जनजातियों का राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन
जनजातियों का राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन
‘झारखण्ड की जनजातियों का राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन’ शीर्षक के अध्याय में लेखकद्वय ने यह बताया है कि आदिम जातियाँ भी अपने समाज को सुशोभित करने हेतु अति प्रारम्भिक काल से एक राजनीतिक व्यवस्था कायम किये हुए थी जो आज भी किसी-न-किसी रूप में उपस्थित हैं. आदिम जातियों के शासन की प्रकृति उनके शासन का आधार तथा उनके राजनीतिक संरचना को ‘झारखण्ड की | जनजातियों का राजनीतिक जीवन’ उपशीर्षक में लेखकद्वय ने उदाहरण सहित वर्णन किया है.
इस अध्याय (झारखण्ड की जनजातियों का राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन) के उपशीर्षक ‘झारखण्ड की जनजातियों का धार्मिक जीवन’ में लेखकद्वय ने झारखण्ड के जनजातियों के उन धार्मिक पहलुओं से पाठकों को अवगत कराना चाहा, जिससे गैर मानव विज्ञान के छात्र अनभिज्ञ थे. लेखकद्वय ने अनेक विद्वानों से पृथक् हटकर आदिम जातियों के धर्म को हिन्दू धर्म से अलग बताया है. झारखण्ड की जनजातियों के धर्म की प्रकृति पारलौकिक शक्ति में विश्वास है और ये इन्हें कैसे खुश करते हैं, इनकी धर्म की मूल अवधारणा क्या है ? आत्मवाद जनजातियों के धर्म में क्या स्थान रखता है? टोटम, एवं टेबू क्या है ? जनजातियों के धर्म पर अन्य धर्मों का क्या प्रभाव पड़ा ? |आदि प्रश्न गैर मानव विज्ञान के छात्र के लिए उत्सुकता पैदा करते हैं. लेखकद्वय ने पाठकों के इन प्रश्न सम्बन्धी जिज्ञासा को सरल एवं सहज भाषा में लिखा है.
> झारखण्ड की जनजातियों का राजनीतिक जीवन
यहाँ की कोई भी जनजातीय समाज ऐसा नहीं है जिसकी अपनी राजनीतिक क्रियाकलाप नहीं है. प्रत्येक जनजातियों में एक मुखिया होता है जो आनुवंशिक होता है, किन्तु अपने शासन का संचालन समाज की सहमति से करता है. बिरहोर जैसे खानाबदोश एवं अल्पसंख्यक जनजातियों में भी मुखिया का अस्तित्व पाया जाता है. इनके मुखियाओं का शासन सीमाबद्ध होता है जो एक सीमा के भीतर नातेदारी विवाह एवं पारस्परिक सम्पर्क द्वारा एक बद्ध हो शासित होते हैं. झारखण्ड की जनजातियों के राजनीतिक जीवन मुख्यतः गोत्र, वंश, गाँव एवं अनेक गाँवों के समूह के आधार पर आधारित होता है. इनमें गोत्रीय आधार राजनीतिक दृष्टिकोण से ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस आधार (क्लीन लाइनेज) पर संथाल एवं उराँवों का राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित होता है. यहाँ की जनजातियों के राजनीतिक जीवन का एक अन्य लक्षण है- कम संख्या वाली जनजातियों जैसे बिरहोर आदि के मुखिया इनके सामाजिक, राजनीतिक तथा गाँव के धार्मिक सम्बन्धों को एक ही व्यक्ति नियन्त्रित एवं निर्धारित करता है. जबकि बड़ी (संख्या) जनजातियों जैसे–संथाल, उराँव, मुण्डा तथा हो में दो मुखिया होते हैं जो पृथक्-पृथक् कार्य के मुखिया होते हैं. इन जनजातियों के मध्य न्यायिक सत्ता होती है, जैसे- मालेर में मांझी एवं गौरेव कोरबा में वांगा आदि ये अपने संचालन एवं सजा निर्धारण हेतु शपथ (जो लिंगवांगा या हातृवोंगा (देवता) के नाम से लेते हैं) का सहारा लेते हैं.
