परवर्ती अब्बासी खलीफाओं का शासनकाल (Administration Period of Abbass! Khalifa)
परवर्ती अब्बासी खलीफाओं का शासनकाल (Administration Period of Abbass! Khalifa)
हारून बसिक जो मुतासिम का पुत्र था, मुतासिम की मृत्यु के पश्चात खलीफा बनाया गया। यद्यपि कुछ इतिहासकारों ने बसिक की कटु आलोचना की है, परन्तु वह एक उदार और सहनशील शासक था। बसिक का शासन सुदृढ़ था और खलीफा को सदा ही अपनी प्रजा के कल्याण की चिन्ता लगी रहती थी। उसके शासनकाल में भी आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से साम्राज्य में प्रगति होती रही। बसिक की दानशीलता भी प्रशंसनीय मानी जाती है। लेकिन बसिक के शासन समय में तुर्की सेनापति का प्रभाव साम्राज्य पर बढ़ता चला गया। खलीफा ने प्रधान तुर्की सेनापति को सुलतान का पद देना शुरु कर दिया था जिसके बाद उसने शासन पर भी अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर दिया। अब तो वे अपनी इच्छा से खलीफा को गद्दी पर बैठाने लगे अथवा खलीफा बन बैठे। इस प्रकार खलीफा की शक्ति में कमी आती रही और यह सिर्फ नाम का ही प्रधान समझा जाने लगा।
अब्बासी वंश का आखिरी शासक बसिक था जिसने अब्बासी वंश की गरिमा को सुरक्षित रखा। उसकी मृत्यु के साथ ही अब्बासी – शासन की सारी रौनक जाती रही । यह ठीक है कि उसके बाद भी सदियों अब्बासी खलीफा शासन करते रहे, किन्तु वे केवल नाममात्र के थे। मुत्तावक्किल, मुनतास्सीर, मुतामिद अल्लाह, मुताजिद इल्लाह, मुक्तफी, मुत्तादीर इल्लाह, काहिर इल्लाह, अल-राजी, मुश्तकफी, मुत्ती, कईम, मुस्तफाओं के शासनकाल में अब्बासी साम्राज्य का पतन होता चला गया। अन्त में अल-मुतावक्किल के शासनकाल के बाद (1548 ई.) अब्बासी साम्राज्य का पूर्ण रूप से विनाश हो गया।
स्वतंत्र राज्यों का उदय (Origin of Independent States)
पश्चिमी क्षेत्रों के कई छोटे-छोटे राज्य, अब्बासी साम्राज्य के कमजोर पड़ते ही सिर उठाने लगे। अब्बासी खलीफा उनको नियंत्रित करने में असफल रहे। स्वतंत्र राजवंशों की स्थापना हुई। इसमें से कुछ तो बड़े ही प्रभावशाली साबित हुये जिनका आगे भी वर्णन किया गया है। इन राजवंशों की स्थापना से अब्बासी प्रभुत्व पर गहरी आँच आयी और अन्त में तो अब्बासी राजवंश गर्त में चला गया। कुछ प्रमुख स्वतंत्र राज्यों पर नीचे प्रकाश डाला गया है।
ताहिरी वंश (Tahiri Ancestry )
ताहिर, जो मामून के समय का प्रसिद्ध सेनापति था, ने यह वंश की स्थापित किया था। ताहिर के उत्तराधिकारियों ने भारतीय सीमा तक अपने प्रभुत्व का विस्तार किया। उन्होंने नेसाबर (Naysabur) को अपनी राजधानी बनाकर 872 ई. तक शासन किया। इसी वर्ष शफरीदियों ने उनके क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
शफरीदी वंश ( 867-908 ई.)- फारस में शफरीदी वंश की स्थापना याकूब द्वारा की गयी। इसी वंश के शासकों ने 908 ई. तक शासन किया। शफ्फार ने भी भारतीय सीमा तक अपने प्रभुत्व का विस्तार किया। उनकी शक्ति इतनी तेजी से बढ़ी जिसने खलीफा अल मुतामिद को भी अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिये विवश कर दिया। आखिर में उनकी शक्त्यिों को समानियों द्वारा नष्ट कर दिया गया।
