पंडित जवाहर लाल नेहरू का जीवन परिचय व इतिहास | Jawaharlal Nehru Biography history In Hindi
पंडित जवाहर लाल नेहरू का जीवन परिचय व इतिहास | Jawaharlal Nehru Biography history In Hindi
जवाहर लाल नेहरू का जीवन एवं परिवार परिचय
जीवन परिचय बिंदु | जवाहरलाल नेहरु जीवन परिचय |
पूरा नाम | पंडित जवाहरलाल नेहरु |
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म कब हुआ | 14 नवम्बर 1889 |
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म कहाँ हुआ था | इलाहबाद, उत्तरप्रदेश |
माता-पिता का नाम | स्वरूपरानी नेहरु, मोतीलाल नेहरु |
पत्नी | कमला नेहरु (1916) |
बच्चे | इंदिरा गाँधी |
पंडित जवाहरलाल नेहरू का मृत्यु कब हुआ | 27 मई 1964, नई दिल्ली |
1889 में जब जवाहरलाल का जन्म हुआ, उस समय भारत को ब्रिटिश शासन के अधीन हुए सौ साल हो चुके थे। मोतीलाल बहुत चाहते थे कि हमारा देश आजाद हो जाये। लेकिन वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनके बेटे के जीवनकाल में ही भारत आजाद हो जायेगा और प्रजातांत्रिक गणराज्य बन जायेगा ।
मोतीलाल का परिवार कश्मीर से आया था और अनेक जोखिम भरे अनुभवों से गुजरते हुए आगरा में बस गया था। इसी शहर में मोतीलाल ने स्कूल और कालेज की पढ़ाई शुरू की। वे बचपन में शरारती थे। पढ़ाई की बजाय उनका मन खेल-कूद में ज्यादा लगता था। उनका दिमाग तो तेज था लेकिन स्नातक होने से पहले ही उन्होंने कालेज छोड़ दिया।
मोतीलाल महत्वाकांक्षी थे और अमीर बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण की क्योंकि वकालत में खूब धन कमाया जा सकता था। उन्होंने खूब मेहनत की और उन्हें वकालत की परीक्षा में स्वर्ण-पदक मिला। वे एक सुप्रसिद्ध वकील बन गये।
मोतीलाल को यूरोपीय तौर-तरीके पसंद थे। उन्होंने पारंपरिक भारतीय वेश-भूषा छोड़ दी और कोट-पतलून-टाई पहनना शुरू कर दिया। वे चाकू-कांटे से यूरोपीय खाना भी खाने लगे। जवाहरलाल उस समय के फैशनवाले कपड़े पहनने लगे – घुटने पर बटनवाली तंग पतलून, चौड़े कालर वाला मखमल का जैकेट, और धूप में खेलते समय, पीठ पर झूलते रिबनवाला स्ट्रॉ का हैट।
जब मोतीलाल इलाहाबाद में प्रेक्टिस करने लगे तो उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में खूबसूरत भवन बनाया, जहां खासकर अंग्रेज ही रहते थे। इस भवन का नाम रखा गया – आनंद-भवन, जिसमें टेनिस-कोर्ट, तरण-ताल और बहुत बड़ा बगीचा भी था । प्रबंध के लिए कई नौकर और माली थे ताकि उस भव्य भवन का रखरखाव ठीक से हो सके। यही वह राजसी भवन था जहां जवाहरलाल ने अपना बचपन बिताया।
इस भवन की शान-शौकत और नौकर-चाकरों तथा माता-पिता के आशीष-प्यार के बावजूद जवाहरलाल घर में अपने आपको अकेला ही महसूस करते। बचपन के पहले ग्यारह वर्ष तक घर में वे ही एकमात्र बच्चे थे। उनके पिता ने घर में ही आया और शिक्षक का प्रबंध कर दिया था। वे स्कूल नहीं गये, और न ही हमउम्र बच्चों से दोस्ती की। उनके एकमात्र सच्चे साथी थे मुंशी मुबारक अली जो उनके पिता के दफतर में क्लर्क थे। बालक जवाहरलाल जब कभी उदास होते या कोई कठिनाई आ जाती तो केवल उनके पास ही जाते थे। मुंशी मुबारक अली एक अच्छे किस्सा-गो थे । जवाहरलाल उनके पास घंटों बैठे कहानियां सुना करते थे। वे कहानियां अरेबियन नाइट्स की या पौराणिक कहानियां ही नहीं होती थीं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं की, युद्ध और बहादुरी की, राजाओं, दरबारियों और राज्य कौशल की भी थीं। उन्होंने अपने परिवार और पूर्वजों के अतीत को भी जाना जो राजा-महाराजाओं की राज्यसभा में ऊंचे पदों पर थे, और अपने दादा, गंगाधर नेहरू के बारे में भी जाना जो दिल्ली के कोतवाल थे।
जवाहरलाल की नीरस जिंदगी के बीच समय-समय पर ऐसे तीज-त्यौहार आते रहते थे जब आनंद के साथ ही चहल-पहल भी आ जाती थी। एक बार उन्होंने होली के अवसर पर अपनी बुआ को, जो साफ सफेद साड़ी पहने थीं, होली के हुड़दंगियों की शिकायत करते सुना। जवाहरलाल उन्हें गले लगाने के बहाने उनकी गोद में चढ़ गए और उनके चेहरे पर गुलाल मल दिया। ईद के मौके पर वे तैयार होकर मुंशीजी के घर जाते और वहां सिवैयां तथा स्वादिष्ट चीजें खाते।
शादी-विवाह भी उनके लिए आनंद के अवसर होते थे, खासकर जब वे इलाहाबाद से दूर होते। एक तो यात्रा का मजा और फिर कुछ दिनों के लिए अपने रिश्ते के बच्चों के साथ रहने का आनंद। ये कुछ ऐसे मौके थे जब जवाहरलाल को वे साथी मिल जाते थे जिनके कारण उनका अकेलापन कम हो जाता था।
जवाहरलाल को अपनी सालगिरह का इंतजार रहता था, जब वे सबके लिए आकर्षण का केंद्र बन जाते थे। सुबह-सवेरे उन्हें गेहूं और सिक्कों से तोला जाता था और ये चीजें गरीबों में बांट दी जाती थीं। उन्हें नये कपड़े पहनाये जाते थे और माता-पिता, परिवार के लोग और मित्र उन्हें उपहार देते। उस अवसर पर शाम को एक पार्टी होती जिसमें सैकड़ों लोगों को आमंत्रित किया जाता। जवाहरलाल को केवल एक बात की शिकायत थी कि सालगिरह साल में एक बार ही क्यों आती है।
उन्हें अपने मुंडन संस्कार और यज्ञोपवीत संस्कार भी हमेशा याद रहते थे। उन अवसरों पर हजारों की संख्या में मेहमान आये थे।
बचपन की दो घटनाएं जवाहरलाल की स्मृति में हमेशा बनी रहीं। एक घटना तब की है जब वे पांच या छह वर्ष के थे। उन्होंने देखा कि पिताजी की मेज पर दो पेन रखे हैं। उनमें से एक वे लेना चाहते थे। उन्होंने सोचा कि दोनों का इस्तेमाल तो पिताजी करेंगे नहीं। यही सोचकर एक पेन उन्होंने खुद ले लिया। जब उनके पिता को यह मालूम हुआ कि एक पेन गायब है तो उन्होंने अपने नौकरों से ढूंढ़ने को कहा। जवाहरलाल डर गये। जब इस बात का पता चला कि पेन उनके पास है तो उनके पिता सिर्फ इस बात से ही नाराज नहीं हुए कि उनके बेटे ने चोरी की, बल्कि इस बात से भी कि उसने कायर की तरह सच को छिपाया। उन्होंने अपने बेटे को खूब पीटा। जवाहरलाल रो दिये और सिसकते हुए अपनी मां के पास पहुंचे। यद्यपि पिता के प्रति उनके मन में प्यार तो उतना ही रहा लेकिन उस दिन से उन्हें इस बात का डर रहने लगा कि कहीं वे नाराज न हो जाएं।
