अध्यापक का परामर्शदाता एवं सामुदायिक के नेता के रूप में भूमिका का वर्णन करें ।
प्रश्न – अध्यापक का परामर्शदाता एवं सामुदायिक के नेता के रूप में भूमिका का वर्णन करें ।
उत्तर – अध्यापक परामर्शदाता के रूप में (Teacher as a Counsellor) – अध्यापकों को छात्रों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं का अच्छा ज्ञान होता है क्योंकि वे छात्रों के अधिक निकट सम्पर्क में आते हैं तथा छात्रों का अध्ययन विभिन्न परिस्थितियों में करते हैं।अतः वे निर्देशन तथा परस्पर कार्य में व्यापक सहयोग दे सकते हैं ।
अध्यापकों के इस दिशा में प्रमुख उत्तरदायित्व निम्नलिखित हो सकते हैं :
(i) छात्रों के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना ।
(ii) छात्रों के विकास के लिए उचित परिस्थितियाँ प्रदान करना ।
(iii) कुसमायोजित छात्रों का पता लगाना ।
(iv) छात्रों के अभिभावकों से समय-समय पर छात्रों की प्रगति के में परामर्श करना ।
(v) सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध स्थापित करना ।
(vi) सीखने में कठिनाई अनुभव करने वाले छात्रों के सम्बन्ध में परामर्शदाता की सहायता लेना ।
(vii) छात्रों को पुस्तकालय का उचित उपयोग सिखाना ।
(viii) पाठ्यक्रम सहभागी क्रियाओं में स्वयं भाग लेना तथा छात्रों को प्रोत्साहित करना ।
(ix) अपने विषयों से सम्बन्धित जीविकाओं एवं शैक्षिक अवसरों की छात्रों को सूचनाएँ देना ।
(x) समय पर छात्रों से साक्षात्कार करके उनकी रुचियों को जानना ।
(xi) निर्देशन कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए प्रधानाचार्य तथा परामर्शदाता को सहयोग देना ।
(xii) अपने विषय में नये ढंग के टैस्ट बनाना तथा छात्रों का परीक्षण लेना ।
(xiii) छात्रों को अध्ययन सम्बन्धी अच्छी आदतें निर्माण करने में सहायता देना ।
(xiv) छात्रों को संक्षिप्त भाषण देना सिखाना ।
निर्देशन तथा परामर्श कार्य में अध्यापक तभी पर्याप्त सहायता दे सकते हैं जब वे छात्रों को भली प्रकार समझने का प्रयास करें । वे बच्चे को केवल निस्सहाय प्राणी के रूप में न समझें । वे प्रत्येक छात्र के व्यक्तित्व को समझें। छात्रों के बारे में अपने निर्णय ध्यानपूर्वक उचित तथ्यों के आधार पर दें । तथ्यों को विभिन्न विश्वसनीय सूत्रों से इकट्ठा किया जाए । वे इस बात का भी ध्यान रखें कि उनके व्यक्तित्व का भी छात्रों पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
अध्यापक समुदाय के नेता के रूप में (Teacher as a Community Leader) – अध्यापक को समाज तथा समुदाय के प्रकाश स्तम्भ की संज्ञा दी गई है। उसे समाज का पथ-प्रदर्शन माना गया है । शिक्षा आयोग 1964-66 ने शिक्षा की समुदाय तथा समाज में भूमिका पर प्रकाश डालते हुए लिखा, “यदि बिना किसी हिंसात्मक क्रान्ति के बड़े पैमाने पर यह परिवर्तन करना है तो केवल एक ही साधन है जिसका प्रयोग किया जा सकता है और वह है शिक्षा । अन्य तत्व इसमें सहायता कर सकते हैं और वास्तव में, कभी-कभी तो उनका प्रभाव ऊपरी तौर पर अधिक भी जान पड़ता है। परन्तु शिक्षा ही राष्ट्रीय प्रणाली का एक ऐसा साधन है जो सभी जनसमुदाय तक पहुँच सकता है ।” यह कार्य शिक्षा अध्यापकों के माध्यम से ही कर सकती है ।
