झारखण्ड : मृदा एवं वनस्पति

झारखण्ड : मृदा एवं वनस्पति

झारखण्ड का इतिहास - inp24

> मृदा एवं वनस्पति
झारखण्ड एक कृषि प्रधान देश हैं. यहाँ की 77 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है. यहाँ की कृषि की प्रकृति मृदा की प्रकृति से निर्धारित होती है. मृदा की प्रकृति स्थानीय शिलाओं, वनस्पति, वर्षा की मात्रा, उच्चावच एवं जलवायु से प्रभावित होती है. मृदा निर्माण में अपक्षयण एवं अपरदन की प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहता है. अपक्षय की प्रक्रियाएँ चट्टानों को तोड़-फोड़कर छोटे-छोटे कणों में बदल देती हैं. ये कण धरातल की ऊपरी परत बनाती हैं. प्रारम्भ में इस परत में मूल चट्टान की विशेषताएँ होती हैं. कालान्तर में ऊपरी परत के कण अधिक होते जाते हैं और पर्याप्त गर्मी एवं उचित वर्षा प्राप्त होने पर उस पर वनस्पति पैदा होती है. ऐसी परत को मृदा कहते हैं. अर्थात् धरातल के जिस परत पर पौधे पैदा हों वह परत मृदा कहलाती है. झारखण्ड की मृदा में स्थानीय चट्टानों में उपस्थित ग्रेनाइट एवं नीस की प्रधानता होती है. झारखण्ड की मृदा करोड़ों वर्ष के अपक्षयण, अपरदन, संग्रहण तथा निक्षेपण की सम्मिलित प्रक्रियाओं का प्रतिफल है. यहाँ के तरंगित पठार के उच्च भूमि वाले क्षेत्रों की ढालों पर ऊपर से नीचे मृदा-गठन क्रमशः मोटे कणों से महीन कणों में बदलता हुआ पाया जाता है. मृदा आर्द्रता भी पठार के ऊपरी भाग से नीचे की ओर बढ़ती जाती है. मृदा के रंग पर भी उच्चावच का प्रभाव पड़ता है. ऊँची तथा मध्य ऊँची भूमि की मृदा लाल रंग की तथा नीची भूमि की मृदा भूरे रंग की होती है.
> मृदा जनन की प्रक्रिया
झारखण्ड की मृदा सम्बन्धी विविधता मृदा जनन की प्रक्रिया का परिणाम है. मृदा जनन (निर्माण) विशिष्ट प्राकृतिक दशाओं में होती है और इस जटिल प्रक्रिया में पर्यावरण का प्रत्येक तत्व अपना योगदान देता है. मृदा वैज्ञानिक मृदा निर्माण की इस जटिल प्रक्रिया को मृदा जनन की प्रक्रिया कहते हैं.
मृदा में भिन्नता मृदा निर्माण के विभिन्न घटकों से सम्बन्धित है. अर्थात् चट्टान संरचना, स्थानीय उच्चावच के धरातलीय स्वरूप, ढाल के सामान्य प्रतिरूप, जलवायु तथा प्राकृतिक वनस्पति से है. मृदा जनन की प्रक्रिया में, मानव, पशु तथा कीड़े-मकोड़े भी शामिल होते हैं.
मृदा जनन के ये घटक मृदा निर्माण की प्रक्रिया को स्वतन्त्र रूप से अथवा विलगता में प्रभावित नहीं कर प्रत्येक घटक के अन्तर्सम्बन्धों से प्रभावित करता है. 7
> मृदा निर्माण का मुख्य घटक निम्नलिखित है
1. जनक सामग्री (मूल पदार्थ )
2. उच्चावच
3. जलवायु तथा
4. प्राकृतिक वनस्पति.