दूसरी घटना तब की है जब जवाहरलाल आठ वर्ष के थे। वे घुड़सवारी कर रहे थे कि घोड़े पर से गिर पड़े। जब घोड़ा अपने सवार के बगैर घर लौटा तो परिवार में दहशत छा गयी। उनके पिता और नौकर-चाकर तुरंत उन्हें खोजने निकल पड़े। जब जवाहरलाल को सही-सलामत घर लौटते देखा तो उनका “हीरो” जैसा स्वागत किया गया।
जवाहरलाल को अपनी मां से कभी भय नहीं लगा। वे जानते थे कि उनकी नजर में वे कोई गलत काम नहीं कर सकते थे। कर्मकांड और पूजा-पाठ में उनकी बड़ी श्रद्धा थी जबकि मोतीलाल इन धार्मिक अनुष्ठानों को बहुत कम महत्व देते थे। उन्होंने यूरोप से लौटने के बाद शुद्धिकरण करवाने से भी इन्कार कर दिया था। जवाहरलाल ने यही बात सीखी अपने पिता से। वे जिस वातावरण में पले थे उसमें लड़के-लड़की का दर्जा बराबर था। नेहरू परिवार में कभी पर्दा-प्रथा का रिवाज नहीं रहा।
जवाहरलाल के घर में हर विषय पर खुली बहस होती थी। चाहे वह धर्म हो, प्राचीन परंपरा हो या यह कि अंग्रेज भारतीयों के साथ कैसा सलूक करते हैं। अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ कई तरह के भेदभाव का बरताव किया था। यहां तक कि रेलगाड़ी में कुछ डिब्बे गोरे अंग्रेजों के लिए आरक्षित होते थे और कोई भी भारतीय उनमें यात्रा नहीं कर सकता था, भले ही वे खाली हों। बगीचों और सैर-सपाटे की अन्य जगहों पर भी कुर्सियां और बेंच गोरे लोगों के लिए आरक्षित होती थीं और भारतीयों को वहां बैठना मना था। अगर कोई अंग्रेज किसी भारतीय का खून भी कर देता था तो मामले की सुनवाई करने वाले न्याय मंडल में सब अंग्रेज होते थे, और शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उसे अपराधी माना गया हो।
विश्व की घटनाओं के बारे में भी काफी बातचीत की जाती थीं। जवाहरलाल ने कम उम्र से ही अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था। दुनिया के विभिन्न भागों के युद्धों और विद्रोहों के बारे में वे पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। वे हमेशा सताये गये लोगों के पक्ष में रहे और दिल से चाहते थे कि शोषकों के खिलाफ उनकी विजय हो । अपनी आत्मकथा में जवाहरलाल ने लिखा है, “मैंने उस बहादुरी के कारनामों का सपना देखा है कि मैं कैसे हाथ में तलवार लेकर ताकत के साथ भारत के लिए लड़ंगा और उसे आजाद करने में मदद करूंगा।”
उस समय जवाहरलाल की उम्र ग्यारह वर्ष की थी जब एक अंग्रेज व्यक्ति फर्डिनेंड ब्रुक्स उनके शिक्षक नियुक्त किये गये। उनके कारण ही उन्हें पढ़ने का शौक पैदा हुआ और साथ ही अंग्रेजी कविताओं में रुचि भी। ब्रुक्स साहब ने एक छोटी-सी प्रयोगशाला भी बनवाई जहां जवाहरलाल घंटों बैठकर भौतिकी और रसायन के छोटे-छोटे प्रयोग करते थे।
जब जवाहरलाल पंद्रह वर्ष के हो गये तो मोतीलाल ने उन्हें इंगलैंड के स्कूल में भेजने का निश्चय किया। जवाहरलाल वहां के प्रसिद्ध स्कूल हैरो में दाखिल कर दिये गये। अपने इस स्कूल के बारे में जवाहरलाल का कहना था, “मैं वहां ठीक से जम नहीं पाया था। मुझे हमेशा यह लगता रहा कि मैं उन लोगों में से नहीं हूं।” अंग्रेज लड़कों की रुचि थी खेल-कूद में जबकि जवाहरलाल की रुचियां कई चीजों में थीं। वे पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं तथा अखबार पढ़ने में बहुत दिलचस्पी रखते थे और अब राजनीति की भी खबर रखते थे। उन्हें लगा कि अंग्रेज लड़के बहुत ही सुस्त हैं। इस बारे में एक घटना उन्होंने इस प्रकार बताई : एक शिक्षक ने इंगलैंड में तभी हुए किसी आम चुनाव के बारे में पूछा। केवल जवाहरलाल इस सवाल का जवाब दे पाये।
जवाहरलाल उन लोगों से बहुत प्रभावित थे जो वायुवान द्वारा उड़ान की कोशिश कर रहे थे। राइट बंधुओं की 1905 की सफल उड़ान के बारे में हर रिपोर्ट को वे बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते और सप्ताह के अंत में वायुयान द्वारा घर जाने का स्वप्न देखा करते थे।
जवाहरलाल ने यह महसूस किया कि हैरो का वातावरण कुछ ज्यादा पाबंदियों से भरा है। दो साल बाद कैम्ब्रिज के ट्रिनिटि कालेज में उन्हें प्रवेश दिला दिया गया। लेकिन पढ़ाई-लिखाई में उनकी विशेष रुचि नहीं थी। जब वे ट्रिनिटि कालेज में दाखिले की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने अपने पिता को लिखा, “मुझे नहीं लगता कि मैं काम के लिए एक अच्छा क्रिकेट मैच छोड़ सकूंगा ।” फिर भी कैम्ब्रिज में उन्होंने तीन वर्ष अच्छे काटे। उन्होंने प्रवेश लिया था रसायन शास्त्र, भूगर्भ और वनस्पति शास्त्र में लेकिन इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य और दर्शन शास्त्र खूब पढ़ा।
जवाहरलाल हमेशा ही खतरे मोल लेने और साहसिकता के काम करने को उत्सुक रहते थे। वे नार्वे की एक घटना को याद करते थे। एक बार पहाड़ पर सीधी चढ़ाई चढ़ते उन्हें बेहद गरमी लगी और वे पसीने से भीग गये। वे एक तेज बहती, बर्फीली नदी में कूद गये । उनका पैर जम नहीं पाया और वे पानी की धारा में बह चले । कुछ दूरी पर ही पहाड़ी नदी का अंत ऊंचाई से गिरते झरने के रूप में होता था। एक दोस्त ने उनका पैर पकड़ लिया और समय रहते उन्हें सुरक्षित बाहर खींच लिया।
जब वे कैम्ब्रिज में थे, उन्होंने लंदन में “इन्स कोर्ट” में नाम लिखवाया और बैरिस्टर-एट-लॉ बन गए। उन दिनों अंग्रेज औरतें मताधिकार के लिए आंदोलन कर रही थीं। जवाहरलाल को महिलाओं के इस आंदोलन में बेहद दिलचस्पी हुई और वे इस निर्णय पर पहुंचे कि उन्हें पुरुषों के समान हक मिलने चाहिएं।
इंगलैंड में सात वर्ष से अधिक रहने के बाद 1912 में वे भारत लौट आये। उन्होंने लिखा था, “मैं घमंडी हो गया हूं, तारीफ की कोई बात नहीं है मुझमें।”
जवाहरलाल ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत के लिए अपना नाम लिखवा दिया । चूंकि उनका रुझान राजनीति में था और राजनीतिक क्षेत्र में उस समय कोई खास बात नहीं हो रही थी, जवाहरलाल को अपना जीवन नीरस लगने लगा। उन्हें अपने पिता के कानूनी दफतर का काम उबानेवाला, अरुचिकर और उद्देश्यहीन लगने लगा। दिल बहलाव के लिए वे शिकार की ओर आकर्षित हुए। उन्हें जंगल में रहना अच्छा लगता था। लेकिन एक बार जब उन्होंने हिरण का शिकार किया और उसकी आंखों में दर्द देखा तो हमेशा के लिए शिकार छोड़ दिया।
