उमैयद एवं अब्बासी राजवंशों के अधीन राज्य (State Under the Ummayids and Abbassids)

उमैयद एवं अब्बासी राजवंशों के अधीन राज्य (State Under the Ummayids and Abbassids)

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मुआविया के द्वारा साम्राज्य विस्तार (Emplre Extension by Muawlya)
जब मुआविया ने दमिश्क को राजधानी के रूप में महत्व दिया तो कूफा का महत्व स्वतः कम होता गया। मुआविया का शासनकाल के दौरान इस्लामी साम्राज्य का विस्तार तथा साम्राज्य का संगठन हुआ। इस दृष्टि से मुआविया के शासनकाल का महत्व काफी बढ़ जाता है। विरोधी तत्वों का दमन-शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करना मुआवियों की प्रमुख विशेषता थी । मुआविया ने कुशल गृह-नीति के पथ पर चलकर इस्लामी शासन का प्रभावशाली संगठन भी किया। वह एक सुयोग्य एवं महत्त्वाकांक्षी साम्राज्यवादी ही नहीं, अपितु कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता भी था। अपनी सैन्य शक्ति के बल पर उसने इस्लामी साम्राज्य का विस्तृत विस्तार किया। उसमें एक दूरदर्शी तथा कुशल सेनानायक के विशेष गुण थे। उसने उचित ही सोचा कि साम्राज्य में विद्रोहों का अन्त करने, शान्ति सुव्यवस्था तथा साम्राज्य विस्तार के लिए एक शक्तिशाली, विशाल और संगठित सेना का होना अनिवार्य होता है। अतः सर्वप्रथम उसने अपनी सेना का पुनर्संगठन किया। इस प्रकार उसने एक विशाल एवं शक्तिशाली सेना का संगठन कर मार्ग में आनेवाली विभिन्न समस्याओं को दूर किया। इसने कई विद्रोहों का भी दमन किया। इसकी प्रमुख उपलब्धियों पर आगे प्रकाश डाला गया है।
खारीजियों के विद्रोह का दमन (Oppression of Revolt of Kharijs)
मुआविया को सुव्यवस्था होने तक खारीजियों का विद्रोह काफी बढ़ चुका था । मुआविया ने साम्राज्य के अंदर खारीजी विद्रोह का दमन किया। एक समय खारीजी नहीं चाहते थे कि मुआविया खलीफा बने । अतः 668 ई. में अपने नेता फरवा के नेतृत्व में खारीजियों ने कूफा के निकट विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। मुआविया द्वारा भेजे गये सैनिक दस्ते को खारीजियों ने स्थानीय लोगों की मदद तथा समर्थन से पराजित कर दिया। इस पर मुआविया कूफा और आसपास के निवासियों से चिढ़ गया। उसने कूफा के लोगों को धमकी भरा पत्र लिखा कि अगर वे फरवा को गिरफ्तार नहीं करवाएंगे तो उन पर सैनिक आक्रमण किया जाएगा। इस समय फरवा, जो कि खारीजियों का नेतृत्व कर रहा था, उसे कूफा के ही लोगों की मदद से गिरफ्तार कर लिया गया। किन्तु इससे विद्रोह का अन्त नहीं हो पाया। अब्दुल्ला और हौसरा के अगुवाई में खारीजियों ने नये खलीफा के खिलाफ विद्रोह जारी रखा। किन्तु जल्दी ही कूफा के प्रान्तपति मुगीरा ने खारीजियों के विद्रोहों को कठोर हाथों से कुचल डाला। 665 ई. में पुनः एक बार मस्तूदर के नेतृत्व में खारीजियों ने सर उठाने की कोशिश की। पर सफलता नहीं मिल सकी। इस संघर्ष में मस्तूदर को प्राण से हाथ होना पड़ा और खरी जियों का प्रभाव गर्त में चला गया।
सीरिया में शांति स्थापना (Pence Establishment in Seria)
मुआविया का सीरिया में बराबर विरोध होता रहा। विराधियों का नेता सम्भवतः अब्दुर्रहमान नामक एक व्यक्ति था। उसकी लोकप्रियता असीम थी और सीरिया के लोगों पर उसका व्यापक प्रभाव था। अब्दुर्रहमान की बढ़ती हुई लोकपिग्रता को बर्दाश्त करना मुआविया जैसे शासक को मुश्किल हो रहा था। वह जल्द-से-जल्द इस काट को उखाड़ फेंकना चाहता था। उसके लिए उसने युद्ध और षड्यंत्र का सहारा लिया। मुआविया को अपने उद्देश्य में सफलता मिली और अब्दुर्रहमान की हत्या कर दी गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि उसने राजनीति में दिलचस्पी लेनी छोड़ दी और अपना समय धर्म-प्रचार, शिक्षा, साहित्य, कला आदि के विकास में लगाना शुरु किया। अब सीरिया भी प्रगति की राह पर चल पड़ा।
अली के सहयोगियों का दमन (Oppression of Supporters of Ali)
अली समर्थक उसकी मृत्यु के बाद भी उसके द्वारा दिखलाए गए मार्ग पर चलते रहे। वे हमेशा मुआविया का विरोध करते रहे। अहसा तथा मध्य एशिया के क्षेत्रों में इनका व्यापक प्रभाव था । वे मुआविया के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने न सिर्फ मुआविया का विरोध किया तथा उसके साथ युद्ध किये, वरन् चालडाइया और इराक पर आक्रमण भी कर दिया। मुआविया ने अली के समर्थकों के खिलाफ सैन्य हमले किए और उनका दमन कर डाला। बचे हुए विरोधी अपने प्राणों की रक्षा के उद्देश्य से भाग खड़े हुए और उन्होंने मरुभूमि में जाकर शरण ली। मुआविया ने अली के समर्थकों का दमन किया तथा क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित की। इसके बाद ही मुआविया ने बैजेन्टाइन, उत्तरी अफ्रीका, सिन्ध- हिन्दुस्तान, तुर्किस्थान आदि क्षेत्रों के विरुद्ध अभियान किया जिसमें उसे व्यापक सफलता मिली।
बैजेन्टाइन साम्राज्य एवं मुआविया (Bejantine Empire and Muawiya)
मुआविया ने भी उस पर जीत हासिल करना जरूरी समझा। अरब तथा बैजेन्टाइन साम्राज्य के बीच काफी पहले से संघर्ष होता रहा था। बैजेन्टाइन द्वारा उत्तरी सीरिया पर किये गए हमले को मुआविया ने असफल कर दिया तथा इतना ही नहीं, उसने दो बार बैजेन्टाइन बेड़े को परास्त किया था और साइप्रस पर अपने प्रभुत्व की स्थापना कर ली थी। खलीफा बनने के बाद उसने पुनः बैजेन्टाइन पर आक्रमण किया तथा अनातोलिया को नेस्तनाबूद करता हुआ चालसेडोन को पराजित किया। 668ई. में मुआविया ने कुस्तुन्तुनिया पर भी अधिकार करने के लिए अपनी एक सेना भेजी। किन्तु कुस्तुन्तुनिया की भौगोलिक संरचना विषम थी। इस पर विजय प्राप्त कर पाना
काफी कठिन था। कुस्तुन्तुनिया भूखंडों तथा समुद्र से घिरा हुआ है। अतः शत्रु सेना के लिए जीत लेना कठिन था। इस प्रकार कुस्तुन्तुनिया को जीतने की मुआविया की महत्वाकांक्षा पूरी न हो सकी। परन्तु निरन्तर युद्ध करके उसने बैजेन्टाइन साम्राज्य की शक्ति को क्षीण बना दिया। इसके पश्चात् उसने और भी कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
उत्तरी अफ्रीका पर आक्रमण (Attacks on North Africa)
थे मुआविया ने उत्तरी अफ्रीका पर आक्रमण कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। वैसे उत्तरी अफ्रीका के कुछ भागों पर पहले से ही अरबों ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर रखा था। अफ्रीका उन दिनों तीन प्रधान भागों में बँटा था – सुदूरस्थ पश्चिम भूखंड, निचले पश्चिमी भाग तथा खास अफ्रीका। इन क्षेत्रों के निवासी अधिकांशतः अरबों की तरह सेमेटिक जाति के ही थे। बहुत-सी अरब जातियां भी इन क्षेत्रों में रहा करती थीं। इस्लामी सभ्यता को प्रसारित करना चाहती थीं। अकबा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली इस्लामी सेना उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए भेजी गयी। इस सेना ने जल्द ही उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। अकबा को भी सभी जगह सफलता मिलती गयी । खारसेन अफ्रीका के ऊपर भी इस्लाम को प्रभुत्व स्थापित हो गया।
अकब उत्तरी अफ्रीका पर विजय प्राप्त करने के बाद भी स्थइत्व नहीं बना पाया। यह ठीक है कि मुआविया ने इस विजय को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया था और अफ्रीकी जातियों के आक्रमण से सुरक्षा के उद्देश्य से कैरोवान नामक नगर में सैनिक छावनी की स्थापना भी की गयी थी, किन्तु इन लड़ाकू जातियों के सामने अकबा अथवा उसकी सेना की एक न चली । काफी सैनिक शक्ति का परिचय देते हुए भी वह अपनी प्राण रक्षा नहीं कर सका। इससे वह मारा गया। उसके अधिकांश सैनिक भी मार डाले गये। कुछ ने भाग कर मिस्र में शरण ली। अफ्रीकियों ने कैरोवान को अपने कब्जे में ले लिया ।
तुर्किस्तान-विजय (Turkistan Victory)
