अस्थि अक्षमता के कारणों की विवेचना करें ।

प्रश्न – अस्थि अक्षमता के कारणों की विवेचना करें ।
उत्तर – जन्म से पूर्व (Pre-natal) :
(i) आनुवंशिक माता-पिता के शारीरिक अंग का दोषपूर्ण होना, जैसे- पैर टेढ़ा होना, कूबड़ा होना, हाथ छोटा होना आदि के कारण बच्चा अस्थि अक्षम हो सकता है। (ii) गर्भावस्था में नशीले पदार्थों का सेवन करना । (iii) गर्भावस्था में बिना डॉक्टरी परामर्श के स्वेच्छा से किसी प्रकार की दवा का सेवन करना । (iv) जन्मजात अनियमितता गर्भावस्था में माँ को पौष्टिक आहार न मिलने से बच्चों में जन्मजात दोष उत्पन्न होना । (v) गर्भावस्था में माँ का चेचक से ग्रसित होना । (vi) गर्भावस्था में माता का रक्ताल्पता, रूबेला, सिफलिस आदि रोगों से पीड़ित होना । (vii) 18 वर्ष से पूर्व और 35 वर्ष की उम्र के बाद बच्चे का जन्म होना । (viii) गर्भ के समय माँ का दुर्घटनाग्रस्त होना । (ix) एक्स-रे का प्रभाव | (x) रक्त समूहों की विषमता ।
> जन्म के समय (Natal) :
(i) संक्रामक रोग से ग्रसित हो जाना । (ii) बच्चे का वजन कम होना । (iii) अप्रशिक्षित दाई से प्रसव कराना । (iv) बच्चे का देर से रोना । (v) प्रसव के दौरान बच्चे के सिर पर चोट लगना । (vi) प्रमस्तिष्क घात । (vii) जन्म में फॉरसेप का उपयोग ।
> जन्म के बाद (Post Natal) :
(i) दुर्घटनाएँ छत से गिरने, गोली लगने, साइकिल, खेल, दौड़ने, फिसलने, वज्रपात, विद्युत स्पर्शघात आदि दुर्घटनाओं से बच्चे अस्थि अक्षमता के शिकार हो सकते हैं ।
(ii) मस्तिष्कीय आघात बच्चों के मस्तिष्क में गति-संबंधी क्रियाओं को नियंत्रित करनेवाले अंश को क्षति पहुँचना ।
(iii) बच्चे को जन्म के बाद संतुलित आहार न मिलना
(iv) पूरे शरीर या किसी अंग – विशेष की मांसपेशियों की संवेदनशीलता कम हो जाना या कमजोर पड़ जाना (पक्षाघात या लकवा) ।
(v) किसी दुर्घटना या ऑपरेशन के दौरान किसी अंगविशेष का शरीर से अलग हो जाना यानी अंग- विच्छेदन होना ।
(vi) पोलियो से ग्रसित होना ।
(vii) मेरुदण्ड में किसी प्रकार की चोट पहुँचना ।
(viii) बीमारी के कारण बच्चे का गठिया, मधुमेह, रक्ताल्पता (एनीमिया) रोग से ग्रसित होना ।
हल्लहन और कॉफमैन (1991) ने शारीरिक विकलांगता के कारणों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा है :
1. न्यूरॉलॉजिकल इम्पेयरमेंट 2. मांसपेशीय – कंकाल अक्षमता 3. जन्मजात आंगिक विकृति 4. दुर्घटनाएँ एवं अन्य शारीरिक अवस्थाएँ ।
1. न्यूरोलॉजिकल अक्षमताएँ (Neurological Impairment) – केन्द्रीय तंत्रिका कें विभिन्न भागों मस्तिष्क और सुषुम्ना नाड़ी के क्षतिग्रस्त हो जाने से बच्चों में कई तरह की शारीरिक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये विकृतियाँ हैं :
