डीवी के शिक्षा सम्बन्धी विचार की विवेचना करें ।

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प्रश्न – डीवी के शिक्षा सम्बन्धी विचार की विवेचना करें । 

उत्तर – डीवी के शिक्षा सम्बन्धी विचार (DEWEY’S EDUCATIONAL IDEAS ) शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)-डीवी ने शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “शिक्षा, अनुभवों के सतत् पुननिर्माण द्वारा जीवन की प्रक्रिया है। यह व्यक्ति में उन समस्त क्षमताओं का विकास है, जो उसको अपने वातावरण को नियन्त्रित करने एवं अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने के योग्य बनाती हैं।”

“Educational is the process of living through a continous reconstruction on of experiences. It is the development of all those capacities in an individual which will enable him to control his environment and fulfil his possiblities.”

” शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Education)-प्रयोजनवादी होने के नाते डीवी किसी पूर्वनिश्चित उद्देश्य में विश्वास नहीं करता है। डीवी का कथन है- “शिक्षा का सदैव तात्कालिक उद्देश्य होता है और जहाँ तक क्रिया शिक्षाप्रद होती है, वहाँ तक शिक्षा उस साध्य को प्राप्त करती है । ”

“Education has all the time an immediate and, and so far as activity is educative, it reaches that end.” -Dewey

डीवी ने सामाजिक दृष्टि से शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य अथवा सामाजिक कुशलता की प्राप्ति पर अधिक बल दिया है। उसके अनुसार सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति वह है, रजिसमें निम्नलिखित विशेषतायें हों –

(अ) आर्थिक कुशलता (Economic Effieciency) – जो व्यक्ति अपनी जीविका चलाने योग्य होता है तथा समाज पर भार नहीं बनता है, वह आर्थिक रूप से कुशल माना जाता है।

(ब) निषेधात्मक नैतिकता (Negative Morality) – व्यक्ति में अपनी उन आकांक्षाओं को त्यागने की क्षमता होती है, जिनकी पूर्ति दूसरों की आर्थिक कुशलता में बाधा उत्पन्न करती है ।

(स) स्वीकारात्मक नैतिकता (Positive Morality) – व्यक्ति में उन आकांक्षाओं को सन्तुष्ट होने से रोकने की क्षमता होती है, जिनके सन्तुष्ट होने से सामाजिक प्रगति को प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष रूप से कोई योगदान नहीं प्राप्त होता है। डीवी का विचार है कि सामाजिक कुशलता को प्राप्त करने के लिये बालक को सामाजिक प्रक्रियाओं में भाग लेने तथा सामूहिक क्रियाओं द्वारा अनुभव प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ।

पाठ्यक्रम (Curriculum)- डीवी ने पाठ्यक्रम के निर्धारण के लिये निम्नांकित सिद्धान्तों पर बल दिया है-

(i) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility) – डीवी का कथन है – “मनुष्य की मूलभूत सामान्य समस्यायें भोजन, निवास, वस्त्र, घर की सजावट और आर्थिक उत्पादन, विनिमय तथा उपयोग से सम्बन्धित हैं।” डीवी का विश्वास है कि इन्हीं समस्याओं को हल करना जीवन का उद्देश्य है । अतः पाठ्यक्रम में उन विषयों एवं क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिये, जो इन समस्याओं के समाधान में सहायता दें ।

(ii) रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest ) – डीवी के अनुसार, बालकों में चार प्रकार की रुचियाँ पाई जाती हैं; यथा – वार्तालाप एवं विचार-विनिमय में रुचि ( Interest in Conversation and Communication), में रुचि ( Interest Inquiry ), रचना की रुचि (Interest in Construction) तथा कलात्मक अभिव्यक्ति में रुचि ( Interet in Artistic Expression) | डीवी ने इन रुचियों के आधार पर पाठ्यक्रम में भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, सिलाई, बागवानी, ड्राइंग, कला, संगीत आदि को स्थान प्रदान किया है |

(iii) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity) – डीवी ने पाठ्यक्रम के ने निर्माण में क्रियाशीलता के सिद्धान्त पर बल दिया है। उसके अनुसार, पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं का समावेश होना चाहिये, जो बालक को अपने मूल्यों के निर्माण में सहायता प्रदान करें। डीवी (Dewey) ने लिखा है- “विद्यालय, समुदाय का अंग है। इसलिये यदि ये क्रियायें . समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्रहण कर लेंगी, तो ये बालक में नैतिक गुणों एवं पहलकदमी तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण का विकास करेंगी। साथ ही ये उसे नागरिकता का प्रशिक्षण देंगी और उसके आत्मानुशासन को ऊँचा उठायेंगी ।”

शिक्षण विधि (Method of Teaching) – डीवी ने परम्परागत शिक्षण विधियों का विरोध किया है। उसने शिक्षण की परम्परागत विधियों के विरोध में ऐसी विधियों पर बल दिया है, जिनमें बालक क्रिया द्वारा (Learning by Doing), स्वानुभव द्वारा (Learning by Self-experience), खोज द्वारा (Learning by Discovery ) तथा प्रयोग द्वारा ( Learning by Experimentation) सीखे | डीवी ने सीखने में प्रयोजन की एकता पर बल दिया है । उसका विचार है कि वह एकता बालकों के समक्ष पाठ्य-वस्तु को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने से प्राप्त की जा सकती है। वह इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान को ही उपयोगी मानता है । डीवी (Dewey) ने शिक्षण विधि के तर्क को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “विधि का अर्थ, विषयय-वस्तु की उस व्यवस्था से है जो उसको उपयोग के लिये सर्वाधिक प्रभावपूर्ण बनाती है । विधि विषय-वस्तु के प्रतिकूल नहीं होती है वरन् यह तो वांछित परिणामों की ओर विषय-वस्तु का प्रभावशाली निर्देशन है । ”

