अभिभावक-बालक संबंधों के विकास पर प्रकाश डालें।
प्रश्न – अभिभावक-बालक संबंधों के विकास पर प्रकाश डालें।
उत्तर- अभिभावक – बालक सम्बन्धों के विकास का वर्णन यहाँ विकास अवस्थाओं के सन्दर्भ में किया गया है। इस दिशा में कुछ प्रमुख तथ्य निम्न प्रकार से हैं –
1. बचपनावस्था (Babyhood)
बचपनावस्था में बालक का वातावरण केवल परिवार तक ही सीमित होता है, अतः अभिभावक-बालक सम्बन्धों का प्रभाव उसके विकास पर बड़े ही महत्त्वपूर्ण ढंग से पड़ता है। उदाहरण के लिए कुछ अध्ययनों (J. Bowlby, et al., 1956; D. B. Gardner, 1961) में यह देखा गया है कि बालक को इस अवस्था में माता-पिता का स्नेह प्राप्त नहीं होता है, तो शान्त प्रकृति का हो जाता है यहाँ तक कि वह दूसरों की मुस्कान का भी कोई प्रत्युत्तर नहीं देता है। प्रत्येक बालक लगभग डेढ़ वर्ष की अवस्था तक माँ की अथवा माँ के समान किसी अन्य व्यक्ति की सहायता चाहता है। इस प्रकार की सहायता से उसमें सुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। बड़े परिवारों में माँ अधिक व्यस्त रहने के कारण बालक और माँ का उतना सम्बन्ध नहीं रह पाता है जितना कि छोटे परिवारों में होता है। बालकों के व्यक्तित्व विकास पर माँ के वचन (Deprivation) का बहुत गम्भीर प्रभाव पड़ता है। बालका-अभिभावक सम्बन्ध यदि अनुकूल नहीं है, तो बालक के बचपनावस्था के सुखद अनुभव भी इन सम्बन्धों को अनुकूल नहीं बना पाते हैं।
इस विकासात्मक अवस्था में माता-पिता की अभिवृत्तियाँ बहुत कुछ यह निर्धारित करती हैं कि बालक परिवार में किस प्रकार का समायोजन करेगा। बचपनावस्था में बहुधा तीन प्रकार की बाल – प्रशिक्षण (Child-Training) विधियों का उपयोग किया जाता है –
(i) प्रभुत्वपूर्ण विधि (Authoritarian Method)– इस विधि में अभिभावक बालक के साथ सख्ती का व्यवहार करते हैं और बालक को समय-समय पर दण्ड भी देते रहत हैं।
(ii) प्रजातान्त्रिक विधि (Democratic Method) — इस विधि में अभिभावक बालक को विभिन्न आदतें सिखाने में अधिक अनुमति देने वाले या छूट देने वाले होते हैं। अभिभावक उदारता अधिक सिखाने में अधिक दिखाते हैं तथा दण्ड कम देते हैं। वह बालक की योग्यताओं और क्षमताओं के अनुसार उसे प्रशिक्षण देते हैं।
(iii) अनुमतिपूर्ण विधि (Permissive Method) — इस विधि में अभिभावक बालक को उतनी छूट देते हैं जितना बालक चाहता है या जितनी छूट से बालक खुश हो जाता है। इस विधि के अनुयायी अभिभावक यह समझते हैं कि बालक जब अपने किए गए बुरे कार्यों के परिणाम भोगेगा तो स्वयं ही सुधर जाएगा। एक अध्ययन (J. Henry, 1961) में यह देखा गया कि केवल अत्यधिक शिक्षित माता-पिता ही अनुमतिपूर्ण विधि (Permissive Method) को अधिक अपनाते हैं।
बचपनावस्था में अभिभावक – बालक सम्बन्ध उस समय परिवर्तित हो जाता है जब बालक असहाय से अपेक्षाकृत स्वतन्त्र हो जाता है। अभिभावकों का बालकों के प्रति कैसा व्यवहार और सम्बन्ध होगा, यह बहुत कुछ बालकों के व्यहार प्रतिमानों पर निर्भर करता है कि अभिभावक बालकों का तिरस्कार करेंगे या उन्हें गले से लगाएँगे। यदि बालक अभिभावकों की प्रत्याशाओं के अनुकूल होता है तब निश्चित रूप से अभिभावक – बालक सम्बन्ध मधुर होते हैं उन माताओं के सम्बन्ध उनके बालकों से अच्छे नहीं होते हैं जो पहली बार माँ बनती है और अपने को माँ के उपयुक्त नहीं समझती हैं। उन माताओं के उनके बालकों से सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं जो अपने बालकों के सम्बन्ध में चिन्तित रहती हैं। इनकी चिन्ता का कारण बच्चों का रोना, सोना हाजमा, टट्टी और पेशाब आदि होते हैं। अध्ययनों (Hurlock, 1974) में यह देखा गया है कि बालक यदि अभिभावकों पर अधिक आश्रित रहता है, तो भी माता-पिता उससे प्रसन्न नहीं रहते हैं। फलस्वरूप बालक- अभिभावक सम्बन्ध तनावपूर्ण हो जाते हैं। परिवार में जब नए बालक का जन्म होता है तब माता-पिता का ध्यान नए बालक की ओर अधिक और बड़े बालक की ओर कम हो जाता है, फलस्वरूप अभिभावक-बालक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। बचपनावस्था का बालक माता-पिता में से किसी एक को वरीयता देने लगता है। वह जिसको वरीयता देता है उसके साथ उसके सम्बन्ध अधिक मधुर होते हैं।