समानी राजवंश (874-499) – भारत में मसर इन अहमद द्वारा समानी वंश की स्थापना की गई थी। इस वंश के प्रभुत्व का सर्वाधिक विकास इब्न-अहमद के भाई इस्माईल (802-907 ई.) ने किया। उसने शफरीदियों से 900 ई. में खुरासान को छीन लिया। नसर इब्न अहमद द्वितीय (919-948 ई.) राज्य विस्तार की दृष्टि से काफी सफल शासक सिद्ध हुए शासनकाल में समानी साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ। इसमें सीजिस्तान, करमान, जुरजान, अल-राय, तबरिस्तान, खुरासन तथा ट्रांसऑक्सियाना आदि के क्षेत्र शामिल थे। समानी राज्य की राजधानी बुखारा तथा समरकन्द का भारी विकास हुआ जिसने बगदाद को भी पीछे छोड़ दिया। फारसी साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल आदि की समानी प्रभुत्व काल में काफी प्रगति हुई। कुछ समय बाद तुर्की के द्वारा समानी राजवंश का समापन कर लिया गया।
पूर्व में भी कुछ राजवंशों का उल्लेख मिलता है जिनमें-गजनवी राजवंश, बुवाहिन्द राजवंश, सलजुक वंश आदि प्रमुख हैं। पूर्व के इन राजवंशों को प्रधान रूप से तुर्की द्वारा स्थापित किया गया था। कुछ स्वतंत्र छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना की गई थी। उसी समय पश्चिम में प्रधान रूप से अरब मूल के नेताओं ने अनेक छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना की। पश्चिम के राजवंशों में-स्पेन का उमैयद राजवंश, इद्रीसी वंश, अघलाबिद, राजवंश, मिस्र तथा सीरिया की तुलुनी राजवंश (Tuturis), अल-सुस्तात का इख्शीदी वंश (Ikhushidis), हमदानी वंश आदि का नाम प्रमुख था।
स्पेन का उमैयद राजवंश (Ummaryids Ancestry of Spaln)
स्पेन के कोर्डीवा नामक स्थान पर अब्बासी राजवंश के वंशज रहमान ने उमैयद राजवंश की स्थापना की। इस्लाम के इतिहास में यह एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण वंश है जिसका विवरण आगे तक देखने को मिलता है
इद्रीसी राजवंश (788-974 ई.)–अलीदी नेता इन-अब्दुला ने मोरक्को नामक स्थान पर इद्रीस राजवंश की स्थापना की थी। यह साम्राज्य लगभग दो शताब्दियों तक स्थापित रहा. और अन्त में कोडर्डोवा के उमैयद शासक खलीफा अल-हाकिम द्वितीय ने इस वंश को नष्ट कर दिया। इद्रीसी राजवंश इस्लाम के इतिहास में पहला शिया राजवंश था। इद्रीसियों की राजधानी फेज थी।
अघलाबिद (800-900 ई.)-इद्रीसियों के समन अघलाबिदों द्वारा एक ऐसा राजवंश स्थापित किया गया जिस पर अब्बासियों का कोई अधिकार नहीं था। अघलाब के अनेक उत्तराधिकारी उसी भाँति ही शक्तिशाली और योग्य प्रमाणित हुए। अचलाबिदों ने अपनी जल-शक्ति नौ सेनां का काफी विकास किया था और उन्होंने इटली, फ्रांस, कोरसीका, सीनिया आदि यूरोपीय राज्यों के तटवर्ती क्षेत्रों पर अनेकों बार चढ़ाइयाँ कीं तथा लूटपाट मचायी। इस वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक जीयादत अल्ला प्रथम था। उसने यूरोपीय राज्यों को अनेकों बार लूटा तथा प्रसिद्ध अल-कारवॉन की मस्जिद का निर्माण करवाया। अघलाबिदों के प्रभुत्व काल में इस्लाम का पूर्वी अफ्रीका में व्यापक प्रचार हुआ। फातीमी आखिरी शासक जीयादत अल्ला तृतीय ने अपना शिकार बना लिया।