प्राकृतिक संसाधन के रूप में मृदा मानवीय संस्कृति का आधार स्तम्भ रहा है. उपरलिखित घटकों के उत्तम संयोजन के परिणामस्वरूप अधिक उर्वरता वाले समृद्ध एवं गहरे मृदा आवरण का निर्माण होता है. उर्वर मृदा बेहतर कृषि व्यवस्था के लिए आवश्यक है. मृदा की उर्वरता जनसंख्या के घनत्व तथा जीवन स्तर का निर्धारण होता है. भारत में पश्चिम बंगाल एवं केरल में जनसंख्या घनत्व अधिक होने का कारण समृद्ध जलोढ़ मृदा है जो विशाल आबादी के पोषण में समर्थ है. राजस्थान की मृदा के निर्माण में मृदा जनन के ऊपर उल्लिखित घटकों का इष्टतम संयोजन नहीं होने के कारण यहाँ की मृदा अनुर्वर है तथा इस मृदा की पोषण क्षमता कम होने के कारण राजस्थान का जनसंख्या घनत्व काफी कम है. मृदा की उर्वरता मानवीय संस्कृति का एक मुख्य आयाम है जो मृदा निर्माण के घटकों के द्वारा निर्धारित होता है.
> मृदा जनन
मृदा की प्रकृति एवं वितरण प्रतिरूप मृदा जनन के द्वारा तय होता है. मृदा जनन मृदा निर्माण के घटकों के अन्तर्सम्बन्धों का प्रतिफल है. मृदा जनन के मुख्य घटक अग्रलिखित हैं —
(1) जनक सामग्री (मूल पदार्थ )
मृदा निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ जनक सामग्री ( मूल पदार्थ) होता है जो मुख्यतः उस क्षेत्र के शैल आवरण से प्राप्त होता है. जनक सामग्री की प्राप्ति धरातल पर अनावृत शैलों के अपक्षरण से होती है. अनावृत शैलों की प्रकृति ही मृदा की प्रकृति को निर्धारित करता है. यदि मृदा लावा शैलों से बनी है तो इसका रंग काला होगा. जलोढ़ मृदा का निर्माण नदी द्वारा सुदूर क्षेत्र में अपरदित शैलों के निक्षेपण क्रिया से होता है. अतः जलोढ़ मृदा की स्थिति में जनक सामग्री से मृदा का सम्बन्ध बहुत कम रह जाता है. झारखण्ड जैसे पठारी प्रदेश की मृदा का सम्बन्ध अपनी जनक सामग्री से काफी घनिष्ठ होता है. अपक्षरण के कारण झारखण्ड की मिट्टी के रासायनिक संघटन में क्रमिक परिवर्तन हुआ है. यहाँ की मिट्टी मोटे कणों वाली एवं कम उर्वर है.
(2) उच्चावच
मृदा निर्माण की प्रक्रिया स्थानीय उच्चावच द्वारा कई प्रकार से प्रभावित होती है. उच्चावच जल प्रवाह के परिणाम एवं गति को निर्धारित करती है. उच्चावच एवं ढाल की प्रकृति पर अपरदन की मात्रा निर्भर करती है. निम्नलिखित उच्चावच वाले क्षेत्रों में मृदा का जमाव ज्यादा होता है. अतः इन क्षेत्रों में मृदा की परत गहरी होती है. तीक्ष्ण एवं खड़ी ढाल के क्षेत्रों में मृदा आवरण कम गहरा होता है. अतः झारखण्ड में मृदा परत कम गहरी होती है, क्योंकि यहाँ धरातल पर निक्षेपण नहीं हुआ है. ढाल का कोण भी मृदा की उर्वरता का निर्धारण करता है. खड़ी ढाल वाले क्षेत्रों की मृदा की सबसे ऊपरी परत प्रवाहित जल द्वारा पूर्णतः अपरदित कर दी जाती है. झारखण्ड की उच्च भूमि की मृदा कम गहरी होती है.
(3) जलवायु
मृदाजनन में जलवायु भी एक महत्वपूर्ण घटक है. जलवायु के अन्तर्गत वर्षा की मात्रा एवं इसके ऋतुवत वितरण, वर्षा एवं तापमान में पाये जाने वाले प्रादेशिक अन्तर जैसे जलावायविक कारकों ने विविध प्रकार की स्थितियों को जन्म दिया है, जिनमें सूक्ष्म जीव एवं प्राकृतिक वनस्पति मृदा पर कार्यरत् है. जलवायु में पाई जाने वाली विविधता मृदा में पाई जाने वाली विविधता का कारण है.
( 4 ) प्राकृतिक वनस्पति
मृदा निर्माण में प्राकृतिक वनस्पति का महत्वपूर्ण योगदान होता है. किसी प्रदेश की प्राकृतिक वनस्पति वहाँ की उच्चावच एवं मौसम के तत्वों के संयुक्त प्रभाव से प्रभावित होता है. मृदा की प्रकृति स्थानीय वनस्पति द्वारा निर्धारित होती है. प्राकृतिक वनस्पति ही मृदा में ह्यूमस की मात्रा को निर्धारित करती है जो मृदा के समृद्धि के लिए आवश्यक है और जो मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है.