2. प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early Childhood)
बचपनावस्था में अभिभावक-बालक सम्बन्धों में जो परिवर्तन प्रारम्भ होते हैं वह प्रारम्भिक बाल्यावस्था में उसी प्रकार आगे बढ़ते जाते हैं। अध्ययनों में यह देखा गया है कि इस दिशा में परिवर्तन प्रारम्भिक बाल्यावस्था में अपेक्षाकृत तीव्रगति से होते हैं। प्रारम्भिक बाल्यावस्था का बालक विद्रोही, शैतान, हठ करने वाला और दूसरों का ध्यान आकर्षित करने वाला होता है। वह इस अवस्था में पहले की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र हो जाता है। उसके अभिभावकों को उसकी देखभाल के लिए इस अवस्था में अधिक समय देना नहीं पड़ता है। अध्ययनों (J. H. S. Bossard. & E. S. Boll, 1966; R. R. Sears & E. E. Maccoby, 1967) में यह देखा गया है कि बालक इस अवस्था में यह भी चाहता है कि अभिभावक उसकी ओर ध्यान दें। जब माता-पिता बालक की प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं तब अभिभावक और बालक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। इस अवस्था में अभिभावक – बालक सम्बन्ध परिवर्तित होने के मुख्य कारण हैं-
(i) बालक में परिवर्तन (Changes in the Child) — जैसा पहले बताया जा चुका कि बालक इस विकास अवस्था तक विद्रोही, शैतान, हठ करने वाला और दूसरों का ध्यान आकर्षित करने वाला हो जाता है। उससे यदि कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वह मना करता है। बालक के यह परिवर्तन अभिभावक – बालक सम्बन्धों को ऋणात्मक दिशा में प्रभावित करते हैं।
(ii) अभिभावक वरीयता ( Parental Preference) — कुछ अध्ययनों (H. L. Rheingold, 1960; J. K. Lasko, 1954) में यह देखा गया है कि बच्चे इस अवस्था में किस अभिभावक के प्रति वरीयता प्रदर्शित करने लग जाते हैं। बहुधा बच्चे माँ को वरीयता देते हैं। माँ को वरीयता देने का मुख्य कारण यह है कि माँ बालक के साथ अधिक समय व्यतीत करती है। स्पष्ट है कि बालक के माँ के साथ पिता की अपेक्षा अच्छे सम्बन्ध होते हैं ।
(iii) अच्छे बालक का प्रत्यय (Concept of a good child) — अभिभावकों की यह एक प्रत्याशा होती है कि मेरा बच्चा अमुक प्रकार का होगा। यदि आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक एक अच्छे बालक के स्तर का नहीं बन पाता है, तो अभिभावकों को ठेस पहुँचती है, फलस्वरूप अभिभावक – बालक सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। हरलॉक (1978) ने लिखा है कि “जब अभिभावकों की प्रत्याशा के अनुरूप उनके बालक नहीं बन पाते हैं, यह उनकी अभिवृत्ति आलोचनात्मक और दण्डात्मक प्रकार की बन जाती है। जब अभिभावक बच्चों के प्रति बेरुख और कम स्नेहपूर्ण हो जाते हैं, तब बालक का व्यवहार प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अधिक नकारात्मक और परेशानी उत्पन्न करने वाला हो जाता है।” (“When the child does not come up to their expectations, they become critical and punitive in their attitudes. As they become less warm and affectionate, the child reacts by being more negativistic and troublesome.”)