तुर्किस्तान का सामाजिक महत्व बहुत ज्यादा था। इसलिए उस पर विजय प्राप्त करना मुआविया अनिवार्य समझता था। उसने इसकी जिम्मेवारी खुरासान के उमैयद प्रांतपति उबेदुल्ला पर डाली। उबेदुल्ला बड़ी तेजी से अपनी सेना के साथ तुर्किस्तान की ओर बढ़ा। उसने एक के बाद दूसरे तुर्किस्तानी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
भारत पर आक्रमण ( Attack on India)
मुआविया भारत पर भी आक्रमण करने की योजना बनाने लगौ उसके शासनकाल में भारत पर भी अरब सैनिकों का आक्रमण मोहेलिब के नेतृत्व में काबुल होते खैबर के मार्ग से किया गया। परिणामस्वरूप अरबों के द्वारा पश्चिमोत्तर भारतीय सीमा के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया गया । मोहेलिब की मृत्यु के उपरांत भी अन्य अरब सेना नायकों के नेतृत्व में सिन्ध-प्रान्त पर अरबों के आक्रमण होते रहे। कांधार, कैकान आदि क्षेत्र इस्लामी कब्जे में चले गए।
विद्रोड़ों का दमन (Oppression of Revolts)
मुआविया द्वारा विजित क्षेत्रों में विद्रोही समय-समय पर सिर उठाते रहते थे जिसका उसने सफलतापूर्वक दमन किया। इस काल में हैरात, बल्ख, काबुल आदि क्षेत्रों में शक्तिशाली विद्रोह हुए। किन्तु इन विद्रोहों को मुआविया की सेना ने कठोर हाथों से कुचल कर पूरे राज्य में शांति-अमन कायम किया। विजेता के रूप में मुआविया बड़ा ही सफल सिद्ध हुआ। साम्राज्य के अन्दर होने वाले विद्रोहों को उसने सफलतापूर्वक कुचल डाला और अपने विरोधियों का नाश कर सम्पूर्ण साम्राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की। वह एक महान् साम्राज्यवादी शासक था। अपनी योग्यता के बल पर ही उसने साम्राज्य का पुनर्गठन किया ।
मुआविया के प्रशासनिक सुधार (Administrative Improvement of Muawiya)
अपनी योग्यता क चलते मुआविया एक कुशल शासक साबित हुआ। मुआविया में एक कुशल राजनीतिज्ञ के समस्त गुण मौजूद थे। उसने इस्लामी शासन व्यवस्था में भी महत्वूपर्ण परिवर्तन किये तथा साम्राज्य को संगठित कर उसे अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया। उसकी शासन व्यवस्था इस प्रकार की थी कि समस्त अरबवासी संतोष का अनुभव कर सकें। वह दरबार, अथवा मस्जिद में बैठकर अपने प्रान्तपतियों तथा अधिकारीगणों के साथ राजनीतिक एवं प्रशासनिक गुत्थियों को सुलझाया करता था और उन्हें उचित आदेश दिया करता था। मुआविया अलग-अलग राज्यों से आए हुए प्रतिनिधियों के साथ पूरी शिष्टता के साथ मिलते थे और उनकी समस्याओं का समाधान किया करते थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि वह व्यक्तित्व का धनी था। उसने उमर द्वारा स्थापित इस्लामी साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया और पूर्ववर्ती खलीफाओं की कुशल नीतियों का अनुसरण किया ।
केंद्रीय शासन (Central Administration)
मुआविया ने केन्द्रीय शासन को स्थायित्व प्रदान किया और उसे सुव्यवस्थित किया । उमैयद ने इसमें काफी सुधार किया। अब तक खलीफा अनियंत्रित नहीं होते थे और वे इस्लाम विरोधियों, खुदा तथा पैगम्बर से प्रभावित थे । वे अब तक इस्लाम तथा इस्लामी राज्य के वास्तविक शासक नहीं थे। मुआविया एक शक्तिशाली एवं निरंकुश शासक बनना चाहता था। उसकी भावनाएं लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि निरंकुशतावादी थीं । उसका विश्वास था कि खलीफा को सारे नियंत्रणों से मुक्त होना चाहिए तथा उसे एक शक्तिशाली सम्राट की तरह सारे अधिकारों से युक्त होना चाहिए। इस प्रकार मुआविया अब तक के खलीफाओं से भिन्न था। उसने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की तथा साम्राज्य के खलीफाओं से भिन्न कार्य किए। उसने अधिकारियों को नियंत्रण में रखा।
प्रांतीय शासन (Provincial Administration)
मुआविया ने प्रान्तीय शासन की आवश्यकता उस समय महसूस की, जब साम्राज्य का काफी विस्तार हो गया। इस कार्य को उसने बहुत ही सुनियोजित ढंग से अन्जाम दिया।
प्रशासनिक सुविधा और सुव्यवस्था के उद्देश्य से मुआविया ने सम्पूर्ण साम्राज्य को प्रारम्भ दे अनेक प्रान्तों में विभक्त कर दिया। उसके द्वारा वर्गित प्रान्तों में उल्लेखनीय थे- सीरिया, कूफा, बसरा, आरमीनिया, हेज्जाज, करमान और भारत के सीमान्त क्षेत्र, यमन तथा दक्षिण अफ्रीका के कुछ क्षेत्र, मिस्र तथा अफ्रीका आदि। बाद में चलकर इन सभी प्रान्तों के स्थान पर केवल पांच प्रान्तों का संगठन किया गया जिनका विवरण निम्न प्रकार है—
1. बसरा और कूफा को संगठित कर इराक का निर्माण किया गया। इसकी राजधानी प्रान्त में ईरान तथा पूर्वी अफ्रीका के भी कुछ क्षेत्र शामिल थे।
2. कूफा बनी। इस जजीरा, आरमीनिया, अजरबैजान तथा पूर्वी एशिया माइनर के कुछ क्षेत्रों को सम्मिलित कर दूसरे प्रान्त का संगठन किया गया ।
3. हेज्जाज, यमन और मध्य अरब को मिलाकर एक अलग प्रान्त का संगठन किया गया।
4. इसी प्रकार स्पेन, सिसली तथा कुछ अन्य प्रायद्वीपों को सम्मिलित कर चौथे प्रान्त का निर्माण किया गया ।
5. निचले तथा ऊपरी मिस्र को संगठित कर पांचवें प्रान्त का निर्माण हुआ।
मुआविया ने सभी प्रान्तों में एक-एक प्रांतपतियों की नियुक्ति की, ताकि कार्य संचालक सुचारू रूप से चल सके। प्रान्तपतियों तथा उनके सहयोगी अधिकारीगणों के मुख्य तीन कार्य थे – शासन तथा सैन्य संचालन करना, करों की वसूली करना तथा इस्लाम का प्रचार करना। प्रान्तपतियों को अमीर कहा जाता था। यहाँ पर बता देना समीचीन होगा कि प्रांतपति वही करते थे, जो खलीफा चाहता था ।
जिला प्रशासन (District Administration)
जिला प्रशासन का प्रमुख अमील कहलाता था जिसकी नियुक्ति प्रान्तपतियों के द्वारा की जाती थी किन्तु नियुक्ति के पूर्व उन्हें इस आशय की स्वीकृति खलीफा से लेनी पड़ती थी। अमील जिले में समुचित प्रशासन करते तथा शान्ति सुव्यवस्था बनाए रखते थे। करों की वसूली में वे प्रान्तपतियों की सहायता करते थे।
सैन्य संगठन (Mititary Organisation)
मुआविया की सेना में जातिगत या राष्ट्रवाद जैसी कोई बंदिस नहीं थी। उसकी सेना में विभिन्न जाति व देश के लोग शामिल थे। मुआविया ने सेना को चार दस्तों में बांटा-केन्द्रीय सेना, दो टुकड़ी हरावल अथवा अग्रगामी सेना तथा पृष्ठरक्षक सेना। बाद में सेना के इन वर्गों का अन्त कर उमैयद खलीफा मारवान द्वितीय ने एक ही दस्ते का संगठन किया, जिसे कुर्दुस कहकर पुकारा जाता था । मुआविया ने सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र, अनुशासन तथा प्रशिक्षण पर काफी ध्यान दिया। उसके सैनिक अपनी दक्षता एवं शिष्टता के लिए प्रसिद्ध थे। सीरिया की सेना को उसने विशेष रूप से व्यवस्थित किया l
राजस्व-व्यवस्था (Revenue System) 
मुआविया ने राजस्व-व्यवस्था में संबंधी पुराने नियमों में बदलाव किए। हिजरात के समय में इस्लामी साम्राज्य की अर्थव्यवस्था का संगठन नहीं किया गया था। लोग यदा-कदा अनियमित रूप से ही कर दिया करते थे। मुआविया ने यद्यपि परम्परागत कर-व्यवस्था को ही जारी रखा, किन्तु उसने अर्थ विभाग को सुव्यवस्थित कर कर-वसूली की अनियमितता को दूर किया। इसका परिणाम यह हुआ कि अभी तक कर अदायगी में जो अनियमितता थी, वह पूरी तरह से समाप्त हो गई। प्रान्तों में लगान की समुचित वसूली और प्रान्तपति को सहयोग देने के लिए, साहिब-अल-खराज नामक एक विशेष पदाधिकारी की नियुक्ति की गयी। मुआविया ने परम्परागत राजस्व-साधनों को यथावत् रहने दिया। भूमि पर आन्तरिक कर (जया) लगाया गया और जमीन की उपज के अनुसार प्रत्येक कृषक से एक-दो या चार दीनार लेने घोषणा की गयी।
मुआविया के शासनकाल में राजस्व प्राप्ति का सबसे उपयुक्त स्रोत भू-: कर था किन्तु मुआविया ने कृषि की उपज को बढ़ाने के उद्देश्य से महत्वपूर्ण प्रयास भी किये। उदाहरणस्वरूप–गृहयुद्धों के कारण हेज्जाज क्षेत्र में कृषि विकास पर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया जा सका था। कृषि की उपज बढ़ाने तथा आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिए मुआविया ने काफी प्रयास किया।