झारखण्ड की ऊँची भूमि का स्थानीय नाम ‘टांड’ एवं निम्न भूमि को ‘दोन’ कहा जाता है. स्थानीय नामाकरण के आधार पर ‘झारखण्ड की मिट्टियों को निम्नलिखित वर्गों में बाँट सकते हैं
ऊँची भूमि की मृदा – टांड
निम्न भूमि की मृदा – दोन
दोन की मिट्टियाँ उर्वर एवं महीन गठन की होती हैं, क्योंकि नाइट्रोजन तथा कार्बनिक तत्वों की प्रधानता रहती है.
दोन का उपयोग चावल तथा यदा-कदा शीतकाल में गेहूँ की कृषि के लिए होता है.
> झारखण्ड की मिट्टियों का सामान्य वर्गीकरण कंकरीली तथा पथरीली बलुआही मिट्टी
इसे पहाड़ी तथा तीव्र ढालों की छिछली मिट्टी भी कहते हैं. यह पठारों के कगारी क्षेत्रों में तीव्र धरातलीय ढालों पर पायी जाती हैयह अम्लीय होती है. अतः कम उपजाऊ होती है. जहाँ ढालों मिट्टी की परत मोटी होती है वहाँ सरगुजा, कुल्थी जैसी फसलों खेती की जाती है. घाटियों में मिट्टी का जमाव अधिक होने के कारण यहाँ की मृदा दोन प्रकार की है जो धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है.
> लाल मिट्टी
झारखण्ड प्रदेश की यह मुख्य मृदा है. इसका विस्तार गोण्डवाना की चट्टानों का क्षेत्र अर्थात् कोयला प्राप्ति क्षेत्र तथा राजमहल उच्च भूमि के अतिरिक्त समस्त झारखण्ड में लाल मिट्टी पायी जाती है. मृदा का रंग लाल, इसमें उपस्थित लौह अयस्क के कारण होता है. सामान्यतः इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है. इसकी उर्वरा शक्ति कम होती है. स्थान एवं ऊँचाई के अनुसार इस मिट्टी का स्वरूप बदलता रहता है. फिर भी सामान्यतः बालू के मोटे कण और कंकर का पाया जाना इसकी एक सामान्य विशेषता है. यहाँ सीढ़ीदार खेतों का निर्माण कर ज्वार, बाजरा, सरगुजा आदि मोटे अनाजों की फसल उगाई जाती है.
लाल मिट्टी वाले प्रदेशों में स्थानीय शैलों के प्रभावस्वरूप अनेक स्थानीय प्रकार की मिट्टियों का विकास हुआ है. कोयला प्रधान गोण्डवाना युग की चट्टानों के प्रदेश में निम्न अम्लीय प्रकृति वाली मिट्टी पायी जाती है, जिसकी अन्य विशेषताएँ लाल मिट्टी के समान होती हैं.
> पीली मिट्टी
पलामू जिले के उच्च भूमि पर इस प्रकार की मिट्टी पायी जाती है. यह पलामू जिले के मध्यवर्ती क्षेत्र में बीच वाली निम्नस्तरीय कायान्तरित शैलों पर पायी जाती है. यह क्षारीय होती है. अतः सिंचाई की व्यवस्था कर अनेक फसलों की पैदावार सम्भव है.
> अभ्रक मूल की लाल मिट्टी
अभ्रकयुक्त शिष्ट चट्टानों के विघटन से कोडरमा तथा दक्षिण हजारीबाग के मान्डु के निकटवर्ती क्षेत्रों में इस विशिष्ट मिट्टी का विकास हुआ है. दोरख बलुआही से बलुआही प्रवृत्ति वाली यह मिट्टी अम्लीय दृष्टिकोण से उदासीन होती है. इस मृदा में पोटाश की मात्रा अधिक होती है. उर्वरता की दृष्टि से यह मिट्टी उत्तम है, किन्तु आवश्यक सिंचाई के अभाव में इसकी उत्पादकता कम हो जाती है. इसका विस्तार कोडरमा, झुमरी तिलैया, मान्डु एवं बड़कागाँव इलाके के चारों ओर फैले झारखण्ड के अभ्रक की पेटी में है. इस मिट्टी में कहीं-कहीं कोदो, कुरथी या सरगुजा की उपज होती है.
