चौथी शताब्दी ई. पू. से तृतीय ई. तक भारत का इतिहास : मौर्य साम्राज्य

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चौथी शताब्दी ई. पू. से तृतीय ई. तक भारत का इतिहास : मौर्य साम्राज्य

मौर्य साम्राज्य

मौर्य इतिहास के स्रोत

कौटिल्य के अर्थशास्त्र की मूल रचना का समय चौथी शताब्दी है.
पुराण – जिसमें अतिशयोक्ति एवं अशुद्धियाँ युक्त विवरण होते हुए भी नन्दों के उन्मूलन और मौर्य वंश की स्थापना में कौटिल्य का योगदान तथा तिथिक्रम से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं.
⇒ विशाखादत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस.
⇒ मुद्राराक्षस पर ढुठीराज की टीका- मुद्राराक्षस व्याख्या’.
⇒ विष्णु पुराण पर रत्नगर्भ की टीका.
⇒ सोमदेव कृत कथासरित्सागर जिसकी रचना गुणाढ्य द्वारा प्रथम शताब्दी में विरचित वृहत् कथा के आधार पर की गई थी.
⇒ क्षेमेन्द्र कृत वृहत कथामंजरी.
बौद्ध साहित्य :
⇒ सिंहली बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश एवं महावंश जिनकी रचना सिंहली (अट्ठकथा) तथा उत्तर विहार अट्ठकथा पर आधारित है.
महावंश टीका — इसे ‘वंश थप्पकासिनी’ भी कहा गया है.
⇒ उपतिस्स द्वारा रचित ‘महाबोधि वंश’ जिसमें मुख्य रूप से महेन्द्र द्वारा श्रीलंका के अनुराधापुर में बोधिवृक्ष रोपने की कथा मिलती है.
⇒ नागसेन द्वारा रचित ‘मिलिन्दपन्हो’ में भी नन्दों की पराजय एवं मौर्य साम्राज्य की स्थापना सम्बन्धी साक्ष्य हैं.
आर्यमंजूश्रीमूलकल्प – जिसमें 8वीं सदी तक का इतिहास वर्णित है. इसमें नन्द, मौर्य, चाणक्य, बिन्दुसार आदि के विषय में जानकारी मिलती है. इस ग्रन्थ का तिब्बती भाषा में अनुवाद ‘कुमार कलष’ द्वारा किया गया था.
जैन ग्रंथ :
उत्तराध्ययन सूत्र, आवश्यक सूत्र, दस वैकालिक सूत्र, निशीथ सूत्र, वृहत् कल्प सूत्र, जैन ग्रन्थों में मौर्य इतिहास के ज्ञान की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ आचार्य हेमचंद्र द्वारा विरचित त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित का भाग ‘परिशिष्ट पर्वन’ है.
⇒ मेरुतुंग के ग्रन्थ ‘विचार श्रेणी में महावीर के बाद हुए राजाओं और जैनाचार्यों का उल्लेख हुआ है.
⇒ हरिषेण कृत ‘वृहतकथा कोष में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय 12 वर्ष के अकाल पड़ने तथा चन्द्रगुप्त के जैन धर्म ग्रहण कर दक्षिण भारत जाकर तपस्या करने का उल्लेख है.
⇒ जिनप्रभासूरि कृत ‘विविध तीर्थ कल्प’ में चन्द्रगुप्त मौर्य एवं पाटलिपुत्र का वर्णन है.
⇒ रामचन्द्र मुमुक्षु कृत ‘पूर्णयाश्रव कथा कोष’.
विदेशी इतिहासकार :
⇒ मेगस्थनीज और उसकी इंडिका, जिसके अंश एरियन स्ट्रेबो, प्लिनी, डायमेकस एवं प्लूटार्क के ग्रन्थों में उपलब्ध है.
⇒ डियोडोटस द्वारा विरचित ‘बिबिलियोटिका हिस्टोरिका’ नामक ग्रन्थ, जिसमें सिकन्दर के आक्रमण के समय भारत की स्थिति का विवरण है.
⇒ कार्टियस – History of Alexendor. प्लिनी – Natural History, एरियन – ‘इण्डिका’ उल्लेखनीय हैं.
मौर्य साम्राज्य का महत्त्व
मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास में प्रथम व अन्तिम विस्तृत साम्राज्य के रूप में सुविज्ञ है, जिसकी सीमाएँ पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश से लेकर दक्षिण में आधुनिक कर्नाटक तक, पश्चिम में मकरान से लेकर पूर्व में बंगाल तक विस्तृत थीं.
विंसेट स्मिथ ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ Oxford History of India में इस संदर्भ में लिखा है कि “भारत के प्रथम ऐतिहासिक सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने उस वैज्ञानिक सीमा को प्राप्त कर लिया था, जिसके लिए महान् मुगल तड़पते रहे और अंग्रेज जीवन भर आहें भरते रहे”.
मौर्य साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य वास्तविक अर्थों में भारतीय इतिहास के प्रथम ऐतिहासिक सम्राट् के रूप में स्वीकार्य है, जिसकी ऐतिहासिकता भारतीय एवं यूनानी साक्ष्यों से प्रमाणित है.
