जनजातियों का आर्थिक एवं सामाजिक जीवन

जनजातियों का आर्थिक एवं सामाजिक जीवन

‘जनजातियों का आर्थिक एवं सामाजिक जीवन’ अध्याय झारखण्ड के आदमवासियों के जीविकोपार्जन की विशेषताओं, उनके मूल जीविकोपार्जन के तरीकों में हुए परिवर्तनों और इन परिवर्तनों के सहायक कारणों की चर्चा की गई है. लेखकद्वय ने इसी अध्याय में जनजातियों के सामाजिक जीवन उपशीर्षक के अन्तर्गत झारखण्ड की जनजातियों की सामाजिक संरचना एवं संगठन का अध्ययन किया गया है. जनजातियों की सामाजिक संरचना को समझने हेतु समाज का, जनजातियों का उदाहरण सहित ढाँचागत विवरण दिया गया है. | झारखण्ड की प्रायः प्रत्येक जनजाति उपजनजाति गोत्र / उपगोत्र में बँटा होता है. लेखकद्वय ने दर्शाया है कि इन जनजातियों के मध्य विवाह निषेध या बहिर्विवाह जनजातीय सामाजिक संरचना के तहत होता था.
झारखण्ड की जनजातियों के मध्य अनेक प्रकार के विवाह का प्रचलन रहा है. इस अध्याय के ‘विवाह’ उपशीर्षक के तहत् झारखण्ड की विभिन्न जनजातियों के मध्य प्रचलित विवाह की विविध प्रकारों की प्रकृति की चर्चा उदाहरण सहित दी गई है.
> जनजातियों का आर्थिक जीवन
जनजातीय जीवन जंगल से जुड़ा रहा है, क्योंकि प्रारम्भ से ही जंगल उनका वास स्थली रहा और जंगल से जीविकोपार्जन हुआ. आज भी जंगल का महत्व इनके लिये बना हुआ है. इनका आर्थिक जीवन काफी सरल रहा है डाल्टन महोदय ने जनजातियों की आर्थिक व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताओं का जिक्र किया है
1. सरल अर्थव्यवस्था.
2. वन आधारित अर्थव्यवस्था.
3. उत्पादन उपभोग एवं श्रम के पैटर्न की इकाई परिवार.
4. साधारण तकनीक पर आधारित अर्थव्यवस्था.
5. लाभरहित अर्थव्यवस्था.
6. सम्प्रदाय सहकारी इकाई है.
7. उपहार एवं विशेष अवसरों पर विनिमय.
8. हाट-बाजार.
9. अन्तःनिर्भरता.
10. घांगर जैसे आर्थिक संस्था आदि.
उपर्युक्त सारी (आर्थिक जीवन सम्बन्धी) विशेषताएँ झारखण्ड के जनजातीय आर्थिक जीवन पर लागू होता है. घांगर झारखण्ड की जनजातियों की अर्थव्यवस्था की एक विलक्षण विशेषता है. बड़े भूमिपतियों द्वारा नियोजित व्यक्ति को यहाँ के जनजाति घांगर कहते हैं. घांगर मालिक का पूर्ण कालिक कृषि श्रमिक होता है, किन्तु इसे मालिक अपने पारिवारिक सदस्य ही समझता है. इसका मालिक की बहन / बेटी से विवाह तक हो सकता है. बशर्ते इसका गोत्र पृथक् हो. इस घांगर प्रथा का प्रचलन कृषक जनजातियों जैसे उराँव, मुण्डा एवं हो से होता है.
झारखण्ड की जनजातियाँ मुख्यतः वनोत्पाद एवं शिकार, स्थान्तरणी एवं स्थायी कृषि, पशुपालन एवं पशुचारण तथा उद्योग में श्रम कर जीविका चलाते हैं.
> जनजातीय आर्थिक जीवन में परिवर्तन
प्राचीनकाल में जनजातियाँ वनोत्पाद एवं शिकार पर ही जीवनयापन करते थे, किन्तु कालान्तर में इनके जीवनयापन के साधन, स्रोत एवं तरीके में परिवर्तन आये. पिछले 50 वर्षों में ये परिवर्तन ज्यादा हुए हैं. नेतरहाट पठार के. असुर अपने लौह सम्बन्धी मूल काम को छोड़कर स्थानान्तरित कृषि करने लगे हैं. इसी प्रकार वीरजिया वनोत्पादन एवं शिकार पर आश्रित था अब स्थानान्तरी कृषि करता है. कोरबा जो पहले वनोत्पाद संग्रह करता, अब कृषि श्रमिक बन गया है. खानाबदोश बिरहोर स्थायी निवास करने लगा है. इसी प्रकार राजमहल पहाड़ी के माले एवं माल पहाड़िया झूम कृषि छोड़ स्थायी कृषि करने लगे हैं. झारखण्ड की जनजातियों की अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तन की ओर सर्वप्रथम एल. पी. विद्यार्थी (1969) में ध्यान दिलाया. विद्यार्थी ने इन परिवर्तनों का निम्नलिखित कारण बताया है –
1. शिक्षा.