(iv) स्वतन्त्रता (Independence) – बालक इस अवस्था तक काफी कुछ आत्म-निर्भर बन जाता है। माता-पिता उसकी देखभाल करना कम कर देते हैं, परन्तु बालक उनकी फिर भी सहायता चाहता है। इस अवस्था में भी बालक – अभिभावक सम्बन्धों के बिगड़ने की सम्भावना होती है।
कुछ अध्ययनों (R. Highberger, 1956; T. G. Alper. 1955) में यह देखा गया है कि जो बालक प्रजातान्त्रिक वातावरण में पलते हैं उन बच्चों का बाहर के व्यक्तियों के साथ समायोजन अच्छा होता है और जो बच्चे प्रभुत्वशाली वातावरण में पलते हैं, उनका समायोजन अभिभावकों के साथ सामान्य होता है।
3. पश्चात् बाल्यावस्था (Late Childhood)
इस अवस्था में बालकों में यह देखा गया है कि बालक- अभिभावक सम्बन्ध यदि अच्छे होते हैं तब बालक का सामाजिक समायोजन बाहर के व्यक्तियों से अच्छा होता है, परन्तु जब बालक – अभिभावक सम्बन्ध असामान्य होते हैं तब बालकों का उसके मित्रों से समायोजन मधुर नहीं होता है। एक अध्ययन (H. W. Reese, 1966) में यह देखा गया है कि बालक के साथ यदि माँ का व्यवहार प्रभुत्वशाली प्रकार का होता है । तब बालक के साथ माँ के सम्बन्ध तनावपूर्ण होते हैं, साथ ही साथ इस आयु का बालक अन्य लड़कियों के प्रति माँ के इस व्यवहार के कारण अरुचि प्रदर्शित करता है। जब परिवार में बालक पर प्रभुत्वशाली बाल-प्रशिक्षण विधि (Authoritarian Child Training Methods) का उपयोग किया जाता है तब अभिभावक के साथ बालकों का सम्बन्ध अनुयायी (Follower) प्रकार का होता है। जब परिवार में बालक का लालन-पालन प्रजातान्त्रिक (Democratic) प्रकार के वातावरण में होता है, तब बालक में नेतृत्व के गुण विकसित होते हैं। प्रजातान्त्रिक वातावरण में पलने वाले बच्चों में सृजनात्मक (Creativity) के गुण भी विकसित होते हैं तथा प्रभुत्वशाली वातावरण के पले बच्चों में अनुरूपता (Conformity) के गुण विकसित होते हैं।
कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि यदि बालक की अभिभावक आलोचना करते रहते हैं तो वह अभिभावकों का कहना नहीं सुनता है। यदि अभिभावक बालक को अक्सर मारते-पीटते रहते हैं तो बालक का व्यवहार भी प्रशंसनीय बन जाता है। जब माता-पिता उसके साथ शुद्ध ईमानदारीपूर्ण तथा सहनशीलतापूर्ण व्यवहार करते हैं तब बालक का • व्यवहार भी क्रमशः न्यायपूर्ण, सत्यपूर्ण और सहनशीलता पूर्ण होता है।
पश्चात बाल्यावस्था में अभिभावक – बालक सम्बन्धों को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। बालक-अभिभावक सम्बन्ध बन भी सकते हैं और बिगड़ भी सकते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण कारक निम्न प्रकार से हैं-
(i) अभिभावकों का व्यक्तित्व (Personality of Parents) — जो अभिभावक अधिक समायोजित प्रकार के होते हैं वह अपने बालकों के लिए भी अच्छा वातावरण प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार एक अध्ययन (J. L. Macfarlane, 1954) में यह देखा गया है कि जो माताएँ अपने आपको हीन समझती हैं बहुधा उनके बच्चे समस्यात्मक बनते हैं।