वाणिज्य सम्बन्धी वस्तुओं पर लगाई जाने वाली चुंगी तथा लूट के धन से भी राज्य की काफी आमदनी होती थी। एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों पर आक्रमण कर मुआविया उन देशों की अपार सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर लिया था। स्थानीय प्रशासन पर होने वाले व्यय स्थानीय करों से ही पूरा किये जाते थे। व्यय के उपरान्त जो धन बच जाता था, उसे स्थानीय शासक अथवा प्रान्तपति खलीफा के पास भेज दिया करते थे। उसके शासनकाल में भेदभाव था। यह इस बात से पता चलता है कि उसने मुसलमानों को दिए जाने वाले भत्तों में ढ़ाई प्रतिशत की कटौती तो की परंतु पूरी तरह से समाप्त नहीं किया। इसी प्रकार भूमि की उपज पर अतिरिक्त कर लगाया। इस तरह से मुआविया ने राजस्व-व्यवस्था का समुचित संगठन किया और साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की।
न्याय व्यवस्था (Judicial System)
विभिन्न मुद्दों पर निर्णय देने के लिए मुआविया ने काजी की नियुक्ति की । काजी के पद पर विशेष रूप से शिक्षित वर्ग के लोगों की नियुक्ति की जाती थी। वस्तुतः काजियों के लिए कुरान एवं हदीस का पंडित होना आवश्यक होता था और न्याय के जानकार लोग काफी शिक्षित विद्वान और कुरान तथा हदीस के प्रगाढ़ ज्ञाता होते थे। न्याय-प्रशासन में काजियों को वरिष्ठता हासिल है। इसकी नियुक्त के लिए प्रांतपति स्वतंत्र थे। फिर भी खलीफा, सेनापति, प्रान्तपति तथा वरिष्ठ अधिकारीगणों के भी अपने न्यायालय होते थे और वे भी न्याय वितरण किया करते थे। काजी भी न्याय वितरण के अतिरिक्त अन्य दूसरे धार्मिक, सामाजिक कार्य सम्पन्न किया करते देश के धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में इनकी भी भागीदारी होती थी। वे धार्मिक संस्थाओं देखभाल, धार्मिक सभाओं का आयोजन तथा गरीबों, विधवाओं, यतीमों आदि की यथोचित सहायता करना उनके अन्य कार्य थे।
डाक व्यवस्था के क्षेत्र में मुआविया ने उल्लेखनीय कार्य किया। वस्तुतः उसे ही साम्राज्य में रजिस्ट्री विभाग का निर्माण करने तथा डाक विभाग को खोलने का श्रेय प्राप्त है। रिकार्ड बनाना तथा सुरक्षित रखना डाक विभाग का प्रमुख काम था। मूल प्रति को प्रेषित करने के पूर्व इसकी एक नकल अल बरीद के द्वारा रख ली जाती थी। मुआविया के उत्तराधिकारियों ने और विशेष स से अब्दुल मलिक ने डाक विभाग को और भी अच्छे ढंग से संगठित किया। राजधानी दमिश्क के डाक विभाग का प्रधान कार्यालय खोला गया। इससे पत्रों के आदान-प्रदान की समस्या काफी कम हो गयी।
उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मुआविया ने प्रशासन एवं संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय परिवर्तन किए। इन सुधारों का प्रशासन पर व्यापक प्रभाव पड़ा और इस्लामी साम्राज्य अपेक्षाकृत अधिक संगठित और शक्तिशाली हो गया। साम्राज्य में शान्ति-सुव्यवस्था बनी रही। अतः आर्थिक, शैक्षिक, साहित्यिक एवं कला की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो गया। निस्सदेह इन तमाम सफलताओं में भुआविया के व्यक्तित्व का बड़ा महत्वपूर्ण सहयोग था। फिर भी, इस संदर्भ में मिस्र के प्रान्तीय अधिपति उमर इब्न अल-अस कूफा के प्रान्तपति अल मुगीरा इब्न शुबाह तथा बसरा के शासक जियाद इन अबीह ने मुआविया का उल्लेखनीय सहयोग किया।
मनोनयन प्रणाली का उदय (Origin of Designation System)
मुआविया ने अपनी मृत्यु (680 ई.) से एक वर्ष पूर्व 679 ई. में ही मुआविया के कूफा के प्रान्तपति मुगीरा के सहयोग से अपने पुत्र याजीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इस्लाम के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी कदम था। अब तक इस्लामी जगत में खलीफा का विधिवत चुनाव होता रहा था। पहली बार इस पर वंशानुगत प्रभाव परिलक्षित हुआ। यहाँ पर बता देना समीचीन होगा कि याजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर देने के बाद यह निश्चित हो गया कि खलीफा के लिए निर्वाचन अनिवार्य नहीं था। मुआविया ने इस प्रकार हसन के साथ किए गये समझौते को तोड़ डाला था। किन्तु उसे इसकी लेशमात्र भी चिन्ता नहीं थी। वह किसी भी तरह से अपने वंश को स्थापित रखना चाहता था और इस उद्देश्य की प्राप्ति में उसे पूरी सफलता मिली। छिट-पुट विरोध के बाद अन्ततः सभी ने याजीद को अपना खलीफा स्वीकार कर लिया।
इस सम्पूर्ण घटना के प्रति खुरासान तथा इराक के प्रांतपतियों ने काफी सावधानी रखी तथा कुशलता बरती। फलस्वरूप याजीद का खलीफा बनने का मार्ग आसान हो गया। यद्यपि प्रारम्भ में इराक की जनता ने मुआविया के इस कार्य को गलत तथा इस्लाम विरोधी बताया और उसे स्वीकार नहीं किया, किन्तु फुसलाकर अथवा डरा-धमकाकर मुआविया ने उसको अपना समर्थक बना लिया, सीरिया में मुआविया के विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं था और जनता ने जल्द ही खलीफा के निर्णय को स्वीकार कर लिया। मक्का मदीना तथा हेज्जाज की जनता ने मुआविया की इराक और सीरिया विजय के निर्णय का अनुमोदन नहीं किया था। अतः मुआविया का फैसला अंतिम अथवा सर्वमान्य स्वीकार नहीं किया जा सकता था । मुआविया भी कम चालाक नहीं था। उसने मक्का, मदीना तथा हेज्जाज की यात्रा की और लोगों का अपने निर्णय को स्वीकार कर लेने के के लिए राजी कर परिस्थिति को खुद के अनुकूल बना लिया। वस्तुतः बहुत से लोग भी उसके विरोधी बने रहे और खासकर अली का कनिष्ठ पुत्र हुसैन, स्वर्गीय खलीफा उमर का पुत्र अब्दुल्ला, अबू बकर का पुत्र अब्दुरहमान और जुबेर का पुत्र अब्दुल्ला जो मुआविया के कटटर विरोधी प्रमाणित हुए, फिर भी जब हजारों मुसलमानों ने मुआविया के निर्णय को स्वीकार कर लिया तो इन विरोधियों के द्वारा कुछ असंभव नहीं किया जा सकता था। यद्यपि अली के सम्म क अभी भी विद्रोह कर रहे थे परंतु याजीद ने इन परिस्थितियों को बड़ी कुशलता से सम्भाल लिया।
मुआविया के उत्तराधिकारियों द्वारा साम्राज्य का प्रसार (Expansion of Empire through Nominees of Muawiya)
इस्लामी साम्राज्य के प्रसार में अल-वालिद (705-715), सुलेमान (715-717), याजी : द्वितीयं (720-24) तथा हिशाम (724-743) अतुलनीय योगदान रहा। ये चारों खलीफा अब्द अल-मलिक के पुत्र थे । इराक, ईरान, मिस्र तथा सीरिया पर विजय के साथ ही उमर तथा उस्मान का मुस्लिम विजय के इतिहास में प्रथम परिच्छेद खत्म हो गया था। इस्लामी विजय का दूसग अध्याय अब्द-अल-मलिक तथा अल-वालिद के शासनकाल में शुरु हुआ। पूर्व में अल हिजाज और पश्चिम में मूसा इब्न-नसर के नेतृत्व में विजय अभियान सम्पन्न किये गये। अल-हिजाज ने उमैंयदों के प्रतापी शत्रु और प्रतिरोधी जुबैर को 692 ई. में मार डाला था।
परिणामस्वरूप इसी सफलता के कारण अल-हिज्जाज को इकत्तीस साल की उम्र में उसे इराक का प्रांतपति बनाया गया था। उसने इराक और सीरिया में विद्रोहों का कठोर हाथों से दमन कर शांति-सुव्यवस्था की स्थापना की। अब्बासी काल के शिया इतिहासकारों ने हिजाज को रक्त-पिपासु शासक कहा है, परंतु उसकी शक्ति, योग्यता व कार्य उसे एक सफल शासक की श्रेणी में रखते हैं।
हिज्जाज की भी इस्लामी साम्राज्य के विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका रही है। फारस की खाड़ी के सामने स्थित उमान क्षेत्र को उमैयद साम्राज्य में आत्मसात कर लिया गया। उसने अपने सेनापतियों के पूर्व में और भीतर प्रवेश करने का आदेश दिया। खलीफा को कर देने के लिए काबुल के शासक जुनबिल को सिजिस्तान के गवर्नर अब्द- अल रहमान ने मजबूर किया। खुरासान के ऊपर भी उमैयदों का आधिपत्य स्थापित हो गया था और हिज्जाज के परामर्श पर उसका दामाद कुतयबा हिज्जाज के अधीन खलीफा के द्वारा खुरासान का लेफ्टीनेन्ट नियुक्त किया गया था। अल-वालिद के शासनकाल में इस्लामी साम्राज्य का ऑक्सस नदी के पास आधिपत्य स्थापित किया गया । कुतयबा ने अपने महत्वाकांक्षी अभियानों के द्वारा 705 ई. में निचले तुर्किस्तान अथवा बल्ख, 706-09 ई. के बीच बोखारा तथा उसके आसपास के क्षेत्रों समरकन्द तथा ख्वारिज्म (710-712ई.) आदि पर अधिकार कर लिया।