> कत्थई मिट्टी
इस प्रकार की मिट्टी की प्रधानता लौह अयस्क प्रधान क्षेत्रों में पाई जाती है. इसमें नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की कमी पाई जाती है. इसकी उर्वरता सीमित होती है. पहाड़ी एवं घाटियों के दोन वाले भाग में धान, कोदो, कुल्थी आदि फसलों की खेती की जाती है. यह मुख्यतः सिंहभूम के दक्षिणी क्षेत्रों पाई जाती है.
> लाल मिट्टी तथा कत्थई मिट्टी के मध्यवर्ती क्षेत्र की मिट्टी
इसका निर्माण लाल मिट्टी तथा लौह अयस्क क्षेत्र की कत्थई मिट्टी के मिश्रण से हुआ है. इसका रंग आर्द्र काले रंग की होती है. नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है. यह विषम जातीय मिट्टियाँ होती हैं.
> लैटेराइट मिट्टी
झारखण्ड में लैटेराइट मिट्टी या इस्टकीज मिट्टी पश्चिमी राँची, दक्षिणी पलामू का पाट क्षेत्र, राजमहल के पूर्वी भाग एवं दक्षिण-पूर्व सिंहभूम में मिलते हैं. इस मिट्टी का निर्माण रासायनिक निक्षालण एवं अल्मो-सिलिकेट के विघटन से हुआ है. इस मिट्टी में उर्वरता कम होती है. इनका रंग गहरा लाल होता है. इस मिट्टी में अल्यूमीनियम तथा लौह यौगिक उपस्थित रहते हैं, जो इसके रंग का निर्धारक होता है. यह कँकड़ीली एवं अम्लीय प्रवृत्ति की होती है. पूर्वी राजमहल की लैटेराइट मिट्टी धरातलीय लैटेराइट कोटि की है.
> काली मिट्टी
राजमहल के अलावा क्षेत्र में इस प्रकार की मिट्टी पाई जाती है. दक्कन ट्रैप की उत्पत्ति के समय झारखण्ड के इस हिस्से में लावा का प्रवाह हुआ. यहाँ की चट्टानें बेसाल्टिक हैं. अतः यहाँ की मिट्टी काले रंग की है. इस मिट्टी का निर्माण बेसाल्ट शैलों के विघटन से हुआ है. इसा क्षेत्र में जहाँ ग्रेनाइट पर मिट्टी का विकास हुआ, वहाँ की मिट्टी लाल मिट्टी के समान है. यह अत्यन्त उर्वरक मृदा होती है, जिसमें लोहा, चूना, मैग्नीशियम एवं एल्युमीनियम की प्रधानता होती है. इस मिट्टी में आर्द्रता काफी देर तक बनी रहती है. धान एवं चना इस मिट्टी की मुख्य फसलें हैं.
> मृदा संरक्षण
मृदा के ऊपरी परत में ही उर्वरता रहती है. जो मृदा संरक्षण द्वारा सर्वाधिक प्रभावित होती है. मृदा की उर्वरता को कायम रखने हेतु मृदा संरक्षण अनिवार्य है. मृदा क्षरण का मुख्य कारण – वनोन्मूलन, अनियन्त्रित पशुचारण, विकास मूलक कार्य हेतु खनन क्रिया, नूम खेती इत्यादि हैं. मृदा संरक्षण हेतु वानिकी पर जोर दिया जा रहा है. आदिवासियों को स्थायी कृषि करने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है. इस कार्य हेतु मानवशा स्त्रियों का सहयोग लेना अनिवार्य है. मृदा संरक्षण पर दामोदर एवं स्वर्ण रेखा परियोजना में विशेष ध्यान दिया गया. इसके अलावा विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में इस हेतु छोटी-छोटी योजनाएँ शुरू की जाती हैं.