> झारखण्ड की जनजातियों की राजनीतिक संरचना चार संस्थाओं में विभाजित है –
(1) बुजुर्गों की परिषद्
यह एक अस्थायी इकाई होती है जो विशेष समय पर विशेष समस्याओं का निदान करती है. यह ग्रामीणों द्वारा एक चयनित भी ग्रामीण एक जगह जुटते हैं, तो वहाँ समस्या रखी जाती है इकाई होती है. ऐसी परिषद् औपचारिक संस्था नहीं होती, वरन् जब जिसका हल बुजुर्गों द्वारा ढूँढ़ा जाता है. इस तरह की अस्थायी इकाई में व्यक्ति की निर्णायक स्थिति, उसकी समाज में स्थिति, चरित्र, बुद्धिमत्ता एवं सम्पत्ति पर निर्भर करती है कमार जनजातियों में बुजुर्ग ही मुख्य निर्णायक होता है जिसकी बातों को सभी स्वीकारते हैं.
(2) ग्राम्य मुखिया
होता है, जिसे विभिन्न जनजातियों में विभिन्न नामों से सम्बोधित इन जनजातियों की दूसरी राजनीति संस्था गाँव का मुखिया किया जाता है, मुखिया का पद प्रायः बहुमत इनकी और होता है. अतः ये गाँव की समस्याओं के हल आनुवंशिक होता है गाँव का करने में समर्थ होते हैं. ऐसे मुखिया गाँव के अनौपचारिक नेता होते हैं जो गाँव के सभी क्रियाकलापों एवं निर्णयों को प्रभावित करता है,
उराँवों में ऐसे ग्राम्य मुखिया को महतो एवं मुण्डाओं में मुण्डा कहते हैं. उराँव का महतो प्रत्येक 3 वर्ष बाद ग्रामीणों द्वारा निर्वाचित होता है, किन्तु महतो खुंट के उराँवों को प्राथमिकता मिलती है, उराँवों के कुछ गाँवों में महतो का पद आनुवंशिक भी होता है. इनका मुख्य कार्य –
1. प्रस्तुत समस्या पर निर्णय देना.
2. गाँव का प्रतिनिधित्व करना.
3. लगान वसूली (गाँव का) हेतु सरकार के प्रति जिम्मेदार,
4. गाँव के कानून व्यवस्था हेतु सरकार के प्रति जिम्मेदार इन कार्यों के बदले में महतो को सरकार लगान रहित सेवा भूमि प्रदान करती है.
मुण्डाओं का ‘मुण्डा’ भी महतो की तरह ही कार्य एवं विशेषाधिकार पाता है.
‘हो’ जनजातियों के मुखिया को भी मुण्डा कहते हैं, जो आनुवंशिक होता है. इनका कर्तव्य एवं अधिकार कमोवेशी अन्य मुखियाओं की तरह ही होता है. संथालों के ग्राम मुखिया ‘माँझी’ होते हैं. जो सम्पूर्ण गाँव द्वारा निर्वाचित होता है. उसका नेतृत्व सारा गाँव स्वीकारता है. गाँव का प्रत्येक सामुदायिक कार्य इसके दिशा-निर्देश एवं सलाह से किया जाता है.
(3) मुखिया के सहायक
इन गाँव के मुखियाओं के सहयोग हेतु यहाँ की कुछ जनजातियाँ सहायक की व्यवस्था है. संथालों के माँझी के दो सहायक होते हैं—प्रमानिक एवं योग माँझी. प्रमानिक को मांझी स्वयं चुनता है गोरइत एक अन्य सहायक होता है, जो ग्रामीणों को माँझी द्वारा आहूत सभा की सूचना देना आदि कार्य करता है.
(4) ग्राम्य पंचायत
झारखण्ड की जनजातियों की एक अन्य राजनीतिक इकाई इनके गाँवों की पंचायत होती है, जिसके सदस्य गाँव के प्रत्येक वयस्क व्यक्ति होते हैं. इसमें प्रत्येक व्यक्ति को बोलने का, भाग लेने का एवं मुद्दा प्रस्तुत करने का अधिकार होता है. संथालों के ग्राम्य पंचायत में तो महिलाएँ भी शामिल होती हैं. ये पंचायत मुख्यतः न्यायिक कार्य करती हैं. इसके अतिरिक्त सामुदायिक कार्य में भी सहयोग प्रदान करती हैं. झारखण्ड की जनजातियों की सर्वोच्च संस्था अनेक गाँवों समूह की पंचायत होती है, जो जनजातियों के लिए अपीलीय न्यायालय होता है. इस संघीय पंचायत में गाँव की संख्या निश्चित नहीं होती है. उराँवों की संघीय पंचायत में (परहा) 5 से 22 गाँव शामिल होते हैं.
जनजातियों की इन राजनीतिक संस्थाओं में ब्रिटिश शासन एवं बाद में भारतीय शासन के कारण काफी परिवर्तन आया है. ईसाई मिशनरियों के हस्तक्षेप ने भी इसको ( राजनीतिक संरचना) प्रभावित किया है.