सामान्यतः तिथिक्रम की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास तिमिराछन्न है, किन्तु मौर्य साम्राज्य का महत्त्व इस दृष्टि से है कि मौर्यों के आगमन के साथ भारतीय इतिहास में अपेक्षाकृत निश्चित तिथिक्रम का प्रारम्भ ज्ञात होता है.
सुदीर्घ भारतीय इतिहास में विदेशी आक्रमण, देश की पराजय और परतन्त्रता से सम्बन्धित विवरण भरा पड़ा है, लेकिन इस वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य को पहली बार किसी विदेशी शक्ति को पराजित करने का गौरव है. सेल्युकस न केवल चन्द्रगुप्त द्वारा पराजित हुआ बल्कि उसे अपने प्रदेश, मौर्य के पक्ष में त्यागने पड़े.
विदेशों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने की परम्परा भी पहली बार मौर्यों के समय आविर्भूत हुई. इस समय मेगस्थनीज तथा ‘डायोसियस’, डिमेकस (विदेशी प्रतिनिधियों के रूप में) मौर्य दरबार में नियुक्त हुए.
मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास में इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय है कि अभिलेखन की परम्परा, कलात्मक विकास, बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रसार की प्रक्रिया जैसे पक्ष भी मौर्य साम्राज्य के प्रारम्भ के साथ ही दृष्टिगत होते हैं.
मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास में इसलिए भी उल्लेखनीय है कि पहली बार उस कुशल एवं व्यवस्थित प्रशासन तंत्र का सूत्रपात किया गया, जो भविष्य के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में ज्ञात है.
मौर्यकालीन कला के पक्ष
विस्तृत एवं भव्य राजप्रासादों के निर्माण की परम्परा का प्रारम्भ जहाँ मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासादों की प्रशंसा करते हुए उसे ईरान स्थित सूसा एवं एकबतना के राजप्रसादों से भी खूबसूरत बताया है. वहीं फाह्यान ने अशोक के राजप्रासाद की प्रशंसा करते हुए उसे अतिमानवीय शक्तियों द्वारा विनिर्मित माना है.
चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के राजप्रासादों में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य के समय काष्ठ का प्रचुर प्रयोग दृष्टव्य है, वहीं अशोक के समय प्रस्तर का बहुलता से प्रयोग किया गया है.
वर्तमान में चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद के अवशेष कुम्रहार ( पटना के निकट) नामक स्थान से और अशोक के राजप्रासाद के अवशेष बुलन्दी बाग से मिले हैं.
मौर्यकालीन कला का उल्लेखनीय पक्ष है- स्तूप निर्माण की परम्परा का आरम्भ यद्यपि साहित्य में अशोक द्वारा हजारों स्तूपों के निर्माण का उल्लेख मिलता है, लेकिन वर्तमान में अवशेषों के रूप में साँची और भरहुत के स्तूपों को ही मौर्यकाल का माना जाता है.
मौर्य कला का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है स्तम्भ निर्माण की परम्परा का प्रारम्भ, जो चुनार के बलुआ पत्थर से विनिर्मित किए गए. विंसेंट स्मिथ जैसे इतिहासकारों ने यद्यपि स्तम्भ निर्माण की परम्परा को ईरान से उद्भूत माना है, लेकिन दोनों में इतना अन्तर दृष्टिगत होता है कि सामान्य-तया यह मान्यता स्वीकार्य नहीं है.
मौर्य व ईरानी स्तम्भों में अन्तर
⇒ जहाँ मौर्यकालीन स्तम्भ एक ही प्रस्तर खण्ड से निर्मित है, वहीं ईरानी स्तम्भ प्रस्तर खण्डों को जोड़कर बनाए गए हैं.
⇒ मौर्ययुगीन स्तम्भ सपाट हैं, जबकि ईरानी नालीदार.
⇒ मौर्ययुगीन स्तम्भ स्वतन्त्र रूप से स्थित हैं, जबकि ईरानी स्तम्भ वास्तु भवनों के अभिन्न अंग हैं.
⇒ इरानी स्तम्भों पर स्थित पशु मूर्तियाँ छत के लिए आधार रूप में स्थित हैं, जबकि मौर्ययुगीन स्तम्भों में ये स्वतन्त्र रूप से स्थित हैं.
⇒ मौर्य स्तम्भों की पॉलिस अपने आप में मौलिक एवं विशिष्ट है, जो सदियों की आँधी एवं तूफान के थपेड़ों के बावजूद चमक के साथ विद्यमान है, जबकि ईरानी स्तम्भों पर यह उत्कृष्टता नहीं है.
⇒ मौर्यकालीन स्तम्भों के शीर्ष पर अवांगमुखी कमल स्थित है, जिस पर स्थित चौकी पर पशु आकृतियाँ स्थित हैं तथा कई स्तम्भों की यष्टि पर लेखों के साथ पशु पक्षियों की आकृतियों का भी अंकन है.