> प्राकृतिक वनस्पति
बिहार से विभाजित इस प्रदेश का नामकरण, झारखण्ड यहाँ की वनस्पति की प्रकृति एवं बहुलता के कारण पड़ा है. यह प्रदेश न सम्पदा से एक सम्पन्न क्षेत्र रहा है, किन्तु आज यहाँ का वन झाड़झंखाड़ में बदल गया, अर्थात् झाड़ियों का प्रदेश रह गया है. अविभाजित बिहार में वनों का क्षेत्रफल 30,078 वर्ग किमी था, जो बिहार के कुल क्षेत्रफल का 17.3 प्रतिशत था. बिहार के कुल वन क्षेत्र का 77.3 प्रतिशत झारखण्ड क्षेत्र में फैला है. वन स्थिति रिपोर्ट 2017 के अनुसार झारखण्ड के 24 जिलों में वनों का क्षेत्रफल 23,553 वर्ग किमी है, जो झारखण्ड के कुल क्षेत्रफल का 29.55 प्रतिशत है. झारखण्ड में वनों का सर्वाधिक प्रतिशत लातेहर में 56.02 प्रतिशत एवं सबसे कम वन क्षेत्र जामताड़ा में 5.36 प्रतिशत है. इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2017 के अनुसार झारखण्ड में 2015 की तुलना में 29 किमी वन क्षेत्रों में बढ़ोत्तरी हुई है. कृषि प्रसार तथा उद्योगों की प्रगति के कारण इसके अधिकांश वन क्षेत्र नष्ट हो गये हैं.
> वनों का वर्गीकरण
इस राज्य की प्राकृतिक वनस्पति पर जलवायु का विशेष प्रभाव है. यहाँ जो वन पाये जाते हैं, उन्हें सालाना वर्षा की मात्रा, स्थलाकृति तथा अन्य स्थानीय परिस्थितियों के प्रभावानुसार विभाजित किया जाता है, जैसे- सामान्य रूप से 1200 मिमी औसत सालाना वर्षा की समवृष्टि रेखा, राज्य के पतझड़ वनों को क्रमशः आर्द्र पतझड़ वन तथा शुष्क पत झड़ वन जैसे दो प्रकारों में विभाजित करती है.
> आर्द्र पतझड़ वन
ऐसे वनों का विकास झारखण्ड के उन क्षेत्रों में हुआ है जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 1200 मिमी से अधिक होती है. पतझड़ काल लगभग तीन सप्ताहों ( मार्च के अन्त एवं अप्रैल के प्रारम्भ ) का होता है. इन वनों में सखुआ सबसे प्रमुख वृक्ष है. साल (सखुआ) के जंगल सर्वत्र पाये जाते हैं. फाइलाइट से युक्त चट्टानी क्षेत्रों में बाँस का विकास अधिक हुआ है, जबकि लावा निर्मित चट्टानी क्षेत्रों में बाँस का अभाव पाया जाता है. साल का सर्वाधिक विकास सिंहभूम के क्षेत्र में हुआ. निम्न एवं आर्द्र भू-भागों में अधिक ऊँचाई के कारण साल के वृक्षों का सघन विकास हुआ है, जबकि तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों, उच्च भूमि तथा पतली मिट्टी के क्षेत्रों में कम ऊँचाई वाले वृक्ष; जैसे – सलाई, ढाक, आँवला, पियार, बाँस आदि की प्रधानता है. इन क्षेत्रों में साल कभी-कभार ही दिखलायी पड़ती है. प्रायः सभी पेड़ों की प्रकृति; जैसे—गम्हार, अंजन, करेंज, केंटू, कुसुम, गूलर, पीपल आदि पतझड़ी है, किन्तु इस क्षेत्र में पाई जाने वाली कुछ वृक्षों की प्रकृति; जैसे—आम,
जामुन, पियार, कटहल, आदि सदाबहार भी हैं. इन इलाकों में अर्धसदाबहार झाड़ियाँ तथा अनेक प्रकार के घासों का विकास भी दिखलायी पड़ता है. पूर्वी संथाल परगना, सिंहभूम का अधिकांश भाग, नेतरहाट समवर्ती भाग, राँची का पूर्वी भाग, लोहरदग्गा का पश्चिमी एवं उत्तरी-पश्चिमी भाग, गुमला के उत्तरी-पश्चिमी भाग में आर्द्र पतझड़ वनों का विकास मुख्य रूप से हुआ है.