(ii) अभिभावकों की प्रत्याशाएँ (Parental Expectations) — एक अध्ययन (D.H. Russel, 1962) में यह देखा गया है कि जो अभिभावक अपने बालकों के लिए अत्यधिक प्रत्याशा रखते हैं और बच्चे उनकी प्रत्याशा के अनुसार व्यवहार नहीं कर पाते हैं, तो बच्चों में असुरक्षा की भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जब बच्चा लगभग छः-सात वर्ष का हो जाता है तब बालक के अभिभावक अपने इन बच्चों से यह आशा करने लग जाते हैं कि वह अपनी वस्तुएँ सम्भाल कर रखेंगें। अपने स्कूल समय से जाएँगे, समय से सोकर उठेंगे और समय से सोने जाएँगे, आदि। बालक अभिभावकों की आशाओं के अनुसार व्यवहार करेगा या नहीं यह मुख्यतः इस बात पर निर्भर करता है कि बालक को इस दिशा में किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया है ।
(iii) सामाजिक-आर्थिक स्तर (Socio-Economic Status)- जय बालक दूसरे के परिवार के पारिवारिक स्तर की तुलना अपने परिवार से करते हैं और इस तुलना में वह अपने परिवार के सामाजिक आर्थिक स्तर को निम्न स्तर का पाते हैं तो बच्चे का मन शिकायत और आलोचना से भर जाता है। इस अवस्था में बालक-अभिभावक सम्बन्धों के बिगड़ने की सम्भावना अधिक होती है।
(iv) अभिभावकों का व्यवसाय (Parental Occupations) अभिभावकों के व्यवसाय से बालकों की प्रतिष्ठा उनके समूह में बन भी सकती है और बिगड़ भी सकती है जब बालक के समूह में पिता के या माँ के व्यवसाय को हीन दृष्टि से देखा जाता है तब बालक की पिता और माँ के प्रति अभिवृत्ति बदल जाती है। इस अवस्था में बालक अभिभावक सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं।
4. प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early Adolescence)
किशोरावस्था के प्रारम्भ होते ही बालक-अभिभावक सम्बन्धों में बिगाड़ प्रारम्भ हो जाते है। किशोरावस्था में किशोर की आयु बढ़ने के साथ-साथ सम्बन्धों में बिगाड़ बढ़ता ही चला जाता है। सम्बन्धों में बिगाड़ में बालक और अभिभावक दोनों का ही योगदान रहता है। बहुधा ये देखा गया है कि अभिभावक इस अवस्था में किशोर के साथ वैसा ही व्यवहार करते है जैसा कि बाल्यावस्था में करते थे। अभिभावक बालक से बहुत उच्च आशाएँ रखते हैं, परन्तु व्यवहार उसके साथ ऐसा करते हैं जैसे वह बहुत छोटा बच्चा हो। इस अवस्था में बालक-अभिभावक सम्बन्धों के बिगड़ने की अधिक सम्भावना रहती है। इस अवस्था के किशोरों से अभिभावकों की यह भी शिकायत रहती है कि बालक अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करते हैं।
अनेक अध्ययनों (E. M. Duvall, 1965; L. S. Lewis, 1965; M. Powell, 1955) द्वारा यह तथ्य प्रकाश में आया है कि अभिभावक और बालकों के सम्बन्धों में बिगाड़ उस समय चरम सीमा पर होता है जब किशोरों की आयु लगभग चौदह से पन्द्रह वर्ष तक होती है। बहुधा किशोरों का सम्बन्ध पिता की अपेक्षा माँ से अधिक होता है, क्योंकि माँ पिता की अपेक्षा घर में अधिक रहती है और फिर पालन-पोषण का अधकांश भार माँ के ही ऊपर होता है। अतः इस अवस्था में सम्बन्धों में बिगाड़ भी पिता की अपेक्षा माँ से अधिक होता है। लगभग पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक माँ से सम्बन्धों में बिगाड़ बढ़ता है। इस आयु के बाद बालक के माँ से सम्बन्ध धीरे-धीरे मधुर होने लग जाते हैं। लगभग सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था में लड़कियों का उनके पिता के साथ सम्बन्ध बिगड़ सकता है। सामान्यत: यह देखा गया है कि बालकों- अभिभावकों के सम्बन्धों में बिगाड़ तेरह वर्ष की अवस्था तक चरम सीमा पर पहुँच कर धीरे-धीरे सुधार प्रारम्भ हो जाता है।
