नवजात शिशु के संवेदनात्मक विकास पर प्रकाश डालें।

प्रश्न – नवजात शिशु के संवेदनात्मक विकास पर प्रकाश डालें।
उत्तर- जब बच्चा उत्पन्न होता है, तो उसमें उस समय शक्ति और क्रियाओं की संख्या सीमित रहती है। यद्यपि अनेक मनोवैज्ञानिकों ने यह माना है कि गर्भस्थ शिशु में भी कई प्रकार की क्रियाओं की संख्या में वृद्धि होती है। गर्भ मे बच्चा सीमित वातावरण में रहता है किन्तु जन्म के बाद उसे असीमित वातावरण में आकर अनेक क्रियाएँ सीखनी पड़ती हैं। जन्म के समय वह बिल्कुल असहाय एवं अपनी प्रत्येक जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। जैसे-जैसे उसकी उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे वह आत्मनिर्भर होता चला जाता है।
नवजात शिशुओं की विभिन्न शक्तियों के विषय में मनोवैज्ञानिकों को अनेक विचारधाराएँ हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु एवं बड़े एक समान होते हैं क्योंकि शिशु बड़े व्यक्ति की परछाई होता है। उसमें बड़ों की सभी प्रतिक्रियाएँ अपूर्ण रूप से विद्यमान होती हैं किन्तु यह विचारधारा कई कारणों से अमान्य है। दूसरी विचारधारा के अनुसार नवजात शिशु सहज क्रियाओं (Reflex actions) का पुंजमात्र है। अतः उसमें सरल एवं जटिल क्रियाओं को करने की क्षमता रहती है। परन्तु व्यवहारवादियों को यह मत अमान्य है। तीसरे पक्ष का कहना है कि शिशु पहले सामान्य क्रियाएँ करना सीखते हैं और बाद में विशिष्ट क्रियाएँ। यही सिद्धान्त बहुसंख्यकों के लिए मान्य है। इनके अनुसार बच्चे की विभिन्न प्रतिक्रियाओं को दो श्रेणियों में बाँटकर उनका अध्ययन किया गया है।
1. ज्ञानात्मक विकास (Sensory Development)
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने नवजात शिशु की ज्ञानात्मक क्षमता की परीक्षा की है किन्तु सबमें मतैक्य नहीं है और कौन-कौन-सी ज्ञानात्मक क्षमताएँ हैं, उनका पता लगाना भी कठिन है। संवेदना सम्बन्धी अध्ययन अन्तर्निरीक्षण विधि (introspective method) द्वारा होता है, जिसका प्रयोग शिशुओं पर नहीं किया जा सकता। इसके विषय में जितने भी प्रयोग किए गए हैं, उनमें शिशुओं की संवेदनशीलता (sensitiveness) का पता उनकी ज्ञानेन्द्रियो के उत्तेजित किए जाने पर उनके द्वारा की गई शारीरिक प्रतिक्रिया (motor response) के आधार पर ही लगाया जाता है। अर्थात् उपयुक्त उत्तेजना से ज्ञानेन्द्रिय-विशेष को उत्तेजित किए जाने पर जब शिशु में कोई शारीरिक क्रिया होती है तो पता चलता है कि शिशु में उस उत्तेजना – विशेष को ग्रहण करने की क्षमता है या नहीं। शिशु की ज्ञानेन्द्रियाँ जन्म या उसके थोड़े समय के बाद कार्य करने लगती है किन्तु वे वयस्कों के समान नहीं होती। अन्य उत्तेजनाओं की अपेक्षा स्पर्ष उत्तेजना के प्रति बच्चा ज्यादा सक्रिय प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। पिटर्सन एवं रेनी (Peterson and Rainey) ने अपने अध्ययन में बताया है कि 7 महीने के बाद जन्म लेनेवाले बच्चे विभिन्न ज्ञानात्मक उत्तेजनाओं के प्रति 9 महीने के बाद जन्म लेनेवालों बच्चों के समान ही प्रतिक्रिया करते हैं। पाइपर (Peiper) ने भी इस बात का समर्थन किया है कि बच्चे में जन्म के पूर्व से ही संवेदनशीलता वर्तमान रहती है। बच्चों में निम्नलिखित ज्ञानात्मक योग्यताएँ पाई जाती हैं : –