राजनीति के बारे में बात करते समय पिता-पुत्र में अक्सर तनाव पैदा हो जाता था। जवाहरलाल का विश्वास था कि भारतीयों को अंग्रेजों से दबना नहीं चाहिए और उनके अधिकार को चुनौती देनी चाहिए। जबकि मोतीलाल इस विचार के थे कि अंग्रेजों को मजबूर करना चाहिए कि जो उचित है उसे समझें । उनको बताना चाहिए कि उन्होंने कहां अन्याय किया और उसका वैधानिक हल खोजना चाहिए।
जब जवाहरलाल सत्ताईस वर्ष के हो गये तो उनके पिता ने कमला कौल से उनका विवाह तय कर दिया। कमला को केवल उर्दू और हिंदी ही आती थी। कमला नेहरू परिवार के पाश्चात्य वातावरण में घुलमिल सके और उनके पुत्र की सुयोग्य पत्नी बन सके इसलिए मोतीलाल ने उसके लिए अंग्रेज गवर्नेस रखी।
विवाह खूब धूमधाम से हुआ। बारातियों को इलाहाबाद से दिल्ली ले जाने के लिए एक “स्पेशल ट्रेन” का इंतजाम किया गया। पूरे सप्ताह बाराती समारोहों में शामिल रहे। विवाह के बाद उनका परिवार छुट्टियां मनाने कश्मीर चला गया। अपनी आत्मकथा में जवाहरलाल ने बर्फ से ढकी घाटियों और चोटियों के बीच लंबी चढ़ाई का वर्णन किया है जब वह एक बड़े खड्ड में गिर गए थे। इस तरह के साहसिक काम और खतरे उन्हें हमेशा आकर्षित करते रहे।
1914 में गांधीजी भारत की राजनीति के दृश्य पर छा गये। जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के रंगभेद के खिलाफ उनके विद्रोह के बारे में पढ़ा था तथा भारत में गांधीजी के लौटने का इन्तजार कर रहे थे। अन्ततः यही एक ऐसा व्यक्ति था जो जनसाधारण की भाषा बोलता था तथा इस तरीके के कार्य करता था कि आम आदमी उसे समझ सकें। गांधीजी के विषय में जवाहरलाल नेहरू जी ने कहा, “वह अंधकार को करने वाली प्रकाश की किरण के समान थे।”
जिस घटना ने जवाहरलाल नेहरू जी को राजनीति में कूद पड़ने के लिए प्रेरित किया, वह थी जलियांवाला बाग हत्याकांड ।
जवाहरलाल नेहरु का राजनैतिक सफ़र एवं उपलब्धियां (Political Life history)–
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियांवाला बाग में जो हर तरफ से घिरा हुआ है, 380 निर्दोष लोगों का खून कर दिया गया जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। अंग्रेज जनरल डायर ने अपनी सेना बाग के फाटक पर जमा दी, और बगैर लोगों को सावधान किए, गोली चलाने का हुक्म दे दिया। इस घटना के बाद राजनीति के मैदान में कूद पड़ने का जवाहरलाल का इरादा और भी पक्का हो गया। जो लोग मारे गए उनके अलावा 1200 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। घायलों का किसी तरह का उपचार नहीं किया गया। जैसे यह काफी नहीं था, जनरल डायर ने लोगों को अमृतसर की सड़कों पर पेट के बल लेटकर घिसटने के लिए मजबूर किया ।
इसके कुछ समय बाद जवाहरलाल के साथ एक अजीब घटना घटी। वे पंजाब से लौट रहे थे। रात को रेल में चढ़ने के बाद उन्हें एक डिब्बे में, जिसमें कई लोग सो रहे थे, ऊपर की एक बर्थ खाली मिली। सुबह यह देखकर उन्हें अचरज हुआ कि वे ग़लती से सेना के अफसरों के लिए आरक्षित डिब्बे में चढ़ गये थे। उन लोगों में से एक आदमी जाग गया और ऊपर लेटे व्यक्ति को अनदेखा करके जोर से बोला कि पूरा अमृतसर उसकी दया पर है। उसने कहा, “इन अभागे भारतीयों ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों की ताकत का मजा चख लिया।” उस अफसर ने शेखी से कहा कि वह पूरे शहर में आग लगा देना चाहता था। बाद में जवाहरलाल को यह मालूम हुआ कि वह आदमी कोई और नहीं, खुद जनरल डायर था।
जलियांवाला बाग की इस दुर्घटना ने नेहरू परिवार पर बहुत गहरा असर डाला। मोतीलाल पूरी तरह से राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। अब वह गांधीजी का समर्थन करने के लिए जवाहरलाल को दोष नहीं देते थे। जवाहरलाल ने 1920 में गांधीजी द्वारा चलाए गये असहयोग आंदोलन में पूरा सहयोग दिया और राजनीति में पूरी तरह डूब गए। इसी कारण वे खेतों और फैक्ट्री में काम करनेवालों के निकट आ गये। उस समय तक उनको यह मालूम नहीं था कि मिल मजदूरों का कितना शोषण किया जाता है। पहली बार उन्हें मालूम हुआ कि जमींदार और उद्योगपति किस तरह गरीब किसानों और मजदूरों पर जुल्म ढाते हैं। उनके बच्चे भूखे और बीमार रहते थे और उनकी औरतें चिथड़े पहनती थीं। इन गरीबों के साथ संपर्क होने से जो कि भारत की अधिकांश जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते थे, जवाहरलाल का जीवन बदल गया। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “भारत की एक नयी तस्वीर मेरे सामने आ रही है जिसमें लोग नंगे, भूखे, दलित और बुरी तरह परेशान हैं।”
जवाहरलाल ने गांव-गांव की यात्रा की – पैदल, रेल से, बैलगाड़ी से और साइकिल से भी। उन्होंने किसानों के साथ खाना खाया, उनकी झुग्गी-झोंपड़ी में रहे और घंटों उनके साथ बात की और उनकी जनसभाओं में भाषण दिये। वे अपने शर्मीले स्वभाव को छोड़कर जनता के बीच बात करना सीख गये – “मैंने उनसे बात की, खुलकर उन्हें बताया कि मैं क्या सोचता हूं और मेरे मन में क्या है।” रोज-रोज मिलते रहने से वे भूमिपुत्र किसानों के अधिक नजदीक आ गये। इस नये गौरव और उद्देश्य के कारण जवाहरलाल ने अपने व्यक्तिगत मामलों के बारे में सोचना एकदम कम कर दिया, जैसे अपना परिवार, पत्नी, और बेटी इन्दिरा के बारे में। सुख-सुविधा से भरे उनके दिन मीलों पीछे छूट गये।
तब मोतीलाल भी महात्माजी के कट्टर समर्थक बन गये। मतलब यह कि उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी और साठ साल की उम्र में रहन-सहन के ढंग भी बदल दिये। उन्होंने ऐशो-आराम वाले यूरोपीय रहन-सहन को बदल दिया और एक आम हिंदुस्तानी की तरह रहने लगे।
नेहरू परिवार का यह परिवर्तन देश भर में छा गयी लहर का प्रतीक था। यूरोपीय वेशभूषा (सूट-टाई) ने भारतीय रूप ग्रहण कर लिया। मिल में बने कपड़ों की जगह खादी आ गई। बातचीत में अंग्रेजी का स्थान हिंदुस्तानी ने ले लिया। हिंदू-मुस्लिम, किसान-जागीरदार और उच्च वर्ग के लोग तथा निम्न-अछूत जाति के लोग भी पहली बार हिंदुस्तान के इतिहास में एक लक्ष्य के लिए एकजुट हो गये। यह लक्ष्य था स्वराज यानी अपने देश की आजादी।