उपरोक्त अभियानों के अलावा कुतयबा ने मध्य एशिया के फरगना आदि क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण यहाँ पर मठों की स्थापना की गयी थी। यहाँ बौद्ध मतावलंबी बहुत ज्यादा थे। अरबों ने अपन आक्रमणों के सिलसिले में असंख्य बौद्ध मठों को तोड़-फोड़ डाला और इस क्षेत्र के लोगों ने इस्लाम धर्म को अंगीकार करने के लिए बाध्य किया। किन्तु खलीफा उमर द्वितीय (717-720) के पूर्व इस क्षेत्र के बौद्धों ने बड़ी संख्या के इस्लाम को स्वीकार नहीं किया। उमर ने जब उनके प्रति उदार नीति का पालन किया तथा उन्हें कर आदि न देने की सुविधाएँ दीं, तभी जाकर बड़ी संख्या में इन लोगों ने इस्लाम को गले से लगाया।
तबारी तथा कुछ अन्य अरब इतिहासकारों के अनुसार कुतयबा ने 715ई. में चीनी तुर्किस्तान के क्षेत्र पर कब्जा करके वह चीन के भू-भाग पर पहुँच गया परंतु इस तथ्य की प्रामाणिकता संदिग्ध मालूम होती है। वस्तुतः चीन के क्षेत्रों पर सर्वप्रथम नासर इब्न-सायर के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता की स्थापना हो पाई। खलीफा हीशाम के द्वारा नासर को ट्रांस ऑक्सियाना का गवर्नर नियुक्त किया गया था। चीन ने मध्य एशियाई क्षेत्रों पर कभी अपना दावा पेश नहीं किया, तब से इस क्षेत्र पर उसने हमेशा के लिए इस्लाम के प्रभुत्व को स्थापित कर दिया। ट्रांसऑक्सियाना इस्लामी साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। इस्लामी सभ्यता पर मंगोलों की सभ्यता का व्यापक प्रभाव पड़ने के कारण इस्लामी सभ्यता में बहुत से बदलाव आ गए।
सिन्ध-विजय (Sindh Victory)
सेनापति इब्न-अल-कासिम ने सन् 710 ई. में छः हजार सीरियाई सेना के साथ सिंध प्रान्त की तरफ बढ़ा। जल्द ही उसने मकराना तथा ब्लूचिस्तान को जीत लिया और 712ई. में भारत के सिंध क्षेत्र पर भी इस्लामी प्रभुत्व की स्थापना हो गयी । मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के देवल, निरुन, मुल्तान इत्यादि नगरों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । यद्यपि सिन्ध तथा दक्षिणी पंजाब के क्षेत्र अरबों के अधिकार सत्ता में आ गये, किन्तु दसवीं शताब्दी के अन्त के पूर्व भारत के अन्य क्षेत्रों पर इस्लाम का पूरा प्रभुत्व स्थापित नहीं हो पाया। सिन्ध विजय के कारण अरबों का संपर्क भारत की समृद्ध सभ्यता के साथ हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लामी संस्कृति भारतीय संस्कृति से प्रभावित हुई । इसके बाद एक हजार साल तक भारत में मुसलमानों ने शासन किया। इस बीच तुर्क, अरब, मंगोल, मुगल आदि प्रमुख राजवंश हैं।
बैजेन्टाइन पर आक्रमण (Attack on Bejantine)
वैसे तो अरबों के संघर्ष बैजेन्टाइन साम्राज्य के साथ काफी समय से चल रहे थे, परं यह एक निर्णायक अभियान साबित हुआ। 692ई. में बैजेन्टिनियन जस्टिनियन द्वितीय को अरबों ने सैलेसिया में परास्त कर दिया और कैपाडोसिया के प्रसिद्ध तवाना पर अधिकार कर लिया । मशहूर अरब सेनापति ने कुस्तुन्तुनिया के सांडिस तथा पेरगामोस पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद जा घेरा। यह प्रसिद्ध घेरा अगस्त, 716 से सितम्बर, 717 तक चलता रहा। किन्तु रसद की कमी और बुल्गरों के आक्रमण के कारण लगभग एक वर्ष बाद अरबों को इस घेरे को उठा लेना पड़ा। अरमीनिया, जिसे 644-645ई0 में मुआविया के द्वारा जीत लिया गया था. और जुबैर के संघर्ष काल में जो पुनः स्वतंत्र हो गया था, उस पर इस्लामी खलीफा ने अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिणी-पश्चिमी यूरोप की विजय (Mctory of Northern Africa and Southern Western Europe)
मुआविया के शासनकाल में उत्तरी अफ्रीका व दक्षिणी-पश्चिमी यूरोप पर भी अभियान चलाए गए। पूर्व में हिज्जाज और उसके सहयोगियों के द्वारा इस्लामी साम्राज्य का विस्तार किया जा रहा था। इसी समय प्रसिद्ध अरब सेनापति मूसा इन-नसर ने सैन्यशक्ति के बल पर पश्चिम में इस्लामी साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया | मिस्र की विजय के पश्चात् पश्चिम में इफ्रीकियों केरुद्ध भी आक्रमण किये गये थे, परन्तु मुआविया के प्रतिनिधि अकब-इब्न-सफी के द्वारा 670 ई. में अल-कारवां की स्थापना के पूर्व इस क्षेत्र को पूर्ण रूप से विजित नहीं किया जा सका। अकबर अफ्रीका में पश्चिमी क्षेत्र की ओर बढ़ता हुआ आधुनिक अल्जीरिया तक जा पहुंचा। जहाँ 688 ई. में बिस्करा के नजदीक उसकी मौत हो गयी। यहां वर्तमान में भी उसकी कब्र मौजूद है, जहां पूरी दुनिया के मुसलमान श्रद्धांजलि देने जाते है।
उपरोक्त उल्लेखनीय अभियानों के बाद भी अफ्रीकियों पर अरबों का अधिकार पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो पाया। गवर्नर हसन इब्न अल-नुमान अल-गसानी ने अन्त में इस क्षेत्र में बैजेन्टिनियन प्रभुत्व को सदा के लिए समाप्त कर दिया और इस क्षेत्र पर अरबों का अधिकार दृढ़ हो गया। मूसा इब्न-नसर के नेतृत्व में ही इफ्रीकिया मिस्र से स्वतंत्र हो गया और अब इस पर दमिश्क के खलीफा का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हुआ। मूसा ने इफ्रीकिया प्रदेश की सीमा को परास्त कर उन पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया। यहां के ईसाइयों ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप यहाँ इंस्लाम धर्म का प्रभाव बढ़ा। धीरे-धीरे इस्लामी भाषा व संस्कृति का विकास होने लगा।
स्पेन पर आक्रमण (Attack on Spain)
711 ई. में मूसा ने स्पेन पर आक्रमण की योजना बनाई जिसमें कुछ हद तक सफल भी हुआ। लेफ्टीनेन्ट तारीक ने स्पेन में पर्वतशृंखलाओं को पार करते हुए प्रवेश किया। उसने जल्द ही इबेरियन प्रायद्वीप को जीत लिया। दक्षिण गौल के अनेक शहरों को भी अरबों ने अपने अधीन कर लिया। टुभर्स और पोईटियर्स के मध्य 732 ई. में चार्ल्स माटेल ने अरबों के विस्तार को रोक दिया था।
उमैयदकाल में इस्लाम की स्थापना के सौ साल बाद एक अत्यन्त विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की गयी। इस काल में शासन महान् साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ कुशल सैनिक तथा योग्य संगठनकर्ता भी थे। साम्राज्य को स्थायी बनाए रखने के लिए उन्होंने विरोधियों का दमन करने में जरा भी संकोच नहीं किया। इस काल के उमैयद खलीफा साहित्य एवं विभिन्न कलाओं में भी गहरी दिलचस्पी रखते थे। अतः इस काल में इस्लामी शिक्षा, साहित्य एवं भाषा का अभूतपूर्व विकास हुआ। तत्कालीन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से अरबी साहित्य का विशाल भंडार बनाया। संगीत शिल्प तथा स्थापत्य कला के क्षेत्र में इस काल में काफी प्रगति हुई। इस काल में बने मस्जिद, मीनार, गुम्बद, महल, मकबरा आदि स्थापत्य कला के अनूठे नमूने माने जाते हैं। इस्लामी सभ्यता-संस्कृति तथा साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया अब्द-अल-मलिक के चौथे पुत्र हीशाम के खलीफा काल तक चलती रही। हीशाम के उत्तराधिकारियों में योग्यता की कमी थी, फलतः उमैयद वंश पतन के मार्ग पर चल पड़ा।
प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System)
