क्या आप इस बात से सहमत हैं कि भारतीय राजनीति आज मुख्य रूप से आरोपों की या मुखर राजनीति के बजाय विकास की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है। बिहार के संदर्भ में चर्चा करें।
बिहार में राजनीति लंबे समय से आरोपों या मुखर राजनीति के रूप में गहराई के साथ अव्यवस्थित रही है। चुनाव अक्सर गैर-विकासात्मक मुद्दों जैसे जातियों, पहचान और धर्म के मुद्दों पर लड़े गए हैं। पैसे और बाहुबल के मुद्दे भी हावी रहे हैं। लोगों ने शायद ही कभी ऐसी पार्टियों को वोट दिया हो, जिन्होंने अपने चुनाव घोषणा पत्र में विकासात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दी हो। इस प्रवृति के साक्ष्य के रूप में हम देख सकते हैं कि राज्य में भ्रष्टाचार की घटनाओं में वृद्धि, कुप्रशासन और विकास दर में कमी जैसी स्थिति निरंतर रही है तथा इसमें कोई गिरावट नहीं आई है।
लोग हर चुनाव में बाहर आए हैं और अपनी पार्टियों के लिए मतदान किया है जो उन्हें उपयुक्त लगते हैं। लगातार लोकसभा और राज्य विधान सभा चुनावों में , बिहार के लोगों ने विकास के मुद्दों पर वोट देने के बजाय जाति, समुदाय, पंथ और धर्म की पहचान की तर्ज पर अधिक मतदान किया है। इस अवांछित मतदान व्यवहार के प्राथमिक नतीजों में से एक यह है कि राज्य विकास के मामले में लड़खड़ा गया है।
बिहार में मुखर राजनीति की मजबूत प्रकृति के प्रकट होने के पीछे कई कारण हैं। इसके ऊपर निम्नलिखित रूषों में चर्चा की जा सकती है:
- ऐतिहासिक कारण – बिहार राज्य औपनिवेशिक काल के दौरान राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। ऐसे समय में, राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों के बजाय उनके व्यक्तित्व और करिश्मा लोगों की नजर में अधिक महत्वपूर्ण थे। इस परिदृश्य ने अंततः बिहार की राजनीति में मजबूत लोगों के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। इसे बिहार में पहचान की राजनीति को बढ़ाने के पीछे मुख्य कारणों में से एक माना जा सकता है।
- गरीब सामाजिक-आर्थिक स्थिति – बिहार में व्यापक गरीबी और अशिक्षा है। लोगों के पास गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य और निरंतर आजीविका के अवसरों जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुंच नहीं है। राज्य की खराब सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा ने भी इसे मुखर या पहचान की राजनीति के प्रति संवेदनशील बना दिया। राज्य के लोग सामान्य रूप से राज्य का विकास करने में विफल प्राधिकारी को जिम्मेदार ठहराने के लिए सक्षम नहीं हैं।
- भ्रष्टाचार और कुशासन ( mis-governance ) की लंबी अवधि – भ्रष्टाचार से लदी शासन की लंबी अवधि के परिणामस्वरूप पुलिस, प्रशासन, स्थानीय प्रशासन व निकाय आदि महत्वपूर्ण संस्थान कमजोर हो गए हैं। ये संस्थाएं पहचान की राजनीति के बजाए विकास की राजनीति का चयन करने के लिए लोगों में विश्वास जताने में विफल रही हैं।
- बिहार में राजनीतिक दलों का अज्ञानतापूर्ण रवैया – बिहार की मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का राजनीतिक दलों द्वारा नकारात्मक तरीके से शोषण किया गया है। विकासात्मक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, पार्टियों ने लोगों के बीच विभाजनकारी लाइनों के आधार पर वोट-बैंक बनाने के प्रयास किए हैं। उन्होंने धर्म, जाति, पंथ आदि के आधार पर लोगों के बीच कई विभाजन रेखाएँ बनाई हैं। कभी-कभी वे बड़े हितों के बारे में विचार किए बिना भी विकास के मुद्दों को निर्देशित करने का ढ़ोंग करते हैं। हाल ही में, शराब पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय बिहार में राजनीतिक दलों के इस तरह के लापरवाह रवैये का ताजा उदाहरण है। राजनीतिक गठजोड़ अक्सर वैचारिक समानता के आधार पर निर्मित नहीं होते हैं, बल्कि उभरते हुए राजनीतिक अवसरों का फायदा उठाने के लिए होता है, जिसका परिणाम बाद में केवल उधार पर लिए गए शासन की तरह होता है।
हालांकि , पिछले एक दशक से स्थिति में सुधार हो रहा है । हाल ही में वित्तीय वर्ष 2017-18 में जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) , पिछले एक दशक से स्थितियों में सुधार हो रहा है। हाल ही में वित्तीय वर्ष 2017-18 की वृद्धि के मामले में बिहार का स्थान देश के राज्यों के मध्य शीर्ष पर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य में लगातार 10% से अधिक जीडीपी विकास दर रही है, जो औसत राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर 6-7% की तुलना में काफी अधिक है। राज्य ने कई महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे वाली परियोजनाओं की भी सुविधा प्रदान की है और सुशासन प्रदान करने के मामले में भी बिहार राष्ट्र में अग्रणी है। सामाजिक-आर्थिक प्रोफाइल में सुधार हुआ और लोगों ने आरोपों की राजनीति के अलावा अलग चश्मे से राजनीति को देखना शुरू कर दिया है।
लेकिन अभी भी एक बहुत बड़े पैमाने पर लोग निरपेक्ष गरीबी के अधीन है। जाति, धर्म, पंथ, लिंग आदि के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। इसके अलावा, हिंसा का सबसे बुरा रूप अभी भी समाज के ऐसे वर्गों के बीच सामान्य है। वे वर्त्तमान बिहार सरकार की सभी पहलों से बहुत दूर हैं। संस्थानों को मजबूत करने की तत्काल आवश्यकता है। संस्थाओं को सर्वोच्च योग्यता, अखंडता, ईमानदारी और बौद्धिकता वाले व्यक्तियों के साथ काम करना चाहिए । चुनाव आयोग को भी मतदाता जागरूकता कार्यक्रम फैलाने की आवश्यकता है ताकि लोग उचित निर्णय ले सकें। बिहार शिक्षा प्रणाली की अकादमिक संरचना को भी सुव्यवस्थित करने की आवश्यकता है और बिहार राजनीतिक अध्ययन पर एक संक्षिप्त पाठ्यक्रम भी माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर शामिल किया जा सकता है, जिससे छात्र स्तर पर ही राजनीतिक निर्णयों के महत्त्व के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके। ये प्रयास बिहार राज्य को उसके प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए सभी हितधारकों की ओर से कभी न हारने वाले रवैये के साथ सबसे मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति पैदा करेंगे।
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