तुलुनी राज वंश (868-905 ई.)- यह वंश अहमद इब्न तुलुन द्वारा मिस्त्र में स्थापित किया गया। इसने अपने शासनकाल में मिस्र का चौमुखी विकास हुआ। अब मिस्र अत्यन्त सम्पन्न राज्य बन गया। साथ ही, अनेक सुधार लाकर इस वंश के शासकों ने प्रशासन को संगठित किया तथा मिस्र को शक्तिशाली बनाया। इस वंश के शासकों ने जन-कल्याण के उद्देश्य से महत्त्वपूर्ण कार्यों का संपादन भी किया। कृषि, उद्योग-धंघे, वाणिज्य व्यवसाय के साथ-साथ इस काल में मिस्री कला का भी कम विकास नही हुआ इस्लामी स्थापत्य कला का आदर्श उदाहरण अहमद इब्न तुलुन की मस्जिद है। इस्लामी कृति का एक अद्भुत नमूना खुमारवे (Khumarawayh) अहमद के पुत्र का महल है। विशेष रूप से उसका स्वर्ण-कक्ष (Golden hall), जिसकी दीवारों पर सोने की बड़ी सुन्दर नक्काशी की गयी थी। इस कक्ष में खुमारवे तथा उसकी पत्नी के आदमकद चित्र की नक्काशी काष्ट-खण्ड पर की गई है, जैसा इस्लामी भवनों में ही कहीं देखने को मिलता है। स्वर्ण-कक्ष एक बगीचे के मध्य में बनवाया गया था। बाद में तुलुनी राजवंश का अन्त करके अब्बासियों ने पुनः इसे अपने अधीन कर लिया ।
इख्शीदी राजवंश (935 – 69 ई.) – यह राजवंश अधिक समय तक शासन नहीं कर सका इस राजवंश पर पुनः इख्शीदियों ने अपने प्रभुत्व जमा लिया । मक्का और मदीना पर भी उनके प्रभुत्व की स्थापना हो गयी । मुहम्मद के दो उत्तराधिकारी पुत्र केवल नाममात्र के शासक थे। उनके शासनकाल में एक योग्य अबीसीनियाई हिजड़े अबू अल-मिस्क काफर का उत्थान हुआ, जो वास्तविक अर्थ में शासन का कर्ता-धर्ता बन बैठा। बाद में तो 966 से 968 ई. तक वह अकेला शासक बना रहा । उसने मिस्र तथा सीरिया की सुरक्षा हमदानियों के आक्रमणों से की। लेकिन इख्शादी वंश का कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा। कुछ समय बाद फातिमी सेनापति जवाहर ने इस वंश को नष्ट कर दिया ।
हमदानी राजवंश (Hamdani Ancestry)
इशी वंश का कट्टर प्रतिद्वंद्वी हमदानी वंश इस्लामिक इतिहास में लोकप्रियता हासिल करने में काफी सफल रहा। अल मावसील हमदानियों की राजधानी थी। हमदानियों ने इख्शीदियों से उत्तरी सीरिया, अलप्पो तथा होम्स आदि क्षेत्रों को छीन लिया था। इस वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक सयफ-अल दवला हुआ, जो ज्ञान-विज्ञान का महान संरक्षक था। उसने इस्लाम विरोधी ईसाइयों का भी नाश किया। वह स्वयं एक लब्धप्रतिष्ठ कवि था और उसका दरबार हारून एवं मामून के राजदरबार की भाँति महान् साहित्यकारों, कवियों, विद्वानों, दार्शनिकों, संगीतकारों तथा कलाकारों से शोभा पाता था। अल-फराबी उसके दरबार का एक महान् संगीतकार तथा दार्शनिक था जिसने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘अधानी’ को स्वप्रमाणित करके अल दबला को भेंट के रूप में दी जिससे . प्रसन्न होकर उसने सौ स्वर्ण मुद्राएं प्रदान कीं । महान् कवि इब्न- नुवाटा और अल-मुतनदब्बी भी उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। हमदानी राजवंश के शासनवधि में कई महान विद्वानों का पराभव हुआ जिसमें अबू अल-अला अल-माआरी (973-1057 ई.) का नाम विशेष रूप से ला जा सकता है। यह एक महान दार्शनिक कवि था । प्रसिद्ध फारसी कवि उमर खैयाम पर उसकी रचनाओं का व्यापक प्रभाव पड़ा। बैजेन्टाइनी साम्राज्य के साथ हमदानी शासकों का कई बार युद्ध हुआ। उक्त राजवंशों का उत्कर्ष होने के अब्बासी खलीफा की शक्ति एवं प्रसिद्ध दोनों का अस्तित्व मिटता गया।
पतन के कारण (Causes of Fallure)
इस्लामी सभ्यता को विश्वस्तर की सभ्यता बनाने में अब्बासी खलीफाओं ने सराहनीय कार्य किये। इसके लिये उन्होंने उमैयद वंश को नष्ट कर दिया था। अब्बासियों ने सभ्यता-संस्कृति के क्षेत्र में काफी प्रगति की थी। यूरोप के इतिहासकार में अब्बासी शासनकाल को स्वर्णयुग के नाम से सम्बोधित किया गया है। 820 ई. तक अब्बासी प्रभुत्व अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा। शासन के सम्पूर्ण अधिकार खलीफा के नियंत्रण में हो गये और खलीफा विश्व का सर्वशक्तिशाली व्यक्ति बन बैठा। बगदाद का गौरव एवं प्रतिष्ठा आसमान छूने लगा। यह अब्बासी शासन के विकास का समय था । राजनीति के अतिरिक्त अरबों ने शिक्षा – साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, कला आदि के क्षेत्रों में भी सराहनीय विकास किया गया लेकिन अब्बासी वंश की जिस गति से उन्नति हुई, उसी गति से उसकी अवनति भी हो गयी। अतः इस वंश के खलीफाओं की स्थिति दिनों-दिन विगड़ने लगी। 920 ई. तक उनकी शक्ति इतनी क्षीण हो गयी कि राजधानी बगदाद में भी उनकी शक्ति का अनुभव नहीं किया जा सकता था । प्रजा के हृदय से शासन का डर समाप्त होता जा रहा था। साम्राज्य में चारों ओर अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी । साम्राज्य टूटता चला गया। मंगोल एवं तुर्क आक्रमणकारियों ने अब्बासी खलीफा को पूरी तरह से शक्तिहीन बना दिया। 1258 ई. तक बगदाद का सारा गौरव एवं प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी। अब्बासी राजवंश के पतन अरब एकता की कहानी तथा अब्बासी साम्राज्य का अन्त हो गया। इसके पतन के अनेक कारण उत्तरदायी थे जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं–
1. शासन व्यवस्था का सही तरह से संचालन न हो पाना – दोषपूर्ण शासन व्यवस्था और सैन्य संगठन की इस राजवंश के पतन का एक प्रमुख कारण था। अब्बासी शासकों ने अपनी प्रजा पर अनेक कर आरोपित किए। मात्रा एवं संख्या की दृष्टि से ये कर जनता के लिए बड़े भारी थे और उसका वहन करना जनता के वश के बाहर का हो गया था। साथ ही उच्च अधिकारी भी जनता से गैरकानूनी ढंग से कर वसूलते थे । निस्सदेह प्रारम्भ के कुछ खलीफाओं ने जनता की भलाई एवं सुख-सुविधा का ख्याल किया, अतः लोग खुश एवं शान्त रहे । परन्तु उत्तरकालीन अब्बासी खलीफाओं ने जनता का केवल शोषण ही किया। उनकी भौतिक तथा नैतिक प्रगति का कोई भी प्रयास नहीं किया गया जिससे जनता ने शासन के खिलाफ विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया और अन्त में अब्बासी साम्राज्य पतन की ओर चल पड़ा।