मौर्य साम्राज्य की स्थापना और विस्तार
मुद्राराक्षस के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने प्रवर्तक की सहायता से चाणक्य के निर्देशन में नन्द शासक से युद्ध किया, जिसमें नन्द शासक और प्रवर्तक दोनों मारे गए. इसके फलस्वरूप पंजाब और मगध की सत्ता दोनों पर चन्द्रगुप्त मौर्य का अधिकार हो गया. उसने 321 ई. में मगध पर अधिकार कर लिया. दुर्भाग्य से चन्द्रगुप्त मौर्य के अभियानों का विवरण हमारे पास उपलब्ध नहीं है, लेकिन प्लूटार्क और जस्टिन से जानकारी मिलती है कि उसने सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला था. जूनागढ़ अभिलेख से जानकारी मिलती है कि गुजरात का क्षेत्र चन्द्रगुप्त मौर्य के अधीन था और उसने एक तड़ाग का निर्माण करवाया था. तमिल लेखकों मामुलनार और परनार से विदित होता है कि तिन्नेवेली भी उसके अधीन था. 305 ई. पू. में चन्द्रगुप्त का यवनराज सेल्यूकस से युद्ध हुआ, जिसमें सेल्यूकस पराजित हुआ. उसने काबुल, कांधार, हेरात और ब्लूचिस्तान चन्द्रगुप्त मौर्य को सौंप दिए. साथ ही अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया और मेगस्थनीज को अपना दूत बनाकर चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा. चन्द्रगुप्त मौर्य की 297 ई. पू. में मृत्यु हो गई. इसके पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार गद्दी पर बैठा. उसने साम्राज्य विस्तार के लिए कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया. बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् अशोक मगध का शासक बना. उसने 261 ई. पू. में कलिंग पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया. इस समय मौर्य साम्राज्य अपने चर्मोत्कर्ष पर था.
मौर्य प्रशासन
मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज की इंडिका के विविध उद्धरण जो परवर्ती – यूनानी लेखकों के विवरण से विहित है तथा अशोक के अभिलेख उल्लेखनीय हैं.
मौर्य प्रशासन का उल्लेखनीय एवं विशिष्ट तत्व है, राजपद एवं राजाज्ञा के श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन तथा शासक के निरंकुश एवं असीमित अधिकारों का समर्थन.
अर्थशास्त्र में राजशासन को धर्म, चरित एवं व्यवहार से उच्च स्थान दिया है तथा यह भी वर्णित है कि नैतिक एवं भौतिक (त्रयी एवं वार्ता) लक्ष्य की विवेकसम्मत प्राप्ति (आन्वीक्षकी) सुदृढ़ दण्डनीति से ही सम्भव है.
कौटिल्य के इस विचार पर हखामनी और हेलेनिस्टिक राज्य व्यवस्थाओं का प्रभाव ज्ञात होता है. शासक की निरंकुश शक्तियों के समर्थन के बावजूद मौर्य प्रशासन का लक्ष्य जनहित और कल्याण की भावना से अनुप्राणित था, जिसकी पुष्टि अर्थशास्त्र, इण्डिका एवं अशोक के शिलालेख नं. (6) से होती है. अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य प्रशासन में उच्च पदस्थ अधिकारियों (तीर्थ एवं अमात्य) का एक विशेष वर्ग अस्तित्व में था, जिसे साम्राज्य रूपी गाड़ी के संचालन में दूसरे पहिए के रूप में विहित किया गया है. जिनकी विभिन्न प्रशासनिक दायित्वों के निर्वाह में अहम्भू मिका थी.
मौर्य प्रशासन का अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है- नगर प्रशासन जिसका विस्तृत विवेचन इण्डिका में हुआ है. मैगस्थनीज इस संदर्भ में 5-5 व्यक्तियों से निर्मित छ. समितियों का उल्लेख करता है, जो नगर प्रशासन से सम्बन्धित विभिन्न कार्य करती थी, जबकि अर्थशास्त्र में केवल नागरिक या नगराध्यक्ष का उल्लेख हुआ है.
विशाल साम्राज्य के सुगम संचालन एवं सुरक्षा हेतु कुशल एवं शक्तिशाली सैन्य तन्त्र अपरिहार्य था. इस प्रसंग में जहाँ अश्व, गज, रथ, पैदल और नौसेना एवं सैनिक यातायात से सम्बन्धित चन्द्रगुप्त मौर्य की विशाल सेना का उल्लेख मैगस्थनीज करता है, वहीं कौटिल्य द्वारा अश्व, गज, रथ, पैदल, चतुरंगिणी सेना का उल्लेख करता है.
सेना के साथ-साथ गूढ़ पुरुषों अथवा गुप्तचरों की भी अहम् भूमिका थी, ताकि उच्च पदाधिकारियों एवं पौर जनपदों तथा षड्यन्त्रकारियों की गतिविधियों की जानकारी मिल सके. न्याय व्यवस्था के सन्दर्भ में धर्मस्थलीय एवं कंटक शोधन न्यायालयों की व्यवस्था ज्ञात है, जो क्रमशः व्यावहारिक एवं प्रदेष्ठा के अधिकार क्षेत्र में थे.