(i) सेरेब्रल पॉल्सी (Cerebral Palsy)-प्रमस्तिष्क घात को चिकित्सकीय भाषा में सेरेब्रल पाल्सी या सी. पी. कहा जाता है । यह कोई रोग नहीं है बल्कि विकास के दौरान केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में आनेवाली विकृति है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति का शारीरिक गति और हाव-भाव में असामान्य बदलाव आता है । यह मानव जीवन की अधिकांश गतिविधियों
को प्रभावित करता है। इससे पीड़ित बच्चे मानसिक मंदता के शिकार हो जाते हैं । भाषाई दोष एवं अधिगम विकृतियाँ उनकी गतिविधियों को प्रभावित करती है। बर्गेस (1888) ने इन सभी लक्षणों की सम्मिलित रूप से प्रमस्तिष्क घात नाम दिया । गर्भस्थ शिशु से लेकर पाँच वर्ष तक की आयु वाले बच्चों में इस विकृति के होने की संभावना अत्यधिक होती है। कुल बाल आबादी का 0.15 प्रतिशत हिस्सा सेरेब्रल पॉल्सी के शिकार बच्चों की है। बालिकाओं की अपेक्षा बालक इससे ज्यादा पीड़ित होते हैं ।
निःशक्त व्यक्ति अधिनियम (1995) की धारा 2 (ड) और राष्ट्रीय न्यास अधिनियम (1999) की धारा 2 (ग) के अधीन सेरेब्रल पॉल्सी को परिभाषित किया गया है । इसके मुताबिक–“सेरेब्रल पॉल्सी ” किसी व्यक्ति की अविकासशील अवस्थाओं का समूह अभिप्रेत है, जो विकास की प्रसवपूर्ण, प्रसवकालीन या बाल अवधि में होनेवाला दिमागी आघात या क्षति से परिणामिक प्रसामान्य प्रेरक नियंत्रण स्थिति द्वारा अभिलक्षित होता है । “
बच्चों में सेरेब्रल पॉल्सी सामान्यतः तीन अवस्थाओं में होती है। पहली अवस्था है गर्भधारण से लेकर बच्चों के जन्म लेने तक की अवधि । इसे जन्म-पूर्व अवस्था कहा जाता है । दूसरी अवस्था जिसके दौरान इस विकृति के विकसित होने की प्रबल संभावना होती है वह है जन्म से प्रथम सप्ताह तक की अवधि | तीसरी अवस्था है जन्म के बाद वाली अवस्था, जिसे जन्म-पश्चात् अवस्था कहा जाता है । ।
सामान्यतः शिशु अपने माता के गर्भ में पलता – बढ़ता है। इस दौरान जब किसी कारणवश गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क में चोट लग जाए या फिर गर्भाश्य में उसकी स्थिति असामान्य हो जाए तो भी शिशु में सेरेब्रल पॉल्सी के लक्षण विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है।
अपरिपक्व व कम वजन (2 किग्रा.) वाले नवजात शिशुओं में भी प्रमस्तिष्कीय अंगघात (सी. पी.) होने की संभावनाएँ बनी रहती है। कभी-कभी गर्भिनी माताओं को लम्बे अर्से तक दर्द का सामना करना पड़ता है खासकर बच्चा जनने के समय | इंट्रायूटेराइन दबाव के चलते गर्भास्थ शिशु के मस्तिष्क से रक्तस्राव होने लगता है । जन्म के समय मस्तिष्क में होने वाली क्षति भी सी. पी. का कारण बनती है। बच्चा जनने के समय गर्भिनी माताओं को कभी-कभी फिट (मिरगी) आने लगता है इसका भी बुरा असर गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। गर्भस्थ शिशु के पीलिया (जांडिस ) ग्रस्त हो जाने से भी उनमें सेरेब्रल पॉल्सी के लक्षण विकसित होने की संभावनाएँ बढ़ जाती है । नौ महीने गर्भ में रहने के बाद जन्म लेने वाले, किन्तु अविकसित बच्चे या फिर जन्म के बाद देर से होने वाले बच्चे भी चिंता का विषय बन जाते हैं । इस विकृति के लक्षणों के विकसित होने की संभावनाएँ तब और बढ़ जाती है जब गर्भस्थ शिशु रूबेला, सायटोमिगैली एवं हर्पस वायरस से संक्रमित हो जाता है।
