न्यायिक पुनरीक्षण से आपका क्या अभिप्राय है? भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘मूल ढाँचे’ के सिद्धान्त का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।

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प्रश्न – न्यायिक पुनरीक्षण से आपका क्या अभिप्राय है? भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘मूल ढाँचे’ के सिद्धान्त का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
उत्तर –  न्यायिक समीक्षा की शक्ति न्यायपालिका को प्राप्त वह शक्ति है। जिसके तहत वह संविधान तथा विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की जाँच अथवा पुनर्व्याख्या करता है और वह ऐसे किसी भी विधि को लागू करने से इन्कार कर सकता है, अथवा उसके उन प्रावधानों को अविधिमान्य घोषित कर सकता है, जो संवैधानिक प्रावधानों से असंगत हो। न्यायिक समीक्षा को विधायी कार्यों की समीक्षा, न्यायिक फैसलों की समीक्षा और प्रशासनिक कांरवाई की समीक्षा के रूप में तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसलिए शक्तियों को संतुलन को बनाए रखना, मानव अधिकारों, मौलिक अधिकारों और नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा को सुनिश्चित करना भी जजों (न्यायाधीशों) का कर्त्तव्य है।

सर्वप्रथम केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने संविधान में मूल ढाँचे का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उच्चतम न्यायलय ने इस संदर्भ में यह निर्णय दिया की संसद मूल अधिकार समेत संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, परंतु मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती है। हालाँक मूल ढाँचे को उच्चतम न्यायालय द्वारा अभी तक परिभाषित नहीं किया जा सका है।

न्यायपालिका की बढ़ती हुई सक्रियता से कार्यपालिका और विधायिका के साथ उसके टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। झारखंड के मामले में एनडीए की याचिका पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के बाद विधायिका एवं न्यायपालिका के अपने कार्य क्षेत्रों को लेकर बहस छिड़ गई है। न्यायपालिका ने कार्यपालिका के कार्य क्षेत्र मे भी बढ़कर हस्तक्षेप किया है। इस संबंध में उसके द्वारा पर्यावरणीय मामलों में अपने निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करना, आपराधिक मामलों में जांच के विभिन्न निर्देश तथा विभिन्न प्रकार की नियुक्तियों में उसके द्वारा हस्तक्षेप न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पास्परिक संतुलन को प्रभावित करता है।

वर्तमान संदर्भ में मूल ढांचे के सिद्धान्त के द्वारा संसद की शक्तियां सीमित तथा न्यायपालिका की शक्तियां विस्तृत हुई हैं। वस्तुतः संसद द्वारा किए गए संशोधनों पर अंतिम रूप से न्यायपालिका मूल ढांचे के सिद्धान्त के तहत रोक लगा सकती है। न्यायपालिका का मत है कि उसके द्वारा मूल ढांचे के सिद्धान्त के माध्यम से संसद की शक्तियों को सीमित करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। वस्तुतः यह संसद द्वारा प्रयुक्त मनमानापूर्ण संशोधन की शक्तियों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न है।

न्यायिक सक्रियता का परिणाम संवैधानिक संस्थाओं के ढांचे को नुकसान व असंतुलित कर संविधान का पुर्नलेखन नहीं होना चाहिए। यह स्पष्ट है कि सरकारी तंत्र न्यायधीशों द्वारा नहीं चलाया जा सकता है, न्यायालय प्रशासक का स्वरूप नहीं ले सकता परंतु यह भी स्पष्ट है कि कोई भी संस्था यदि संविधान के विपरीत कार्य करेगी या आवश्यकताओं को व्यवहारिक रूप नहीं देगी तो न्यायालय की सहायता ली जा सकेगी। सदिग्ध व असंवैधानिक गतिविधियों को रोका जा सकता है।

आधारभूत ढांचे का सिद्धान्त अपूर्ण एवं अपरिभाषित है। अतः यह न्यायाधीशों के निजी निर्णय का विषय है। न्यायाधीशों के किसी विषय पर मतभेद होने की स्थिति में किस न्यायाधीश के निर्णय को वरीयता दी जाए ऐसा समस्या उत्पन्न हो सकती है। केशवानंद भारती मामले में दिए गए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के प्रमुख आधारभूत तत्वों को उजागर किया है जो निम्नक्त हैं-

  1. संविधान की महत्ता
  2. सरकार का लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक स्वरूप
  3. संविधान का धर्मनिरपेक्ष होना।
  4. न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका के बीच शक्ति का पृथकीकरण ।
  5. संविधान का संघवादी स्वरूप।

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