2. सेना को सही तरह से संगठित न कर पाना – अब्बासी काल के दौरान सेना संगठित और अधिकारी चरित्रवान थे । उनको साम्राज्य के प्रति निष्ठा थी । इन संगठित सेना के बल पर ही अब्बासियों ने एक विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की थी। सेना की सहायता से साम्राज्य में आंतरिक शांति एवं व्यवस्था की स्थापना हो पायी थी और बाह्य आक्रमणों से न केवल साम्राज्य को सुरक्षा प्रदान की गयी थी, बल्कि साम्राज्य का अद्वितीय विस्तार भी हुआ। साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ कालांतर में सैनिक संगठन दोषपूर्ण होता चला गया। साम्राज्य विस्तार के चलते साम्राज्य की सम्पन्नता में वृद्धि हुई। सम्पन्नता ने सैनिकों को श्रम, महत्त्वाकांक्षा, कर्तव्य परायणता, राजभक्ति जैसे आदर्श गुणों से विभूषित किया। इसी बीच मुतासिम ने एक स्थायी सेना का संगठन किया। इसमें तुर्क तथा गैर अरब जाति के लोगों की प्रधानता थी। सभी नस्ल और राष्ट्र के सैनिक अपने-अपने नायकों के नेतृत्व में काम करते थे। साथ ही अब तुर्की तथा अरबी सेनापतियों के बीच प्रभुत्व का संघर्ष प्रारम्भ हुआ जिसके कारण सेना असंगठित हो गयी। सेना एवं प्रशासन पर अब तुर्कों का प्रभाव बढ़ता चला गया। परिणामस्वरूप अब्बासी साम्राज्य हेतु ये सभी तत्व खतरनाक साबित हुए।
3. कुछ धार्मिक कारणों का योगदान अब्बासी साम्राज्य कई धर्मों के लोग निवास करते थे। इन सभी में एकता का अभाव था जिसके कारण उनमें विवाद होता रहता था जिसमें शिया, करमाती, इस्माइती, एसेसिन आदि सम्प्रदाय एकता एवं बन्धुत्व के भयंकर शत्रु प्रमाणित हुए। साम्राज्य के पश्चिमी भागों में फातिमी वंश के लोगों ने अपना प्रभाव जमा लिया। दूसरी ओर पूर्वी भागों पर करमातियों ने अपनी अधिकार स्थापित कर लिया। इस्लाम तथा उसे मानने वाले इतने निष्प्रभावी हो गये कि उनके साम्राज्य का पतन हो गया ।
4. दोषपूर्ण सामाजिक एवं नैतिक तत्त्वों का योगदान – अब्बासी साम्राज्य का विस्तार अत्यधिक व्यापक था जिसमें अरबों के साथ-साथ अन्य वर्गों के लोग की निवास करते थे जिनमें धार्मिक मतभेद होने के कारण अराजकता फैल गयी और वे असंगठित हो गयीं। अरबों और गैर-अरबों के बीच, अरब के मुसलमानों तथा नये मुसलमानों के बीच, मुसलमानों तथा जिम्मियों के बीच एकता नाम मात्र की भी नहीं थी। स्वयं अरब जातियों के बीच एकता, सहयोग एवं सद्भावना की कमी थी। उत्तरी तथा दक्षिण अरब के निवासी एक-दूसरे के कट्टर शत्रु बने रहे। सेमेटिक अरबों, ईरानियों, तुर्कों आदि के बीच पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष की भावना विद्यमान थी। ईरानी अरबी अपनी-अपनी