उमैयद वंश के खलीफाओं ने इस्लाम धर्म के प्रसार में जो उल्लेखनीय कार्य किया, वह इस्लाम के इतिहास में अतुलनीय है। यद्यपि इसके पहले खलीफा अबू बकर ने इस दिशा में काफी प्रयास किया था परंतु युगीन परिस्थितियों तथा विद्रोहों के कारण उन्हें इतनी सफलता नहीं मिल पायी, जितनी की अपेक्षित थी। उमैयद वंश के परवर्ती की नीतियों के कारण इस वंश का पतन हो गया, परंतु इस काल में इस्लामिक सभ्यता तथा संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। यहाँ हम उमैयदकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अध्ययन व विश्लेषण कर रहे हैं।
शाही जीवन (Urban Life)
मुआविया, जो कि उमैयद वंश के संस्थापक थे सादा जीवन बिताते थे। परंतु मनोरंजन तथा सामाजिक कार्यों को भी वह गति देता था। उसे इतिहास की कहानियों, घटनाओं तथा कविताएँ सुनने में गहरी दिलचस्पी थी। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए उसने यमन के एक कथा-वाचक आबीद इब्न-शारिया को बुलाकर अपने साथ रखा था, जो प्राचीन वीरों के दुस्साहसिक कार्यों एवं वीर-गाथाओं को रात्रि बेला में खलीफा को सुनाकर मुआविया को प्रसन्न कर मंत्रमुग्ध कर देता था । मुआविया का प्रिय पेय शर्बत-ए-गुलाब था l
मुआविया का उत्तराधिकारी पुत्र याजीद तो इतना व्यसनी था कि वह प्रतिदिन एक प्रशिक्षित बन्दर के साथ बैठकर शराब पीता था । यद्यपि वालिद प्रथम, हीशाम, अब्द- अल मलिक आदि खलीफा भी शराब के शौकीन थे, पर वे इसका सेवन कभी-कभी करते थे। उन्हें इसकी लत नहीं थी । याजीद द्वितीय का गायिका सलमा और हवाबा के साथ गहरा लगाव था । कहा जाता है कि एक बार खेल-खेल में खलीफा ने हवाबा के मुँह में दूर से एक अंगूर फेंका, जो उसके गले में जाकर अटक गया और इससे उसको मृत्यु हो गयी । खलीफा के लिए यह असह्य हो गया और उसने आत्महत्या कर ली। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी अल-वालिद द्वितीय बड़ा ही शराबी और लम्पट निकला। इसका शासनकाल 743-744 ई. में रहा। कहते हैं कि वह शराब से भरे तालाब में स्नान करने का आदी था । शाकी शराब और शबाब के साथ सूनी जगह में निर्मित महलों में अल-वालिद द्वितीय मस्त रहता था। उसकी इस विलासितापूर्ण जीवन पर प्रसिद्ध अरबी इतिहासकार अगनी ने भी प्रकाश डाला है।
उमैयद वंश के खलीफाओं का मनोरंजन में गहरी रुचि थी । शिकार, घुड़दौड तथा पाशा के खेल उनके बीच बड़े ही लोकप्रिय थे। उमैयदकाल के अन्त में पोलो का खेल संभवतः ईरानियों द्वारा अरब में लोकप्रिय बनाया गया। बाद में अब्बासी काल में तो पोलो का खेल अपनी लोकप्रियता की सीमा पर जा पहुँचा। मुर्गे की लड़ाई भी मनोरंजन का प्रिय साधन था। शिकार में शिकारी कुत्ते का और बाद में प्रशिक्षित चीतों का प्रयोग किया जाता था, यद्यपि प्रशिक्षित चीतों द्वारा शिकार करने की प्रथा भारत व ईरान में बहुत पहले से ही प्रचलित थी। याजीद प्रथम बड़ा ही निर्भीक शिकारी था। पहली बार उसने शिकार में प्रशिक्षित चीते (फहाद ) का उपयोग किया । वह अपने शिकारी कुत्तों को पाजेब पहनाकर रखता था और उनकी देख-रेख विशिष्ट गुलामों के द्वारा की जाती थी। अल-वालिद पहला उमैयद शासक था जिसने सार्वजनिक दौड़ को संरक्षण प्रदान किया। इसके भाई खलीफा सुलेमान ने घुडदौड़ की राष्ट्रीय प्रतियोगिता का प्रबंध किया था। ऐसी एक प्रतियोगिता जिसका आयोजन उसके भाई हीशाम ने किया था, उसमें भाग लेने वाले घोड़ों की संख्या चार हजार थी। संभवतः घुड़दौड़ की पंरपरा यहीं से शुरू हुई। हीशाम की एक लड़की घुड़दौड़ के लिए घोड़े रखा करती थी। शाही घराने की स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी। यदा-कदा जब कभी किसी शायर की नजर शाही घराने की स्त्रियों पर जाती थी तो वे उसकी प्रशंसा में शायरी करने से बाज नहीं आते थे, यद्यपि इसके लिए कभी-कभी उन्हें अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता था अथवा असह्य कष्ट उठाने पड़ते थे। शाही घराने की स्त्रियों का प्रभाव भी व्यापक होता था । हरम में सबसे पहले यूनानी हिजड़ों को रखा गया था। अल वालिद द्वितीय से पहले हरम व्यवस्था के संगठन का प्रमाण नहीं मिलता है।
राजधानी की स्थिति (Situation of Capital)
राजधानी बदलने के पश्चात् भी जीवन शैली में कुछ विशेष बदलाव नहीं हो सका था। बाजारों और सड़कों पर व्यापारी तथा विक्रेता जोर-जोर से आवाज लगाकर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करते थे। दमिश्क में भी अन्य अरबी शहरों की भांति अपने कबीला – प्रेम के अनुरूप विभिन्न कबीले के लोग अलग-अलग बस्तियां बनाकर रहा करते थे। बान-उमैया ने दमिश्क में पानी की सुचारू व्यवस्था की थी, जो तत्कालीन पूर्वी देशों में सर्वश्रेष्ठ थी और आज भी यह व्यवस्था दमिश्क में देखने को मिलती है। कृषि उपज बढ़ाने के लिए नहरों का निर्माण करवाया गया था। इसी से सिंचाई की जाती थी। दमिश्क में खलीफा तथा अमीरों की अट्टालिकाएँ आकाश को छूती थीं। इन भवनों में, विशेषकर राजभवन में सोने-चाँदी तथा संगमरमर के काम किए गए थे। सुनहरे एवं श्वेत रंगों से छतों की निचली सतह को आकर्षक बनाया जाता था। दीवारों एवं सतहों पर मूल्यवान सुन्दर पत्थर की जड़ाई की जाती थी। दमिश्क में बाग-बगीचे, तालाब आदि बड़ी संख्या में थे जिसके कारण यह शहर बहुत ही आकर्षक था।
न्याय व्यवस्था (Judicial System)
न्याय के क्षेत्र में काजियों का बड़ा महत्व था। इस्लामी साक्ष्यों के द्वारा न्याय प्रशासन के क्षेत्र में काजियों की नियुक्ति का श्रेय उमर को दिया जाता है जिसने 634 ई. में मिस्र में पहले काजी की नियुक्ति की। इसके बाद साम्राज्य में विधिवत काजियों की नियुक्त की परम्परा शुरु हुई।
राजकीय अभिलेखागार (State Archives )
इसकी स्थापना मुआविया द्वारा की गई थी, स्थापना की क्योंकि इसके अभाव में राजस्व संबंधी समस्याओं को दूर करना संभव नहीं था। बाद के उमैयद शासकों ने इस विभाग को और भी सुव्यवस्थित किया। उमैयदों के द्वारा अब्द-अल-मलिक के शासनकाल तक एक राजकीय अभिलेखागार की स्थापना की जा चुकी थी।
सैन्य-संगठन (Military Organization)
सैन्य-संगठन की दृष्टि से मारवान द्वितीय (744-50 ई.) का शासनकाल अच्छा माना जाता है। उसने सेना की परम्परागत श्रेणियों का अन्त कर दिया और कुर्दुस नामक केवल एक सैनिक दस्ते की व्यवस्था की। आवश्यक अस्त्र-शस्त्रों से सेना को बड़ी ही अच्छी तरह सुसज्जित किया गया। सेना के तोपखाना विभाग को और भी संगठित किया गया। धीरे-धीरे सैनिकों की संख्या में भी काफी वृद्धि होती चली गयी। सेना की वार्षिक भत्ते की रकम बढ़कर छः करोड़ दीरहम हो गयी थी। याजीद तृतीय (744 ई.) ने इसमें दस प्रतिशत की कटौती कर दी। इस समय सैनिकों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी की गई। बैजेन्टाइन जल सेना को आदर्श मानकर उमैयद शासकों ने भी अपनी जल सेना की व्यवस्था की थी ।
अब्बासी कालीन शासन व्यवस्था (Administrative System during Abbassi Period) 
अब्बासी वंश का शासनकाल इस्लाम जगत में स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि शासन व्यवस्था कितनी अच्छी रही होगी। अब्बासी वंश के शासनकाल की शासन व्यवस्था को संक्षिप्त में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है—
केन्द्रीय शासन व्यवस्था (Central Administration System)
अब्बासी वंश के शासकों ने राजनीति तथा केन्द्रीय शक्ति को काफी मजबूत बनाया । अब्बासी खलीफाओं ने अपनी सैनिक शक्ति के बल पर न केवल साम्राज्य में शक्ति संतुलन और शासन व्यवस्था की स्थापना की, वरन् उन्होंने इस्लामी साम्राज्य का विस्तार किया। प्रारम्भ अब्बासी शासक बड़े ही योग्य, शक्तिशाली तथा महत्वकांक्षी प्रमाणित हुए। उन्होंने सम्पूर्ण साम्राज्य के ऊपर बड़ी दृढ़ता के साथ शासन किया। उनकी शासन व्यवस्था बहुत ही उच्चकोटि की थी ।
