसरी अवस्था या प्रक्रिया है। धारणा के मापक के रूप में इसे पहला मापक माना जाता है। प्रत्यावाह्न का अर्थ वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मौलिक उद्दीपन की अनुपस्थित में उससे सम्बन्धित पूर्व अनुभवों को हम अपनी वर्तमान चेतना में लाते हैं । एक बालक किसी सीखी गई कविता को जबानी सुनाता है तो वह कविता (मौलिक उद्दीपन) की अनुपस्थिति में उससे सम्बन्धित पूर्वअनुभूतियों को अपनी वर्तमान चेतना में लाता है । यही प्रक्रिया प्रत्यावाह्न है । यहाँ दो बातें मुख्य है । एक तो यह कि प्रत्यवाह्न में सीखा गया उद्दीपन या घटना अनुपस्थित होती है और दूसरी बात यह कि उस अनुपस्थित उद्दीपन या घटना से सम्बद्ध पूर्वअनुभव को वर्तमान चेतना में लाया जाता है ।
प्रत्यावाह्न के दो प्रकार हैं, जिन्हें पूर्ण प्रत्यावाह्न तथा आंशिक प्रत्यावाह्न कहते हैं । जब व्यक्ति किसी सीखे हुए विषय का प्रत्यावाह्न उसी रूप में कर देता है, जिस रूप में उसे सीखा था, तो पूर्ण प्रत्यावाह्न कहते हैं। दूसरी ओर यदि वह सीखे गए विषय के कुछ अंशों का प्रत्यावाह्न करता है और कुछ अंशों का नहीं करता है, तो उसे अपूर्ण या आंशिक प्रत्यावाह्न कहते हैं। एक बालक दस पंक्तियों की एक कविता याद करता है। कुछ समय बाद वह उसी रूप में पूरी कविता को जबानी सुना देता है । यह पूर्ण प्रत्यावाह्न का उदाहरण है। परन्तु, अधिक समय गुजर जाने के बाद वह केवल चार पंक्तियों को सुना पाता है और शेष पंक्तियों को सुनाने में सफल नहीं होता है। यह अपूर्ण या आंशिक प्रत्यावाह्न का उदाहरण है। ध्यान देने की बात यह है कि दोनों प्रकार के प्रत्यावाह्न से धारणा की जाँच होती है। लेकिन, पूर्ण प्रत्यावाह्न से प्रबल धारणा का पता चलता है जबकि आंशिक प्रत्यावाह्न से दुर्बल धारणा काबोध होता है । यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि यदि कोई व्यक्ति अपने पूर्वअनुभव का पूर्ण या आंशिक प्रत्यावाह्न नहीं कर पाये तो इसका अर्थ सदा यह नहीं है कि उस व्यक्ति में उस पूर्वअनुभव की धारणा बिल्कुल समाप्त हो गई है। सम्भव है कि स्मृति चिह्न इतने क्षीण हो गए हो कि मौलिक उद्दीपन के उपस्थिति होने पर पूर्वअनुभव की चेतना व्यक्ति को हो जाए । मान लें कि आपके मित्र का नाम ‘रमेश’ है। आप अपने मित्र के नाम का प्रत्यावाह्न करना चाहते हैं, परन्तु नहीं कर पाते हैं। जब कोई दूसरा व्यक्ति आपके मित्र का नाम लेता है तो आप तुरन्त कह बैठते हैं कि हाँ उसका नाम रमेश है। इसका अर्थ यह हुआ कि रमेश से सम्बन्धित अनुभव की धारणा आपके मस्तिष्क में अभी भी किसी-न-किसी रूप में सुरक्षित है । अतः, प्रत्यावाह्न की असफलता सदा स्मरण या धारणा की असफलता नहीं हो सकती ।प्रत्यावाह्न पर कई कारकों का प्रभाव पड़ता है। धारणा को प्रभावित करने वाले कारकों का प्रभाव प्रत्यावाह्न पर पड़ता है। इनमें मस्तिष्क की बनावट, सीखने वाले की आयु, बुद्धि, यौन, सीखने की विधि आदि महत्त्वपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त प्रत्यावाह्न पर साहचर्य का भी प्रभाव पड़ता है। दो समान उद्दीपनों या अनुभवों के बीच एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि एक उद्दीपन या अनुभव के उपस्थित होने पर दूसरे उद्दीपन या अनुभव का स्मरण हो जाता है। किसी मोटी – नाटी स्त्री को देखकर अपनी मोटी-नाटी पत्नी का स्मरण होना, अपने मित्र से मिलने पर कॉलेज – जीवन के अनुभवों का स्मरण होना, आदि साहचर्य के उदाहरण है ।