चित्र – झारखण्ड के वन क्षेत्र एवं प्रकार 
> शुष्क पतझड़ वन
जिन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 1200 मिमी से कम होती है वहाँ शुष्क पतझड़ वनों का विकास हुआ है. इन वनों में पतझड़ काल, आर्द्र पतझड़ वनों की तुलना में अधिक लम्बा तथा स्पष्ट होता है. यहाँ भी साल (सखुआ) की प्रधानता होती है, किन्तु इनकी ऊँचाई तथा सघनता कम पायी जाती है. अन्य वृक्षों में महुआ, अमलतास, खैर, आवनूस, पलास, बाँस, आसन आदि के वृक्ष भी पाये जाते हैं. घासों में सवई तथा कुश घास प्रमुख हैं. झारखण्ड के अधिकांश भागों में शुष्क पतझड़ वनों का विकास हुआ है, परन्तु पलामू तथा गढ़वा के अधिकांश भाग, झारखण्ड के उत्तरी-पश्चिमी भाग एवं अन्य आन्तरिक क्षेत्रों में इसकी प्रमुखता है.
वन की उपस्थिति का प्राकृतिक एवं पर्यावरणीय महत्व तो है ही यह आदिवासियों का जीवन आधार भी है. इस प्रदेश में वन सम्पदा के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि स्थिति संतोषप्रद नहीं है. अनियोजित खनन क्रिया, औद्योगीकरण, झूम कृषि के कारण वनकी विनाश की प्रक्रिया बढ़ती जा रही है. वनों की महत्ता को ध्यान में रखते हुए वन संरक्षण एवं प्रबन्धन अति आवश्यक है. वनों के वितरण में जिलेवार विषमता काफी अधिक है. राष्ट्रीय वन नीति, 1952 के अनुसार कुल क्षेत्रफल के कम-से-कम 33 प्रतिशत पर वनों का विस्तार होना चाहिए. झारखण्ड के 24 जिलों में सिर्फ चतरा (53 प्रतिशत), गिरिडीह ( 47 प्रतिशत), पलामू ( 44 प्रतिशत), गढ़वा (42 प्रतिशत), हजारीबाग तथा सिंहभूम ( 33 प्रतिशत) में वनों की स्थिति मानक स्तर के समरूप या अधिक है, जबकि धनबाद तथा बोकारो ( 4.4 प्रतिशत), साहेबगंज (2.4 प्रतिशत), देवघर ( 9.5 प्रतिशत), लोहरदगा (12.4 प्रतिशत), गुमला ( 16.9 प्रतिशत) एवं राँची (2.4 प्रतिशत) में वनों की स्थिति मानक स्तर से काफी नीचे है.
झारखण्ड के कुछ जिलों में वनों का प्रतिशतता मानक स्तर में ऊपर जरूर है, किन्तु वहाँ वनस्पति की प्रकृति झाड़ियों की है. अतः वन संरक्षण, वनरोपण, वृक्षारोपण का कार्य झारखण्ड के प्रायः सभी जिलों में कमोवेशी करना होगा.
सरकार इस ओर प्रयासरत् भी है. इसके लिए सरकार ने वन क्षेत्र को तीन वर्गों में बाँटा है – सुरक्षित वन, संरक्षित वन एवं अवर्गीकृत वन.
> सुरक्षित वन
ऐसे वन जलवायु के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होते हैं. इनका उद्देश्य मृदा संरक्षण, बाढ़ नियन्त्रण आदि है. इनमें पशुचारण तथा लकड़ी काटने पर निषेध रहता है. झारखण्ड में सुरक्षित वनों का क्षेत्रफल 4387-20 (10.58 प्रतिशत) वर्ग किमी है.
> संरक्षित वन
ऐसे वनों से सूखी लकड़ी काटने एवं पशुचारण की सुविधा प्रदान की जाती है. राज्य में संरक्षित वनों का क्षेत्रफल 19,184.78 (81-27 प्रतिशत) है.
अवर्गीकृत वन – इस प्रकार के वनों को स्वतन्त्र वन भी कहते हैं. ऐसे वनों के प्रयोग पर सरकारी प्रतिबन्ध नहीं होता. राज्य में अवर्गीकृत वनों का कुल क्षेत्रफल 33-49 (0.17 प्रतिशत) वर्ग किमी है.
> वनोन्मूलन का दुष्परिणाम
1. जलवायु में आर्द्रता का अभाव.
2. वर्षा की मात्रा में उत्तरोत्तर ह्रास.
3. मृदा क्षरण में तीव्रता आ जाती है.
4. कालान्तर में ईंधन की समस्या.
