झारखण्ड आन्दोलन : उतार-चढ़ाव
झारखण्ड आन्दोलन : उतार-चढ़ाव
झारखण्ड का राजनीतिक अस्तित्व, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लगभग 600 ई. पू. से ही है. इस काल में ही मुण्डाओं का प्रवेश ‘हु’ इस प्रदेश में हुआ था. मुण्डाओं के शासक मदरा मुंडा का राज्य इस क्षेत्र में था. इसके शासक ने प्रजातान्त्रिक ढंग से नागवंशी फणीमुकुट राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. इस समय से इस प्रदेश का समय-समय पर पृथक अस्तित्व रहा. 12वीं सदी में दक्षिणी उड़ीसा के एक राजा नरसिंह देव खुद को झारखण्ड का राजा घोषित किया. इसका उल्लेख नरसिंह देव द्वितीय के स्तम्भ अभिलेख से होता है. मध्यकाल में महाप्रभु चैतन्य ने इस भू-भाग का उल्लेख झारखण्ड से किया है. के. एस. सिंह के अनुसार, “आरम्भिक मध्य युग में झारखण्ड स्पष्ट रूप से भिन्न एक भौगोलिक क्षेत्र के रूप में उभरकर आया था और न सिर्फ नागवंशी इतिहास में, बल्कि समकालीन रचनाओं और पुरालेख स्रोतों में भी ऐसा ही उल्लेख आया है.”
झारखण्ड का ऐतिहासिक प्रमाण अबुल फजल कृत ‘आइने अकबरी’ में भी मिलता है. इस पुस्तक के अनुसार वीरभूम और पंचेत से लेकर मध्य भारत के रतनपुर तक तथा दक्षिणी बिहार में रोहतास गढ़ से लेकर उड़ीसा की सीमा तक के भू-भाग को झारखण्ड या ‘जंगली इलाका’ के नाम से उल्लेख किया गया है. मुगलकाल में इसे ‘खुखरा’ से जाना जाता था, जो हीरे के लिए प्रसिद्ध था. 1585 में मुगल शासक अकबर खुखरा या झारखण्ड को अपना करदाता प्रदेश बनाया, किन्तु यह खुखरा प्रदेश अकबर की मृत्यु के बाद पुनः स्वतन्त्र हो गया. 1616 में जहाँगीर के समय इस प्रदेश को बिहार के राज्यपाल इब्राहीम खान फतेह द्वारा यहाँ के राजा दुर्जनशाल को गिरफ्तार कर अधीनस्थ किया गया, किन्तु स्वतन्त्रता एक पृथक् अस्तित्व के लिए सदैव संघर्षरत् रहने वाले यहाँ के जनमानस पुनः 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद स्वतन्त्र हो गया जो बिहार की तत्कालीन गवर्नर शरबुलंद खान द्वारा 1724 में पुनः एक बार झारखण्ड को अधीनस्थ किया गया.
उपर्युक्त विवरण झारखण्ड की ऐतिहासिकता एवं इस ऐतिहासिक तथा राजनैतिक अस्तित्व वाले राज्य के पृथक् अस्तित्व एवं स्वतन्त्रता की आकांक्षा को भी प्रकट करता है, किन्तु एक पृथक् प्रदेश के लिए संघर्ष गति 20वीं सदी में तीव्र हो गई. 1911 में बंगाल विभाजन के समय से ही पृथक् झारखण्ड राज्य की माँग की जाने लगी थी, किन्तु इसके लिए जो भी आन्दोलन हुए थे, मुख्यतः आदिवासियों द्वारा पृथक्-पृथक् शुरू की गई थी, जिसका स्वरूप जातीय था. इनका इस समय माँग स्वायत्तता थी, किन्तु आन्दोलन का रूप ले लिया. झारखण्ड आन्दोलन का यह स्वरूप 1920 के बाद से झारखण्ड आन्दोलन संगठित हुई और एक स्थायी 1913 में स्थापित छोटा नागपुर उन्नति समाज ने प्रदान किया. इस समाज की स्थापना जुएल लकड़ा, थेवले उराँव, बन्दी राम उराँव, पॉल दयाल, अलफोंस कुजूर, वीर सिंह मुण्डा आदि आदिवासी नेताओं द्वारा सन् 1913 में राँची में किया गया. इस प्रकार यह समाज झारखण्ड के आदिवासियों का विदेशी शासन एवं शोषकों के खिलाफ प्रथम बार संवैधानिक लड़ाई शुरू किया, जिससे अभिप्रेरित होकर शिक्षित एवं जागरूक आदिवासी युवक इस समाज से जुड़ने लगे और इस समाज का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता गया. प्रारम्भ में इस समाज का उद्देश्य आदिवासी अस्मिता की रक्षा करना था, जो कालान्तर में पृथक् झारखण्ड प्रदेश की माँग में परिवर्तित हो गया. अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस समाज ने हिन्दी, अंग्रेजी, मुण्डारी एवं कुडुरन भाषा में आदिवासी नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया, जिससे अब इन्होंने हर उस मौके का लाभ उठाने का प्रयास किया, कि इन्हें अपनी उद्देश्य पूर्ति में सहूलियत हो. इसी क्रम में नेताद्वय विशप वॉगुन ह्यूक तथा जुएल लकड़ा के नेतृत्व में उन्नति समाज के एक प्रतिनिधि मण्डल द्वारा 1929 ई. में साइमन कमीशन को एक ज्ञापन सौंपा गया, जिसमें आदिवासियों के लिए विशेष सुविधाएँ तथा इनका एक पृथक् प्रशासी इकाई के सृजन की माँग की गयी.