इस प्रकार मौर्य प्रशासन में सुदृढ़ केन्द्रीय सत्ता तथा जनहित के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयासों का सुन्दर समन्वय दृष्टिगत होता है, यद्यपि अत्यधिक केन्द्रीयकरण तथा अर्थशास्त्र में उल्लेखित विभिन्न प्रकार के कर समीचीन प्रतीत नहीं होते.
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था
राजनीतिक एकीकरण, सिकन्दर द्वारा पश्चिमी मार्गों को उन्मुक्त करने, कृषि, व्यापार, वाणिज्य और दस्तकारों को मौर्य प्रशासन द्वारा प्रोत्साहन देने से आर्थिक प्रगति हुई. सड़कों व जलमार्गों के रखरखाव एवं विस्तार से व्यापार वाणिज्य को बढ़ावा मिला मौर्य प्रशासन ने कृषि प्रगति की ओर विशेष ध्यान दिया. भू-राजस्व की दर उपज का 1/4 या 1/6 थी. प्रमुख फसलों में चावल, कोदर्व, तिल, काली मिर्च, केसर, दाल, गेहूँ, अलसी, सरसों और विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ थीं. शासन द्वारा पशु केन्द्रों, अश्वपालन केन्द्रों आदि की व्यवस्था भी की जाती थी. इसलिए कृषि एवं पशुपालन अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गए थे.
व्यापार स्थल एवं समुद्री मार्ग दोनों से ही किया जाता था. विदेश से व्यापार अध्यादेशों एवं पारपत्रों के माध्यम से विनियमित किया जाता था. भारत से पश्चिमी देशों विशेषकर सीरिया और मिस्र को नील, मसाले, विभिन्न लकड़ियाँ, औषधीय पदार्थ और रेशम की आपूर्ति की जाती थी. अन्तर्देशीय व्यापार गाड़ियों और सार्थवाहों के माध्यम से किया जाता था.
शिल्पी एवं व्यापारी श्रेणी नामक संगठनों में संगठित रहते थे. प्रत्येक (शिल्पी) श्रेणी के अध्यक्ष को ज्येष्ठक कहा जाता था. व्यापारियों की श्रेणी का प्रधान श्रेष्ठी कहलाता था.
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र कौटिल्य (चाणक्य ) द्वारा रचित संस्कृत ग्रंथ है, जिसमें 15 अधिकरण, 150 अध्याय एवं 180 विषय समाविष्ट हैं. मूलतः इसकी रचना चौथी शताब्दी B.C. के उत्तरार्द्ध में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुई. इसमें मुख्यतः राजव्यवस्था के सिद्धान्तों के विवेचन के साथ-साथ अर्थतंत्र एवं सामाजिक संरचना से सम्बन्धित महत्वपूर्ण साक्ष्य विहित हैं. मौर्य प्रशासन के विभिन्न पक्षों का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से यह उल्लेखनीय स्रोत है.
मुद्राराक्षस
विशाखादत्त द्वारा विरचित महत्वपूर्ण नाटक जिसका रचना काल सामान्यतः पाँचवीं शताब्दी ई. माना गया है. इसकी भाषा संस्कृत है. इसमें मुख्यतः मगध पर आधिपत्य के प्रश्न को लेकर राजा नंद के अमात्य राक्षस ( कात्यायन) तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध प्रयुक्त कूटनीतिक दाँव पेचों का विवेचन है, जिसमें अन्ततोगत्वा कौटिल्य अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है तथा राक्षस को चन्द्रगुप्त मौर्य अपने पक्ष में सेवाएँ समर्पित करने के लिए बाध्य कर देता है. उल्लेखनीय है कि नाटक में शूद्रों द्वारा संस्कृत के स्थान पर अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया है.
मौर्यकालीन प्रमुख मूर्तियाँ
1. दीदारगंज से प्राप्त ‘चामरधारिणी यक्षी’ की मूर्ति.
2. पाटलिपुत्र से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ
3. मथुरा के पास परखम से प्राप्त यक्ष मूर्ति.
4. लोहानीपुर से प्राप्त कायोत्सर्ग वाली जैन मूर्ति.
5. बेसनगर से प्राप्त यक्ष की मूर्ति.
मौर्यकालीन वस्त्र निर्माण के केन्द्र-वाराणसी, उज्जयिनी, मथुरा.
मौर्ययुगीन प्रमुख मार्ग
1. पाटलिपुत्र से तक्षशिला, जिसे बाद में ताम्रलिप्ति (1300 + 300) तक विस्तृत किया गया.
2. पाटलिपुत्र से वाराणसी एवं उज्जयिनी होता हुआ पश्चिमी समुद्रतट से राजधानी को मिलाने वाला.
3. हेमवत पथ जो हिमालय को जाता था.
4. 606 B.C. से चला आ रहा श्रावस्ती से प्रतिष्ठान तक का मार्ग, जिसे मैसूर तक विस्तृत किया गया.