(i) दृष्टि संवेदना ( Visual sensation) — इस बात का ज्ञान हो चुका है कि बच्चे गर्भ में कई तरह की प्रतिक्रियाएँ करते हैं किन्तु जन्म होने पर उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक परिपक्व एवं सबल हो जाती हैं। जन्म के बाद सबसे पहले बच्चे में दृष्टि संवेदना होती है। वह प्रकाश एवं अंधेरे में विभेद कर सकता है। प्रेयर (Preyer) का कथन है कि बच्चा सामान्य प्रकाशं में आनंद, कड़े प्रकाश में कष्ट एवं कम आनंद का अनुभव करता है। उसे सर्वप्रथम संवेदना का ही अनुभव होता है, प्रत्यक्षीकरण (perception) का नहीं। प्रारम्भ में वह अपनी दृष्टि नियंत्रित नहीं कर पाने के कारण आँख स्थिर नहीं रख सकता। नौ दिनों तक ऐसी ही स्थिति होती है पर ग्यारह दिनों बाद वह वस्तु – विशेष पर दृष्टि स्थिर रख सकता है परन्तु रंग-विभेद नहीं कर सकता। धीरे-धीरे उसकी इस क्षमता में वृद्धि होती है । इरविन, वेस, रेडफील्ड (Irwin, Weiss, Redfield) आदि ने भी इस बात का समर्थन किया है। स्मिथ (Smith) ने बताया है कि बच्चे रंगों से प्रभावित होते हैं। शरमन ने बताया कि यदि एक नवजात शिशु की आँखों को किसी अत्यधिक तीव्र प्रकाश से उत्तेजित किया जाय तो उनकी आँखों में टकटकी बंध जाती है और आँखें स्थिर (fixed) हो जाती है। जब किसी प्रौढ़ की नजर किसी गतिशील चीज को देखती है तो वह धीरे-धीरे उसकी तरफ घूमती रहती है। तत्पश्चात जिस दिशा में वस्तु घूम रही होती है, उसकी विपरीत दिशा में घूम जाती है। इसे ऑपटिक निजटैगमस (Optic nystagmus) कहते हैं। किसी गतिशील वस्तु को बच्चे के सामने रखने पर बच्चा भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया दिखाता है। तीसरे या चौथे सप्ताह से लेकर छठे सप्ताह तक बच्चे गतिशील वस्तुओं का अनुसरण कर पाते हैं। शिशुओं में रंग-ज्ञान ( colour sense) अपूर्ण रूप से विकसित रहता है। जैसे-जैसे शिशु की उम्र में वृद्धि होती है, इस क्षमता में विकास एवं सुधार होता ही जाता है। कनेस्ट्रीनी (Canestrini) का कहना है कि नवजात शिशु विशिष्ठ रंगों के प्रति विशिष्ठ प्रतिक्रियाएँ नहीं करते पर छः से नौ दिनों के शिशुओं में प्रकाश के प्रति भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ देखी गई हैं।
(ii) श्रवण संवेदना ( Auditory sensation) – नवजात शिशु के ध्वनि ज्ञान के सम्बन्ध में अनेकानेक प्रयोग किए गए हैं किन्तु मतैक्य नहीं है। परन्तु सबका ऐसा मानना है कि बच्चे की श्रवण क्षमता, दृष्टि क्षमता की अपेक्षा कम विकसित होती है। नवजात शिशु जन्मोपरान्त ध्वनि की प्रतिक्रिया करता है या नहीं, इसमें मतभेद है। कुछ विद्वानों का मत है कि जन्म लेने के बाद कई घंटों तक किसी प्रकार की ध्वनि नहीं सुन सकता। