क्रियात्मक विकास की विशेषताएँ एवं क्रम की विवेचना करें।
प्रश्न – क्रियात्मक विकास की विशेषताएँ एवं क्रम की विवेचना करें।
उत्तर– बच्चों के क्रियात्मक विकास की विशेषता है इसका क्रमानुसार होना। जन्म के समय बच्चे पराश्रित रहते हैं किन्तु कालक्रम में अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ उनमें तरह-तरह की ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक (sensory and motor) शक्तियों का आर्विभाव एवं विकास होता है जिससे बाद में वे आत्मनिर्भर हो जाते हैं। इसी के द्वारा उनका बौद्धिक एवं सामाजिक विकास होता है प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने में सक्षम हो पाता है। यह एक निश्चित प्रणाली (definite pattern) का अनुसरण करता है जो सभी बच्चों में करीब-करीब एक ही उम्र में होता है। यह विकास – क्रम दो तरह की विधियों का अनुसरण करता है: –
(i) मस्तकाधोमुखी विकास-क्रम (Cephalocandal development)- इसे सिर से पैर की दिशा में होने वाला विकास क्रम भी कह सकते हैं। यह विकासात्मक दिशा का नियम (Law of developmental direction) है जिसके अनुसार विकास सबसे पहले ऊपरी भाग यानि सिर के भाग (Head region) में होता है, तब बाँहों और हाथों में (arms and hands), फिर घड़ (trunk) और सबसे अंत में पैरों (legs) का विकास होता है।
(ii) निकट-दूर का विकास क्रम (Proximo-distal development) मस्तकाधोमुखी विकास क्रम के बाद विकास का दूसरा क्रम निकट दूर का विकास क्रम (proximo-distal sequence) होता है, अर्थात् शिशु का क्रियात्मक विकास (motor development) उन अंगों में पहले होता है जो केन्द्र (Bodyaxis) के निकट रहते हैं और बाद में इससे दूर के अंगों का विकास होता है। उदाहरणस्वरूप – विकास पहले पेट के आंतरिक अंगों में होता है। बाँह में विकास होने के बाद ही हाथों एवं अंगुलियों का विकास होता है। जांघों का विकास होने के पश्चात पैर के ऊपरी हिस्सों एवं पैर के निचले हिस्से तथा अंगुलियों का विकास होता है।
शिशुओं के क्रियात्मक विकास की प्रणाली जानने हेतु शर्ली का किया गया अध्ययनं इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण आधार है। शर्ली ने 25 बच्चों के जन्म से 2 वर्ष तक की अवस्था के बीच होने वाले क्रियात्मक विकास की साप्ताहिक परीक्षा की और बताया कि सबसे पहले सिर के हिस्से, फिर धड़ और सबसे अंत में पैरों की क्रियाओं का संतुलन हो पाता है। इसके कारण उसमें रेंगने (creeping), घिसटने (crawding), सीधा बैठने (sitting) खड़ा होने (standing), तथा चलने (walking) की क्रियाएँ होती हैं। यद्यपि शिशु का क्रियात्मक विकास एक विशिष्ट प्रणाली ( specific pattern) का अनुसरण करता है पर इसमें वैयक्तिक विभिन्नताएँ (individual differences) पायी जाती है। किन्तु उनके विकास का क्रम (developmental pattern) में कदापि परिवर्तन नहीं हो सका। शिशुओं के क्रियात्मक विकास प्रणाली का ज्ञान होने के कारण ही या उसके आधार पर ही हम किसी बच्चे के विकास के विषय में कह सकते हैं कि वह सही ढंग से हो रहा है या नहीं एवं सही निर्देशन द्वारा उसके विकास की गति में सुधार ला सकते हैं।