श्रेष्ठता पर कायम थे। वे नियमों को मानने पर बाध्य नहीं थे। सीरियावासियों को अभी भी इसकी आशा थी कि उनके देश में पुनः सुफयानी जन्म लेगा और उन्हें अब्बासियों की गुलामी से तब आजादी मिल सकेगी। स्पष्ट है कि साम्राज्य की विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक एकता एवं संयोग की नितांत कमी थी। सामाजिक एकता के अभाव में किसी भी साम्राज्य को स्थापित्य प्राप्त नहीं हो सकता है।
5. कुछ आर्थिक कारणों का योगदान-अब्बासी खलीफाओं के शासनकाल में अनेक प्रकार के कर थोप दिए गए जिससे उनकी आर्थिक दशा काफी सोचनीय हो गयी। ऐसी स्थिति में साम्राज्य में कृषि, उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का पतन होना स्वाभाविक था । अमीरों और गरीबों के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन गहरी होती चली गयी। अमीर और सम्पन्न तथा गरीब और निर्धन होते गये। उत्तरकालीन अब्बासी युग में साम्राज्य टूट गया और अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गये। आर्थिक प्रगति के मार्ग में साम्राज्य की शक्ति का पतन बहुत बड़ा रोड़ा प्रमाणित हुआ। किसानों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। इससे कृषि कार्य को कम महत्वपूर्ण समझने लगे। उसी समय प्रभु ने अब्बासी खलीफाओं की कठिन परीक्षा ली, उनके साम्राज्य में कई प्रकार की महामारी फैल गयी, अकाल पड़ने लगा। राज्य की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गयी। साथ ही वहाँ के निवासियों का बुरा हाल हो गया। सहस्रों को संख्या में लोग दुर्भिक्ष एवं महामारियों के शिकार हुए। साम्राज्य की सम्पन्नता जाती रही और अन्त में साम्राज्य का पतन हो गया।
6. विकेन्द्रीकरण की शक्तियों का प्रभाव में आना-बगदाद का सुन्दरीकरण करने में अब्बासी खलीफाओं ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति को न्यौछावर कर दिया। क्योंकि साम्राज्य की पूरी सत्ता उन्हीं के हाथ में होती थी। खलीफा के आदेशों का पालन वजीर सेनापति तथा गवर्नर सभी बड़े तत्परता के साथ करते थे। परन्तु, उत्तरकालीन विलासी एवं अयोग्य खलीफाओं के शासनकाल में केन्द्रीय शक्ति क्षीण होती गयी। इस प्रकार साम्राज्य के पश्चिमी तथा पूर्वी क्षेत्रों में धीरे-धीरे अनेक छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना होती गयी। पश्चिमी स्पेन में उमैयद वंश, इद्रीसी वंश, अघलाबिद वंश, तुलुनी वंश, इख्शीदी वंश, हमदानी वंश आदि की स्थापना हुई। इसी प्रकार पूर्व में ताहीरीदी वंश, शफरीदी वंश, समानी वंश, गजनवी राजवंश, बुवाहिद वंश आदि की स्थापना हुई जिसके कारण केन्द्र का अस्तित्व घटता चला गया। साम्राज्य के सारे प्रान्त एक-एक कर स्वतन्त्र होते गये। अधिकांश राज्यों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी | अब्बासी साम्राज्य सिकुड़ कर छोटा और शक्तिहीन हो गया। जल्द ही मंगोलों तथा तुर्क आक्रमणकारियों ने साम्राज्य की रही-सही शक्ति का भी नाश कर दिया। 1258 ई. तक बगदाद की बचे-खुचे प्रतिष्ठा को भी रौंद डाला तथा अब्बासी साम्राज्य का पतन हो गया। ।