1931 में समाज में विभाजन हो गया. देवले उरॉव के नेतृत्व में इन्होंने किसान सभा का गठन किया. किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष श्री देवले उराँव बने एवं सचिव पॉल दयाल,
1935 में कैथोलिक ने छोटा नागपुर कैथोलिक सभा का गठन किया. इनका उद्देश्य भी पृथक छोटा नागपुर ही था. 1935 के आम चुनाव में किसान सभा, कैथोलिक सभा आदि ने उम्मीदवार खड़े किये, किन्तु सफलता सिर्फ कैथोलिक सभा मिली.
1936 में छोटा नागपुर कैथोलिक महासभा के सचिव इग्नेस बैंकके नेतृत्व में छोटा नागपुर, उन्नति समाज, किसान सभा एवं छोटा नागपुर कैथोलिक सभा को मिलाकर एक नया संगठन का गठन किया गया, जिसका नाम आदिवासी महासभा रखा गया. अब पृथक् राज्य की माँग और जोर पकड़ने लगी. इसकी द्वितीय सभा 1939 से रांची में हुई थी जिसकी अध्यक्षता जयपाल सिंह मुण्डा ने की. इसी समय उन्हें मरड़ गोंमके की उपाधि दी गई. इस सभा में जयपाल सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छोटा नागपुर एवं संथाल परगना के सम्मिलित रूप को एक इकाई के रूप में, चर्चा की और इसी के साथ छोटा नागपुर पृथक् आन्दोलन झारखण्ड आन्दोलन का रूप ले लिया. इन्होंने अपने भाषण में वृहत् छोटा नागपुर राज्य (छोटा नागपुर, संथाल परगना, बंगाल, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश का सीमांत भू-भाग) की माँग की. इस सभा के बाद यह महसूस किया गया कि आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने हेतु गैर आदिवासियों को इसमें शामिल करना जरूरी है. अतः आदिवासी महासभा के अध्यक्ष जयपाल सिंह ने सदानों की अर्द्ध आदिवासी शब्द से सम्बोधित किया. 22 जनवरी, 1939 में सेपरेशन लीग की बैठक में जयपाल सिंह ने कहा था हम प्रकृति और संस्कृति से किसी भी सूरत में बिहार में मेल नहीं खाते इसलिए इसे अविलम्बित विहार से पृथक् किया जाए. आगे उन्होंने कहा जो हमारे बीच में रहते हैं क्या हिन्दू, मुसलमान, एंग्लो इंडियन, यूरोपियन, उराँव, संथाल, खाड़िया, हो एवं मुण्डा हरेक हमसे एक होकर छोटा नागपुर पृथक्करण में साथ दें जिससे हम जल्द से जल्द अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें ? ( आदिवासी महासभा विशेषांक-1939).
जयपाल सिंह पृथक् राज्य के लिए इतनी शीघ्रता में थे कि वे भारत की स्वतन्त्रता पूर्व ही वृहत् छोटा नागपुर राज्य देखना चाहते थे. इस उतावलेपन के बावजूद उन्होंने आन्दोलन के स्वरूप को हिंसक नहीं होने दिया.
1949 में भारतीय संविधान सभा में जयपाल सिंह के चुने जाने पर आदिवासियों में उत्साह की लहर का संचार हुआ. अब यह महसूस किया जाने लगा कि पृथक् राज्य शीघ्र ही मिल जाएगा, किन्तु उनका सपना तव पूरा नहीं हुआ. भारत स्वतन्त्र हो गया, किन्तु झारखण्ड को विहार से लटकाये रखा गया. आदिवासी महासभा एवं जयपाल सिंह के वृहत्तर छोटा नागपुर (झारखण्ड) राज्य का सपना चूर-चूर होता नजर आने लगा जब भारत सरकार द्वारा 1947 में सरायकेला और खरसांवा को उड़ीसा में मिलाने का निर्णय लिया गया, जिसका विरोध आदिवासी महासभा के साथ स्थानीय जनता ने भी किया. एक विशाल आम सभा आयोजित की गयी. पुलिस ने निर्दयतापूर्वक इस भीड़ को तितर बितर किया. इस क्रम में सैकड़ों लोग मारे गये. इसके बावजूद ये दोनों रियासत उड़ीसा में मिला दी गयीं.