शिशुओं के क्रियात्मक विकास को हम उसकी परिपक्वता (maturation) एवं सीखने (learning) के आधार पर परख सकते हैं किन्तु परिपक्वता के अभाव में सीखने (learning) या प्रशिक्षण (Training) का कोई लाभ नहीं हो सकता। परिपक्वता प्राप्त करने के बाद ही सीखना या प्रशिक्षण को ग्रहण किया जा सकता है।
विकास के क्रम (Sequence of Development)
क्रियात्मक विकास विकासात्मक दिशा के नियम (law of developmental direction) के अनुरूप ही होता है, अतः विकास के क्रम को हमने निम्नलिखित क्रम के अनुसार बाँटा है न कि उम्र के अनुसार ये क्रम इस प्रकार हैं:
(क) सिर के भाग में क्रियात्मक विकास (Motor development in the head region)– सिर के भाग में क्रियात्मक विकास सबसे पहले होता है। जन्म के कुछ घंटों तक की अवस्था में शिशु में नेत्र असंतुलन (Eye coordination) बहुत निम्न स्तर का होता है. किन्तु नेत्र गति, मुस्कुराना, हँसना, सिर को उठाना इत्यादि में निहित मांसपेशियों का विकास शिशु में बहुत शीघ्रता से होता है। शिशु के नेत्र तीन तरह के संतुलन, जैसे- समानान्तर (horizontal), लम्बवत् (vertical) तथा वृत्ताकार (Circular) क्रमश: हो जाते हैं। जोन्स ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि शिशुओं में समानान्तर नेत्र गति संबंधी संतुलन (harizontal egy-combination) अर्थात् आँखों को दाएँ-बाएँ घुमाने की क्षमता सर्वप्रथम 33 दिनों की उम्र में पाई जाती है परंतु 90 दिनों में यह क्षमता सभी शिशुओं में आ जाती है। लंबवत् नेत्र गति संतुलन (vertical coordination) अर्थात् आँखों को ऊपर-नीच घुमाने की क्रियाएँ 51 दिनों के अंदर आती है किन्तु 100 दिनों के अंदर सभी बच्चों में यह क्षमता आ जाती है। तीसरे प्रकार का नेत्र गति संतुलन जिसे वृत्ताकार नेत्र गति संबंधी संतुलन (circular eye-coodination) कहतें हैं अर्थात् आँखों को चारों ओर घुमाने की क्रिया 51 दिनों से कम के शिशु में नहीं पाई जाती पर 130 दिनों में इस क्रिया का प्रादुर्भाव सभी बच्चों में हो जाता है। मैकगिनिस के अनुसार ऑपटिक निजटैगमस (Optic nystagmus) शिशुओं में जन्म के 12 घंटे और दृष्टि- अनुसरण (occular persuit) सर्वप्रथम तीसरे और चौथे सप्ताह में पाई जाती है। पलक प्रत्यावर्तन (blinking reflex) शिशुओं में जन्म से ही वर्तमान रहता है और यह एक सहज क्रिया की तरह कार्य करता है। मुस्कुराने की सहज क्रिया जो प्राय: स्पर्श से उत्पन्न होती है, जन्म के एक सप्ताह की उम्र में पाई जाती है। जोन्स के अनुसार सामाजिक मुस्कुराहट (social smiling) अर्थात् दूसरे को मुस्कुराते देखकर मुस्कुराने की क्रिया 90 दिनों में सारे बच्चों में होने लगती है। इसे बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने सामाजिक व्यवहार की शुरूआत का सूचक बताया है। सिर स्थिर रखने की क्रिया जन्म के बीस मिनट बाद से ही देखी जा सकती है। बच्चे को औंधा या छाती के बल लिटा देने पर वह अपने सिर को समानान्तर ढंग से स्थिर रख सकता है। बीस सप्ताह की औसत उम्र में शर्ली के अनुसार पीठ के बल सोए बच्चे अपना सिर स्थिर रखकर आसानी से इधर-उधर घुमा सकते हैं क्योंकि इस उम्र तक उसके सिर की माँसपेशियों का विकास अच्छी तरह हो जाता है और वे ऊपर नियंत्रण कर पाते हैं।