> झारखण्ड की जनजातियों का धार्मिक जीवन
सामान्यतः भारतीय जनजातियों को मूलतः हिन्दू समझ लिया जाता है. घुरिये महोदय ने जो जनजातीय धर्म को हिन्दू धर्म का पिछड़ा रूप कहा जबकि एलविन ने जनजातियों के धर्मों को शैव धर्म के सन्निकट बताया है एवं जनजातियों के धर्मों को हिन्दू धर्म पृथक् करना निरर्थक होगा. जनजातीय धर्म एवं हिन्दू धर्म के लक्षणों में काफी सदृश्यता हो सकती है, किन्तु इसे हिन्दू धर्म नहीं कहा जा सका है. अतः जनजातियों के धर्मों को हिन्दू धर्म से पृथक् समझकर ही मानवशास्त्री अध्ययन करते हैं. यहाँ की जनजातियों का धर्म पारलौकिक शक्ति में विश्वास है. इस पारलौकिक शक्ति को खुश रखने के लिए जिससे कि उन्हें लाभ मिले ये विभिन्न तरह की पूजा, बलि आदि का सहारा लेते हैं.
झारखण्ड की जनजातियाँ मुख्यतः तीन तरह के धर्मों में विश्वास करती हैं—जीववाद, वोंगावाद एवं प्रकृतिवाद.
जीववाद या आत्मवाद में आत्मा विशेष में ही धर्म की मूल अवधारणा है. आत्मवाद में विश्व के सभी जगह की जनजातियों का विश्वास है. आत्मवादी जनजातियों के लिए वैसे प्रत्येक स्थल पवित्र है जहाँ आत्मा वास करती है. इस आत्म का वास जानवर, पेड़-पौधे, नदी, तालाब, चट्टान, पहाड़ कहीं भी हो सकता इनकी मान्यता है। कि मृत्यु के बाद आत्मा दूसरे रूप में प्रकट होती है. अतः ये जहाँ
वास करती हैं, उसके आसपास रहती है आत्मवाद में विश्वास करने वाली मुख्य झारखण्ड जनजातियाँ संथाल, उराँव, मुण्डा तथा बिरहोर, हो, उराँव एवं संथालों का विश्वास है कि उनके मझीये थान में उनकी अपने मृत व्यक्तियों की आत्मा वास करती है. अतः यह स्थान उनके लिए पवित्र होता है. इस पारलौकिक शक्ति के सम्बन्ध में उनका विश्वास है कि ये अच्छी फसल, वर्षा, बीमारी आदि का गाँव निर्धारक होता है. मालेट राजमहल तो अपने गोसाइयाँ जो पारलौकिक शक्ति है पर इतना विश्वास करता है कि उसे रोग, महामारी, जलामाय, सिद्धिमिट्टि की अनुर्वरता, कम उपजाऊ मृत्यु की अधिक घटनाएँ इत्यादि का उत्तरदायी है. अतः जीवन की बेहतरी के लिए बुरे आत्मा एवं गोसाइयाँ की पूजा, बलि आदि द्वारा खुश करना अनिवार्य है.
है कुछ जनजातियों में अनेक आत्माओं पर विश्वास किया जाता है जिसे मजूमदार ने वोंगा कहा है यह अव्यक्तिक, अनिश्चित एवं शक्ति होता है, हो जनजातियों में धर्म सम्बन्धी ये मान्यता ज्यादा प्रचलित है कुछ जनजातियाँ प्राकृतिक शक्ति को सर्वोच्च मानकर उसे खुश करने का प्रयास करते हैं संथाल, मुण्डा, हो, मालेर, विरहोर आदि जनजातियाँ सिंगवोगा ( सूर्यदेवता) में विश्वास करते हैं जिसे ये सर्वोच्च मानते हैं.
> टोटम एवं टेबू
जनजातियों के धर्म की एक अन्य विशेषता टोटम एवं टेबू की अवधारणा है. टोटम कोई भी पेड़, पशु या निर्जीव वस्तु हो सकती है जिसके प्रति किसी समूह के लोगों में विशेष आस्था होती है. यहाँ की जनजातियाँ टोटम बहिर्विवाही होते हैं. टोटम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. टोटम बहिर्विवाही.
2. टोटम का चयन प्रायः प्राकृतिक वस्तुओं के यथा पेड़-पौधे, पशु आदि.
3. इसे पवित्र माना जाता है.
4. इसे मारना या खाना भी निषेध है.