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद आकस्मिक ध्वनि, सीटी आदि की आवाज पर आँख घुमाना, रोना बंद करना, हाथ-पैर चलाने आदि की क्रियाएँ करने लगता है। अपने अध्ययनों के आधार पर ब्रायन का कहना है कि दो दिनों के बच्चे नहीं सुनते किन्तु तीसरे दिन बहुत से बच्चे सुनने लगते हैं। औसत शिशुओं में जन्म के दो सप्ताह या इससे भी अधिक बाद तक उनमें ध्वनि के प्रति कोई सार्वजनिक तथा एक ही तरह की प्रतिक्रियाएँ नहीं पाई जातीं। शिशु कैसी प्रतिक्रिया करेगा, यह ध्वनि की तीव्रता (intensity) पर निर्भर करता है। विकास के दृष्टिकोण से सभी प्रकार की संवदेनाओं में शिशु के जन्म के समय ध्वनि-संवेदना सबसे कम विकसित होती है। स्टब्स (Stubbs) का कहना है कि नहीं सुनने का कारण उत्तेजना (stimulus) की तीव्रता, सत्ताकाल आदि हो सकता है। प्रकाश उत्तेजना के समान ध्वनि- उत्तेजना के प्रति भी पहले शिशु अपने सम्पूर्ण शरीर से प्रतिक्रयाएँ या सामूहिक प्रतिक्रियाएँ (mass activities) करता है। कई मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोग द्वारा पता लगाया है कि बच्चों में ध्वनि-संवदेना उत्पन्न करने वाली उत्तेजनाओं में मुख्य हैं— एकाएक जोरों की आवाज तथा तीक्षण ध्वनियाँ। पिटर्सन एवं रेनीने शरीर को ऐंठने या इसी तरह की प्रतिक्रिया शिशुओं में ध्वनि-उत्तेजना के प्रति जन्म के प्रथम सप्ताह के भीतर होती हुई पाई । अतः इस सम्बन्ध में किए गए सभी प्रयोगात्मक अध्ययनों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं:-
(क) उत्तेजनाओं के अत्यधिक तीव्र होने पर जन्म के समय भी शिशु में सुनने की क्रिया पाई जाती है।
(ख) जन्म के प्रथम ग्याहर दिनों के भीतर ध्वनि – कुशलता (auditory acuity) में काफी प्रगति होती है तथा
(ग) उपयुक्त ध्वनि उत्तेजनाओं ( effective anditory stimuli) में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: :
तीव्रता (Loudness), आकस्मिकता (suddenness), अल्पावधि (Short-duration)
तथा पुनरावृत्ति (repetition) । किन्तु ध्वनि बढ़ा देने पर शिशु पर इसका उल्टा असर पड़ता है।
(iii) स्वाद संवेदना (Sensation of taste)– नवजात शिशु के स्वाद सम्बन्धी ज्ञान के परीक्षण के लिए अनेक प्रयोग किए गए हैं जिनसे पता चलता है कि उनमें स्वाद भिन्नता (taste difference) समझने की योग्यता मौजूद होती है तथा यह ध्वनि एवं दृष्टि ज्ञान से अधिक तीव्र होती है। कुसुमाल ने बीस बच्चों को प्रयोग हेतु चीनी और कुनैन का रस दिया। ये सारे बच्चे एक दिन के थे। प्रयोग के दौरान उन्होंने पाया कि चीनी का रस देने पर उसे आँख बंद कर निगल लेते थे और कुनैन का रस देने पर उसे उगलने की कोशिश करते थे। जेनसेन ने खट्टे, मीठे, कड़वे और नमकीन द्रवों के साथ जो प्रयोग बच्चों पर किया, उससे स्पष्ट है कि मीठे, खट्टे और कड़वे फलों को चूसने की प्रतिक्रिया में कोई अंतर नहीं मिला किन्तु नमकीन द्रव की प्रतिक्रिया में असाधारण अंतर स्पष्ट हुआ । शर्ली (Shirley) ने पाया कि खट्टे, नमकीन तथा तीते (Bitter) उत्तेजनाओं के प्रति शिशु में इन्हें अस्वीकार करने की प्रतिक्रिया पाई जाती है। पिटर्सन एवं रेनी ने पाया कि उनके द्वारा अध्ययन किए गए 1000 बच्चों में से करीब 800 ने जन्म के एक सप्ताह के भीतर ही स्वाद संवेदनाओं के प्रति विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ की तथा बाकी ने दो सप्ताह के बाद । चीनी और नमक के प्रति साधारणतः वे सह-प्रतिक्रियाएँ (positive reactions) और खट्टे तथा तीते के प्रति निषेधात्मक (negative reactions ) करते थे।