(ख) बाँह एवं हाथ का क्रियात्मक विकास ( Motor development of arms and hands) — जन्मकाल से ही शिशु की बाँहों एवं हाथों में गतिशीलता देखी जाती है। सुप्तावस्था में वह बेवजह हाथ पैरों को इधर-उधर फेंकता रहता है। किन्तु जागृत अवस्था में यह क्रिया कम होती है। संयोगवश अंगुलियों के होटों से छू जाने पर वह उन्हें चूसने में आनंदित होने लगता है। किन्तु यदि इस आदत पर नियंत्रण नहीं रखने पर अधिक उम्र तक यह आदत बनी रह जाती है।
शरमन एवं शरमन ( Sherman and Sherman) ने पाया कि 20-40 घंटों की उम्र वाले बच्चों में ठुड्डी दबाने पर वह बचने के लिए हाथों को ऊपर ले जाने की क्रिया देखी जाती है। आरंभ में उनकी क्रियाएँ असंतुलित होती है। जन्म के समय या थोड़ी ही देर बाद बच्चे में पकड़ने की सहज क्रिया होती है जिसमें अपने अंगूठे एवं अंगुलियों की सहायता से वह किसी चीज को उठा लेता है। पर पकड़ने की क्रिया हेतु आवश्यक है कि हाथ का अंगूठा, अंगुलियों की विपरीत दिशा में काम करें और यह क्रिया तीसरे-चाथे महीने में पाई जाती है। किसी वस्तु को उठाने के समय यह क्रिया 8 से 9 महीनों के बीच पाई जाती है। गेसेल तथा हॉलभरसन ने इस सम्बन्ध में बताया है कि अंगूठे का अंगुलियों के विपरीत दिशा में काम करने की क्रिया बच्चों में 32 से 52 सप्ताह के बीच पूर्ण रूप से पाई जाती है। जन्म के समय बच्चे में किसी चीज को छूने एवं पकड़ने की क्रिया अनियमित होती है । इस क्रिया के लिए नेत्र और हाथ में समन्वय की ज़रूरत नहीं। जबतक उनके अंगूठे में अंगुलियों के विपरीत दिशा में कार्य करने की क्षमता नहीं आ जाती, हाथ एवं आँखों की क्रियाओं का समन्वय नहीं हो सकता | वाटसन ओर वाटसन एवं मैग्रायोने विशेष रूप से इस बात का समर्थन किया है। किसी वस्तु को स्वेच्छा से छूने (reaching) तथा पकड़ने की क्रियाएँ शिशुओं में एक वर्ष का होने पर पाई जाती है। प्रारम्भ में ही वह इसके लिए प्रयास करता है किंतु इसमें सफल नहीं हो पाता। परन्तु चार महीने में वह धीरे-धीरे वस्तुओं को पकड़ने में सक्षम होता जाता है। किन्तु स्थिर वस्तुओं की अपेक्षा गतिशील वस्तुओं को पकड़ना उसके लिए मुश्किल होता है। इस सम्बन्ध में हॉलभरसन एवं गेसेल ने अध्ययन कर बताया है कि चौबीस सप्ताह की उम्र के बच्चे सफलतापूर्वक किसी चीज को छूने में समर्थ होते हैं। जबतक बच्चा 28 सप्ताह का नहीं हो जाता, तबतक वह किसी वस्तु को दोनों ही हाथों से पकड़ता है, तत्पश्चात एक हाथ से पकड़ सकता है। साठ सप्ताह के बाद वह वयस्कों की तरह सीख जाता है। लीपमैन (Lippman) के अनुसार पाँच महीने की उम्र के औसत बच्चे एक वस्तु को, सात महीने के बच्चे दो तथा दस महीने के बच्चे एक बार में ही तीन वस्तुओं को एक साथ पकड़ पाते हैं। खाने-पीने की आदतों एवं क्रिया को देखें तो वह आठ महीने की उम्र में बोतल को मुँह के बाहर भीतर निकाल पाते हैं। एक वर्ष की अवस्था में ग्लास से पकड़कर दूध पी सकता है। और दो वर्षों में वह चम्मच या हाथों से खाना शुरू कर देता है। उम्र के विकास के साथ-साथ उसके हाथों का नियंत्रण बढ़ता जाता है और वह स्वयं खाने-पीने में समर्थ हो जाता है।