अशोक के प्रशासनिक सुधार
अशोक के समय सामान्यतः प्रशासन का मूल आधार एवं ढाँचा वही था, जिसकी अभिव्यक्ति कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं मैगस्थनीज की इण्डिका में विवेचित है, किन्तु फिर भी अपनी नीतियों के क्रियान्वयन हेतु कई नई व्यवस्थाओं को प्रशासन के साथ सम्बद्ध करने का प्रयास उसके अभिलेखों से दृष्टिगत होता है.
प्रशासनिक दृष्टि से अशोक का पहला उल्लेखनीय कार्य राजुक, युक्त एवं प्रादेशिक ( शिलालेख नं. 3 एवं प्रथम कलिंग अभिलेख (1)) जैसे अधिकारियों की नियुक्ति करना था. राजुक भूमि एवं न्याय व्यवस्था से सम्बन्धित था, जिन्हें दण्ड समता एवं व्यवहार समता की स्थापना का अधिकार प्रदान कर न्याय क्षेत्र में व्याप्त विषमता को समाप्त करने का उल्लेखनीय प्रयास किया गया.
युक्त राजस्व एवं लेखा सेवा से सम्बन्धित थे, तो प्रादेशिक बड़े भूखण्डों के प्रशासन से सम्बद्ध महत्वपूर्ण अधिकारी, प्रादेशिक को अपने विहित कर्त्तव्यों के अतिरिक्त लोगों के भौतिक एवं नैतिक स्तर को ऊँचा करने हेतु प्रयास करने एवं प्रति पाँचवें वर्ष राज्य के विभिन्न भागों का दौरा करने की अपेक्षा की गई.
प्रशासनिक व्यवस्था में अशोक का अन्य उल्लेखनीय कार्य धर्म महामात्रों की नियुक्ति था, जिनका मुख्य कार्य धर्म की रक्षा एवं अभिवृद्धि के साथ दूरस्थ प्रदेशों एवं विभिन्न धर्मों के लोगों का संरक्षण भी था (शिलालेख नं. 5 ).
जनसामान्य की समस्याओं का त्वरित समाधान करने और प्रशासनिक गतिशीलता बढ़ाने हेतु उसने ‘प्रतिवेदक’ नामक नए अधिकारियों की नियुक्ति की, (शिलालेख नं. 6 ) जो किसी भी समय जनसामान्य की समस्याओं से सम्राट् को अवगत करा सकते थे.
अशोक ने पूर्व में प्रचलित दण्ड की कठोरता को भी कम करने का प्रयास किया. मृत्युदण्ड प्राप्त कैदियों को तीन दिन का विशेष अवसर दिया, ताकि वे पारलौकिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रयास कर सकें.
पशुवधं पर कानून द्वारा प्रतिबन्ध भी अशोक का उल्लेखनीय प्रशासनिक कार्य था, जिसका उल्लेख शिलालेख नं. 2 में तथा स्तम्भ लेख नं. 5 में हुआ है.
राजस्व के सिद्धान्त को पिता-पुत्र सम्बन्धों के रूप में परिकल्पित कर अशोक ने अपने प्रशासन में उसे व्यावहारिक क्रियान्वयन तो प्रदान किया साथ ही समकालीन पड़ोसी शक्तियों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का भी अवलम्बन किया, जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक एवं उपयुक्त है.
अशोक का धम्म
धम्म प्राकृत भाषा का शब्द है, इसका हिन्दी में अर्थ है ‘धर्म’. अशोक का धम्म ‘बौद्ध धर्म’ का परिष्कृत रूप था. इसमें सभी धर्मों के श्रेष्ठ तत्व सम्मिलित थे. अशोक का धम्म सर्वथा असाम्प्रदायिक और सहिष्णु धर्म था. दूसरे स्तम्भ लेख में पापकर्म से निवृत्ति, विश्वकल्याण, दया, दान, सत्य एवं कर्म को धम्म कहा गया है. सातवें अभिलेख में धम्म के परिप्रेक्ष्य में इन्द्रियों के नियन्त्रण पर बल दिया गया है. नवें अभिलेख में दासों के प्रति उचित व्यवहार, गुरुजनों का आदर, ब्राह्मणों को दान देने, माता-पिता की सेवा और मित्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखने को कहा गया है. तेरहवें अभिलेख में उसने जीवधारियों के प्रति हिंसा न करने का आदेश दिया है. अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया है. इससे स्पष्ट है कि अशोक का ‘धम्म’ बौद्ध धर्म नहीं था.
धम्म के तत्व मूलतः दो प्रकार के थे – व्यावहारिक और निषेधात्मक. व्यावहारिक तत्वों के अन्तर्गत निम्नलिखित आचार तत्व हैं—
(1) माता-पिता, गुरु एवं बड़ों का सम्मान करना, (2) विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति उदारता तथा मित्रों, परिचितों आदि के प्रति व्यवहार करना, (3) सदाचरण, (4) मन एवं कर्म की शुद्धि, (5) आश्रितों के प्रति अच्छा व्यवहार, (6) समस्त प्राणिमात्र के प्रति अहिंसा का पालन, (7) अल्प संग्रह.