आदिवासी महासभा का विस्तार जयपाल सिंह के कुशल नेतृत्व में शनैः-शनै सम्पूर्ण वृहत्तर झारखण्ड में फैल गया, किन्तु इन नेताओं को अभी भी झारखण्ड आन्दोलन में कमी महसूस हो रही थी. इस कमी को दूर करने हेतु इस आन्दोलन में गैर आदिवासियों को शामिल करने हेतु अप्रैल 1948 में जस्टिन रिचर्ड ने यूनाइटेड झारखण्ड ब्लॉक का गठन किया. इस ब्लॉक के विरोध में जयपाल सिंह ने 1950 में जमशेदपुर में झारखण्ड पार्टी का गठन किया, किन्तु इससे आन्दोलन शिथिल पड़ा. अभी भी जयपाल सिंह की पकड़ झारखण्डियों पर बरकरार थी. 1952 के चुनाव में 32 विधान सभा सीट पर इनकी पार्टी की विजय हुई. अगले आम सभा चुनाव में इनके सदस्य उड़ीसा विधान सभा में भी पहुँचे. इस प्रकार वृहत्तर झारखण्ड की माँग को अन्य राज्यों के आदिवासियों ने भी समर्थन देना शुरू कर दिया था. जयपाल सिंह एवं अन्य नेतागण अपने लक्ष्य पूर्ति हेतु जनसमर्थन प्राप्त तो कर ही रहे थे साथ ही ये अन्य मौकों का लाभ उठाकर पृथक् राज्य सम्बन्धी अपनी माँग प्रस्तुत कर देते. झारखण्ड पार्टी का एक प्रतिनिधि मण्डल ने 1959 के राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष एक वृहत् झारखण्ड राज्य की माँग करते हुए एक ज्ञापन दिया; जिसे उ फजल आयोग ने अस्वीकृत कर दिया, किन्तु इससे ये झारखण्डी नेता हतोत्साहित नहीं हुए. आगे आने वाले समय में पृथक् राज्य के प्रतीक झारखण्ड पार्टी को बुरा समय भी देखना पड़ा.
1962 के आम चुनाव में इसका प्रदर्शन काफी खराब रहा और 1963 में इस आन्दोलन के स्तम्भ जयपाल सिंह के नेतृत्व में झारखण्ड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया. इसके बावजूद झारखण्ड आन्दोलन जारी रहा. 28 दिसम्बर, 1967 को एक पार्टी अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी का गठन किया गया जिसने झारखण्ड पार्टी के कांग्रेस में विलय को असंवैधानिक बताया, किन्तु ये पार्टी भी बहुत दिनों तक संगठित नहीं रही. बागुन पाल सुब्रई के नेतृत्व में एक गुट पृथक् होकर, 1969 में अखिल भारतीय में झारखण्ड पार्टी का गठन किया एवं एन. ई. होरो ने शेष पार्टी का नाम झारखण्ड पार्टी रखा. इस बीच झारखण्ड आन्दोलन को संथालों न्दू, में मजबूत करने हेतु जस्टिन रिचर्ड ने हुल झारखण्ड पार्टी का गठन किया जिसने अपना कार्यक्षेत्र संथाल परगना बनाया 1960 का दशक झारखण्ड का सबसे बुरा काल था. 1972 से झारखण्ड आन्दोलन ने एक नया रूप ग्रहण किया.