5. पशुओं के चारे में कमी की सम्भावना बढ़ जाती है.
6.वन-आधारित उद्योगों पर बुरा प्रभाव.
7. जनजातियों की जीवनचर्या प्रभावित होती है.
[विशेष विवरण हेतु पर्यटन एवं पर्यावरण अध्याय का भूमि प्रदूषण खण्ड देखें |

> मुख्य बातें

> स्थल के जिस परत पर पौधे पैदा हों वह परत मृदा कहलाती है.
> मृदाजनन में, पैतृक चट्टान (Parent Rocks) वनस्पति, जलवायु, उच्चावच आदि का महत्वपूर्ण स्थान होता है.
> झारखण्ड की मृदा में ग्रेनाइट एवं नीस के कणों की प्रधानता होती है.
> झारखण्ड की मृदा अति पुरातन है, जो इसकी अनुर्वरता का एक कारण है.
> यहाँ स्थानीय भाषा में उच्च भूमि की मिट्टी को टांड एवं निम्न भूमि को दोन कहा जाता है.
> टांड एवं दोन प्रकार की मिट्टियों को पुनः उप-विभाजित किया जाता है जिन्हें स्थानीय भाषा में बाला, लाल मटिया एवं रूंगड़ी तथा पकुआ, नगरा और खिनसी कहते हैं.
> झारखण्ड की मिट्टियों को सामान्य वर्गीकरण के तहत् लाल मिट्टी, पीली मिट्टी, कत्थई मिट्टी, लैटेराइट मिट्टी एवं काली मिट्टी में वर्गीकृत किया गया है.
> मृदा क्षरण से सबसे अधिक मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती है.
> मृदा संरक्षण के लिए, वृक्षारोपण, चरागाह की व्यवस्था, कृषि पद्धति में परिवर्तन जैसे कदम उठाना होगा.
> इस प्रदेश का नामकरण यहाँ की वनस्पति की प्रकृति के कारण पड़ा है.
> अविभाजित बिहार में वनों का क्षेत्रफल 30,078 वर्ग किमी था जो बिहार के कुल क्षेत्रफल का 17-3 प्रतिशत था.
> वनस्थिति रिपोर्ट 2015 के अनुसार, झारखण्ड के 29-45 प्रतिशत भाग में अर्थात् 23,478 वर्ग किमी में वन का विस्तार है.
> यहाँ वनों के विस्तार में काफी असमानता है. चतरा जिला में कुल क्षेत्रफल का 47-72 प्रतिशत भाग पर वन हैं, जो धनबाद में मात्र 6-74 प्रतिशत भाग पर ही वन का विस्तार है.
> राष्ट्रीय वन नीति, 1952 द्वारा तथा सीमा 33 प्रतिशत से भी कम वनविस्तार ·(29.61%) झारखण्ड जैसे पठारी राज्य में है.
> झारखण्ड के वनों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है
–आर्द्र पतझड़ वन,
– शुष्क पतझड़ वन.
> आर्द्र पतझड़ वन का विस्तार उन क्षेत्रों में है जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 1200 मिमी से अधिक है.
> झारखण्ड के आर्द्र पतझड़ वनों में साल सबसे प्रमुख वृक्ष है जो सर्वत्र पाया जाता है, किन्तु सिंहभूम के सारडा के जंगलों में इसकी प्रधानता है.
> झारखण्ड का शुष्क पतझड़ वन उन क्षेत्रों में उत्पन्न होता है, जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 1200 मिमी से कम है.
> शुष्क पतझड़ वनों में पाया जाने वाला प्रमुख वृक्ष साल (पखुआ) है.
> आर्द्र पतझड़ वनों का पतझड़ काल लगभग तीन सप्ताहों का ( मार्च के अन्त से अप्रैल के प्रारम्भ तक) होता है. शुष्क पतझड़ वनों का पतझड़ काल इससे लम्बा होता है.
> झारखण्ड में वन-विनाश की प्रक्रिया जारी रहने का कारण, खनन क्रिया, झूम कृषि, औद्योगीकरण इत्यादि है.
> वन संरक्षण हेतु सरकार यहाँ के वनों को तीन वर्गों में वर्गीकृत करसुरक्षित वन, संरक्षित एवं अवर्गीकृत वनसंरक्षण हेतु प्रयासरत् हैं.
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