आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू की भूमिका की समीक्षा कीजिए ।

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प्रश्न – आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू की भूमिका की समीक्षा कीजिए ।
उत्तर : स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम पंक्ति के योद्धा व स्वतंत्रा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एक युग प्रवर्तक थे। उनके व्यक्तित्व में पूर्वी सभ्यता का उच्च आध्यात्म तथा पश्चिमी सभ्यता की वैज्ञानिकता का अभूतपूर्व समिश्रण था । आधुनिक भारत में नेहरू का योगदान किसी एक क्षेत्र में नहीं था, बल्कि इसका दायरा व्यापक था, जो निम्नवत हैं –
  • स्पष्ट दृष्टिकोण- आधुनिक भारत के निर्माण को संदर्भ में नेहरू की नीति बिल्कुल स्पष्ट थी। उनकी सोच और सपने ने ही आधुनिक भारत की नींव रखी। अगर वर्त्तमान में भारत में एक सशक्त लोकतंत्र है, तो उसका पूरा श्रेय नेहरू को ही जाता है। क्योंकि इसकी नींव उन्होंने ही रखी थी। पीपीपी (PPP) में भारत अगर आज विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो इसका श्रेय भी पं० नेहरू को ही जाता है, क्योंकि उन्होंने ही कई सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की स्थापना करवाई है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कंपनियों के सहयोग से देश में बड़े-बड़े उद्योगों की भी स्थापना करवाई। अगर भारत में आज प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है, तो इसका श्रेय भी नेहरू को ही जाता है, क्योंकि उन्होंने कई प्रयोगशालाओं की स्थापना करवाई। उन्होंने ही हमें यह विश्वास दिलाया की भारत विश्व विकास के मार्ग पर चलकर विश्व का अग्रणी राष्ट्र बनेगा। पं० नेहरू ने ही देश की अर्थव्यवस्था को पिछड़ी एवं निर्भर अर्थव्यवस्था से अग्रणी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने के मार्ग पर चलाया।
  • नेहरू और संसदीय लोकतंत्र – नेहरू ने स्वतंत्र भारत में संसदीय सरकार और जनवाद को बड़ी सावधानी से पाला-पोसा और इसकी जड़ें मजबूत की। संविधान निर्माण में अंबेडकर और अन्य नेताओं के अलावा नेहरू की भी भूमिका थी। उन्होंने अपने नेतृत्व में संविधान को अमल में लाने के लिए अहम योगदान दिया। नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र को पूरे देश में स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई। नेहरू के लिए लोकतंत्र का अर्थ है, जिम्मेवारी । एक जिम्मेवार राजनीतिक व्यवस्था जो संविधान और देश के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी हो । नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद हुए लगातार तीन चुनावों 1950, 1952 और 1964 में लोकसभा में प्रमुख नेता की भूमिका का निर्वहन किया । वो संसद का बहुत सम्मान करते थे। उनका मानना था कि इसके माध्यम से आधुनिक भारत का निर्माण किया जाना है। यहां वो राष्ट्रहित से जुड़े विभिन्न विषयों को उठाते उस पर चर्चा करते । संसद सदस्यों को भी ऐसे करने के लिए निरंतर प्रेरित करते रहते थे।
  • नेहरू एवं उनकी आर्थिक नीति- अर्थनीति का निर्धारण और उसे गति देने का दायित्व देश के शीर्ष नेतृत्व पर होता है। पिछले सत्तर वर्षों में भारत की अर्थनीति समाजवाद और पूंजीवाद के बीच झूलती रही, प्रारंभिक वर्षों में समाजवादी विचारधारा हावी रही बाद में पूंजीवादी। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु का सपना भारत को एक औद्योगिक राष्ट्र बनाने का था जिसके लिए उन्होंने रूस की तरह सरकारी नियंत्रण में योजनाबद्ध विकास का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।किंतु वे निजी उद्योगों और निजी संपत्ति को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। इसके लिए उन्होंने भारतीय सांख्यिकीविद् महालनोबिस द्वारा प्रतिपादित मॉडल को अर्थनीति के लिए ठीक समझा। इस मॉडल के मूल में पूंजीगत उद्योगों ( भारी उद्योगों, बड़े-बड़े कल कारखाने) के विकास को प्राथमिकता दी गई थी।उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पाद में तेजी लाने के लिए यह जरूरी माना गया कि पूंजीगत उद्योगों को पहले विकसित किया जाए। विदेशी पूंजी एवं आयात की जगह आंतरिक बचत एवं देश में ही उत्पादन किया जाए। इसके लिए उन्होंने योजना आयोग के गठन की घोषणा की जिसने पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की। पंडित नेहरू की 1950 की अर्थनीति को भारतीय आर्थिक संविधान की संज्ञा दी गई । नेहरु ने भारत के औद्योगीकरण की नींव रखी और कृषि विकास के लिए कई योजनाएं भी दी। इसमें संदेह नहीं कि अर्थव्यवस्था को गति देने में उनको वह सफलता नहीं मिली जो प्रारंभिक वर्षों में अपेक्षित थी। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में भारी निवेश किया, किंतु उनकी उत्पादकता कम थी। कई उद्योग घाटे में थे। बजट के अनुदान और कर्ज पर चल रहे थे। 1960-75 के बीच इन उद्योगों पर जीडीपी का औसत 4.4 प्रतिशत कर्ज था। देश का आयात बढ़ता जा रहा था। खाद्यान्न और मशीनों आदि पर आयात पर विदेशी मुद्रा की बड़ी राशि खर्च हो रही थी। विदेश निवेश पर प्रतिबंध था निर्यात नहीं के बराबर था। विदेशी मुद्रा का आगमन बहिर्गमन से बहुत कम था।