निषेधात्मक तत्व थे— चंडिय, नैष्ठ्र्य, क्रोध, मान और ईर्ष्या. अशोक ने निषेधों के लिए ‘आसिनक’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पाप’. वास्तव में धम्म कोई धर्म नहीं था, यह सभी धर्मों का निचोड़ था. इसके अनुपालन में अशोक का केवल एक यही उद्देश्य था कि समाजोत्थान और मानवता का कल्याण हो.
अशोक ने इसके प्रचार के लिए धर्म यात्राएँ प्रारम्भ कीं, स्तम्भ लेखों में धम्म सम्बन्धी सन्देश खुदवाये, धम्म महामात्र नियुक्त किए, धम्ममण्डल की व्यवस्था की और अनेक परोपकारी कार्य कर अपना उदाहरण प्रस्तुत किया. इसके साथ-साथ प्रशासनिक व्यवस्था में भी अनेक सुधार किए.
मौर्य साम्राज्य का भारतीय संस्कृति को योगदान
मनीषियों के चिन्तन में संकल्पित एकीकृत साम्राज्य की अवधारणा का वास्तविक एवं व्यावहारिक क्रियान्वयन मौर्य साम्राज्य के रूप में दृष्टिगत होता है. राजनीतिक विखण्डन को समाप्त कर एकीकृत साम्राज्य का निर्माण मौर्य काल का उल्लेखनीय पक्ष है, जिसे भारतीय इतिहास के प्रथम एवं अन्तिम विस्तृत साम्राज्य के रूप में स्वीकार किया गया है. अशोक द्वारा राजपद और राजत्व की अवधारणा को पिता-पुत्र सम्बन्ध की भावना और आदर्श से सम्बद्ध कर लोकहित एवं कल्याण के लिए शासक का समर्थन सम्बन्धी विचार भी भारतीय संस्कृति का अन्य उल्लेखनीय योगदान है.
अपने धर्म की प्रशंसा एवं अन्य धार्मिक सम्प्रदायों की आलोचना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जो पारस्परिक घृणा, द्वेष एवं संघर्ष को जन्म देती है. अशोक ने अपने शिलालेखों (मुख्यतः 12वें) में इस प्रकृति को त्यागकर धार्मिक सहिष्णुता तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वाक्य संयम एवं समवाय की आवश्यकता पर बल दिया है. इस प्रकार विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता एवं समन्वय का मार्ग प्रशस्त कर राष्ट्रीय एकता को चरितार्थ करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया.
अशोक ने पूर्वी एवं मध्य भारत में प्रचलित बौद्ध धर्म को सीमित सीमाओं से निकालकर विश्व के प्रमुख धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसके द्वारा भेजे गए धर्म प्रचारकों ने इस धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के बाह्य प्रसार का मार्ग भी प्रशस्त किया.
सबल एवं सक्षम होने के बावजूद अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर विभिन्न विदेशी शक्तियों एवं शासकों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को राज्य का आधार बनाया, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक है.
सिन्धु सभ्यता के बाद मौर्य साम्राज्य के पूर्व तक के विस्तृत भारतीय इतिहास में कलात्मक विकास के चिह्न करीब-करीब अज्ञात हैं. मौर्य साम्राज्य का इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय योगदान है कि राजप्रासाद, स्तम्भ, स्तूप, गुहा, मूर्ति निर्माण आदि क्षेत्रों में कलात्मक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई.
मौर्य कला
मौर्यकालीन राजनीतिक स्थायित्व एवं समृद्धि ने इस युग में कलात्मक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया. फलतः सिन्धु सभ्यता के बाद पहली बार सुदीर्घ इतिहास में कला के कई पक्ष आविर्भूत होते हुए दृष्टिगत होते हैं.
मौर्ययुगीन कला का पहला उल्लेखनीय पक्ष है-विस्तृत एवं भव्य राजप्रासादों के निर्माण की परम्परा का प्रारम्भ जहाँ मैगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त ‘मौर्य के राजदरबार को ईरान स्थित एकबतना और सूसा के राजप्रासादों से श्रेष्ठ बताया है, वहीं फाह्यान ने अशोक के पाटलिपुत्र स्थित राजप्रासाद को अतिमानवीय शक्तियों द्वारा विनिर्मित माना है.
उल्लेखनीय है कि जहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में काष्ठ और ईंट का प्रयोग किया गया, वहीं अशोक के समय प्रस्तर का प्रयोग बहुलता से दृष्टव्य है. मौर्यकालीन कला का अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है- स्तूप निर्माण की परम्परा का प्रारम्भ यद्यपि फाह्यान और ह्वेनसान ने अशोक द्वारा निर्मित हजारों स्तूपों के निर्माण का उल्लेख किया है, लेकिन वर्तमान में पुरातात्विक अवशेषों के रूप में सांची एवं भरहूत के स्तूप मौर्य युग से सम्बन्धित हैं. बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर इनके निर्माण की परम्परा ज्ञात होती है.