भारतीय आंदोलन के इस तौर-तरीके में धर्म को लेकर भी एक नया मोड़ पैदा हो गया। जवाहरलाल को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने लिखा, “मैं इस बात से परेशान रहा हूं कि हिंदू-मुसलमान दोनों ही धार्मिक संप्रदाय राजनीति में अपने-अपने सिर उठा रहे हैं…. इस धार्मिक तंत्र के कारण हमारी सोच-समझ में विध्न पड़ा है, लेकिन मैं इस बात की तारीफ करता हूं कि नैतिक और चारित्रिक रूप से हमारे इस आंदोलन यानी सत्याग्रह को बल मिलता रहा।”
स्वतंत्रता आंदोलन में नेता के रूप में हिस्सा लेने के कारण जवाहरलाल और उनके पिता दोनों को दिसम्बर 1921 में छह महीने की कैद की सजा दी गई। जवाहरलाल की इकलौती बेटी इन्दिरा की उम्र केवल चार वर्ष की थी जब वह अपने दादाजी के मुकदमे के समय उनके साथ कोर्ट में गई थी। कार्यवाही के दौरान मोतीलाल अपनी पोती को अपनी गोद में बिठाए रहे। अधिकारियों को जब यह महसूस हुआ कि जवाहरलाल को गलत ढंग से कैद किया गया है तो उन्हें तीन महीने बाद रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल ने अपनी राजनीतिक गतिविधियां फिर से शुरू कर दीं और केवल छह हफ्ते के बाद वे फिर से जेल में भेज दिये गये।
जवाहरलाल ने अपने आपको जेल में भी व्यस्त रखा। उन्होंने सूत कातना सीखा। रोज के व्यायाम के लिए वह जेलखाने में चारों ओर दौड़ लगाते थे। कभी-कभी किसी साथी कैदी के साथ बैलों की तरह कूएं से पानी निकालने जाते। सब से अधिक समय तो वह पढ़ने में लगाते। और जब उन्हें कागज और कलम दिये गये तो उन्होंने खूब लिखा। जेल में ही उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं – “दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया” (भारत, एक खोज), अपना जीवन-चरित्र “एन ऑटोबायोग्राफी”, और अपनी बेटी इन्दिरा के नाम कई खूबसूरत पत्र जिनके जरिए उन्होंने उनको इतिहास सिखाया और बताया कि उन्हें भी भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में एक वीर सिपाही बनना चाहिए। प्रत्येक पत्र से बेटी के प्रति उनके असीम प्रेम का पता चलता है जिसे वह केवल लिखकर ही व्यक्त कर सकते थे। बाद में इन पत्रों का संग्रह “ग्लिम्पसेज़ आफ वर्ल्ड हिस्ट्री” (विश्व इतिहास की एक झलक) के नाम से छापा गया।
कई जेलों में, जहां-जहां जवाहरलाल ने सजा भोगी, कई तरह की अजीब असुविधाएं भी पैदा होती रहीं। नाभा जेल के बारे में उन्होंने लिखा है, “रात को हम जमीन पर सोते थे। मैं भयभीत होकर एकदम जाग जाता और पाता कि एक चूहा मेरे चेहरे पर से गुजर गया है।”गंदगी तो इतनी थी कि उनको टायफायड हो गया।
जेल में रहते हुए जवाहरलाल ने तारा-मंडल के बारे में कई जानकारियां प्राप्त कीं। साथ ही थोड़ी-बहुत बागवानी भी की। देहरादून जेल में वह हिमालय को और उसमें होनेवाले मौसमी परिवर्तनों को देखने का आनंद लेते। वे चींटियों और अन्य कीड़ों को भी घंटों देखते रहते। उन्होंने गिलहरी की भी चर्चा की है जो उनसे इतनी हिलमिल गई। थी कि उनके पैर पर चढ़ जाती और घुटने पर बैठ जाती, जैसे किसी पेड़ पर बैठी हो। वे मैना के एक जोड़े से इतने घुलमिल गये कि सुबह-शाम उसे खाना खिलाते। आसपास की बंदरों की टोली को देखकर तो वे बहुत प्रसन्न होते थे। एक छोटे से बीमार कुत्ते की भी वे देखभाल करते थे। रात को उसकी देखभाल के लिए उन्हें कई बार जागना पड़ता था। इसी तरह वे बादलों के भी बहुत नजदीक आ गये थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “कई बार कोई घुमक्कड़ बादल मेरे पास आ जाता। अनेकों दरारों से उसकी बाहें अंदर आकर सारी जगह को नमी भरी धुंध से भर देतीं ।”
कुल मिलाकर जवाहरलाल नौ बार जेल गये और उन्होंने लगभग 10 वर्ष की कैद काटी। वे यह बात ठीक से जानते थे कि घर से उनकी गैरहाजिरी के कारण परिवार को परेशानी से गुजरना पड़ता है: “सारा बोझ मुझ पर नहीं, घर की महिलाओं के कंधों पर था – जिसमें मेरी बीमार मां, मेरी पत्नी और मेरी बहन शामिल थीं।”
अपने जेल जीवन के बारे में जवाहरलाल ने कहा है, “जेल में कई बातों की कमी महसूस होती है, खासकर महिलाओं की आवाज, बच्चों की हंसी।” जेल-जीवन में हमेशा साथ रहने वाली देन थी बुरे सपने और बेचैनी भरी नींद।
1925 के शरद काल में कमला की तबीयत बहुत खराब हो गयी। जवाहरलाल से कहा गया कि वे उन्हें इलाज के लिए स्विटजरलैंड ले जायें। विदेश यात्रा के दौरान वे कई भारतीयों से मिले, जिन्हें अंग्रेजों ने देश निकाला दे दिया था और वे अपने घर नहीं लौट सकते थे। प्रवास के इन दो वर्षों ने विश्व की हलचलों में उनकी रुचि फिर से जगा दी। राजनीति और दिन प्रतिदिन की घटनाओं के साथ ही उन्होंने सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विषयों पर कई पुस्तकों का अध्ययन किया ।
भारत में वापसी उतनी सुखद नहीं थी । जवाहरलाल आजादी की शांतिपूर्ण लड़ाई के बीच पूरी तरह फिर से उलझ गये थे। वे प्रदर्शनकारियों के साथ सूनी सड़क पर जा रहे थे कि सहसा घुड़सवार सामने आये और उन्होंने हर तरफ से उस भीड़ पर हमला बोल दिया। कुछ कार्यकर्ता पास की दुकानों में छिप गये और घायल होने से बच गये। लेकिन जवाहरलाल खतरे से नहीं भागे। वे पुलिसवालों से घिरे सड़क के बीचों-बीच अकेले रह गये। उन्होंने जवाहरलाल के सिर और कंधों पर पूरे जोर से वार किये। जवाहरलाल वहीं डटे रहे और बगैर घबराए इस हमले का मुकाबला किया।
दूसरे दिन भी जवाहरलाल सत्याग्रहियों के जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे कि घुड़सवार पुलिस ने हमला बोल दिया और लाठी चार्ज से जुलूस को तितर-बितर करने की कोशिश की। घूंसे लगने से उनकी आंखें आधी अंधी-सी हो गयीं। गुस्सा भी बहुत आया। फिर भी उन्होंने पुलिस पर हाथ नहीं उठाया। इसके बारे में एक बार उन्होंने कहा, “मुझे शारीरिक साहस अच्छा लगता है और एक उद्देश्य के लिए शारीरिक कष्ट झेल लेना भी साहस है, भले ही उससे मृत्यु हो जाये। उन घटनाओं को उन्होंने मामूली कह कर टाल दिया। वे कहते थे, “अपनी शारीरिक शक्ति और सहनशीलता पर ज्यादा गर्व हो गया है मुझे।”