    नेहरू और महिलाओं का सशक्तिकरण- नेहरू इस बात के प्रखर समर्थक थे कि महिलाएं इस देश में बराबर की भागीदारी हैं और वो पुरुषों के बराबर अपनी भूमिका निभाएं। महिलाओं को 1928 में ही कांग्रेस के भीतर पश्चिमी देशों की तरह मत देने का अधिकार प्राप्त हो गया था।

    भारतीय विदेश नीति में नेहरू का योगदान- सरकार, संस्थाओं और सामाजिक राजनीतिक स्तर के नेताओं के बीच गहन अंतः क्रिया के बाद अंततः भारतीय विदेश नीति निर्मित हुई। जवाहरलाल नेहरू को भारतीय विदेश नीति का सूत्रधार कहा जा सकता है। वे न केवल स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और 17 वर्ष तक विदेश मंत्री रहे, वरन् उससे पूर्व भी लगगभग 25 वर्षों से अखिल भारतीय कांग्रेस के विदेशी मामलों के प्रमुख प्रवक्ता भी थे।

    वे साम्राज्यवाद, उपनिदेशवाद और फासीवाद के विरोधी थे। वे चाहते थे कि सभी अंतर्राष्ट्रीय विवादों को जहां तक हो सके शांतिपूर्ण उपायों से सुलझाया जाए, यद्यपि वे साम्राज्यवादी और फासीवादी आक्रमणों को रोकने के लिए शक्ति के प्रयोग को भी अनुचित नहीं मानते थे। वे सोवियत संघ और चीन के प्रति विशेष रूप से सहानुभूति रखते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि ये देश साम्राज्यवाद के शत्रु है। महाशक्तियों के संघर्ष में वे भारत के लिए तटस्थता और समानता की नीति के प्रबल प्रतिपादक थे।

    नेहरू ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘पंचशील’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और इस कारण उन्हें आदर्शवादी कहा जाता था। किंतु वस्तुतः यह उनकी यथार्थवादी कूटनीति चाल थी। वे चीन को पंचशील सिद्धांतों में उलझाए रखना चाहते थे, ताकि कोई बड़ा संघर्ष टाला जा सके।

    नेहरू ने भारत को एक महान भविष्य अथवा महान स्थिति का राष्ट्र मानते थे। उन्हें विदित था कि एशिया के मानचित्र पर भारत जिस प्रकार व्यवस्थित है उसमें उसकी स्थिति शक्ति एवं प्रभाव क्षमता स्वयंसिद्ध है। वह एक बहुत बड़ी राजनीतिक इकाई है। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण एशिया देशों की स्थिति के प्रसंग में भारत की भूमिका इतनी केंद्रीय है कि यदि वह स्वयं इसे न भी स्वीकार करे तो भी इस भूमिका प्रति उदासीन नहीं रह सकता।

    नेहरू ने विदेश नीति के क्षेत्र में यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया कि भारत राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहेगा। पंडित नेहरू ने कहा कि वर्तमान विश्व में जबकि अनेक विध्वंसकारी शक्तियाँ सक्रिय हैं और हम प्रायः युद्ध के कगार पर खड़े हैं, मैं सोचता हूँ कि किसी समुदाय से संबंध विच्छेद करना अच्छी बात नहीं है। राष्ट्रमंडल की सदस्यता भारत के और संपूर्ण विश्व के लिए लाभदायक है। इससे भारत को लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग मिलेगा। जिस समय नेहरू ने राष्ट्रमंडल में बने रहने का फैसला किया उस समय उनके सामने अन्य उद्देश्यों के साथ शायद यह उद्देश्य भी रहा होगा कि इस मंच के द्वारा भारत अफ्रीका और एशियाई देशों का नेता बन सकता है।

    नेहरू का विज्ञान के क्षेत्र में योगदान – नेहरू जातिवादी भेदभाव और सामाजिक असमानता में विश्वास नहीं करते थे। वैज्ञानिक उपलब्धि और विज्ञान का विकास नेहरू दोनों के लिए निरंतर प्रयास रत रहे। उन्होंने देश में नवीन शोधों को बढ़ावा देने हेतु कई प्रयोगशालाओं की स्थापना की। उच्च प्रौद्योगिकी की शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना की, जिसका योगदान आज के वर्तमान युग में काफी महत्वपूर्ण है।

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