किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें ।

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प्रश्न – किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें ।
(Describe the main Characteristics of adolescence.)
उत्तर – किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Adolesce)
  1. पूर्व किशोरावस्था के किशोर की स्थिति अस्पष्ट होती है (The Young Adolescent’s Status is Ambigusts) किशोरावस्था के प्रारम्भ से किशोर यदि बच्चों की तरह व्यवहार करता है तो उससे कहा जाता है कि वह अपनी आयु के अनुसार व्यवहार करे, जब वह बड़े या वयस्क व्यक्तियों की तरह व्यवहार करता है तो उससे छोटों की तरह व्यवहार करने को कहा जाता है। स्थिति यह होती है कि बेचारे इस युवा किशोर को उसके मित्र और परिवार के लोग न बच्चा समझते हैं और न वयस्क । उसकी स्थिति उसकी आयु के अनुसार स्पष्ट न होकर अस्पष्ट होती है। इस अस्पष्ट स्थिति के कारण उसे अपने चारों ओर के बातावरण में व्यवहार करने में असुविधा ही नहीं होती है बल्कि अनेक बार उसे मनोवैज्ञानिक कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है ।
  2. यह कामुकता के जागरण की अवस्था है ( It is a Period of SexAwakening)– हाल (G.S. Hall, 1904) के अनुसार किशोर में दो प्रकार की भावनाओं का विकास होता है; पहले प्रकार की भावनाएँ समाज सम्बन्धी होती हैं, और दूसरे प्रकार की भावनाएँ काम (Sex) सम्बन्धी होती हैं। हाल के अनुसार काम शक्ति को उदय किशोरावस्था का एक प्रमुख लक्षण है । किशोरावस्था की काम-शक्ति के विकास का तीन प्रमुख अवस्थाएँ हैं—–(i) प्रथम अवस्था में किशोर में स्वप्रेम (Narcissistic) भावनाओं का विकास होता है । फलस्वरूप वह अपने शरीर को आकर्षक और सुन्दर समझने लगता है । (ii) द्वितीय अवस्था में किशोर में सजातीय कामुकता (Homosexuality) का विकास प्रारम्भ होता है। फलस्वरूप वह समान आयु और सजातीय किशोर के साथ मित्रता की ओर अग्रसर होता है। (iii) तृतीय अवस्था में किशोर में विजातीय कामुकता का विकास प्रारम्भ होता है। फलस्वरूप वह विपरीत लिंग के किशोरों की ओर आकर्षित होता है और अपनी काम-इच्छाओं की सन्तुष्टि करता है। उनकी यह काम- इच्छाएँ समान अवस्था के लोगों के लिए हो सकती हैं और अपने से अधिक आयु वाले लोगों के लिए भी हो सकती हैं। मनोविश्लेषणात्मक अध्ययनों से यह पता चलता है कि किशोर लड़की अपने प्रेमी में पिता का स्नेह और किशोर लड़का अपनी प्रेमिका में माँ का स्नेह प्राप्त करना चाहता है। किशोर को काम (Sex) के सम्बन्ध में स्वस्थ ज्ञान कराना उनके लिए हर प्रकार से लाभदायक होता है।
  3. निश्चित विकास प्रतिमान (Definite Pattern of Development) — बाल्यावस्था की भाँति किशोरावस्था का भी एक निश्चित विकास प्रतिमान होता है चूँकि उसका विकास प्रतिमान निश्चित होता है, अतः उनमें एक निश्चित आयु- स्तर पर उस आयु- स्तर की विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। अपने अध्ययनों के आकार पर फैंक (L.K. Frank, 1949) ने बताया कि लगभग सभी किशोर अपने पारिवारिक निषेधों के प्रति विद्रोही भावनाएँ रखते हैं। उनमें उत्सुकता, असुरक्षा की भावना, स्वयं के सम्बन्ध में अनिश्चितता और भ्रम भी होता है। किशोरावस्था के अन्त तक शारीरिक परिवर्तनों में वृद्धि अपनी चरमसीमा तक पहुँच जाती है। इस अवस्था में व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तन और विकास अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  4. किशोरावस्था एक परिवर्तन अवस्था है (Adolescence is a Period of Transition)– किशोरावस्था, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के बीच के परिवर्तनों की अवस्था है। इस अवस्था के परिवर्तनों के फलस्वरूप बाल्यावस्था की आदतें और व्यवहार लक्षण समाप्त होते जाते हैं और प्रौढ़ावस्था की ओर उसका व्यवहार अग्रसर होता जाता है। परिवर्तनों के कारण ही वह यह समझने लग जाता है कि अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है और जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का सामना स्वयं करना है। एक अध्ययन (W.Woodie, 1949) में यह देखा गया कि किशोरावस्था में कितने और किस प्रकार के परिवर्तन होंगे ? यह मुख्यतः इस बात पर निर्भर करता है कि किशोर को इस दिशा में कितना और किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया है । क्रूहलेन (R. G. Kuhlen, 1952) ने किशोर के समायोजन और निर्णयों का वर्णन करते हुए लिखा है कि “यह परिवक्वता की देहली या सीमान्त पर होता है जहाँ पर उसे निर्णय करते हुए लिखा है और समायोजन करना होता है जिसके भविष्य के सम्बन्ध में दूरगामी परिणाम होते हैं। ” (He is on the threshold of maturity where he must make decisions and adjustments that will have far-reaching implications for his future ) । किशोरावस्था के यह परिवर्तन यदि अधिक तीव्र गति से होते हैं तो किशोर के लिए समायोजन करना कठिन हो जाता है परन्तु यदि परिवर्तन सामान्य गति से होते हैं तो वह इन परिवर्तनों में अपने आपको समायोजित रखने में सफल होता है। हरलॉक (1964) का विचार है कि किशोरावस्था के परिवर्तनों का ज्ञान धीरे-धीरे किशोर को होता जाता है और इस ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ वह वयस्क व्यक्तियों की भाँति इसलिए व्यवहार करना प्रारम्भ कर देता है क्योंकि वह वयस्क दिखाई देने लगता है।
  5. किशोरावस्था अस्थिरता की अवस्था है (Adolescence is a Period of Emotional Instability)– किशोरावस्था की अस्थिरता अपरिपक्वता (Immaturity) की ओर संकेत करती है। किशोरावस्था की अस्थिरता इस बात का संकेत करती है कि किशोर अपने स्वयं के सम्बन्ध में अनिश्चित होता है और वह अपनी नई स्थिति के अनुसार समायोजन करने के लिए प्रयत्नशील होता है। किशोरावस्था में समायोजन सम्बन्धी अस्थिरता और संवेगात्मक अस्थिरता अधिक मात्रा में होती है। हरलॉक (1960) ने भी लिखा है कि “प्रारम्भिक किशोरावस्था आँधी और तनाव की अवस्था है। इस अवस्था में संरक्षकों, मित्रों और अध्यापकों से अनेक प्रकार से अनवन होती है तथा इस अवस्था का किशोर पहले की अपेक्षा अधिक संवेगात्मकता का अनुभव करता है। किशोर एक भिन्न प्रकार का व्यक्ति होता है” (Early adolescence is a period of storm and stress. This is a period of many frictions with parents, teachers and friends and the young adolescent experiences more emotionality than he did when he was younger. The adolescent is a different person to live or work with) । हरलॉक के उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि किशोरावस्था एक भाव-प्रधान अवस्था है । परन्तु इसमें अस्थिरता है। किशोरावस्था की इस अस्थिरता के कुछ प्रमुख कारक निम्न प्रकार से हैं—पहला प्रमुख कारक तीव्र और विषम (Uneven) विकास का होता है। द्वितीय कारक किशोरों में ज्ञान और अनुभवों का अभाव है। किशोरों के व्यवहार में अस्थिरता की उत्पत्ति का मुख्य कारण अस्पष्टता को बताया गया है। इसे स्पष्ट करते हुए फ्रैंक (L.K. Frank, 1949) ने लिखा है कि “संरक्षक किशोर के साथ अशिष्ट व्यवहार करते हैं, आलोचना करते हैं, तुरन्त उत्तर माँगते हैं या तुरन्त काम पूरा करने को कहते हैं जबकि उन्हें चाहिए कि किशोरों की आवश्यकता सहायता करें, समस्याओं का स्पष्टीकरण और उसमें सूझ विकसित करने के लिए उपाय करें” (Parents often and to adolescents confusion by scolding, criticising and demanding, instead off explaining and helping him to get insights) । तृतीय महत्त्वपूर्ण कारक संघर्षपूर्ण आवश्यकताएँ हैं जो समय-समय पर उसके संरक्षकों, मित्रों, अध्यापकों, परिचितों और समूह के कारण एक साथ उत्पन्न होती हैं । चतुर्थ महत्त्वपूर्ण कारक नियमित प्रशिक्षण का अभाव होता है ।