तत्कालीन कला का अन्य विशिष्ट पक्ष है स्तम्भ निर्माण की परम्परा, यद्यपि विंसेन्ट स्मिथ ने इस समय स्तम्भ निर्माण की परम्परा को ईरान से उद्भूत माना है, लेकिन दोनों में इतना ज्यादा अन्तर है कि यह मत स्वीकार्य नहीं है. एकाश्मक पत्थर (चुनार के बलुआ पत्थर) से निर्मित ये स्तम्भ जिन पर कलात्मक पशु आकृतियाँ स्थित हैं, तत्कालीन कला के महत्वपूर्ण पक्ष हैं- सारनाथ, रामपुरवा, लौरिया नन्दनगढ़ तथा संकिसा से प्राप्त स्तम्भ इस सन्दर्भ में विशेष महत्त्वपूर्ण हैं.
कलात्मक विकास की यह परम्परा गुहाओं के रूप में भी ज्ञात है. अशोक द्वारा बारावार की पर्वत शृंखलाओं में आजीवक भिक्षु के लिए सुदामा, कर्ण, चौपड़ एवं विश्व झोपड़ी तथा दशरथ द्वारा नागार्जुनी पर्वत शृंखलाओं में गोषी आदि गुफाएँ निर्मित करवाई गई.
इस समय मूर्ति कला, जो लोक कला के रूप में ज्ञात है भी विकसित हुई. मुख्यतः जैन तीर्थंकरों एवं यक्ष-यक्षी आदि की मूर्तियाँ निर्मित हुईं जो लोटानीपुर, दीदारगंज, परखम, बेसनगर आदि से मिले हैं.
मौर्य साम्राज्य के पतन में अशोक के उत्तरदायित्व की समीक्षा
अशोक को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी स्वीकार करने के पक्ष में मुख्यतः दो कारण (तर्क) दिए जाते हैं-
प्रथम मान्यता, पं. हरप्रसाद शास्त्री की है, जिन्होंने अशोक की बौद्ध समर्थक एवं ब्राह्मण विरोधी नीति के विरुद्ध उत्पन्न प्रतिक्रिया को मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण माना है. उनका तर्क है कि अशोक द्वारा ब्राह्मण विशेषाधिकारों की समाप्ति, पशुबली पर प्रतिबन्ध, दण्ड समता, व्यवहार समता की स्थापना, शूद्र शासकों द्वारा इनकी घोषणा ब्राह्मणों के विरुद्ध थी. अतः उनमें प्रतिक्रिया हुई और अन्ततोगत्वा पुष्पमित्र शुंग के नेतृत्व में संगठित होकर मौर्य साम्राज्य को समाप्त कर दिया.
लेकिन इस आधार पर अशोक का उत्तरदायित्व स्वीकार नहीं है. कारण स्पष्ट है कि अभिलेखों में ब्राह्मण विरोध की बात तो दूर, बल्कि उनके कल्याण से सम्बन्धित साक्ष्य विहित हैं. मुख्यतः हेमचन्द्र राय चौधरी, रोमिला थापर ने सबल तर्कों के साथ शास्त्रीजी के मत का प्रत्याख्यान किया है.
हेमचन्द्र राय चौधरी यद्यपि ब्राह्मण प्रतिक्रिया की बात को तो स्वीकार नहीं करते, लेकिन अशोक की शान्ति एवं अहिंसा की नीति जिसने उसे कलिंग युद्ध के बाद अपनाया, मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण मानते हुए अशोक का उत्तरदायित्व स्वीकार किया है और इसका समर्थन भण्डारकर, के. पी. जायसवाल, आर. सी. मजूमदार जैसे इतिहासविदों ने किया है.
इनकी मान्यता है कि कलिंग युद्ध के बाद शान्ति और अहिंसा की नीति का अवलम्बन किया, भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष का नाद गूँजने लगा तो क्रमशः साम्राज्य की सैनिक शक्ति क्षीण हो गई और मौर्य साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया, लेकिन इस दृष्टि से भी अशोक का उत्तरदायित्व प्रतीत नहीं होता है.
द्वितीय मान्यता, रोमिला थापर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ. ‘Ashok and the decline of the Mauryan’ में इसका खण्डन किया है. अशोक के समय सैनिक शक्ति के क्षीण होने का कोई प्रमाण नहीं है बल्कि 13वाँ शिलालेख वनवासी जातियों को दी गई चेतावनी सुदृढ़ सैनिक शक्ति का प्रतीक है. साथ ही सुदृढ़ सैनिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब तक अशोक जीवित रहा, मौर्य साम्राज्य स्थिर रहा, साथ ही अशोक द्वारा सैनिकों को धर्म प्रचारकों के रूप में बदलने या इस रूप में उनकी सेवाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं है.
इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि सैनिक शक्ति के आधार पर साम्राज्य के विस्तार के उदाहरण भी अन्ततोगत्वा पतन के प्रतीक बनकर रह गए. नेपोलियन बोनापार्ट, अलेक्जेण्डर, औरंगजेब के साम्राज्य का क्या हस्र हुआ यह सर्वविदित है. अतः दो मुख्य तर्क जिनके आधार पर अशोक के उत्तरदायित्व को स्वीकार किया गया है, स्वीकार्य नहीं है.