2. जनजातीय एवं शहरी बाजार में सम्पर्क.
3. सहकारिता आन्दोलन.
4. व्यावसायिक बैंक.
5. श्रमिक संघ.
6. लैंड मोर्टगेज एक्ट के सम्बन्ध में जानकारी.
7. बचत की अवधारणा.
8. उपभोग के पैटर्न जरूरत आधारित से औद्योगिक जरूरत की ओर स्थानान्तरित.
9. अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा में परिवर्तन की दशा एवं इसका सीमांत जनजातियों पर पड़ने वाले प्रभाव.
10. जनजातियों में व्यावसायिक मानसिकता में वृद्धि.
11. जनजातीय शूदखोरों का प्रकट होना.
12. कृषि में, खाद्यान्न से नकद फसल की खेती की
ओर परिवर्तन.
13. लघु वनोत्पाद की खुली बिक्री एवं नकद मुद्रा की प्राप्ति.
14. सरकारी एवं अर्द्धसरकारी सेवाओं में आरक्षण आदि.
> जनजातियों का सामजिक जीवन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और यह हर हाल में समाज से परे नहीं रह सकता. समाज एक सामूहिक संस्था है जो अपने सदस्यों की दिनचर्या को नियमित एवं नियन्त्रित करती है. मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन पर उसके समाज की छाप रहती है. समाज आदिम हो या आधुनिक हो वह अपने सदस्यों के जीवन को विभिन्न माध्यम से दिशा निर्देशित करता है. आदिम समाज मानवों का सबसे प्राचीन समाज है, जो आज भी कामोवेशी परिवर्तन के साथ अस्तित्व में है. झारखण्ड की जनजातियों को सामाजिक संगठन न केवल अस्तित्व में है वरन् ये जीवन का जीवन्ततः प्रदान किये हुए है.
> जनजातियों की सामाजिक संरचना एवं संगठन
विद्यार्थी के अनुसार जनजातियों के सामाजिक जीवन में लोगों के मध्य वर्गीकरण एवं श्रेणीबद्धता सह अस्तित्व के लिए है. इनकी सामाजिक संरचना एवं संगठन सामूहिक क्रिया-कलाप में भागीदारी पर आधारित है, जो इनके मध्य सम्बन्धों द्वारा बँधा है.
झारखण्ड की जनजातियों की सामाजिक संरचना एवं संगठन भारत के अन्य जनजातियों से थोड़ा-सा अलग है. संथाल 12 गोत्रों में विभाजित है, जिसे परीस कहते हैं. ये परीस पुनः उपगोत्र में विभाजित हैं जो ‘खुंट’ कहलाता है. एक गोत्र में लगभग 13 से 28 तक उपगोत्र (खुंट) होते हैं. इस प्रकार इनकी सामाजिक संरचना इस प्रकार होती है-
> जनजाति-गोत्र-उपगोत्र – परिवार व्यक्ति 
उराँव, मुण्डा एवं हो जनजातियों की सामाजिक संरचना भी कामोवेशी संथाल की तरह ही होती है. ये जनजातियाँ वहिर्विवाही (एक्सोगैमस) गोत्र में विभाजित होते हैं, जिसे मुण्डा एवं हो में ‘कील’ एवं उराँव में ‘गोतार’ कहते हैं. इसके पूर्व मुण्डा एवं हो में सामाजिक सत्तीकरण होता है और ये दो स्तर में विभाजित होते हैं. मुण्डाओं की दो शाखा माहली मुण्डाकों (पातर) एवं कॉपाट मुण्डाकों हैं. ये दोनों शाखा बहिर्विवाही होते हैं. माहली मुण्डाकों को कॉपाट मुण्डाकों से निम्न दर्जे का माना जाता है. मुण्डा हातु (गाँव) में जो पहले बसते हैं उनके परिवार समूह को खुंट्टीदार कहते हैं, जिन्हें अन्य ग्रामीणों (जनजातियों) के वनस्पति विशेषाधिकार प्राप्त होता है. इसी प्रकार हो तीन वर्ग में बँटा होता है – मुण्डा मानकी, सामान्य हो एवं कजोमेसिन. इनमें से प्रत्येक गोत्र अनेक लीनेज में विभाजित रहता है, जिसे खुंट कहते हैं. ये खुंट बहिर्विवाही होते हैं. मुण्डा एवं मानकी ( हो मुखिया) आपस में विवाह करते हैं, जबकि कजोमेसिन ने अपना उपसमूह बना रखा है और इसी उपसमूह में ये अपना विवाह करते हैं. इस उपसमूह में ‘हो’ के सगोत्रीय विवाह लोगों के परिवार शामिल हैं. इस प्रकार इन लोगों का सामाजिक पैटर्न को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है –