फिर महात्मा गांधी ने नमक कानून तोड़ने का आह्वान किया और 1930 में प्रसिद्ध दांडी यात्रा की। सारे देश में इससे उत्तेजना की लहर दौड़ गई। जवाहरलाल की पत्नी और बहन कृष्णा ने इसमें भाग लिया – “और इस काम के लिए उन्होंने मर्दों जैसे कपड़े पहने।” विदेशी कपड़े की दूकानों का उन्होंने घेराव भी किया। यहां तक कि जवाहरलाल की वृद्धा मां भी तपती धूप में घंटों खड़ी रह लोगों से आग्रह करतीं कि वे विदेशी कपड़े न खरीदें। विदेशी कपड़े का बहिष्कार करें। जवाहरलाल का मन प्रशंसा से भर उठा था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “उन दिनों कई अद्भुत बातें हुई लेकिन निश्चित रूप से सबसे महत्वपूर्ण बात थी इस राष्ट्रीय संग्राम में महिलाओं की भागीदारी। वे बड़ी संख्या में अपने घर की चारदीवारी से बाहर आ गयीं और सार्वजनिक कामों की आदी न होते हुए भी अपने आप को आंदोलन में झोंक दिया। सभी शहरों में जुलूस निकाले और पुरुषों की तुलना में महिलाओं का रवैया और भी सख्त था।” जब कमला गिरफ्तार कर ली गयीं तो जवाहरलाल इस बात से चिंतित थे कि जेल की खराब हालत के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा। लेकिन उन्होंने कमला के प्रति बहुत गर्व महसूस किया। उन्होंने लिखा कि “कमला खुद को पुरुष के अत्याचार के खिलाफ नारी के अधिकारों का चैम्पियन मानती थीं… और महिलाओं को सलाह देती थीं कि वे पुरुष के सामने अधिक न झुकें।”
जवाहरलाल इस बात में विश्वास करते थे कि कोई भी देश तभी तरक्की कर सकता है जब वहां की महिलाएं शिक्षित और स्वतंत्र हों। उन्होंने यह महसूस किया कि भारतीय नारी ने बहुत कष्ट झेले हैं। वे कहते थे कि इसका कारण है “पुरुष द्वारा संचालित समाज में पुरुष की सुविधा के लिए बनाये गये रीति-रिवाज ।”
जनवरी 1931 में जब उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गये तो जवाहरलाल फिर से जेल में थे। उन्हें मोतीलाल के पास रहने के लिए रिहा कर दिया गया। कुछ दिनों बाद मोतीलाल का स्वर्गवास हो गया। कई दिनों तक जवाहरलाल न कुछ खा सके, न सो सके। उनकी मृत्यु से उन्हें बड़ी कमी का अहसास हुआ, और यह स्वीकार करना मुश्किल लगा कि उन्हें सलाह देने के लिए पिता इस दुनिया में नहीं रहे।
यद्यपि पति का स्वर्गवास अभी-अभी हुआ ही था, और इकलौता पुत्र फिर से जेल चला गया था, लेकिन स्वरूप रानी स्वतंत्रता आंदोलन में फिर भी सबसे आगे रहीं। एक बार वह एक जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं तो पुलिस ने लाठी चलायी और वे गिर पड़ीं। उन्हें तब तक पीटते रहे जब तक कि वे बेहोश नहीं हो गयीं। सिर में लगी चोट से खून बहने लगा। वह तब तक सड़क पर ही पड़ी रहीं, जब तक लोगों ने उन्हें उठाकर घर नहीं पहुंचा दिया। इस घटना के बारे में अपने बेटे को उन्होंने जेल में लिखा कि “बहादुर बेटे की मां भी बहादुर होती है। वह तो केवल लाठी ही थी, अगर बंदूक होती तो भी मैं उसका सामना करती।” वे स्वस्थ हो गयीं। जख्म भी भर गये, लेकिन बुढ़ापे में लगी उन चोटों के कारण कई तरह की पेचीदगियां पैदा हो गयीं और वे लगातार बीमार रहने लगीं। लेकिन स्वरूप रानी को इसकी कोई शिकायत नहीं थी जवाहरलाल ने लिखा है कि उन्हें इस बात पर गर्व था कि भारत की आजादी के लिए उन्हें लाठी की मार सहनी पड़ी। बाद मे उन्हें भी जेल हो गयी।
एक के बाद एक दुर्घटना होती गयी। कमला का स्वास्थ्य खराब हो गया। वे जानती थीं कि वे नहीं बचेंगी लेकिन यह नहीं चाहती थीं कि जवाहरलाल उनके सिरहाने बैठने के लिए जेल से आ जाएं। फरवरी 1936 में उनका स्वर्गवास हो गया। जवाहरलाल उदास अकेले हो गये और यह लगा कि उनके बगैर जीवन से समझौता
डेढ़ सौ वर्षों से भी अधिक समय से चला आ रहा विदेशी शासन समाप्त हो गया। जवाहरलाल नेहरू स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। लेकिन खुशियां मनाने के लिए समय नहीं था। देश में आग लगी हुई थी। जवाहरलाल हर जगह पहुंच जाते थे – दुखी और पीड़ित लोगों को सांत्वना देने, उनको हिम्मत बंधाने और लोगों का विवेक जगाने। जब यह सुनते कि कहीं मुसलमानों पर हमला करने की बात हो रही है तो तुरंत वहां पहुंच जाते और लोगों को समझाते। यदि समझाने में सफल न होते तो अपने अंगरक्षकों को गोली चलाने का हुक्म देते। उनकी बेटी इन्दिरा मुसलमान मोहल्लों में गयीं जहां सारा वातावरण तनाव से इतना भरा था कि वहां कोई हिंदू जाने का साहस न करता। वहां उन्होंने पीड़ित लोगों की मदद की। उनका घर तो डरे फासीवादी इटली और जापान पर विजय पायी।
जब भारतीय नेता जेल से रिहा कर दिये गये तब भारत को सत्ता देने की बातचीत शुरू हुई। जब बातचीत चल रही थी तभी दुर्भाग्य से श्री जिन्ना के नेतृत्व में कुछ मुसलमान नेताओं ने अपने लिए पाकिस्तान के नाम से एक अलग राष्ट्र की मांग की हिंदू, मुसलमान के बीच संबंध बिगड़ गए और कई शहरों में दंगे-फसाद छिड़ गये । इस बात से जवाहरलाल बहुत दुखी हुए। उन्होंने कहा, “पूजा और दया-भावना हर समय एक-साथ नहीं होती।” भारत में जिस तरह धर्म का पालन होता है उसकी उन्होंने निंदा की। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “यह दूसरों की विचारधारा और भावनाओं के प्रति संकुचित दृष्टिकोण है। यह धार्मिक दृष्टिकोण मदद नहीं करता बल्कि जनता की नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति के विकास में बाधक होता है।” वे नाराज थे और इस बात से उन्हें बहुत धक्का लगा कि “हिंदू-मुस्लिम-सिख और अन्य लोग अपने धर्म पर गर्व करते हैं और इसको सच साबित करने के लिए एक दूसरे का सिर फोड़ते हैं।”
गांधीजी और जवाहरलाल की सारी कोशिशों के बावजूद एक शहर के बाद दूसरे शहर में हिंदू-मुस्लिम दंगे होते ही रहे। लूटपाट, आगजनी, मारकाट रोज की घटना बन गये। बदला लेना और फिर उसका बदला लेना नियम बन गये। भारत ने कभी ऐसी दहशत नहीं देखी थी। बहुत कुछ नष्ट हुआ लेकिन सबसे बड़ी चीज जो खत्म हुई वह थी एक दूसरे के प्रति विश्वास की भावना।