5. टोटमी पौधे पशु से वंश निर्धारण (घोलकी खरियाओं में) आदि.
झारखण्ड में प्रायः सभी जनजातियों में टोटम का प्रचलन है. ऐसी सम्भावना है कि भारत में टोटमवाद का विकास भी इन्हीं के द्वारा किया गया है.
यहाँ की जनजातियों में टेबू जैसी भी अवधारणा है जिसके तहत् किसी काम को करने पर निषेध रहता है. अतः इसे जनजातीय समाज का अलिखित कानून कहा जाता है, किन्तु इसके कानून का उल्लंघन (टेबू का पालन नहीं करने की दशा) से वैयक्तिक हानि का भय ज्यादा रहता है, क्योंकि इस उल्लंघन से समाज को मतलब कम रहता है टोटमवाद का अनुपालन में टेबू का काफी महत्व है.
> झारखण्ड की जनजातियों पर अन्य धर्मों का प्रभाव
जनजातियों के धर्म मुख्य रूप से हिन्दू एवं ईसाई धर्म से ज्यादा प्रभावित हुए. हिन्दू धर्म का प्रभाव सैकड़ों वर्ष पूर्व से हिन्दू पड़ोसियों के कारण पड़ने लगा था, किन्तु इन जनजातियों के धर्मों पर ईसाईकरण ब्रिटिश शासन में प्रारम्भ हुआ.
> हिन्दू धर्म का प्रभाव
झारखण्ड जनजाति वर्षों से हिन्दू पड़ोसियों के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रहते हैं. अतः इन जनजातियों पर हिन्दू धर्म का
प्रभाव सैकड़ों वर्ष पूर्व ही धीरे-धीरे पड़ने लगा. जो प्रभाव काल स्तर में इतना प्रभावी हो गया कि ये जनजातियाँ हिन्दू धर्म की तरह जातियों में बँट गया और कुछ प्रभावशाली जनजातियाँ जो स्वयं को क्षत्रिय बताने लगे; जैसे- चेरों, खेरवार, परैहइया आदि. अब मुण्डाओं को भी क्षत्रिय बताने लगे. उनको भी क्षत्रिय समाज में शामिल करने की बात की जाती है. झारखण्ड की लगभग 80 प्रतिशत जन-जातियों का हिन्दूकरण हो गया, जबकि सम्पूर्ण भारत में यह प्रतिशत 90 के लगभग है. यही कारण था कि घूर्ये ने जनजातियों का मूल धर्म विकृत हिन्दू धर्म एवं एलविनो ने इन्हें शैवमतावलम्बी माना है. झारखण्ड की जनजातियों में मुण्डा तथा उराँव का सर्वाधिक हिन्दूकरण हुआ है. ये हिन्दू धर्म के वैष्णव सम्प्रदाय से ज्यादा प्रभावित हुए हैं. उराँव तो हिन्दुओं की तरह जनेऊ धारण करने लगे हैं. उराँवों के मध्य हिन्दू धर्म (वैष्णव) धर्म के प्रचार-प्रसार में ताना भगत आन्दोलन (1914) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. कबीर पंथियों का भी प्रभाव इन पर पड़ा है.
> ईसाई धर्म का प्रभाव
ईसाई मिशनरियों एवं ब्रिटिश शासन के प्रयास एवं प्रभाव झारखण्डी जनजातियों में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार का मुख्य कारण रहा है. कालान्तर में उन्होंने मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य तथा प्रलोभन प्रदान कर जनजातियों का धर्मान्तरण किया. जनजातियों का सर्वाधिक ईसाईकरण उत्तरी-पूर्व हिमालय के क्षेत्र में हुआ है. इसके बाद झारखण्ड की जनजातियों का हुआ. झारखण्ड की जनजातियों में सर्वाधिक ईसाईकरण उराँवों का हुआ है, इसके बाद मुण्डा आदि जनजातियों का. ईसाई-करण प्रायः उन्हीं जनजातियों का अधिक हुआ है जो निर्धन थे एवं साहूकारों एवं अन्यों के शोषण के शिकार ज्यादा थे. इसी कारणवश हो एवं संथालों का सबसे कम ईसाईकरण हुआ,
ईसाईकरण में जनजातियाँ जीवन पर अनेक अच्छे बुरे प्रभाव डाले हैं. ईसाई बने जनजातियों में शिक्षा का प्रसार ज्यादा हुआ, किन्तु आदिम समाज की रीति-रिवाजों से भी ज्यादा दूर है जिसके कारण इन्हें मानसिक समाज का सामना करना पड़ता है.