अगर नवजात शिशुओं में या बाल्यावस्था में बच्चे मेनिनजाइटिस, इन्सेफलाइटिस, मस्तिष्कीय चोट, बुखार के बाद मिरगी, या जांडिस के शिकार हो जाएँ तो भी उनमें प्रमस्तिष्कीय अंगघात (सी. पी.) होने का रिस्क सर्वाधिक होता है । कुछ बच्चों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाली क्रोमोसोम संबंधी अनुवांशिकीय विकृतियों के चलते भी सी.पी. के लक्षण विकसित होने लगते हैं। शुरूआती दौर में तो सी. पी. होने के कारणों का पता लगाना आसान होता है मगर कभी-कभी यह मुश्किल हो जाता है |
2. मांसपेशीय – कंकाल अक्षमता (Musculoskeletal Impairment) – मांसपेशीय अथवा अस्थि में विकृति आ जाने अथवा कोई रोग हो जाने के कारण भी कई बच्चे शारीरिक विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। इससे बच्चों के हाथ, पैर, जोड़ या मेरुदण्ड की गतिविधियाँ प्रभावित होती है। लिहाजा बच्चों की उठने-बैठने और चलने-फिरने में कठिनाई होती है । यह जन्मजात भी हो सकता है और अर्जित भी । नीचे कुछ मांसपेशीय-कंकाल विकृतियों का वर्णन किया जा रहा है :
(i) मांसपेशीय अपकर्ष (Muscular Dystrophy) – मांसपेशीय उत्तक के कमजोर हो जाने के कारण कुछ बच्चे विकलांग हो जाते हैं। कभी-कभी तंत्रिका कोशिकाओं के नष्ट हो जाने से मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती हैं। इस अवस्था को मांसपेशीय अवक्षय कहते हैं । अगर न्यूरो संबंधी बीमारी के साक्ष्य मौजूद न हों तो इस अवस्था को मायोपैथी कहा जाता है । लेकिन मांसपेशीय अपकर्ष एक आनुवंशिक रोग है जिसमें मांसपेशीय तंतुओं के क्षरण के कारण पीड़ित बच्चे की मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती है ।
बच्चों में सामान्यत: तीन तरह की मांसपेशीय अपकर्ष पाई जाती है – (i) स्यूडोहाइपारट्राफी या डचेन-मस्कूलर डिस्ट्रॉफी (ii) फैशियोस्कैप्यूलोह्यूमरल और (iii) लिम्ब-गल मस्क्यूकूलर डिस्ट्रॉफी ।
स्यूडोहाइपरट्रॉफी केवल बालकों में होती है । यह उस वक्त दृष्टिगोचर होता है जब बालक चलना सीखता है। किशोरावस्था के शुरू में ही ऐसे बच्चे को ह्वील चेयर की आवश्यकता होती है । वहीं फैसियोस्कैप्यूलोह्यूमरल मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी बालक और बालिकाएँ दोनों में पाया जाता है। यह पहली बार किशोरावस्था में दिखता है। इससे पीड़ित बच्चों के कंधे, बाँह और कपाल की मांसपेशियाँ प्रभावित होती है । लिम्ब-गर्ड्स मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी जीवन के किसी भी अवस्था में हो सकती है। इसमें अधिकांशतः श्रेणी मेखला की मांसपेशियाँ ही प्रभावित होती है। मांसपेशीय अपकर्ष से केवल बच्चे चलन निःशक्तता के शिकार होते हैं। इससे बौद्धिक गतिविधियाँ कतई प्रभावित नहीं होता है ।