भारत का विभाजन हो गया। उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों के दो टुकड़ों का पाकिस्तान बना। लाखों को घर और माल-असबाब छोड़ना पड़ा। जिस देश को लोग सदियों से अपना समझते थे उसको छोड़ सैंकड़ों मील पार करके अनिश्चित भविष्य और अज्ञात प्रदेश में भटकना पड़ा। एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने घर छोड़ा और पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गये। दो नये देशों पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का, 14 और 15 अगस्त 1947 को जन्म हुआ।
14 और 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को जवाहरलाल ने देश की जनता के नाम संदेश दिया। वे पूरी तरह प्रसन्न नहीं थे क्योंकि आजादी के पहले कई दुखद घटनाएं घटित हो चुकी थीं। लेकिन भावपूर्ण शब्द ऐसे थे जिन्हें हर भारतीय सुनना चाहता था:
“बहुत वर्ष पहले हमने अपना भाग्य निश्चित कर लिया था और आज उस शपथ को पूरा करने का वक़्त आ गया है – संपूर्ण रूप से नहीं, लेकिन काफी हद तक। जब ठीक आधी रात होगी और दुनिया सो रही होगी तो भारत जागेगा एक नयी आजादी की चेतना के साथ। एक क्षण आ रहा है, एक ऐसा क्षण जो इतिहास में कम ही आता है जब हम प्राचीनता से निकल कर नवीनंता में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त हो जाता है, जब देश की आत्मा को वर्षों के दमन के बाद वाणी मिलती है। यह उचित होगा कि. इस शुभ घड़ी में हम भारत, और उसकी जनता, और उससे भी बड़ी, मानवता की सेवा में अपने को समर्पित करने की शपथ लें।”
भी मुश्किल है। उन्होंने लिखा, “हमारे सभी उज्ज्वल सपने जलकर राख हो गये।” जनवरी 1938 में उनकी मां का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने लिखा, “मैं अपने घर लौटता और उस उजाड़ घर में अकेला बैठा रहता।”
1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। भारत के सभी राष्ट्रीय नेता हर तरह के नाजीवाद और फासीवाद के खिलाफ थे, लेकिन उन्होंने ब्रिटेन की सरकार का विरोध किया क्योंकि भारत की सलाह लिये बगैर और भारत को आजादी देने का वायदा किये बगैर उन्होंने भारत की ओर से युद्ध की घोषणा की थी। भारत का धैर्य चुक रहा था। 1942 में गांधीजी ने ब्रिटेन की सरकार के खिलाफ “भारत छोड़ो” आंदोलन का नारा दिया। एक बार फिर अंग्रेजों ने गांधीजी और जवाहरलाल सहित सभी राष्ट्रीय नेताओं को जेल में बंद कर दिया। कई नेताओं को दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति तक बंद रखा गया। युद्ध में मित्र राष्ट्रों ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और अमेरिका ने नाजीवादी जर्मनी, हुए मुसलमानों का शरण स्थल बन गया।
जहां पुलिस और सेना अपनी सारी बंदूकों के बल के बावजूद हार गयी, एक दुबले-पतले आदमी ने सफलता पाई जिसके नंगे शरीर पर केवल घुटनों तक की धोती थी, और हाथ में लाठी। ये थे हमारे बापू – गांधी जी । जब भारत और पाकिस्तान सैनिक परेडों के साथ अपने-अपने देश में आजादी के जश्न मना रहे थे, बापू पूर्वी पाकिस्तान में दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूम रहे थे और हिंदू-मुसलमान दोनों को भाई-भाई की तरह रहने की सलाह दे रहे थे। उन्होंने धर्म के नाम पर किये जा रहे दंगों का विरोध किया और घोषणा की, “मैं सभी धर्मों का प्रतिनिधि हूं। मैं एक सच्चा और निष्ठावान हिंदू हूं, और सच्चा मुसलमान भी, सच्चा ईसाई भी, सच्चा सिख और सच्चा पारसी भी।” लेकिन जब कलकत्ता में फसाद शुरू हो गये तो उन्हें लोगों को होश में लाने के लिए एक ही उपाय सूझा कि अपने जीवन की बलि दे दें और इसके लिए आमरण उपवास करें।
इस उपवास की खबर जैसे ही फैलने लगी, सभी तरह के लोग, अमीर-गरीब, देश के नेता, आम आदमी और महिलाएं, हिंदू-मुस्लिम सभी उनसे यह प्रार्थना करने आये कि वे उपवास तोड़ दें। गांधी जी ने इस बात को मानने से तब तक के लिए मना कर दिया जब तक कि मारकाट पूरी तरह बंद नहीं हो जाती। तभी एक चमत्कार हुआ – ऐसा चमत्कार केवल गांधीजी ही पैदा कर सकते थे। हिंदू-मुसलमान दोनों उनसे क्षमा मांगने आये और अपने खून से यह शपथ लिखी कि अब वे नहीं लड़ेंगे और उनसे प्रार्थना की कि वे उपवास तोड़ दें। गांधी जी ने अपनी कमजोर आवाज में जो मुश्किल से सुनी जा सकती थी, हिंदुओं से कहा कि वे मुस्लिम बस्तियों में जायें और उन्हें सुरक्षा का वचन दें। तब शांति स्थापित हो गयी और गांधी जी ने उपवास तोड़ दिया।
मुसलमानों के पक्ष में गांधी जी का काम करना सभी लोगों को पसंद नहीं आया। दंगे-फसाद महीनों चले और बड़ी कडुवाहट छोड़ गये। जब लाखों की संख्या में लोग सीमा पार करने लगे, तो कष्ट की कहानियों ने उत्तेजना और भड़का दी। उत्तर भारत में भयंकर दंगे शुरू हो गये। दिल्ली में 13 जनवरी 1948 को, गांधी जी ने दूसरा आमरण उपवास शुरू किया कि साम्प्रदायिक शांति लौट आये और मुसलमानों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाये। उन्होंने पाकिस्तान के साथ भी अच्छे संबंध रखने की बात कही।
पहले तो भारत सरकार ने यह निर्णय किया कि पाकिस्तान जब तक अपनी ओर से दंगे-फसाद बंद नहीं करता तब तक के लिए पाकिस्तान का जो रुपया हमारे पास है उसका देना रोक दिया जाय। गांधीजी ने इस निर्णय को मंजूरी नहीं दी और सरकार से कहा कि पाकिस्तान को जो देना है वह उसे दे दिया जाय। कुछ लोग बहुत क्रोधित हो गये और उनके मन में गांधीजी के प्रति क्रोध और बढ़ गया। एक बार जवाहरलाल ने शरणार्थियों के एक ऐसे दल को देखा जो नारे लगा रहा था, “गांधी को मरने दो।” जवाहरलाल गुस्से में आपे से बाहर हो गए। वह भीड़ के सामने चीखकर बोले, “यह कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? आओ और पहले मुझे मार डालो।” वह दल चुपचाप चला गया।