(iv) ध्राण संवेदना (Olfactory Sensation) – नवजात शिशु के ध्राण ज्ञान (olfactory sense) के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में मतभेद हैं। कुछ लोगों का कथन है कि जन्म के समय उनकी घ्राणेन्द्रियाँ परिपक्व होती हैं, किन्तु कुछ लोग इससे सहमत नहीं हैं। टेलर (Taylor), जोन्स (Jones), प्रैट (Pratt), नेलसन (Nelson) आदि विद्वानों ने नवजात बच्चों पर विभिन्न प्रकार के गंधों के साथ जो प्रयोग किए गए, उन आधारों पर मत दिया कि गंधों के द्वारा उत्तेजित करने पर स्पर्श के कारण बच्चों में विभिन्न प्रतिक्रियाएँ हुई, गंध के कारण नहीं। डीशर (Disher) ने अपने प्रयोग के आधार पर बच्चों पर विविध गंधों का प्रयोग किया और बताया है, कि बच्चों को गंध-ज्ञान रहता है किन्तु यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि वे विभिन्न प्रकार के गंधों के अंतर को जानते हैं या नहीं। स्टर्न (Stern) ने जब रोते हुए बच्चों को दूध या अन्य सुगन्धित चीजें दीं तो वे चुप हो गए। इस प्रकार हम पाते हैं कि इस सम्बन्ध में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का एक मत नहीं है किन्तु इन्हीं प्रयोगों के आधार पर हम कह सकते हैं कि जन्म के बाद से ही बच्चों में ध्राण- संवेदना की योग्यता विद्यमान रहती है, भले ही उन्हें गंध-भेद का ज्ञान न हो । प्रयेर (Preyer) का कहना है कि माँ के स्तन पर जैसी गंध की रगड़ देने पर शिशु इसे जागृत या सुप्तावस्था दोनों में ग्रहण करने में हिचकते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति भी जो शिशुओं की प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वे गंध-उत्तेजनाओं (smell stimulus) के प्रति नहीं होती वरन् स्पर्श उत्तेजना (tactual stimulus) के कारण होती है। इस विचार का पुष्टीकरण टेलर और जोन्स (Taylor and Jones) ने किया। सुप्तावस्था में बच्चों की नाक को अमोनिया (Amonia) से उत्तेजित करने पर उनमें उछलने, सिर पीछे घुमाने, चिल्लाने आदि की क्रियाएँ दिखाई पड़ी। जाग्रतावस्था में शिशुओं को इसी गैस से उत्तेजित करने पर उनमें सिर घुमाने, रोने, चेहरा रगड़ने और छींकने की क्रिया दिखाई पड़ती है। इन सभी व्यवहारों से, विशेषकर छींकने की क्रिया (Sneezing) से स्पष्ट है कि इन सब प्रतिक्रियाओं का कारण स्पर्श उत्तेजना (tactual stimulation) ही थी न कि गंध उत्तेजना (clafactory stimulus)।