4 फरवरी, 1973 को शिबू सोरेन एवं बिनोद बिहारी महतो नेतृत्व में धनबाद में झारखण्ड ध्यक्ष घित मुक्ति मोर्चा नामक पार्टी का गठन किया गया. ये दोनों नेता क्रमशः आदिवासियों एवं सदानों की यह जोड़ी भी ज्यादा दिन नहीं टिकी और शिबू सोरेन 1980 में कांग्रेस के साथ मिलकर विधान सभा में 14 सीटों पर कब्जा जमाया, किन्तु विनोद बिहारी महतो साम्यवादी होने के कारण कांग्रेस से झामुमो की निकटता पसन्द नहीं करते थे. अतः 1984 में इन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. शिबु सोरेन ने एक बार पुनः झारखण्ड आन्दोलन में तीव्रता लाने का प्रयास किया. इन्होंने धनबाद में अपना आन्दोलन तेज किया. अब इसका विस्तार सम्पूर्ण छोटा नागपुर एवं संथाल परगना में हो गया. ये अब दिशुम गुरु के नाम से प्रसिद्ध हो गये. ये झारखण्ड आन्दोलन का एक मुख्य स्तम्भ बन गये. इस बीच झारखण्ड आन्दोलन, झारखण्ड की प्राप्ति तक अनेक उतार-चढ़ाव देखे. 1970 के बाद घटना चक्र तेजी से चला जिसमें झारखण्ड आन्दोलनकारियों को कभी झारखण्ड राज्य की प्राप्ति होती नजर आती, तो कभी लक्ष्य काफी दूर दृष्टिगोचर होता. आगे के आन्दोलन को हम जिन घटना चक्र से समझ सकते हैं ( इसके लिए कालक्रम – झारखण्ड के परिप्रेक्ष्य में सन् 1970 देखें).
मुख्य बातें
> मुण्डाओं द्वारा इस क्षेत्र पर सर्वप्रथम शासन किया गया.
> मुण्डाओं ने फणीमुकुट राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया जो सम्भवतः नागवंशी राजपूतों का पूर्वज था.
> मुगलकाल में इस क्षेत्र को ‘खुखरा’ क्षेत्र जाना जाता था जो हीरे के लिए प्रसिद्ध था.
> इस खुखरा प्रदेश को सर्वप्रथम 1585 में अकबर ने अनुगामी बनाया.
> जहाँगीर के समय बिहार के राज्यपाल इब्राहीम खान फतेह द्वारा राजा दुर्जनशाल को गिरफ्तार कर पुनः अधीनस्थ किया गया.
> छोटा नागपुर उन्नति समाज की स्थापना, जुएल, लकड़ा, थेवले उराँव वंदीराम उराँव आदि आदिवासी नेताओं द्वारा किया गया. इस समाज द्वारा आदिवासी एकता पर जोर दिया गया. इसके लिए इन्होंने आदिवासी नामक एक पत्रिका का कुडुखू, मुण्डारी, हिन्दी एवं अंग्रेजी में प्रकाशन शुरू किया.
> आदिवासी उन्नति समाज के प्रतिनिधि द्वारा 1929 में साइमन कमीशन के समक्ष आदिवासियों के लिए सुविधा तथा एक पृथक् प्रशासी-इकाई के सृजन की माँग की गई.
> 1931 में थेवले उराँव द्वारा आदिवासी उन्नति समाज का विभाजन कर किसान सभा का गठन किया गया.
> ईसाई मिशनरी भी पृथक् छोटा नागपुर राज्य के निर्माण की वकालत करने लगे थे तथा 1935 में कैथोलिक ने इस हेतु छोटा नागपुर कैथोलिक सभा का गठन किया.
> 1936 के आदिवासी महासभा के गठन से पृथक् राज्य के आन्दोलन में गति आई. पूर्व के सभी आदिवासी संगठनों जैसे छोटा नागपुर उन्नति समाज, किसान सभा एवं छोटा नागपुर कैथोलिक सभा को मिलाकर आदिवासी महासभा का गठन किया गया था.
> झारखण्ड आन्दोलन के प्रसिद्ध नेता जयपाल सिंह मुण्डा 1939 में आदिवासी आन्दोलन से जुड़े.
> मरड़ गोंमके जयपाल सिंह मुण्डा ने राँची में सर्वप्रथम छोटा नागपुर इस एवं संथाल परगना को मिलाकर एक पृथक् राज्य की माँग की. प्रकार वर्तमान झारखण्ड का राजनीतिक स्वरूप इस समय स्पष्ट हुआ.
> 1950 में मरड़ गोंमके जयपाल सिंह मुण्डा ने जमशेदपुर में झारखण्ड पार्टी नामक एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया.
> 1956 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष झारखण्ड पार्टी की पृथक् राज्य की माँग को अस्वीकृत कर दिया गया.
> 1963 में मरड़ गोंमके जयपाल सिंह मुण्डा के पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया.
> 1967 में एन. इ. होरो एवं वागुन सुब्रई द्वारा अखिल भारतीय झारखण्ड पार्टी का गठन किया.
> 1969 में वागुन सुब्रई के पृथक् होने पर एन. इ. होरो ने इस पार्टी का नाम झारखण्ड पार्टी कर दिया.
> जस्टिन रिचर्ड ने हुल झारखण्ड पार्टी गठन कर संथाल परगना में पृथक् झारखण्ड को हवा दी.
> 1973 को शिबू सोरेन एवं बिनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया.
> दिशुम गुरु शिबू सोरेन झारखण्ड आन्दोलन के प्रतीक बन गये.
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