खलीफा : खलीफा को स्थिति पूर्ण रूप से स्वतंत्र थी । उस पर सिर्फ इस्लामी कानून की प्रभावी हो सकता था। समस्त प्रशासनीय कार्यों एवं अधिकारों का स्रोत खलीफा ही होता था। प्रशासकीय कार्यों को सुचारू ढंग से चलाने के लिए खलीफा वजीर, काजी, सेनापति अथवा अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति करता था, परन्तु प्रशासन, युद्ध एवं शान्ति संबंधित अन्तिम निर्णय का अधिकार खलीफा को ही था। सभी अधिकारी वर्ग अथवा अमीर पर खलीफा का पूरा नियन्त्रण था । खलीफा पद की शक्ति एवं महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इतिहासकार लेविस महोदय का मानना है कि सैद्धान्तिक रूप में खलीफा अब भी शरियत के अधीन था; पर व्यवहार में उसकी शक्ति पर इस नियंत्रण का कोई प्रभाव नहीं था। खलीफा का शासन पूर्णतः निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी था। इस संदर्भ में सैन्य शक्ति एवं ईश्वरीय शक्ति के सिद्धान्त को सर्वोपरि माना जाता था।
जैसा कि पहले भी बतलाया गया है, उमैयद वंश के संस्थापक मुआविया ने खलीफा को चयन वंशानुगत कर दिया था। यही मार्ग अब्बासी खलीफाओं ने भी अपनाया। परन्तु, यह नियम हिन्दुओं के समान परिष्कृत अथवा पूर्णरूपेण मान्य नहीं था। वैसे इस्लाम में उत्तराधिकार संबंधी स्थापित नियम का अभाव है और साम्राज्यों अथवा राज्यवंशों के लिए यह बड़ा ही घातक सिद्ध हुआ है। अब्बासी खलीफा सामान्यतः अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करता था। लेकिन पुत्र न होने पर अयोग्य होने पर या खलीफा वह अपने सम्बंधी को उत्तराधिकारी घोषित कर देता था। उमैयद शासकों की तरह अब्बासी खलीफा ने गैर-धार्मिकता की नीति नहीं अपनाई। उन्होंने धर्म एवं प्रशासन के बीच पुनः गठबन्धन कर दिया। अब धर्म शासन का अभिन्न अंग बन गया। अब्बासी खलीफाओं ने लोगों को बताने का प्रयास किया कि खलीफा मुसलमानों का इमाम होता है। मोतासिम बिल्लाह (883-42 ई.) पहला खलीफा था जिसने अपने नाम के साथ ‘अल्लाह’ शब्द को जोड़ा। बाद में अन्य खलीफाओं ने इसका अनुकरण किया। अब्बासी प्रभुत्व के अवसान काल में मुसलमान अपने खलीफा को ‘खलीफा-ए-अल्लाह’ (God’s Caliph), ‘जिल अल्लाह अला अल-अर्द (God’s Shadow on Earth), आदि संज्ञाओं से भी विभूषित करने लगे । यह ऑटोमन तुर्क खलीफाओं तक ही प्रचलित रह सका।
अब्बासी खलीफा ने एक हाजिब नामक पद ईजाद किया, जो शाही महल का प्रबंधक होता था। साथ ही, प्रतिष्ठित व्यक्तियों, राजदूतों आदि को हाजिब ही खलीफा के समक्ष प्रस्तुत करता था । जल्लाद तथा ज्योतिषी भी खलीफा के साथ रहा करते थे। जल्लादों का काम अपराधियों को मृत्यु दंड देना था और ज्योतिषी खलीफा को कोई नया काम शुरु करने से पहले सुझाव देता था ।
वजीर : अब्बासी शासनकाल में वजीर का बड़ा महत्व था । वह खलीफा को जरूरत पड़ने पर सलाह देता था और उसकी अनुपस्थिति में शासन का संचालन भी करता था। उसे ‘द्वितीय आत्मा’ कहा जाता था। उसके अधिकार और प्रभाव अत्यन्त व्यापक होते थे और दुर्बल एवं विलासी खलीफाओं के शासनकाल में उसकी शक्ति और अधिक बढ़ जाती थी। यद्यपि सैद्धांतिक रूप से खलीफा प्रशासन का प्रधान होता था, परंतु व्यावहारिक रूप में वजीर ही सारे दायित्व निभाता था। खलीफा अल-नासीर (1180-1225 ई.) ने अपने वजीर की नियुक्ति करते समय कहा था कि वजीर शासन का आधार है और जो उसकी आज्ञाओं का पालन करता है, वह खलीफा तथा अल्लाह का प्रिय होता है और उसे स्वर्ग मिलता है। ऐसी उद्घोषणा से वजीर का पद और महत्वपूर्ण हो गया । बरमक वजीर को राज्यों के गवर्नर तथा काजियों को नियुक्त करना तथा उन्हें उनके पद से अलग कर देने का अधिकार प्राप्त था। पर इस प्रकार के कार्य वे खलीफा से अनुमति लेकर ही करते थे। इतना ही नहीं, वे अपना उत्तराधिकारी भी स्वयं मनोनीत करने लगे थे।
अप्रिय गवर्नरों की सारी संपत्ति जब्त करने का अधिकार भी वजीर को था तथा अपने विद्रोही गवर्नरों को मौत की सजा भी दे सकते थे। बाद में जब्ती के लिए एक अलग विभाग की स्थापना की गयी। माबरदी तथा तत्कालीन अन्य विधि वेत्ताओं ने दो प्रकार के वजीर बतलाए हैं। पहली श्रेणी में ‘तकवीद’ वजीर आते थे, जो अपार अधिकार के स्वामी थे। उन्हें खलीफा की संप्रभुता का उपयोग करने का अधिकार था। वे केवल खलीफा का उत्तराधिकार का निर्णय नहीं कर सकते थे। दूसरी श्रेणी के वजीर ‘तानफीद’ थे, जिन्हें केवल कार्यपालिका संबंधी अधिकार प्राप्त थे।
उनका काम खलीफा की आज्ञाओं का पालन करना तथा उसकी आदेशों को कार्य रूप में परिणत करना था। अमीर अल-उमराओं की नियुक्ति भी होने लगी। यह पद वजीर के समकक्ष होता था।
राजस्व प्रशासन : ‘साहब उल-खिराज’ राजस्व संबंधी कार्यों की देखभाल करता था। वैसे, अब्बासी प्रशासन के लिए विभिन्न विभागों के अध्यक्षों की एक परिषद् होती थी जिसका प्रधान स्वयं वजीर हुआ करता था। अब्बासी शासनकाल में प्रशासनिक यंत्र अपेक्षाकृत अधिक जटिल हो गये थे। उस समय कर-विभागों को बहुत महत्व दिया जाता था। राज्य की आय में ‘जकात’ कर का विशेष योगदान था। यह कर उनकी कृषि, पशु, सोना-चांदी, व्यापारिक वस्तुओं पर लिया जाता था। मुसलमानों से जो जकात वसूल किये जाते थे, उन्हें राजकोष में जमा कर दिया जाता था। इस आय का अधिकांश अंश, गरीबों, यतीमों, विधवाओं, आंगतुकों, धर्मयुद्ध में लगे सैनिकों, गुलामों आदि पर खर्च किया जाता था।
गैर-मुस्लिम प्रजा व्यक्ति-कर नामक कर लगाया गया था जिसकी वसूली राजस्व पदाधिकारी किया करते थे। कर से प्राप्त धनराशि को राजकोष में जमा कर दिया जाता था। इसके अलावा जजिया और उशर कर वसूल करके तथा युद्ध और लूटपात से प्राप्त धन से राजकोष में अच्छी वृद्धि होती थी। प्रान्तीय गवर्नर भी निरन्तर कर भेजा करते थे। पराजित राज्यों के शासकों से भी वार्षिक कर वसूल किया जाता था। इन सभी करों को मिलाकर इसका धन प्रयोग गरीबों के अतिरिक्त मस्जिदों, पुलों, राजमार्गों आदि के निर्माण सेना के वेतन तथा मुसलमानों के सामान्य हितों पर व्यय किया जाता था।
इब्न खालदुन, खुदामा और खुरदादबी द्वारा लिखित पत्रों से अब्बासियों के अय का विवरण प्राप्त होता है। खालदुन खलीफा अल-मामून का समकालीन था । उसने मामून की आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। खुदामा द्वारा लिखा गया दूसरा पत्र मामून के दस साल बाद की राज्य की आय-व्यय की स्थिति पर प्रकाश डालता है और तीसरा, उत्तरवर्ती अब्बासी खलीफाओं की आय-व्यय का आँकड़ा प्रस्तुत करता है।
स्पष्ट है कि अब्बासी शासकों को इराक, बेबिलोनिया, मिस्र, सीरिया, फिलस्तीन, सिकन्दरिया, खुरासान आदि प्रांतों से असंख्य दीनार एवं हीरे-जवाहरात प्राप्त होते थे । दीवान-ए-खिराज के अलावा राजस्व प्रशासन के लिये दूसरे विभागों की स्थापना की गयी। इन विभागों में ‘दीवान अल-जीमाम’ बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था । यह राज्य के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। इस विभाग का सृजन खलीफा अल-महदी ने किया था ।
सेना और पुलिस की व्यवस्था (System of Army and Police)
वैसे तो अब्बासी वंश के खलीफाओं ने एक विशाल सेना का संगठन किया था, पर उनमें एकता नहीं थी। साम्राज्य में एक सुसंगठित एवं प्रशिक्षित स्थायी सेना की नितांत कमी थी। खलीफा के अंगरक्षक अथवा ‘हरम’ ही एकमात्र स्थायी सैनिक थे। लगातार युद्ध में लगे सैनिकों को ‘मुरताजिक’ के नाम से जाना जाता था । मुरताजिक वेतनभोगी सैनिक होते थे और इन्हें नियमित रूप से सरकारी खजाने से वेतन दिया जाता था। सैनिकों को एक और श्रेणी थी जिसे ‘रजाकार’ कहा जाता था । इनकी आपात नियुक्ति युद्धकाल में की जाती थी और युद्ध के समय ही राज्य की ओर से इन्हें वेतन दिया जाता था। रजाकार की नियुक्ति बदुओं, कृषकों और शहरी लोगों के बीच से की जाती थी। इनके खानपान का दायित्व राज्य को पूरा करना होता था। सेना की एक टुकड़ी विशेष रूप से खलीफा की सुरक्षा के लिए होती थी। अन्य सैनिकों की अपेक्षा इनका वेतन व ओहदा दोनों ऊँचा होता था। प्रथम अब्बासी खलीफा के शासनकाल में पदाति सैनिकों को औसत वार्षिक वेतन लगभग 960 दरहम था । वेतन के अतिरिक्त इन्हें भत्ते आदि भी दिये जाते थे।