तब गांधीजी 79 वर्ष के थे और उनके शरीर में इतना दम नहीं था कि उपवास को सहन कर पाये। वे लगातार कमजोर होते गये। उनका इलाज करने वाले डाक्टर ने कहा कि वे केवल छत्तीस घंटे और जीवित रह सकेंगे। फिर दूसरा चमत्कार हुआ। लाखों लोगों ने लिखित रूप से शपथ ली कि वें मुसलमानों की रक्षा के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। कुरान की आयतें, गीता के श्लोक और बाइबिल से उपदेश पढ़े गये और ऐसे में गांधीजी ने नींबू पानी लेकर अपना उपवास तोड़ा ।
लेकिन हर आदमी इस बात से खुश नहीं था कि गांधीजी बच गये हैं। कुछ सिरफिरों ने उनकी हत्या की साजिश की। उनकी योजना पक्की थी और उन्होंने उसे पूरा भी कर दिया। 30 जनवरी 1948 को नयी दिल्ली में जब गांधीजी बिड़ला हाउस के लॉन में प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे, एक युवक सामने आया, उनके पैर छुए, क्षमा मांगी और गोली मार दी। जवाहरलाल के दुख की सीमा न थी। उन्होंने कहा, “जो सबसे बड़ी संपत्ति हमारे पास थी, हम उसकी हिफाजत नहीं कर पाये।”
जवाहरलाल के शब्द बापू को खो देने पर सारे देश के दुख की प्रतिध्वनि है। राष्ट्र के नाम अपने प्रसारण में जवाहरलाल की आवाज बार-बार रुंध जाती थी। जवाहरलाल ने कहा, “हमारी जिंदगी से रोशनी चली गयी है और अब हर तरफ अंधेरा है। मैं नहीं जानता कि मैं आपसे क्या कहूं और कैसे कहूं। हमारे प्रिय नेता, बापू, राष्ट्रपिता हमारे बीच नहीं रहे।”।
जवाहरलाल एकदम अकेले पड़ गये। हालांकि कई बार वे गांधीजी से सहमत नहीं होते थे लेकिन वे उन्हें प्यार करते थे, उनकी प्रशंसा करते थे, उनके प्रति उनके मन में सम्मान था और हमेशा वे उनसे सलाह लेते थे और आशीर्वाद प्राप्त करते थे। अब उन्हें सलाह और दिशा देनेवाला कोई गुरू उनके पास नहीं था। लेकिन मातम मनाने के लिए समय नहीं था। ढेरों काम सामने थे। भारत को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाना था ।
जवाहरलाल ने अथक मेहनत की, हर दिन ग्यारह से पंद्रह घंटों तक लगातार काम किया। बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की योजनाएं बनाई गईं और भारत ने इस्पात तथा भारी मशीनों के उत्पादन को बढ़ाने का कार्यक्रम शुरू किया।
जवाहरलाल चाहते थे कि अंग्रेजों के जमाने में जैसे भयंकर अकाल देश में पड़े थे, वैसा अब कभी नहीं हो। उनकी दृष्टि में सबसे पहला काम यह था कि सिंचाई-सुविधाओं और खेतों के आधुनिकीकरण से अनाज का उत्पादन बढ़ाया जाए। उन्होंने हाईड्रो-इलेक्ट्रिक बांध बनाने पर जोर दिया जिन्हें वे “हमारे नये मंदिर” कहते थे। लेकिन जवाहरलाल केवल यही नहीं चाहते थे कि हमारा उत्पादन ही बढ़ता रहे, वे चाहते थे कि बढ़े हुए उत्पादन का फल सब लोगों को समान रूप से मिले।
जवाहरलाल को एक और काम बहुत प्रिय था
विज्ञान और तकनीकी का विकास, जिसमें अणुशक्ति भी शामिल थी। वे चाहते थे कि भारत वैज्ञानिक प्रयोगों और उपलब्धियों में सबसे आगे रहे। इसी सपने को पूरा करने के लिए कई राष्ट्रीय वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की गयी। ऊंची शिक्षा के क्षेत्र में देश के विभिन्न भागों में बहुत बड़े तकनीकी संस्थानों की स्थापना की गयी और बड़ी तेजी से विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ने लगी। इनमें से कई ऐसे संस्थान हैं जो दुनिया में सबसे अच्छे अध्ययन केंद्रों के बराबर माने जाते हैं। भारत के पास अब दुनिया में सबसे अधिक प्रशिक्षित जनशक्ति है। नापतोल में भी संशोधन किये गये । दशमलव प्रणाली के सिक्के भी चलन में लाये गये। भारत ने दो दशकों से भी कम समय में जवाहरलाल के निर्देशन में, पिछड़े और सामंती समाज से हट कर बीसवीं शताब्दी का आधुनिक राष्ट्र बनने में लंबी छलांग लगायी।
जवाहरलाल प्रजातंत्र में, व्यक्ति की स्वतंत्रता में जिससे वह अपनी क्षमता और योग्यता का पूरा उपयोग कर सके, कट्टर विश्वास रखते थे। चुनाव में जब कुछ राज्यों में कांग्रेस पार्टी पराजित हुई तो वे इस बात से प्रसन्न थे कि स्वतंत्र भारत में राजनीतिक आजादी भी उपलब्ध है। वे सच्चे प्रजातांत्रिक व्यक्ति थे। उन्होंने संसदीय संस्थानों का आदर और जतन से संरक्षण किया। उन्होंने ऐसे समय एक सजीव प्रजातंत्र की नींव रखी, जबकि दूसरे देश तानाशाही की जकड़ में फंसते जा रहे थे।
जवाहरलाल ने विभाजन का विरोध किया था लेकिन वे उसे स्वीकार करने के लिए विवश थे। फिर भी उन्होंने इस बात को अपना लक्ष्य बना लिया था कि देश के अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान, बराबरी का दर्जा और सुरक्षा पायें। किसी भी संप्रदाय में किसी भी तरह के भेदभाव और पूर्वाग्रह को वह क्षमा नहीं करते थे। एक बार विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उन्होंने लिखा था, “जब तक मैं प्रधानमंत्री हूं, हमारे नीति-निर्माण के बीच किसी तरह की सांप्रदायिकता को मैं स्थान नहीं दूंगा और न ही मैं किसी तरह के क्रूर और असभ्य व्यवहार को बर्दाश्त करूंगा।” उन्हें भरोसा था कि भारतीय एकता को बनाये रखने का यही एक तरीका है।
जवाहरलाल के सामने एक और प्रमुख मुद्दा था नारी-अधिकार का। उन्होंने हिंदू-कानून में विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार के मामलों में संशोधन के लिए पहल की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि रोजगार के लिए सबको समान अवसर मिलें और एक जैसे काम के लिए एक जैसा वेतन भी प्राप्त हो । भारतीय नारी के लिए सभी व्यवसायों के द्वार खोल दिये गये। वे शिक्षक, राजदूत, राज्यपाल, राज्यों की मुख्यमंत्री और संसद-सदस्या भी बनीं। वे बड़ी संख्या में सरकारी विभागों में शामिल हुईं जिनमें पुलिस भी शामिल है। भारत यूरोप के अति विकसित राष्ट्रों और अमेरिका की तुलना में महिलाओं को समान अधिकार और अवसर देने के मामले में बहुत आगे था।
जवाहरलाल के नेतृत्व में ही भारत का नया संविधान लिखा गया और उसे स्वीकृति प्राप्त हुई। इसमें वे मूल्य प्रतिबिंबित हैं जिनकी वे कल्पना करते थे। इसमें सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर बल दिया गया है। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा और पूजा की आजादी दी गयी है। देश की एकता और व्यक्ति की महत्ता को बनाये रखने के लिए प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता तथा भाई-चारे की भावना को समान दर्जा दिया गया है ।