(ii) संधिशोथ (Arthritis) – यह एक ऐसा रोग है जिसमें शरीर की संधियों में सूजन और दर्द हो जाता है। लिहाजा संधियों अथवा जोड़ों की गति धीमी होने लगती है । इसे ‘गठिया’ भी कहा जाता है । यह रोग मनुष्य के किसी भी अवस्था में हो सकता है । संधिशोथ दो प्रकार के होते हैं—(क) रह्यूमैट्वाइड आर्थाइटिस और (ख) ऑस्टियो- आथ्राइटिस ।
रह्यूमैट्वाइड आथ्राइटिस से पीड़ित बालकों के जोड़ों में दर्द, सृजन व कड़ापन आ जाती है । कभी-कभी प्रभावित बच्चों में बुखार, वजन की कमी, श्वसन की समस्या एवं हृदय की समस्या की शिकायत भी होती है । इस संधिशोध से पीड़ित बालकों के हाथ के जोड़, कलाई, पैर, घुटने आदि प्रभावित होते हैं । बालिकाओं की अपेक्षा ज्यादातर बालकों में ही यह बीमारी पाई जाती है। वहीं ऑस्टियो- आथ्राइटिस से पीड़ित बच्चों के जोड़ों के इर्द-गिर्द की कार्टिलेज क्षतिग्रस्त हो जाती है । इससे रीढ़, नितम्ब और घुटने आदि प्रभावित होते हैं । इस तरह के ।
संधिशोध अधिकांशतः वृद्ध लोगों में पाई जाती है। 60 वर्ष से अधिक आयु के करीब 75 प्रतिशत लोगों में इसके होने की संभावना अधिक होती है।
(iii) पांवफिरा (Clubfoot) – इसके अंतर्गत एक या दोनों पैर टखने के पास गलत कोण पर मुड़ जाती है ।
3. जन्मजात आंगिक विकृति (Congenital Malformations) – जन्मजात आंगिक विकृति भी शारीरिक विकलांगता का एक प्रमुख कारण है। बैटशॉ और पेरेट (1986) के अनुसार जीवित पैदा होने वाले कुल बच्चों में से 3 प्रतिशत बच्चे जन्मजात आंगिक विकृति के शिकार होते हैं । जन्मजात हृदय और रक्त कोशिका विकृति इसका जीता जागता उदाहरण है । इस विकृति के अन्य उदाहरण हैं कूल्हे का संधिभंग जन्मजात हाथ-पैर विकृति आदि ।
आनुवंशिक विकृति के चलते भी बच्चों में जन्मजात आंगिक विकृति होती है । इसके अलावा विषाणु, जीवाणु, विकिरण और रासायनिक पदार्थ माता-पिता के क्रोमोसोम को नष्ट कर देते हैं और भ्रूणीय विकास में भी हस्तक्षेप करते हैं । गर्भावस्था के दौरान माता के औषधि सेवन, बीमारियों एवं अन्य जहरीले पदार्थों की सेवन से उनके गर्भस्थ शिशु के आंगिक विकृतिग्रस्त पैदा होने की संभावना ज्यादा होती है।
रूबेला पीड़ित माताओं के बच्चों में भी इस प्रकार की आंगिक विकृति पाई जाती है । पचास और साठ के दशक के दौरान गर्भिनी महिलाओं के इलाज के लिए प्रचलित औषधि थैलीडोमाइड के चलते हजारों बच्चे हाथ-पैर की विकृति लिए पैदा । इन बच्चों में फोकोमेलिया नामक आंगिक विकृति होती है जिससे पीड़ित बच्चे बहुत छोटे हाथ-पाँव लिए पैदा होते थे या फिर बगैर हाथ-पैर के ।
विल्सेनेक, क्लासेन और विल्सेनेक (1984) ने अपने अध्ययन में पाया कि बीयर, वाईन और लीकर में उपस्थित एथाईल अल्कोहल में कैंसर, म्यूटेशन और जन्मजात विकृति पैदा करने में सक्षम है । अत्यधिक मात्रा में अल्कोहल सेवन करने वाली गर्भिनी महिलाओं से जन्म लेने वाले बच्चों के अल्कोहल एम्ब्रियोपैथी पीड़ित होने की संभावना सर्वाधिक होती है।