खलीफा मामून के शासनकाल में जब साम्राज्य की सीमाएँ काफी फैल गयीं, उस समय अब्बासी सेना में ईरानी सैनिकों की संख्या एक लाख पच्चीस हजार थी जिसमें पैदल सैनिकों को सालाना 240 दरहम तथा अश्वारोही सैनिकों को दोगुना वेतन दिया जाता था। उस समय दूसरे विभागों की अपेक्षा सैनिकों का वेतन ज्यादा होता था। अब्बासी शासनकाल में तीन प्रकार की सेना होती थी – पैदल, घुड़सवार व तीरंदाज  पदाति सैनिक तलवार ढाल और बरछों से सुसज्जित थे। अश्वारोही सैनिक तथा तीरन्दाज सिर पर हेलमेट तथा कवच धारण करते थे। युद्धों में लम्बे भाले और गंड़ासे का प्रयोग करते थे। अरब परम्परा में सैनिक तलवार को कंधे से लटकाये रहते थे। सबसे पहले अल-मुतावक्किल ने कमर में तलवार लटकाने के ईरानी फैशन का प्रचलन शुरू किया। गोलीबारी करने वाले सैनिक अग्निसह वस्त्र भी पहनते रणभूमि में सैनिकों क साथ इन्जीनियर्स, शिला-प्रक्षेपक, भित्ती-पातक आदि भी जाते थे। ये दुश्मन के दुर्गों को नष्ट करने में सेना को सहायता प्रदान करते थे। खलीफा (1180-1225 ई.) के शासनकाल का एक प्रसिद्ध इंजीनियर इब्न साबीर अल-मंजनिकी ने युद्ध-कला पर एक अधूरी ग्रंथ रचना भी की। रणभूमि में ऊँट-गाड़ियाँ भी सैनिकों के साथ रहती थीं, जो युद्ध में अस्पताल की सामग्री और घायलों को ढोने का काम किया करती थीं। इस व्यवस्था का प्रचलन हारून- अल रशीद शुरु किया था ।
चूँकि अब्बासियों को सत्ता प्राप्त करने में ईरानी सैनिकों की महत्ती भूमिका रही है, इसलिए उसने अपनी सेना में अरबों की बजाय ईरानियों को प्राथमिकता दी। प्रारम्भ के अब्बासी खलीफाओं के अंगरक्षकों में खुरासानी सैनिकों की प्रधानता थी । अरब सेना के दो विभाग थे-उत्तरी अरब सेना अथवा मुदारी तथा दक्षिण अरब सेना यानी यामानी। नये इस्लामी धर्मावलंबियों को भी अब्बासी सेना में स्थान दिया गया। अल-मुतासिम ने फरगना तथा मध्य एशिया के अन्य क्षेत्रों के अपने तुर्क गुलामों की एक अन्य सैनिक दुकड़ी की स्थापना की। इन नये सुरक्षा सैनिकों की भर्ती के कारण ही खलीफा को 886 ई. में बगदाद से अपनी राजधानी को नव-निर्मित समारा में ले जाना पड़ा। खलीफा अस-मुन्तसीर की मृत्यु (861-62 ई.) के पश्चात् तुर्क सैनिकों ने राज्य की राजनीति व प्रशासन पर गहरा प्रभाव डाला ।
अब्बासी शासकों ने सैन्य अधिकारियों का अच्छा प्रबंध किया था। रोम तथा बैजेन्टाईन की भाँति अब्बासी सेना के दस सैनिकों की टुकड़ी के ऊपर एक अरीफ; पचास सैनिकों की टुकड़ी के ऊपर एक खलीफा तथा प्रत्येक सौ सैनिकों के ऊपर एक कईद नामक सैन्य अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी। सौ सैनिकों को मिलाकर एक कंपनी का संगठन किया जाता था। दस हजार सैनिकों के ऊपर एक अमीर (सेनापति) की नियुक्ति की जाती थी।
‘कुर्दूस’ नामक दस्ते में अनेक कम्पनियों का समावेश था। अब्बासी साम्राज्य की नींव शक्तिशाली सेना पर ही निर्भर करती थी। सेना न केवल सीरिया, फारस तथा मध्य एशिया के विद्रोहों का दमन पर आन्तरिक शक्ति व्यवस्था स्थापित करती थी, बल्कि बैजेन्टाइनों के विरुद्ध यह आक्रामक अभियान भी किया करती थी। अरब सैनिकों की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थी उनकी विशालता तथा सैनिकों की संचालन-शक्ति। उनकी इन विशेषताओं को अनेक बैजेन्टाईनी सम्राटों ने भी स्वीकार किया है। प्राप्त साधनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जाड़े और बरसात के मौसम अरब सैनिकों के लिए अच्छे नहीं होते थे। अरब सैनिकों में अनुशासन की भी कमी थी। उनकी पदाति सेना सामान्य रूप से लूट-पाट में अधिक प्रवीण थी; न कि युद्ध कला में। फिर भी, अरब सैनिको का लोहा बैजेन्टाइन के शासकों ने भी माना। उत्तरकालीन अब्बासी, शासकों के शासनकाल में सेना की शक्ति धीरे-धीरे कमजोर होती चली गयी ।
अब्बासी सेना की शक्ति खलीफा अल-मुतवक्किल के शासनकाल से ही कमजोर होने लगी थी, जबकि खलीफा ने विदेशियों की नियुक्ति सेना में शुरू की। आगे चलकर अल-मुक्तीदीर (908-32 ई.) के शासनकाल में प्रांतीय सैनिकों का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक बढ़ गया। अब सैनिकों का वेतन आदि प्रांतीय गवर्नरों के द्वारा ही दिया जाने लगा। इस प्रकार खलीफा की शक्ति कमजोर होने लगी। बुवाहिद के काल में नकद वेतन के स्थान पर सैनिया को भूमि दी जाने लगी। इस प्रथा से सेना में सामंतवादी विचारधारा को बल मिला। अब्बासी काल में पुलिस व गुप्तचर विभाग भी बनाए गए थे। पुलिस विभाग ( दीनानुश शूरता) का प्रधान ‘साहब अल-शूरता’ होता था । वह खलीफा का प्रधान अंगरक्षक भी हुआ करता था । साम्राज्य के सभी बड़े नगरों में पुलिस का विशेष रूप से प्रबंध किया जाता था ।
पुलिस कर्मचारियों को अच्छी वेतन दी जाती थी। नगर पुलिस का प्रधान पदाधिकारी ‘मुहतसीब’ होता था । मुहतसीब के मुख्य कार्य नगर में शराब, जुए, सूदखोरी आदि अनैतिक कामों को रोकथाम करना तथा बाजारों की सम्पूर्ण व्यवस्था की देखरेख करना था। उसका एक अन्य कार्य स्त्री-पुरुषों के नैतिक आचरण पर कठोर निगरानी रखना भी था । मुहतसीब ऐसे प्रौढ़ लोगों को दण्ड दे सकता था, जो समाज के साथ गलत आचरण रखते थे। नगर के बाहर उसका कोई प्रभाव नहीं था ।
अब्बासी काल में गुप्तचर व्यावस्था भी सन्तोषजनक कही जा सकती है। गुप्तचरों की देख-रेख का कार्य डाक विभाग करता था। मंसूर, रशीद तथा अन्य खलीफाओं ने यात्रियों, व्यापारियों तथा फेरीवालों को गुप्तचर विभाग में नियुक्त किया। ऐसा माना जाता है कि खलीफा ! मामून ने बगदाद के गुप्तचर विभाग में लगभग सत्रह सौ प्रौढ़ स्त्रियों को नियुक्त किया था। गुप्तचर सम्पूर्ण राज्य में फैले रहते थे और वे खलीफा को आवश्यक सूचना भेजा करते थे । बैजेन्टाईन साम्राज्य में अब्बासी गुप्तचर की संख्या बहुत ज्यादा थी । स्त्री और पुरुष गुप्तचर वहाँ । व्यापारियों, यात्रियों, फकीरों तथा डॉक्टरों के भेष में भ्रमण करते थे ।
न्याय प्रशासन : अब्बासी काल में न्यायिक गतिविधियों पर धर्म का व्यापक प्रभाव था। स्पष्ट है कि अब्बासी शासकों ने भी अपने शासनकाल में न्याय प्रशासन की समुचित व्यवस्था की । न्याय के लिए अब्बासी खलीफाओं ने काजियों की युक्ति की। उलेमा वर्ग के लोग इस्लामी धर्म-शास्त्र एवं विधिशास्त्र के पंडित होते थे। अतः खलीफा इस वर्ग के लोगों की नियुक्ति वजीर तथा काजी के पदों पर किया करते थे। प्रधान काजी को ‘काजी अल-कुजा’ कहा जाता था। इस पद पर सबसे पहले 798 ई. में खलीफा महदी के द्वारा प्रसिद्ध अबू युसुफ को नियुक्त किया गया था, जो हादी तथा हारून के शासनकाल तक रहा।
इस्लामी कानून के अनुरूप स्वस्थ मस्तिष्क एवं बुद्धि-युक्त सच्चरित्र वयस्क तथा विद्वान पुरुष ही इस पद पर नियुक्त किये जा सकते थे। गैर-मुसलमान अपने परंपरागत धार्मिक न्याय व्यवस्था के अनुरूप ही सिविल न्याय प्राप्त करते थे। मारवादी ने अपनी न्याय प्रक्रिया में दो प्रकार के न्यायाधीशों की नियुक्ति की – (1) आम मुतलक (2) खास मुतलक । प्रथम वर्ग के न्यायाधीश या काजी मुकदमों का फैसला; बच्चों, रोगियों एवं अनाथों का संरक्षण धार्मिक संस्थाओं का संचालन करना; धार्मिक रीति-रिवाजों अथवा नियमों का विरोध करने वाले को दण्ड देना तथा न्याय से सम्बंधित कार्यों को देखना आदि महत्वपूर्ण कार्य करता था । ‘खास मुतलक’ के अधिकार सीमित थे। उनकी नियुक्ति खलीफा, वजीर अथवा प्रांतपतियों के द्वारा की जाती थी और वे व्यक्ति ही उनके कार्यों का निरूपण किया करते थे। प्रारम्भ में प्रांतीय काजियों की नियुक्ति संबंधित गवर्नरों द्वारा की जाती थी, परन्तु बाद में उनकी नियुक्ति बगदाद के ‘काजी- अल-कुजात’ की द्वारा की जाने लगी। बाद के सूत्रों से ज्ञात होता है कि खलीफा मामून के काल में मिस्र के काजी का मासिक वेतन 4000 दरहम था । न्याय पूर्णतः इस्लामी विधि, कुरान तथा शरियत के नियमों के अनुरूप हुआ करता था। न्याय के विरुद् लोग खलीफा से अपील भी कर सकते थे।