> जनजाति – सामाजिक वर्ग गोत्र – लाइनेज – परिवार व्यक्ति
खड़िया (गुमला) का समाज तीन उप-वर्गों में बँटा है अर्थात् पहाड़ी खड़िया, ढेल्की खड़िया एवं दुध खड़िया. ये पुनः गोत्र में विभाजित होते हैं. पहाड़ी खड़िया में गोत्र व्यवस्था ज्यादा विकसित नहीं है. ढेल्की खड़िया एवं दुध खड़िया में क्रमशः 8 एवं 31 गोत्र हैं. खड़िया की सामाजिक संरचना इस प्रकार दर्शायी जा सकती है
> जनजाति-उपजनजाति-गोत्र-परिवार व्यक्ति
कामोवेशी इसी प्रकार (खड़िया की तरह ) की सामाजिक संरचना फल संग्राहक एवं शिकारी कोरवा जनजाति की है, किन्तु अब व्यावसायिक दृष्टिकोण से दो उपवर्गों में बँट गया है. अर्थात् पहाड़ी कोरबा एवं मैदानी कोरबा.
ये उपवर्ग पुनः गोत्र एवं उपगोत्रों (खिल्लीवान) में विभाजित हैं, अतः इनकी सामाजिक संरचना का ढाँचा इस प्रकार है
> जनजाति-उपजाति-गोत्र – उपगोत्र-परिवार व्यक्ति
पलामू के परहैया में गोत्र पर नहीं ( लाइनेज ) के आधार पर सामाजिक संरचना आधारित है. इसी प्रकार राजमहल के मालेर (सौर्या पहाड़िया) में सामाजिक संगठन में गोत्र व्यवस्था अनुपस्थित रहती है. इनका सामाजिक संगठन का आधार भौगोलिक सीमा होता है, किन्तु विद्यार्थी के अनुसार दो मालेर परिवार के मध्य सम्बन्ध का आधार लाइनेज होता है जिसे मालेर ब्यारे कहते हैं, इनमें माता एवं पिता दोनों के रिश्तेदार का महत्व होता है. इनकी सामाजिक संरचना को विद्यार्थी ने निम्नलिखित ढाँचों में दर्शाया है.
> पहाड़िया के जनजातीय सदस्य – जनजाति क्षेत्रीय समूह लाइनेज – परिवार – व्यक्ति
बिरोहर जनजाति दो उपजाति में बँटे होते हैं जिनका आधार उनका वास – प्रकृति (सेटलमेन्ट फीचर ) होता है. अर्थात् उथले या मूल्य जो खानाबदोश होते हैं तथा जंघी या थैनिया जो स्थायी वास करने लगे हैं. पुनः ये दो उप जनजाति गोत्र में विभाजित होते हैं. अतः इनका सामाजिक ढाँचा इस प्रकार है
> जनजाति – उपजनजाति – गोत्र – उपगोत्र-परिवार व्यक्ति (विद्यार्थी)
झारखण्ड की जनजातियों में अपने समाज के मध्य व्यवस्था बनाये रखने के लिए समाज को विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है. यहाँ के अधिकांश जनजातियों में गोत्र की भावना उपस्थित है तथा अधिकांश जनजाति वहीं गोत्रीय एवं बर्हिवंश (लाईनेज) विवाह करती हैं
> झारखण्ड जनजातीय समाज की विशेषताएँ
विद्यार्थी के अनुसार जनजाति लोगों का सामाजिक समूह है. मुख्यतः जिनकी 9 निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं
1. निश्चित क्षेत्र विवाह जो एकसमान (कॉमन) क्षेत्र में निवास करते हैं.
2. एकसमान नाम.
3. एकसमान भाषा.