4. दुर्घटनाएँ एवं अन्य शारीरिक अवस्थाएँ (Accidents and Other Physical Conditions) – कभी-कभी ऊँचाई से गिरने, जल जाने, विषपान और मोटर साइकिल, साइकिल व अन्य मोटर वाहनों के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से बच्चे और युवा अस्थि विकलांगता के शिकार हो जाते हैं । इन दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप उनके समक्ष तंत्रिका संबंधी विकृति एवं अंग-भंग के साथ बच्चों में कई तरह की शारीरिक, मानसिक एवं शैक्षिक समस्या उत्पन्न हो जाती है । इसके अलावा कई अन्य तरह की शारीरिक अवस्थाएँ बालक के विकास को प्रभावित करती है जिनमें कुछ प्रमुख अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं:
(क) एड्स (AIDS)- एड्स यानि ‘एक्वायर्ड इम्यून डिफिसिएन्सी सिन्ड्रोम’ एक विषाणुजन्य रोग है जो एच. आई. बी. विषाणु से फैलता है । यह विषाणु पीड़ित व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट कर देती है। यह असुरक्षित यौन संबंध, निर्जीवाणुकृत सूई के उपयोग और रक्ताधान के माध्यम से होता है । यह एक लाईलाज बीमारी है जिसके हो जाने से व्यक्ति की मृत्यु निश्चित होती है ।
(ख) मधुमेह (Diabetes) शरीर में इन्सुलिन नामक हार्मोन के पर्याप्त भाग में प्राव नहीं होने से पीड़ित व्यक्ति के रक्त और मूत्र में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। लिहाजा यकृत में ग्लाइकोजेन का संचय नहीं हो पाता है। फलतः यकृत में पूर्व संचित ग्लाइकोजेन का उपयोग होता रहता है। इस तरह ग्लाइकोजेन की मात्रा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। ऐसी स्थिति में तन्तुओं के प्रोटीन और संचिता वसा, शर्करा में परिवर्तित होने लगते हैं। इससे रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। यह शर्करा मूत्र के माध्यम से बाहर निकलने लगती है। शरीर की इस अवस्था को मधुमेह की संज्ञा दी जाती है। इससे प्रभावित व्यक्ति के समक्ष कई तरह की शारीरिक एवं मानसिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है।
(ग) तपेदिक ( Tuberculosis)-बैसिलस ट्यूबरक्यूलोसिस बैक्ट्रिया के संक्रमण पीड़ित व्यक्ति में ज्वर, रात्रि में पसीना आना, भूख में कमी, वजन में ह्रास, पाचन और तंत्रिका में गड़बड़ी, कफ और कब्जियत आदि लक्षण दिखने लगते हैं। इसमें हल्का ज्वर बना रहता है जो अपराह्न में थोड़ा बढ़ जाता है। पूरे लक्षण को तपेदिक (टी.बी.) कहा जाता है ।. जब टी. बी. व्यक्ति के अस्थि को प्रभावित करता है तो उसे अस्थि तपेदिक कहा जाता है। इसकी तरह अंग विशेष में हुए संक्रमण के अनुसार तपेदिक कई तरह के होते हैं उदाहरणार्थ, फुफ्फुसीय टी.बी., आँत की टी. बी. आदि । ।
अस्थमा, सिस्टिक फाइब्रोसिस, नेफ्रोसिस, नेफ्राइटिस, हीमोफिलिया और कैंसर आदि कुछ ऐसे रोग हैं जो बच्चों के शारीरिक एवं शैक्षिक विकास को प्रभावित करते हैं ।
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