बच्चा 1/2 वर्ष से 3/1/2 वर्षों में वस्त्र पहनने में हाथों पर अच्छी तरह नियंत्रण कर लेता है। किन्तु यह क्षमता वस्त्र के स्वरूप पर भी निर्भर होती है । वस्त्र पहनना उसको बाँधने या बटन लगाने से आसान होता है। बैगनर एवं आर्मस्ट्रांग ने इस सम्बन्ध में अध्ययन कर बताया कि बटन लगाने से पहले बच्चा बटन खोलना सीख जाता है। 5 वर्षों में बच्चा आसानी से बटन खोलना एवं बंद करना दोनों सीख जाता है। वस्त्र धारण करने के लिए नेत्र एवं हाथ की गति का समन्वय जरूरी है जो छः वर्ष की अवस्था में बच्चों में पर्याप्त मात्रा में हो जाता है। गेंद को पकड़ने और फेंकने की क्षमता बाँह एवं हाथ की संतुलित क्रियाओं (co-ordinated movements) पर निर्भर करती है। बाँहों और हाथों की मांसपेशियों पर संतुलन होने पर ही बच्चे गेंद को ठीक से पकड़ फेंक और उछाल सकते हैं पेट या पीठ के बल सिर्फ सोए रहने पर बच्चे प्रायः लात फेंकता और शरीर को कुछ इंचों की दूरी तक बढ़ा पाते हैं। दूसरे सप्ताह में पालने को पैर से ढेलकर आगे बढ़ा पाता है। धीरे-धीरे पैरों की माँसपेशियों पर नियंत्रण करना सीख जाता है जिससे उसमें खड़ा होने एवं ठीक से चलने की क्रिया शुरू हो जाती है।
चलने की क्रिया के प्रारंभ में लुढ़कने और झटककर चलने की क्रिया देखी जाती है। तबतक बच्चा लगभग छः माह का हो जाता है। चौथे महीने में प्रारम्भ हुई झटककर चलने की क्रिया शुरू होकर नवें महीने तक अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती हैं। नवें महीने की उम्र में सामान्य बच्चे रेंगने लगते हैं। 42 सप्ताह की औसत आयु में बच्चे सहारा लेकर खड़े हो सकते हैं और 47 सप्ताह में स्वयं खड़े हो सकते हैं। दूसरों के सहारे चलने की क्रिया बच्चे में उस समय देखी जाती है जब वह अकेला खड़ा होने की चेष्टा करता है। वेली, गेसेल तथा ब्रेकेनरिज और विन्सेंट ने अपने अध्ययनों के आधार पर पाया है कि बच्चों में सहारे के साथ चलने की क्रिया की औसत उम्र एक साल है। चौदह महीने की उम्र में करीब दो तिहाई बच्चे बिना किसी सहारे के चलने लगते हैं और अट्ठारह महीनों में बिल्कुल वयस्क की तरह चलने लगते हैं। फिर भी बच्चों में कुछ व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। शुरू-शुरू में बच्चा अपने पैरों को सीधा नहीं रख पाता इसी कारण चलते समय बच्चा अपना संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी दोनों बाँहें फैलाए रखता है। उसके दोनों पैरों की गति में समन्वय नहीं होता। धीरे-धीरे उसके पैरों की माँसपेशियों में विकास के फलस्वरूप बच्चे उनपर नियंत्रण कर पाते हैं। फलतः उसके चलने की क्रिया से अधिक संतुलन भी दिखलाई पड़ता है और वह सीधा होकर लम्बे-लम्बे डेग लेकर चलने लगता है किन्तु इसमें भी बच्चों में वैयक्तिक विभिन्नता पाई जाती है । चलने के बाद दौड़ने, उछलने, कूदने, सीढ़ियों पर चढ़ने आदि की क्रियाओं का विकास होने लगता है। पांच से छः वर्षों में बच्चों में इन सारी क्रियाओं का विकास हो जाता है।
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