(v) त्वक – संवेदना (Skin sensitivity) – स्पर्श (touch), दबाव ( pressure), ताप (Temperature) तथा पीड़ा (Pain) आदि त्वक – संवदेनशीलता (skin sensitiveness) शिशु में जन्म से या जन्म के थोड़ी देरे बाद से पाई जाती है। त्वक – संवेदना के अन्तर्गत शीतोष्ण (thermal), पीड़ा तथा स्पर्श-संवदेनाओं की परिगणना होती है। प्रेयर (Preyer) ने जब एक दिन के शिशु को गर्म पानी से नहलाया गया तो उसे अच्छा महसूस हुआ किंतु ढंडे पानी से नहलाने पर उसकी प्रतिक्रिया उसके कष्ट को प्रदर्शित करती थी। अपने प्रयोगों के आधार पर क्रुडेन (Crudden) और कोफ्का (Koilka) का भी यही कथन है कि नवजात शिशुओं में शीतल और उष्ण जल की संवेदनशीलता की शक्ति विद्यमान होती है। कुसुमाल के प्रयोग से भी यह पता चलता है कि बच्चों की जीभ के अंश पर किसी चीज से स्पर्श करने पर उनमें चूसने की प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है पर पीठ के नीचे स्पर्श करने पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया परिलक्षित नहीं होती। छ: दिनों के बाद बच्चों में जिह्व स्पर्श एवं चूसने की प्रतिक्रिया ज्यादा विकसित थी। कुछ बच्चों में स्पर्श पर होनेवाली प्रतिक्रिया प्रथम दिन से ही थी अतः स्पर्श योग्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
अबतक के प्रयोगात्मक अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बच्चों में जन्मोपरान्त पीड़ा की संवेदना नहीं होती किन्तु कुछ समय बाद वे पीड़ा महसूस करने लगते हैं। डीयरबार्न (Dearborn) का कहना है कि 79 दिनों के बाद बच्चों को पीड़ा का अनुभव नहीं होता किन्तु डाकरे (Dockeray) और राइस का कथन है कि एक बार पीड़ा को उत्तेजना से उत्तेजित करने पर नवजात बच्चे ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं की किन्तु पाँच घंटे बाद जब उसे उत्तेजित किया गया तो उसमें बेचैनी की प्रतिक्रिया देखी गई। इस तरह की प्रतिक्रिया का कारण बताना सम्भव नहीं किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि बच्चों में पीड़ा का ज्ञान स्पर्श ज्ञान के बहुत बाद होता है ।
(vi) अन्तरावयव संवेदना (Organic sensation) — आंतरिक पीड़ा चाहे वह किसी कारण से हो, अन्तरावयव संवेदना कहलाती है। यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि शिशु में जन्मकाल से ही भूख तथा प्यास संबंधी अन्तरावयव संवेदना विद्यमान रहती है। कुसुमाल तथा प्रेयर आदि विद्वानों का कहना है कि जब बच्चे को भूख या प्यास लगती है तो वह अपने मस्तक को इधर से उधर करता, रोता या चूसने की प्रतिक्रिया करता है जो उसकी बेचैनी को प्रकट करती है। पर इस संवेदना को अनुभव करने के समय में व्यक्तिगत भिन्नता (individual difference ) होती है। भूख के समय होने वाली आँतों की सिकुड़न (contraction) जन्मकाल से ही होती है तथा वयस्कों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता एवं तीव्रता से होती है। कार्लसन एवं जिन्सवर्ग ने नवजात शिशुओं पर किए गए अध्ययन द्वारा सिद्ध किया है कि पेट में खाना जाने से पूर्व ही उनके पेट में सिकुड़न होने लगती है। कुछ बच्चे चार-पाँच घंटे के बाद भूख का अनुभव करते हैं तथा कुछ कई घंटों के बाद इसका अनुभव करते हैं।
सारांशत: शिशु में हर तरह की नात्मक शक्तियाँ दो सप्ताह के अंदर परिलक्षित होती हैं किन्तु सभी की क्षमता एक समान नहीं होती। न ही वे पूर्ण रूप विकसित रहती हैं बल्कि उनका विकास काल-क्रमेण अनुभव (experience) से होता है।
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