डाक-विभाग : अब्बासी काल में डाक व्यवस्था को ‘दीवान-अल-बरीद’ कहते थे । इस विभाग का प्रधान ‘साहब- अल-बरीद’ हुआ करता था। खलीफा मुआविया द्वारा इस विभाग को जन्म दिया गया। परन्तु, अब्बासी शासनकाल में इसे और भी अच्छे ढंग से संगठित किया गया । खलीफा अब्दुल मलिक ने दीवान-अल-बरीद की अनेक शाखाएँ साम्राज्य में स्थापित कीं और इसका पर्याप्त विस्तार किया। अल-बालिद ने इस विभाग का उपयोग अपनी इमारतों के निर्माण में किया। इसलिये इसका प्रभुत्व प्रशासन में बढ़ गया। हारून ने अपने शासनकाल में डाक विभाग को सुदृढ़ता प्रदान की। खलीफा ने अपने बरमक वजीर यहया के परामर्श एवं सहयोग से इस विभाग का संगठन कार्य सम्पन्न किया।
प्रत्येक प्रांतीय राजधानी में एक-एक डाक विभाग की स्थापना की गयी । साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण नगरों को नवनिर्मित राजमार्गों से जोड़ दिया गया। राज्य के प्रमुख मार्गों पर कुल मिलाकर सौ डाक कार्यालय खोले गए ।
प्रारम्भिक दौर में डाक विभाग सिर्फ सरकारी पत्रों का ही आदान-प्रदान करता था, पर बाद में इसमें निजी पत्रों को भी शामिल कर लिया गया। डाक घोड़े, खच्चर, ऊँट आदि के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाए जाते थे। फारस में घोड़े और खच्चरों के द्वारा डाक ढोये जाते थे, जबकि सीरिया तथा अरब में इस कार्य के लिए ऊँट का प्रयोग किया जाता था। इस काल में पत्रों को पहुँचाने के लिए कबूतरों को भी प्रशिक्षित किया जाने लगा। 837 ई. खलीफा मूतासिम को अपने विद्रोही खुरीमी प्रधान की सूचना डाक विभाग ने ही दी थी । बरीद की सहायता नये
नियुक्त गवर्नरों को उनसे संबंधित प्रांतों में ले जाने के लिए तथा अभियानों के सिलसिले में सैनिक तथा रसद एवं सामान को ढोने में भी ली जाती थी। निजी कार्यों के लिए सामान्य लोग भी धन देकर बरीद का प्रयोग कर सकते थे। साम्राज्य में स्थित सभी डाकघरों का निरीक्षण तथा संचालन का उत्तरदायित्व प्रधान कार्यालय बगदाद से होता था। धर्म यात्रियों, व्यापारियों तथा यात्रियों को बगदाद के इस प्रधान डाकघरों के द्वारा आवश्यक सूचना एवं दिशा-निर्देश प्राप्त किये जा सकते थे। भविष्य में इस विभाग का महत्त्व इतना बढ़ गया कि अनेक अध्येता इस पर शोध कार्य भी करने लगे।
डाक विभाग का प्रधान गुप्तचर विभाग से भी जुड़ा हुआ था। वह इसका अध्यक्ष होता था। दोनों विभागों का प्रधान होने के नाते वह साहब अल-वबरी व अल-अखबार के नाम से भी जाना जाता था। इस योग्यता के कारण वह इंस्पैक्टर-जनरल तथा केन्द्रीय सरकार के विश्वासी एजेंट के रूप में भी काम करता था। प्रांतीय डाक विभाग के अध्यक्ष अपने संबंधित प्रांतों की गतिविधियों की समस्त सूचनाएँ उसे दिया करते थे। प्रांतीय अध्यक्ष बिना किसी भय के गवर्नरों की सारी गतिविधियों की जानकारी भेजते थे। पूरे साम्राज्य में तथा विदेशों में भी अब्बासी गुप्तचर फैले हुए थे।
उपरोक्त विभागों के अलावा अब्बासी शासकों ने कुछ और विभाग भी बनाए थे। सरकारी पत्राचार के लिए ‘दीवान-अल-तौकी’ विभाग का संगठन किया गया। ‘दीवान अल-नजर फी अल-मजालिम’ प्रजा की राजनीतिक एवं प्रशासनिक अन्यायों से संबंधित शिकायतें सुनता तथा उन पर उचित कार्यवाही करता था। मनारदी के अनुसार इस विभाग की स्थापना उमैयदकाल के खलीफा अब्द अल-मलिक ने की थी। अब्बासी काल में इस व्यवस्था को पुनः स्थापित करने का श्रेय अल-महदी को दिया जाता हैं। आम जनता की शिकायतें सुनने के लिए महदी, हादी, हारून, मामून खलीफाओं द्वारा दरबार लगाया जाता था। खलीफा का यह न्यायालय अपील का उच्चतम न्यायालय माना जा सकता है। यह परम्परा खलीफा महदी (869-70 ई.) के काल तक चलती रही।
प्रांतीय शासन व्यवस्था (State Administration System)
उमैयदकाल की तरह ही अब्बासी काल में भी राज्य विभिन्न प्रान्तों में बँटा था जिस पर गवर्नर (अमीर अथवा अमील) शासन किया करते थे। इसके अलावा और भी कई चीजें उमैयदों की ही बड़करार रहीं। भौगोलिक परिवेश और प्रान्तों की संख्या व क्षेत्र में समयानुसार परिवर्तन होता रहा। परन्तु प्रारम्भिक अब्बासी खलीफाओं के शासनकाल में अफ्रीका, मिस्र, सीरिया और फिलस्तीन, मध्य अरब, दक्षिण अरब, बहराइन और अमन, सबाद या इराक, प्राचीन असीरिया, जीबल अथवा मदीना, खुजिस्तान, फारीस, करमान, सिजिस्तान, कुहिस्तान, कुमिज, तबारिस्तान, जर्जान, आरमेनिया, खुरासान, ख्वारिजाम, सुगद, (बुखारा और समरकन्द), फरागना और अल-शाश (आधुनिक ताशकन्द) तथा अनेक तुर्की क्षेत्र इत्यादि प्रमुख प्रान्त थे। चूँकि अब्बासी साम्राज्य बहुत ही विस्तृत था, इसलिए विकेन्द्रीकरण की शक्ति को ज्यादा समय तक नियन्त्रण में नहीं रखा जा सका।
यद्यपि प्रारम्भ में कुछ योग्य एवं प्रतापी अब्बासी शासकों ने केन्द्रीय गवर्नरों पर अत्यधिक नियंत्रण स्थापित रखा किन्तु उत्तर अब्बासी काल में प्रांतीय गवर्नर केन्द्रीय शक्ति के कमजोर पड़ जाने पर स्वेच्छाचारी तथा प्रभावशाली होते गये। इस समय तक प्रान्तों की शासन व्यवस्था गवर्नरों के प्रति उत्तरदायी हो गई तथा यह पद वंशानुगत हो गया। फिर भी, सैद्धान्तिक रूप से गवर्नर वजीर की कृपा का पात्र होता था। वजीर के सिफारिश पर ही खलीफा उसकी नियुक्ति किया करता था। जब वजीर अपने पद से हटता था तो गवर्नर को भी अपने पद का त्याग कर देना पड़ता था। इस बात की सच्चाई पर इसलिए सदेह होता है क्योंकि उस दौरान गवर्नर बहुत ही शक्तिशाली होते थे।
मवारदी के अनुसार इमरा आम तथा खास अमीर । इमरा आम पर सेना, उत्तराधिकार मनोनयन, न्याय, सार्वजनिक सुरक्षा आदि का दायित्व था। वह बाह्य आक्रमणकारियों से राजधर्म की सुरक्षा करता, पुलिस की समुचित व्यवस्था करता तथा शुक्रवार के नमाज की अध्यक्षता करता था। दूसरे शब्दों में, इस श्रेणी के गवर्नरों की शक्ति तथा अधिकार अत्यन्त व्यापक थे। दूसरी ओर खास अमीर वर्ग के गवर्नरों के अधिकार बहुत सीमित होते थे। इस वर्ग के गवर्नरों का न्याय एवं करों पर किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता था।
मवारदी का यह वर्गीकरण सैद्धांतिक आधार पर किया गया था। उस समय प्रांतीय शासक बहुत शक्तिशाली व प्रभावशाली हुआ करते थे। अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं महत्वाकांक्षा के बल पर गवर्नरों ने अपनी शक्ति का व्यापक विस्तार कर लिया था। कमजोर खलीफाओं के समय में गवर्नर के प्रभुत्व के चलते वे अपने प्रान्त को स्वतन्त्र घोषित कर देते थे । इस प्रकार प्रांतीय सामान्यतः निरंकुश हो गये । स्वरूप की दृष्टि से देखा जाए तो प्रांतीय शासन व्यवस्था और केन्द्रीय शासन व्यवस्था के स्वरूप पर ही आधारित था। प्रान्तों में सेना, न्याय, राजस्व आदि की समुचित व्यवस्था की जाती थी । प्रान्त के प्रमुख सेना पर पूर्ण नियंत्रण रखते थे । प्रांतीय न्याय – प्रशासन की जिम्मेदारी प्रांतीय काजियों के ऊपर रहती थी। न्याय प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रांतीय कांजी छोटे काजियों की नियुक्तियां किया करते थे । गवर्नर अपने प्रांतों में राजस्व अधिकारियों के सहयोग से विभिन्न करों की उगाही किया करता था । स्थानीय आय प्रांतीय प्रशासन, सेना, धार्मिक कार्य आदि पर खर्च किया जाता था। इसके अलावा जो बचता था, उसे केन्द्रीय कोषागार में रख दिया जाता था ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि केन्द्रीय प्रशासन की भाँति अब्बासी शासकों ने प्रांतीय प्रशासन को भी समुचित रूप से संगठित तथा प्रभावशाली बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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