जवाहरलाल का संबंध केवल अपने देश तक ही सीमित नहीं था । पूरा विश्व उनका मंच था। वे सभी राष्ट्रों से दोस्ती रखना चाहते थे लेकिन बराबरी के दर्जे पर । उन्होंने रूसी या एंग्लो-अमेरिकन गुटों में सम्मिलित होने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्हें देश के लिए यही हितकर लगा कि वह गुट निरपेक्ष बना रहे। अपनी लगन और निष्ठा से उन्होंने अपने विचारों से सबको सहमत कर लिया। जवाहरलाल ने दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं का भारत में स्वागत किया और उन नेताओं ने उनका भी स्वागत अपने देशों में किया। अमेरिका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने उनके बारे में कहा, “भारत दुनिया के बड़े देशों के साथ विश्वास से बात करता है, और उसकी बात बड़े सम्मान सहित सुनी जाती है।”
विश्व शांति के लिए जवाहरलाल के द्वारा किये गये प्रयत्नों से उन्हें और भी प्रशंसा मिली। मिश्र के राष्ट्रपति नासर ने उनके बारे में कहा कि वे मनुष्य जाति के विवेक को व्यक्त करते हैं। किसी भी तनाव में भारत की निष्पक्षता में इतना अधिक विश्वास व्यक्त किया गया कि भारतीय सैनिकों से कोरिया, कांगो और गाज़ा जैसे सुदूर प्रदेशों में शांति बनाये रखने को कहा गया।
लेकिन सभी, और खासकर पड़ोसी देशों के साथ मित्रता बनाये रखने के मत को 1962 में एक गहरी चोट लगी। चीन ने भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर हमला बोल दिया। जवाहरलाल ने चीन के प्रति खास मित्रभाव रखा था। संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने चीन का पक्ष लिया था। सभी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी वे चीन का पक्ष लेते थे। उन्होंने नारा दिया था– “हिन्दी – चीनी भाई-भाई”। वे इस बात को मानते थे कि सारे अंतर्राष्ट्रीय विवादों को विचार-विमर्श और बातचीत से सुलझाया जा सकता है । आक्रमणकारी सैनिकों की गतिविधियों के बावजूद जवाहरलाल यह नहीं सोचते थे कि चीन उनके साथ विश्वासघात करेगा। जब सचमुच हमला हुआ तो उसके लिए भारत तैयार नहीं था। अपने आक्रमण को रोकने से पहले ही चीन ने भारतीय सीमा की बहुत सारी जमीन हड़प ली थी। इससे जवाहरलाल को बड़ा आघात पहुंचा और वे इससे कभी मुक्त नहीं हो पाये।
इस महान व्यक्ति, विश्व के बड़े राजनीतिज्ञ के पीछे छिपा था जवाहरलाल का मानवीय पक्ष – मित्रतापूर्ण, अधीर और जल्दी नाराज होनेवाले लेकिन हमेशा गलती स्वीकार करने के लिए तैयार और अपने आप पर हंस सकने वाले।
एक बार जब आक्रमणकारी भीड़ या लाठी चार्ज के खिलाफ उनके साहस की प्रशंसा की गई तो उन्होंने कहा “हीरो के रूप में मेरी ख्याति बोगस है।” उन्होंने कहा कि उनके शारीरिक और मानसिक साहस का कारण केवल गर्व है। अपने ज्ञान को भी वह ज्यादा महत्व नहीं देते थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “किसी ने बहुत अधिक ज्ञान का आरोप मुझ पर नहीं लगाया है।” उन्होंने कहा कि वे ऐसे लोगों से घबराते हैं जो हमेशा समझदार और गंभीर बने रहते हैं। प्रधानमंत्री की हैसियत से मनाये जानेवाले उनके जन्मदिन की दावत “फैंसी ड्रेस पार्टी’ होती थी । जवाहरलाल स्वयं अपने लिए विदेशी राष्ट्रीय पोशाकों के अपने संग्रह में से कुछ चुन लेते थे।
जवाहरलाल के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। उन्हें खेल-कूद, नाटक, संगीत सभी में रुचि थी। बेहद व्यस्त रहने पर भी वे पुस्तकों और पढ़ने के प्रेमी बने रहे। स्वतंत्रता के संघर्ष के समय जब उनको रुपए पैसे की तंगी थी, वह कहते थे, “एक ऐसी फिजूलखर्ची मैं करता हूं जिसे कभी नहीं छोड़ सकूंगा, और वह है किताबें खरीदना ।”
जवाहरलाल हमेशा अकेले रहे सो, पशु-पक्षियों का साथ उन्हें बहुत अच्छा लगता था। कई वर्षों तक उनका घर विभिन्न पशु-पक्षियों का एक अजीब चिड़ियाघर बना रहा – कुत्ते, तोते, हिरण, गिलहरी, मोर, बिल्ली तथा चीते के बच्चे, हिमालय का लाल पंडा, ये सभी वहां थे।
जवाहरलाल अपने देश और जनता से प्यार करते थे और बदले में उतना ही प्यार उन्होंने पाया भी। प्रशंसा स्वरूप राष्ट्र ने उन्हें “भारतरत्न’ का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया। और जब 27 मई 1964 को 74 वर्ष की उम्र में जवाहरलाल का देहांत हुआ तो सारा देश शोक में डूब गया। यहां तक कि भारत के विभिन्न भागों में उनके राजनीतिक विरोधी भी रो पड़े क्योंकि जवाहरलाल सारे देश को प्यारे थे। दिल्ली में दुखी मन और आंखों में आंसू लिए लाखों की संख्या में लोग उनकी अंतिम यात्रा के दर्शन के लिए लंबी कतारों में खड़े दिखाई दिये। दिल्ली में राजकीय सम्मान के साथ निकाली गयी उनकी शवयात्रा को राजघाट के पास तक पहुंचने में तीन घंटे लगे। सारे रास्ते लोगों के नारे गूंजते रहे – “जवाहरलाल नेहरू अमर रहे।”
जीवन में अपने विश्वासों के अनुसार ही जवाहरलाल ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनकी मृत्यु के बाद कोई धार्मिक क्रियाकर्म नहीं किया जाय। लेकिन उन्होंने यह इच्छा जाहिर की थी कि उनकी अस्थियां उन खेतों में बिखरा दी जायें जहां भारत का किसान पसीना बहाता है ताकि वे देश की मिट्टी में मिल जायें।
जवाहरलाल नहीं रहे, लेकिन अपने देशवासियों को जो मूल्य उन्होंने दिये और उनका प्रेम आज भी जीवित है। इस बात का एक छोटा सा उदाहरण यह है:
एक बार जवाहरलाल के एक मुसलमान दरजी ने, जो राजा-महाराजा और कई राज्यों के प्रमुख लोगों के कपड़े सीता था, प्रधानमंत्री से कहा कि वे उन्हें एक प्रशंसापत्र दे दें। जवाहरलाल ने मजाक में पूछा कि उनका प्रशंसापत्र क्या महत्व रखता है जबकि उसके पास राजा-महाराजाओं के प्रशंसापत्र पहले से हैं।
दरजी ने जवाब दिया, “आप भी तो बादशाह हैं।”
“मुझे बादशाह मत कहो’, जवाहरलाल ने कहा। “उनके तो सिर भी काट दिए जाते हैं।”
दरजी ने जवाब दिया, “बादशाह तो राजगद्दी पर ही बैठते हैं, मगर आप तो जनता के दिलों पर राज करते हैं।”
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