अपने समाज में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों पर प्रतिबन्ध अधिक होता है, अतः लड़कियों की अपेक्षा लड़कों और अभिभावकों के सम्बन्धों में तनाव और बिगाड़ शीघ्र और अधिक उत्पन्न होता है। अभिभावकों और बालकों के सम्बन्ध उस अवस्था में मधुर रह सकते हैं जब अभिभावक अपने बालकों को बच्चा न समझ कर उनकी आयु के अनुसार व्यवहार करें।
5. पश्चात् किशोरावस्था ( Late Adolescene)
किशोरों की जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है अभिभावकों को वैसे-वैसे यह अनुभव होने लग जाता है कि उनके बालक अब बच्चे नहीं हैं, बड़े हो रहे हैं। जब अभिभावकों में यह अनुभव होते हैं तो निश्चय ही वह अपने बालकों को अधिक सुविधाएँ देते हैं। उन्हें उनकी आयु के अनुसार कार्य और उत्तरदायित्व भी देने लग जाते हैं। अध्ययनों (L. S. Lewis, 1965 R. C. Bealer, et al., 1964) में यह देखा गया है कि जब अभिभावकों का उनके बालकों के प्रति व्यवहार समायोजनपूर्ण रहता है तो बालकों का व्यवहार भी समायोजनपूर्ण होता है और अभिभावक-बालक सम्बन्धों में जो तनाव होते हैं वह इस अवस्था में कम हो जाते हैं। पश्चात् किशोरावस्था में किशोरों को जो स्वतन्त्रता चाहिए यदि वह स्वतन्त्रता कुछ प्रतिबन्धों के साथ भी उन्हें मिल जाती है तो भी किशोरों के उनके अभिभावकों के साथ सम्बन्ध अच्छे रहते हैं। पश्चात् किशोरावस्था में समय बढ़ने के साथ-साथ अभिभावकों के साथ किशोरों के सम्बन्ध मधुर होते जाते हैं। अभिभावकों और किशोरों में एक पीढ़ी का अन्तर (Generation Gap) पड़ जाता है। सांस्कृतिक परिवर्तनों और मूल्यों के परिवर्तनों के कारण वह अन्तर आता है । इस अन्तर को Generation Gap की अपेक्षा Cultural Gap कहना अधिक उपयुक्त है। पीढ़ी और सांस्कृतिक अन्तरों के कारण भी किशोरों और अभिभावकों के सम्बन्धों में एकरसता नहीं आ पाती है। यह अन्तर उनके सम्बन्धों में भी अन्तर उत्पन्न करता है। यदि अभिभावक नए सांस्कृतिक मूल्यों को अपना लेते हैं तो उनके सम्बन्ध अपने बालकों के साथ मधुर रहते हैं। इस सम्बन्ध में हरलॉक (1976) ने लिखा है कि “बहुत से किशोर यह अनुभव करते हैं कि उनके संरक्षक उनको समझते नहीं हैं, क्योंकि उनके संरक्षक पुराने फैशन वाले हैं। किशोरों का इस प्रकार का अनुभव करना आयु में अन्तर के कारण न होकर सांस्कृतिक अन्तर के कारण होता है।” (“Many adolescents feel that their parents do not understand them and their standards of behaviour are old fashioned. This is due to the cultural gap than do differences in age.”) वर्णन करें।
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