ईसाइयों में जनजातियों को प्रभावित करने के लिए अनेक काल्पनिक कथाओं का सृजन किया. सरहुल चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में घटित सिकन्दर एवं पोरस के युद्ध में पोरस को मुण्डा मानकर, इसकी पराजय के गम में एवं सभी पूर्वजों के इस समय स्वर्ग जाने के उपलक्ष्य मानते हैं.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड की प्रत्येक जनजातियों में समाज की सहमति से संचालित शासन व्यवस्था होती है जो आनुवंशिक होती है.
> यहाँ के जनजातियों में राजनीतिक व्यवस्था सबसे प्रचलित आधार गोत्र
> यहाँ के प्रायः सभी जनजातियों में एक से अधिक मुखिया होता है.
> झारखण्ड की जनजातियों की राजनीतिक संरचना निम्न लिखित चार संस्थाओं में विभाजित होती है –
– बुजुर्गों की परिषद्
– ग्राम्य मुखिया
– मुखिया के सहायक
– ग्राम्य पंचायत
> जनजातियों का बुजुर्गों का परिषद् एक अनौपचारिक एवं अस्थायी इकाई होती है.
> बुजुर्गों का परिषद् समस्याओं का तात्कालिक हल करता है.
> यहाँ के प्रत्येक गाँव में ग्राम्य मुखिया होता है जो विभिन्न नामों से जाना जाता है.
> मुखिया का पद आनुवंशिक होता है, जो अपने गाँवों का अनौचारिक मुखिया होता है.
> उराँवों में मुखिया को महतो कहा जाता है.
> महतो 3 वर्ष के लिए निर्वाचित होता है.
> महतो लगान वसूली के कार्य में सरकार को सहयोग करता है.
> यह गाँव के कानून व्यवस्था हेतु सरकार के प्रति जिम्मेदार होता है.
> हो एवं मुण्डाओं का ग्राम्य मुखिया ‘मुण्डा’ तथा संथालों का मुखिया ‘माँझी’ कहलाता है.
> संथाल जैसी जनजातियों में मुखिया के सहयोग हेतु सहायक की व्यवस्था होती है.
> झारखण्ड की प्रायः प्रत्येक जनजातियों के गाँव में एक ग्राम्य पंचायत होती है.
> ग्राम्य पंचायत न्यायिक कार्य करती है.
> झारखण्ड की जनजातियों में अनेक गाँवों के समूह की भी पंचायत होती है. जिसे उराँवों में ‘परहा’ कहते हैं.
> प्रसिद्ध मानवशास्त्री धूर्ये महोदय ने जनजातियों को हिन्दू माना है.
> जनजातियों का अपना एक धर्म होता है जो जीववाद, वोंगावाद एवं प्रकृतिवाद के रूप में प्रचलित है.
> जीववाद या आत्मवाद में विश्वास करने वाली जनजातियों के लिए प्रत्येक वैसे स्थल पवित्र हैं जहाँ आत्मा वास करती है.
> जीववाद में विश्वास करने वाली मुख्य जनजातियाँ (झारखण्ड) हैं— संथाल, उराँव, मुण्डा, बिरहोर, हो, आदि है.
> ‘हो’ जैसी जनजातियों में अनेक आत्माओं में विश्वास किया जाता है.
> झारखण्ड की कुछ जनजातियाँ सिंगवोंगा (सूर्यदेवता) को सर्वोच्च मानती हैं.
> यहाँ की जनजातियों में टोटम का प्रचलन है. इसक अन्तर्गत किसी वस्तु विशेष जीव, जन्तु या पेड़-पौधे के प्रति जनजाति विशेष में आस्था रहती है.
> झारखण्ड की जनजातियाँ टोटम बहिर्विवाही होती हैं.
> झारखण्ड की जनजातियों पर सर्वप्रथम हिन्दू धर्म का प्रभाव पड़ा और एक अनुमान के अनुसार झारखण्ड की लगभग 80 प्रतिशत जनजातियों का हिन्दूकरण हो गया.
> झारखण्ड की जनजातियों पर ब्रिटिश शासन एवं ईसाई मिशनरी के सम्मिलित प्रयास से ईसाई धर्म का विशेष प्रभाव पड़ा.
> झारखण्ड की जनजातियों में सर्वाधिक उराँवों का ईसाईकरण हुआ. ईसाई मिशनरियों ने ईसाईकरण की प्रक्रिया हेतु सेवा भाव के साथसाथ धन का भी प्रयोग किया.
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