शिक्षक समुदाय में नेतृत्व का कार्य दो प्रकार से करता है : (i) स्कूल के भीतर कार्य, (ii) स्कूल के बाहर कार्य
स्कूल के भीतर अध्यापक विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों द्वारा छात्रों में नेतृत्व के गुणों का विकास करता है तथा प्रशिक्षण प्रदान करता है। स्कूल इस प्रकार समुदाय के भावी नेता तैयार करता है । परम्परागत दृष्टिकोण से माना जाता है कि अध्यापक समुदाय के अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक प्रभावी होता है, विशेषकर ऐसे समुदाय में जहाँ अधिकांश जनसंख्या निरक्षर रही हो, अंधविश्वासों में जकड़ी हुई हो । अध्यापक समुदाय को सामाजिक कुरीतियों से अवगत कराते हैं। उनमें वैज्ञानिक दृष्टि तथा सोच का विकास करते हैं । समुदाय में प्रौढ़ शिक्षा कार्य को बढ़ावा देते हैं ।
भारत की अधिकांश जनसंख्या सैंकड़ों वर्षों तक अनपढ़ रही है । ऐसा भी समय था जब कि गांवों में कुछ लोग ही पढ़े-लिखे थे तथा व्यवसाय भी बहुत कम थे । पत्र पढ़ने-पढ़ाने का कार्य भी अध्यापक ही किया करते हैं । अतः अध्यापक का समाज में ऊँचा स्थान था। इस कारण अध्यापक समुदाय को नेता के रूप में देखा जाता था ।
अध्यापक का समाज में कम होता स्तर तथा उसका सामाजिक परिवर्तन तथा नेता के रूप में अल्प योगदान (Diminishing Status and Marginal Leadership Role and Responsibilities of the Teacher in Social Change) – अनेक समाजशास्त्रियों के विचार में आज की परिस्थिति में अध्यापकों की भूमिका सामाजिक परिवर्तन में नगण्य है । एक समय था जबकि अध्यापक का स्थान समाज में ऊँचा था । उसे इतिहास का निर्माता कहा जाता था । परन्तु अब स्थिति इसके विपरीत है । आज समाज में उसे कहने को तो गुरु का दर्जा दिया जाता है परन्तु वास्तविक स्थिति कुछ और ही है। इसमें सन्देह नहीं कि आज समाज के मध्यम वर्ग से सम्बन्धित पुरुष सामान्यतः अध्यापक बनना नहीं चाहते । इस पेशे में न तो उचित मान रह गया है और न ही आय । ।
कक्षाओं में इतने छात्र होते हैं कि अध्यापक छात्र के व्यक्तिगत सम्पर्क के लिए बहुत ही कम समय मिलता है।
प्राचीन काल में ज्ञान का साधन अकेला शिक्षा ही हुआ करता था । सूचना के साध नों के विस्फोट के कारण अब ज्ञान प्राप्त करने के अनेक साधन हैं । कम्प्यूटर द्वारा अनेक प्रकार का ज्ञान मिल जाता है ।
प्राचीन काल में प्राय: छात्र एक ही अध्यापक (गुरु) से सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त करते थे । वह ही छात्र का धर्मगुरु था अर्थात् आध्यात्मिक विकास का मार्ग दर्शाता था । परन्तु आज कक्षा एक से लेकर कक्षा बारह तक एक छात्र बारह से भी अधिक अध्यापकों से शिक्षा ग्रहण करता है। उसी मात्रा में एक छात्र का अपने अध्यापक के प्रति मान-सम्मान कम हो जाता है।
आज दूरदर्शन, रेडियो तथा सम्पूर्ण मीडिया (Media) का बहुत प्रभाव पड़ रहा है। प्राथमिक कक्षाओं में अवश्य छात्र अध्यापक का उचित आदर करते हैं ।
इन सब कारणों से अध्यापक समुदाय में नेता के रूप में अध्यापक की भूमिका बहुत कम हो गई है ।
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