4. एकसमान संस्कृति.
5. जनजातीय अन्तर्विवाही होता है.
6. टैबु.
7. विशिष्ट सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था का अस्तित्व.
8. अपने नेता पर पूर्ण विश्वास.
9. आर्थिक दृष्टिकोण से आत्मनिर्भरता.
झारखण्ड के जनजातीय समाज की एक अन्य विशेषता द्विदलया अर्द्ध-जनजातीय व्यवस्था (मोइटी) है. जब जनजाति सामाजिक दृष्टिकोण से दो भाग में विभाजित हो, तो प्रत्येक जनजातीय वर्ग को मोइटी कहते हैं. प्रत्येक मोइटी प्रायः बहिर्विवाही होते हैं. जैसे मुण्डा में दो मोइटी है—महाली मुण्डा को काम्पाट मुण्डाकों जो बहिर्विवाही हैं. इसमें प्रथम को सामाजिक दृष्टिकोण से निम्न माना जाता है.
झारखण्ड जनजातीय समाज एक गाँव में सामूहिक रूप से रहते हैं जिनमें सामाजिक एवं आर्थिक पारस्परिकता पायी जाती है. यहाँ की जनजातियाँ ग्राम्य बहिर्विवाही होते हैं.
विवाह–मानव के लिए विवाह सिर्फ परिवार एवं यौन सन्तुष्टि का माध्यम नहीं है. इस सम्बन्ध में मदन एवं मजूमदार ने कहा है“यौन सन्तुष्टि जहाँ विवाह के मूल में निहित प्रमुख अन्तः प्रेरणा है जैसाकि प्रायः होता है वही बच्चों के पालन-पोषण की विश्वसनीय व्यवस्था तथा संस्कृति के हस्तांतरण की आवश्यकता भी इसमें निहित अन्य महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ मानी जाती हैं. विवाह से वैयक्तिक स्तर पर शारीरिक (यौन) और मनोवैज्ञानिक (संतान प्राप्ति) सन्तोष प्राप्त होता है, तो व्यापक सामूहिक स्तर पर इससे समूह और संस्कृति के अस्तित्व-निर्वाह में योग मिलता है.” जनजातियों में विवाह-शादी परिवार का न केवल सामाजिक सम्मिलन है वरन् आर्थिक दृष्टिकोण से भी उपयोगी है. अतः विवाह के संचालन हेतु इन जनजातियों ने कुछ नियम, विवाह प्रकार निर्धारित किये हैं. झारखण्ड के प्रायः सभी जनजातियों में गोत्र की अवधारणा काफी विकसित है और इनमें गोत्र ‘विवाह’ पर निषेध होता है, अर्थात् ये बहिर्विवाही होते हैं. यहाँ की प्रायः सभी बड़ी जनजातियाँ जैसे हो, उराँव, संथाल, मुण्डा, खड़िया आदि गोत्र बहिर्विवाही हैं, किन्तु ये जनजातियाँ अन्तर्विवाही होते हैं. अपवादस्वरूप संथाल जैसे जनजातियों ने निम्न
हिन्दू जातियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये हैं. ये जनजातियाँ किससे विवाह करेंगी और किससे नहीं करेंगी इसके लिए अलिखित नियम बने हैं? इसी नियम के अन्तर्गत गोत्र बहिर्विवाही, जनजातीय अन्तर्विवाही तथा वरीयता ( समोदर ) विवाह है. समोदर विवाह में यह तय किया गया है कि किस तरह के विवाह को वरीयता दी जाए ? खड़िया में ममेरे फुफेरे भाई बहिन शादी को वरीयता दी जाती है. समोदर विवाह का प्रचलन उराँवों में भी है. जहाँ तक स्त्री एवं पुरुषों के विवाह की संख्या का सम्बन्ध है झारखण्ड की अधिकांश जनजातियाँ मूलतः बहुपत्नी विवाही होती हैं. जो जनजातियाँ बहुपत्नी विवाही ( एक से अधिक पत्नी) नहीं होती हैं जैसे संथाल हो आदि इसका मुख्य कारण हिन्दू संसर्ग एवं वधू मूल्य ” है.