अनुशासन (Discipline)-डीवी अनुशासन की परम्परागत धारणा का विरोधी है । उसे बालक के आचरण को कृत्रिम साधनों द्वारा नियमित करने में कोई विश्वास नहीं है। उसने अनुशासन की स्थापना में सामाजिक जीवन के महत्त्व पर बल दिया हैं। विद्यालय में अनुशासन का अर्थ सामाजिक अनुशासन है । अतः डीवी सामाजिक अनुशासन में बालक की स्वाभाविक भावनाओं (Natural Impules) को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में है और बालक की स्वाभाविक भावनाओं को विद्यालय की सहयोगी क्रियाओं के माध्यम से अनुशासित करने का समर्थक है। उसका विचार है कि बालक इस प्रकार के प्रशिक्षण से अपने चरित्र का विकास करेगा, जो व्यक्तिगत एवं सामाजिक- दोनों ही रूपों में उपयोगी होगा । डीवी का विश्वास है कि यदि बालक की क्रियायें उद्देश्यपूर्ण हैं और उनको दूसरों के सहयोग एवं सम्पर्क पूर्ण किया जाता है, तो उसका अनुशासनात्मक प्रभाव होगा । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए डीवी (Dewey) ने लिखा है- “कार्य को करने से कुछ परिणाम निकलते हैं। यदि इन कार्यों को सामाजिक तथा सहयोगी ढंग से किया जाये तो इनसे अपने प्रकार का अनुशासन उत्पन्न होता है ।”

विद्यालय ( School) – डीवी ने विद्यालय को एक सामाजिक संस्था माना है। विद्यालय सामाजिक जीवन का वह रूप है, जिसमें वे समस्त क्रियायें केन्द्रित होती है, जिन्हें बालक ने मानव जाति से पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त किया है और जिसमें वह स्वयं सक्रिय भाग लेकर तथा अपना योगदान प्रदान करके समाज का हित करता है। अपने इस विचार को स्पष्ट करते हुए डीवी (Dewey) ने लिखा है। – “विद्यालय एक सामाजिक संस्था है। क्योंकि शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है, इसलिये विद्यालय सामाजिक जीवन का केवल वह रूप है, जिसमें वे समस्त साधन केन्द्रित होते हैं, जो बालक को प्रजाति की पैतृक सम्पत्ति में अपना भाग प्राप्त करने तथा उसे अपनी शक्तियाँ को सामाजिक हितों के लिये उपयोग में लाने के लिये तैयार करते हैं । ”

शिक्षक का स्थान (Place of Teacher) – डीवी, प्रकृतिवादियों की भाँति शिक्षक के दायित्वों को कम नहीं करता है। वह शिक्षक से अपने छात्रों को उचित समस्याओं वाली परिस्थितियों में रखने की आशा करता है, ताकि वे अपने मूल्यों का निर्माण कर सकें। इसके अतिरिक्त, वह यह भी आशा करता है कि शिक्षक-छात्रों की रुचियों को इस प्रकार प्रेरित करें कि वे समस्याओं को कुशलता, बुद्धिमानी तथा सहयोग से हल कर सकें। अतः शिक्षक, सामाजिक वातावरण के निर्माता के रूप में होता है। इसलिये डीवी ने शिक्षक को कुशल तक्षक (Master Carpenter) की संज्ञा दी है । डीवी ने अपने ग्रन्थ ‘एजूकेशन ऑफ टुडे’ (Education of Today) में शिक्षक के स्थान को इन शब्दों में अंकित किया है- “शिक्षक सदैव परमात्मा का पैगम्बर होता है । वह परम्पात्मा के सच्चे राज्य में प्रवेश कराने वाला है।”

“The teacher is always a prophet of true God. He leads to the true kingdom of God.”   – Dewey

आज हम शिक्षा में जिन नवीन विचारों एवं प्रवृत्तियों – ‘नवीन शिक्षा’ (New Education), ‘प्रगतिशील शिक्षा’ (Progressive Education), ‘क्रियात्मक विद्यालय’ (Activity School), ‘क्रिया-प्रधान पाठ्यक्रम’ (Activity Curriculum) तथा ‘संगठित इकाई’ (Integrated Unit) आदि को देखते हैं, ये सब डीवी के विचारों का ही परिणाम है। उसने अपने क्रान्तिकारी विचारों द्वारा ज्ञान प्राप्ति की प्राचीन विधियों के आकर्षण को विकर्षण में परिवर्तित करके, शिक्षा को आधुनिक जीवन की वास्तविकताओं के वातावरण में व्यवस्थित रूप प्रदान किया है। उसकी इन सेवाओं के प्रति जन-जन का आभार अभिव्यक्त करते हुए रस्क (R.R. Rusk) ने लिखा है- “हम शिक्षा में डीवी की उन महान सेवाओं के लिये अत्यधिक आभारी हैं, जिनके द्वारा उसने ज्ञान के प्राचीन एवं प्राणहीन आदर्शों के संग्रह को चुनौती दी और शिक्षा को आधुनिक जीवन की वास्तविकताओं के अधिक अनुकूल बनाया।”

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