इस प्रसंग में रोमिला थापर ने मौर्य नौकरशाही व्यवस्था तथा राष्ट्रीय चेतना का अभाव तथा डॉ. डी. डी. कौशाम्बी ने मौर्य साम्राज्य की आर्थिक दयनीयता आदि की ओर ध्यान आकृष्ट किया है. दिव्यावदान में उल्लिखित अमात्यों की नीति के विरुद्ध जनसामान्य के विद्रोह को भी इस परिप्रेक्ष्य में देखा गया है, लेकिन मुख्यतः अशोक के कमजोर उत्तराधिकारी इस पतन के लिए उत्तरदायी हैं, जिनमें न तो क्षमता थी और न ही प्रतिभा थी कि इस विशाल साम्राज्य का भार वहन कर पाते और इसे संचालित कर पाते.
यूनानी आक्रमण का प्रभाव : सिकन्दर के बाद
सिकन्दर की मृत्यु के बाद यूनानियों का भारत के एक बड़े भू-भाग पर राज्य स्थापित हो गया और उन्होंने लगभग 150 वर्षों तक शासन किया. फलस्वरूप भारत व यूनानियों के मध्य महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुए, जिनका प्रभाव हमें निम्नलिखित क्षेत्रों में देखने को मिलता है-
(i) साहित्य – इतिहासकार हार्न के अनुसार, भारत एवं यूनानियों के मध्य सम्पर्क का सर्वाधिक प्रभाव साहित्य पर पड़ा. दोनों ने अपनी भाषाओं के अनेक शब्दों को अपनी भाषा में अपना लिया. कुछ इतिहासकारों के अनुसार सम्भवतः यूनानियों की भाषा भारतीयों ने सीख ली थी.
1. प्लेटो की रिपब्लिक के अनुसार ही नागसेन ने मिलिन्दपन्हों की रचना प्रश्नोत्तर शैली में की.
2. युग पुराण का यूनानी आक्रमण वृत्तान्त सम्भवतः यूनानी साहित्य से लिया गया प्रतीत होता है.
3. जैकोबी के अनुसार साहित्य में दोहा लेखन की कला भारतीयों ने यूनानियों से ग्रहण की.
4. यूनानी नाटकों के Parasite की तर्ज पर ही संस्कृत नाटकों में विदूषक होता है.
5. यूनानी नाटकों में एक समय में रंगमंच पर 5 से अधिक पात्र नहीं होते और इसी आधार पर संस्कृत नाट्यशास्त्र का नियम भी बना.
6. भारतीय रंगमंच में यवनिका शब्द यूनानी भाषा से ही ग्रहण किया गया.
(ii) ज्योतिष – यूनानी लोगों से ही मूलतः भारतीयों ने ज्योतिष विद्या सीखी. गार्गी संहिता के अनुसार, “यवन यद्यपि मलेच्छ हैं तथापि ज्योतिष के प्रकाण्ड ज्ञाता हैं इसी कारण वे ऋषियों के समान पूज्य हैं.” भारतीय ज्योतिषशास्त्र के अनेक शब्द, जैसे केन्द्र, लिप्त, होरा आदि यूनानी ज्योतिष से ही लिए गए हैं. भारतीय ज्योतिष के पाँच सिद्धान्तों में से दो सिद्धान्त रोमक एवं पोलिस निश्चय ही यूनानी ज्योतिष से ही लिए गए हैं. यूनानियों के प्रभाव के फलस्वरूप ही भारतीयों ने संवतों का प्रयोग प्रारम्भ किया.
(iii) चिकित्सा – कुछ इतिहासकारों के अनुसार भारत चिकित्सा के क्षेत्र में यूनानियों का ऋणी है, क्योंकि चरक ने वैद्य के व्यवहार के विषय में जो नियम बनाए थे, वही नियम यूनानी हिप्पोक्रेटीज के नियमों से मिलते हैं.
(iv) कला — तक्षशिला से प्राप्त कुछ भवनों के अवशेष एवं एक मन्दिर पर यूनानी कला का प्रभाव माना जा सकता है. वास्तुकला की अपेक्षा स्थापत्य पर यूनानी प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है. इस कला के अन्तर्गत गान्धार शैली का जन्म उत्तर-पश्चिम में हुआ.
(v) मुद्रा – यूनानी सम्पर्क से पूर्व भारतीय सिक्के बेडौल और लेख विहीन थे, परन्तु यूनानी प्रभाव के कारण सिक्के लेखयुक्त प्रयोग में आने लगे. उनके आकार-प्रकार में परिवर्तन हो गया और अब वे कलात्मक और सुन्दर बनने लगे. इस प्रकार मुद्रा व्यवस्था में भारत यूनानी लोगों का ऋणी है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर यूनानी सभ्यता का प्रभाव कई क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से पड़ा, तो वहीं यूनानी लोगों का यहाँ की संस्कृति ने आगे चलकर पूर्णतया भारतीयकरण कर दिया.

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