  6. किशोरावस्था समस्या – बाहुल्य की अवस्था है (Adolescence is an age of many Problems)—किशोरावस्था की आयु को समस्या – आयु (Problem Age) कहा गया है। इस कथन के दो अर्थ लगाये जाते हैं, प्रथम यह कि किशोरावस्था में किशोरों की अनेक समस्याएँ होती हैं जिनका समाधान कुछ इस प्रकार आवश्यक है कि समाधान उस किशोर को भी मान्य हो और उस सामाजिक समूह को भी मान्य हो जिसका कि वह सदस्य है। किशोरावस्था समस्या-आयु (Problem Age) है, इस कथन का यह भी अर्थ है कि किशोर अपने माता-पिता, संरक्षकों, अध्यापकों और सामाजिक समूह आदि सबके लिए किसी न किसी रूप में समस्या होते हैं। हरलॉक (1964) का चिार है कि “The Adolescent is even more of a problem to himself than to others” । हरलॉक का कथन कि “किशोर स्वयं के लिए एक समस्या होता है ” अधिक सही प्रतीत होता है क्योंकि इसी कारण से सम्भवतः वह अपनी नई अवस्था के नये रोल्स के साथ समायोजन नहीं कर पाता है। फलस्वरूप वह भ्रान्त (Confused), अनिश्चित (Uncertain), चिन्तित और उत्सुक (Anxious) होता है ।
    किशोरावस्था की अनेक समस्याएँ होती है जिनका वर्णन इसी अध्ययन में “किशोरावस्था की समस्याएँ” शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है ।
  7. यह विकसित सामाजिकता की अवस्था है (It is an age of Developed Social Relationship) — इस अवस्था के बालक के जितने मित्र होते हैं उतने किसी अन्य विकास अवस्था में मित्र नहीं होते हैं। इस अवस्था के बालक का सोशल सर्किल बहुत लम्बा-चौड़ा होता है । उनकी मित्रता, जाति, धर्म, रूप-रंग और सामाजिक-आर्थिक स्तर आदि सम्बन्धी भेद-भाव से परे होती है। उनकी मित्रता में परस्पर सहयोग और सहानुभूति पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होती है । उनकी मित्रता समलिंगीं लोगों से अधिक और विपरीत लिंग के लोगों से अपेक्षाकृत बहुत कम होती है। इसका मुख्य कारण लड़कियों के लिए नियन्त्रण और सामाजिक प्रतिबन्धों का होना है। किशोर की मित्र-मण्डली का जैसे-जैसे विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे वह अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों का पालन करने में असमर्थता का अनुभव करने लग जाता है और परिवार के प्रति उदासीन होता जाता है। अपनी मित्र-मण्डली में जहाँ वह प्राइवेट और सेक्स सम्बन्धी बातें करता है वही वह अपने मित्रों से पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक बातें भी करता है ।
  8. यह एक उमंगपूर्ण कल्पना की अवस्था है (It is an age of Exuberant Imagination)–किशोर अपनी समस्याओं को दूसरों से खुलकर कहता भी है और उसकी समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें वह केवल अपने अन्तरंग मित्रों से ही कहता है। जब इन अन्तरंग मित्रों से समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है अथवा कुछ अति प्राइवेट समस्याओं को इन अन्तरंग मित्रों से भी नहीं कह पाता है तब इन समस्याओं के समाधान के लिए तरह-तरह की उपकल्पनाएँ करता है। उसकी ये कल्पनाएँ उमंगपूर्ण होती है। ऐसी उमंगपूर्ण कल्पनाएँ वह एकान्त भी करता है। कभी-कभी जब वह वास्तविक जीवन से निराश होता है तब इस अवस्था में भी वह अपने उमंगपूर्ण कल्पना- लोक में विचरण कर शान्ति और सुख प्राप्त करता है। अत्यधिक कल्पना उसको उमंगपूर्ण बना सकती है।
  9. किशोरावस्था शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है (Adolescence is a Recapitulation of Infancy)-जॉन्स (H. E. Jones, 1943) ने किशोरावस्था की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति कहा है क्योंकि किशोरावस्था के अनेक लक्षण शैशवावस्था से मिलते-जुलते हैं। शिशुओं की भाँति किशोर चंचल होता है। वह अपनी आयु के अनुसार शान्त और स्थिर नहीं होता है। शिशुओं की भाँति उसे यह भ्रान्ति होती है कि वह दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण का केन्द्र है परन्तु बहुधा ऐसा नहीं होता है। शिशु की भाँति उसे अपने चारों ओर के वातावरण में समायोजन भी करना पड़ता है। उसे समायोजन में कठिनाई उसके शारीरिक और मानसिक विकास के कारण होती है। शिशुओं की भाँति उसमें संवेगशीलता भी अधिक होती है। इस अवस्था में उसकी कामुकता माँ की अपेक्षा विपरीत लिंग के सदस्यों की ओर प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है। उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि किशोरावस्था शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है।