यहाँ की जनजातियों में क्रय विवाह (मुण्डा, संथाल, हो, उराँव आदि) विनिमय विवाह (कामोवेश सभी जनजातियों में) इस तरह के विवाह में एक ही व्यक्ति साला बहनोई दोनों होता है. माता-पिता द्वारा तय विवाह (हो), सेवा विवाह (उराँव, मुण्डा) हरण विवाह, इसे ही ऊपर टिपी कहते हैं, (हो, उराँव, मुण्डा, खड़िया, बिरहोर) हठ विवाह या अनादर ( हो) या घर घुसु विवाह (बिरहोर) का खूब प्रचलन है. यहाँ की कुछ जनजातियों में जैसे मुण्डा, उराँव, संथाल में बड़े भाई की विधवा से विवाह का रिवाज है.
इनमें हिन्दुओं की तरह विवाह, अटूट, बन्धन नहीं है और यहाँ के प्रायः सभी जनजातियों में विवाहेतर सम्बन्ध, बांझपन, आलसीपन, पंचायत द्वारा डायन घोषित होने पर तथा इसी प्रकार के अन्य आरोपों के आधार पर पति, पत्नी को तलाक दे सकता है.
यहाँ की जनजातियाँ पितृसत्तात्मक हैं, अतः इनकी नातेदारी भी प्रायः पितृरेखीय होती है.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड की अधिकांश जनजातीय आबादी प्राथमिक अर्थव्यवस्था पर आधारित है.
> उद्योगों की स्थापना होने के कारण कुछ जनजातीय आबादी औद्योगिक श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं.
> झारखण्ड में धांगर जैसी एक विशिष्ट आर्थिक संस्था है जिसके तहत् व्यक्ति अर्थात् धांगर अपने मालिक का पूर्णकालिक श्रमिक होता है; किन्तु यह बन्धुआ मजदूर नहीं होता है.
> झारखण्ड की जनजातियों की अर्थव्यवस्था सरल, वन पर आधारित, लाभरहित, परिवार उत्पादन, उपभोग एवं श्रम पैटर्न का इकाई परिवार, एवं अन्तः निर्भरता होता है.
> इन जनजातियों की अर्थव्यवस्था प्रणाली में परिवर्तन हो रहा है.  यह परिवर्तन इनकी आर्थिक के साथ समाजिक एवं राजनीतिक पहलू को भी प्रभावित किया है.
> जनजातियों का सामाजिक संरचना एवं संगठन इनके सहअस्तित्व का सूचक है.
> झारखण्ड की जनजातियाँ गोत्र – उपगोत्र परिवार एवं व्यक्ति की संरचना में बँटा होता है.
> यहाँ की जनजातियों में गोत्र का विशेष महत्व होता है.
> खड़िया जनजाति उप जनजाति में बँटा होता है.
> परहैया जनजातियों की सामाजिक संरचना लाइनेज पर आधारित होती है.
> बिरहोरों की सामाजिक संरचना वास प्रकृति पर निर्भर करती है.
> झारखण्ड की जनजाति विशेष एकसमान भाषा, एकसमान नाम, एकसमान संस्कृति वर्हिगोत्र विवाही होता है.
> यहाँ का जनजातीय समाज द्वि-दलीय होता है.
> ये जनजातियाँ द्विदल बहिर्विवाही होती हैं.
> झारखण्ड की जनजातियाँ ग्राम्य बहिर्विवाही भी होती हैं.
> झारखण्ड की जनजातियों में विवाह के कुछ नियम हैं जिसके पालन की उम्मीद सभी समाज के सभी सदस्य से की जाती है.
> संथालों में हिन्दू जातियों से भी विवाह का प्रचलन है.
> झारखण्ड के कुछ जनजातियों में वरीयता विवाह का प्रचलन है, अर्थात् कुछ लोगों से विवाह की विशेष वरीयता प्राप्त होती है.
> झारखण्ड की अधिकांश जनजातियाँ मूलतः बहुपत्नी विवाही होती हैं.
> हिन्दू संसर्ग एवं वधू मूल्य के कारण संथाल एवं हो जनजातियों में एक विवाह का प्रचलन है.
> झारखण्ड की जनजातियों में प्रचलित विवाह के प्रकार
 – क्रय विवाह – मुण्डा, संथाल, हो, उराँव.
 – विनिमय विवाह – झारखण्ड की प्रायः सभी जनजातियों में.
– सेवा विवाह – उराँव, मुण्डा.
– हरण विवाह – हो, उराँव, मुण्डा, खड़िया, विरहोर.
हठ विवाह – हो, विरहोर.
– विधवा विवाह – मुण्डा, उराँव एवं संथाल.
> झारखण्ड की प्रायः सभी जनजातियों में तलाक का प्रचलन है.
> झारखण्ड का जनजातीय समाज पितृसत्तात्मक है.

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