- पहचानना या प्रतिभिज्ञा (Recognizing or Recognition) — पहचानना स्मरण की चौथी अवस्था या प्रक्रिया है । धारणा के मापक के रूप में इसे दूसरा मापक माना जाता है। पहचानना का अर्थ वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति मौलिक उद्दीपन की उपस्थिति में उसे अपनी चेतना में लाता है। यहाँ दो बातें मुख्य है । एक तो यह कि पहचानना में मौलिक उद्दीपन उपस्थिति रहता है। दूसरी बात यह कि व्यक्ति अपने परिचित अनुभव को नए या अपरिचित अनुभवों से अलग कर लेता है।
प्रतिभिज्ञा या पहचानना के दो प्रकार हैं, जिन्हें निश्चित पहचानना तथा अनिश्चित पहचानना कहते हैं। निश्चित पहचानना उसे कहते हैं, जिसमें व्यक्ति को अपने पूर्व अनुभव की चेतना के साथ-साथ समय तथा स्थान का भी बोध होता है । यदि किसी व्यक्ति को पहचानते समय हमें इस बात का बोध हो कि उसका नाम अमुक है, उससे अमुक स्थान पर तथा अमुक समय भेंट हुई थी, तो इसे हम निश्चित पहचानना कहेंगे । दूसरी ओर अनिश्चित पहचानना उसे कहते हैं, जिसमें समय तथा स्थान का बोध नहीं होता है । यदि किसी व्यक्ति को पहचानते समय इस बात का बोध न हो कि उससे कहाँ और कब भेंट हुई थी, तो इसे अनिश्चित पहचानना कहेंगे । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पहचानना के दोनों प्रकारों से धारणा की जाँच होती है, परन्तु अनिश्चित पहचानना से अपेक्षाकृत दुर्बल धारणा का बोध होता है । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पहचानना की असफलता हमेशा धारणा की असफलता नहीं होती है । इसीलिए, एक तीसरे मापक का व्यवहार किया जाता है, जिसे पुन: सीखना कहते हैं । सम्भव है कि स्मृति चिह्न के अधिक क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति अपने पूर्वअनुभव को मौलिक उद्दीपन की उपस्थिति में भी पहचान न सके, परन्तु उस अनुभव को पहले की अपेक्षा इस बार कम ही समय में अर्जित कर ले । यदि ऐसा हो तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उस व्यक्ति में उस अनुभव की कुछ-न-कुछ धारणा अभी भी है ।
- पुन: सीखना (Relearning) — यह धारणा की तीसरी विधि या मापक है । इसे स्मरण की पाँचवीं अवस्था या प्रक्रिया भी कहते हैं। प्रत्यावाह्न तथा प्रतिभिज्ञा धारणा की प्रत्यक्ष विधियाँ हैं, जबकि पुनः सीखना धारणा की अप्रत्यक्ष- विधि है । प्रयोज्य को दस निरर्थक पदों की सूची एक निश्चित कुशलता – स्तर तक सिखलाएँ । कुछ समय बाद प्रत्यावाह्न-विधि या पहचान-विधि से उसकी जाँच करें कि सीखे गए पदों की धारणा है या नहीं । मान लें कि प्रयोज्य इन विधियों द्वारा सीखे गए पदों को व्यक्त करने में असफल हो जाता है । अब उसी सूची को फिर उसे सिखलाएँ। आप देखेंगे कि इस बार वह पहले की अपेक्षा कम ही प्रयत्नों में उस निश्चित स्तर तक उसे सीखने में सफल हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सूची के निरर्थक पदों की कुछ-न-कुछ धारणा प्रयोज्य में उपस्थित थी, जिस कारण सूची को दूसरी बार सीखने में समय या प्रयत्न की बचत हुई । यही बचत धारणा का संकेत देती है। इसीलिए, इस विधि को बचत – विधि कहते हैं। पहले शिक्षण की अपेक्षा दूसरे शिक्षण की अवस्था में प्रयत्न की बचत के प्रतिशत को व्यक्त करने के लिए सूत्र है —
एबिंगहॉस (Ebbinghaus) ने अपने क्लासिकी अध्ययन में धारणा की जाँच के लिए इसी विधि का व्यवहार किया। उन्होंने निरर्थक पदों की सात सूचियों को दो त्रुटिहीन प्रयत्नों तक सीखा और भिन्न-भिन्न समय-अन्तरालों के बाद धारणा की जाँच पुन सीखना – विधि द्वारा की ।
बर्ट (Burtt) के अनुसार धारणा की वास्तविक स्थिति को बतलाने में जहाँ दूसरी विधियाँ असफल हो जाती हैं, वहाँ बचत-विधि सफल प्रमाणित होती है ।
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