  10. किशोरावस्था एक दुःखदायी अवस्था है (Adolescence is an age of Unhappiness) — यह ऊपर बताया जा चुका है कि किशोरावस्था में किशोर दूसरों के लिए ही एक समस्या नहीं होता है बल्कि उसे भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। भला ऐसी अवस्था में किशोरावस्था सुखदायी कैसे हो सकती है। हरलॉक (1964) ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “किशोरों के जीवन में खुशियाँ और हर्ष तो होते ही हैं लेकिन इनके साथ-साथ कुण्ठा, निराशा और दिल तोड़ने वाली स्थितियाँ भी आज की संस्कृति में बहुत दिखाई देती है” (While there are of course, moments of happiness, often of great joy, these far too often are overshadowed by the frustrations, disappointments, and heart-breaks that accompany growing up in our present day culture ) । यह देखा गया है कि बाल्यावस्था में बालक अपनी समस्याओं का समाधान इसलिए अधिक सरलता से कर लेता है कि उसे उसके परिवार से बहुत अधिक सहायता मिल जाती है, परन्तु किशोरावस्था में उसे इस प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं होती है । अतः उसके लिए समस्याएँ दुःखदायी हो जाती हैं। किशोरावस्था के दुःखदायी होने के कई प्रमुख कारण हैं; जैसे-
    1. सामाजिक दबाव ( Social Pressures ) – यह देखा गया है कि परिवार और समाज के बड़े-बूढ़े लोग समय-समय पर किशोर पर दबाव डालते हैं। अक्सर संरक्षकों के द्वारा डाँट पड़ती है, आलोचना की जाती है या दण्ड दिया जाता है। इसके साथ इस प्रकार का व्यवहार उसके अध्यापकों द्वारा भी किया जाता है । यह सामाजिक दबाव भी उसके लिए बड़ा दुःखदायी होता है ।
    2. समायोजन सम्बन्धी समस्याएँ (Problems of Adjustment)- यह ऊपर समझाया जा चुका है कि किशोरावस्था में समायोजन की अनेक समस्याएँ होती हैं। अनेक समस्याओं के समाधान में उसे उसके निकट सम्बन्धियों से कोई विशेष सहायता प्राप्त नहीं होती है। इस अवस्था में समायोजन समस्याएँ उसके लिए दुःखदायी हो जाती है और फिर प्रत्येक समायोजन में व्यक्ति में कुछ या अधिक मात्रा में चिन्ता अवश्य होती है ।
    3. प्रतिष्ठा का अभाव (Lack of Status ) – किशोरावस्था का बालक सेक्स की दृष्टि से परिपक्व हो जाता है परन्तु प्रौढ़ व्यक्ति का स्टेट्स प्राप्त नहीं होता है और उसे बालक भी नहीं समझा जाता है अतः वह बाल्यावस्था की स्वतन्त्रताओं का आनन्द नहीं ले पाता है और न वह वयस्क व्यक्ति के अधिकारों और सुविधाओं को ही प्राप्त कर पाता है । इस प्रकार कहा जा सकता है किशोर स्थिति के अभाव में दुःखदायी स्थिति में रहता है ।
    4. आदर्शवाद (Idealism)– प्रत्येक किशोर के कुछ न कुछ आदर्श होते हैं । यह आदर्श वह अपने स्वयं के प्रति अपने परिवार के प्रति अपने दोस्तों, अपने समाज या राष्ट्र किसी के प्रति भी सेट कर सकता है। परन्तु इन सेट किये हुए आदर्शों को पूर्णरूपेण वह प्राप्त नहीं कर पाता है । थॉम्पसन (1948) का विचार है कि अमेरिकन संस्कृति के किशोर उतने खुश नहीं होते हैं जितने कि यहाँ के पूर्व – किशोरावस्था के बालक ।
    5. अनुपयुक्तता की भावनाएँ (Feelings of Unhappiness ) – यह देखा गया है कि किशोर में स्वयं की योग्यताओं के प्रति जो भावनाएँ होती हैं, वे वास्तविक कम और काल्पनिक अधिक होती हैं तथा उसका आकांक्षा स्तर (Level of Aspiration) भी वास्तविक उपलब्धि से कहीं अधिक ही होता है । अतः स्वाभाविक है कि जब वह लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाता है तब उसमें अनुपयुक्तता की भावना उत्पन्न होती है और फलस्वरूप वह दुःखी हो जाता है ।

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