7. शासकों का विलासी व चरित्रहीन होना: मुतासिम के उत्तराधिकारी शासकों का विकास एवं चरित्रहीन होना भी इस साम्राज्य के पतन का एक कारण बना। क्योंकि तत्कालीन शासक शराब एवं संगीत के आदी बन गये। धर्म, प्रशासन, जनकल्याण, सांस्कृतिक प्रगति आदि बातों से अब उनका दूर का लगाव भी नहीं रह गया। ऐसे शासकों के शासनकाल में केन्द्रीय शक्ति का अवसान होता गया। साम्राज्य में विद्रोहों एवं षड़यन्त्रों का बोलबाला हो गया तथा साम्राज्य बाह्य आक्रान्ताओं का शिकार हो गया। पूर्व के अब्बासी शासकों ने साम्राज्य को विकास के शिखर तक पहुँचाया। लेकिन उनके अयोग्य विलासी एवं दुष्चरित्र अब्बासी खलीफाओं ने पुनः उसे गर्त की खाई में डाल दिया
8. सामाजिक दोष एवं नैतिकता का पतन : अब्बासी सम्राज्य का विस्तार होने से कारण उसमें विभिन्न जाति के लोगों का समावेश हुआ, उन जातियों के प्रभाव से अरब जाति के लोगों की सभ्यता धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। साम्राज्य पर अरबों के स्थान पर गैर- अरब जातियों का प्रभाव बढ़ता गया। इस काल में राजनीति, प्रशासन एवं संस्कृति पर ईरानी प्रभाव व्यापक रूप से स्थापित हो गया। कालांतर में मंगोलों तथा । तुर्कों ने भी प्रशासन को काफी प्रभावित किया । इस प्रकार अरबों की मर्यादा एवं राष्ट्रीय गौरव जाता रहा और अरबों में हीन भावना आ गयी। विदेशी प्रभुत्व के काल में इस्लामी समाज में भी अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गयीं। हरम की संस्था स्थापित हुई, समाज का वातावरण विलासपूर्ण हो गया। समाज एवं दरबार में षड़यन्त्र रचे जाने लगे। इस प्रकार विकृत सामाजिक एवं नैतिक कारणों मे भी शक्तिशाली अब्बासी साम्राज्य को गहरी चोट पहुँचायी।
9. उत्तराधिकारियों का प्रभावशाली न होना – तत्कालीन अब्बासी खलीफाओं के महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन खलीफाओं के शासनकाल में अब्बासी साम्राज्य अत्यधिक फला-फुला मामून, हारून तथा मंसूर शासकों का स्थान विश्व शासन में वह एक सुसंगठित साम्राज्य के रूप में उभरकर विश्व मंच पर उपस्थित हुआ जिससे इस्लामी इतिहास में एक स्वर्णयुग की स्थापना हुई। परन्तु, प्रगति की यह स्थिति स्थाई सिद्ध नहीं हो पायी। मुतासिम तथा अल-बसिक के उत्तराधिकारी अब्बासी खलीफा की तुलना में अयोग्य साबित हुये । इस प्रकार विस्तृत साम्राज्य को संगठित रखने, प्रशासन को समुचित रूप से संचालित करने अथवा आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से साम्राज्य का विकास करने में असफल रहे, न तो शांति व्यवस्था कायम रख सके, न ही बाह्य आक्रमणों से साम्राज्य को सुरक्षित रख सके जिससे उनकी अयोग्यता सिद्ध हो गयी। इस प्रकार बसिक के उत्तराधिकारी–मुत्तावक्किल, मुनतास्सीर, मुतामिद अल्लाह, मुत्तफी आदि से लेकर अन्तिम खलीफा अल-मुतावक्किल तक के बीच कोई एक खलीफा इतना भी योग्य प्रमाणित नहीं हुआ, जो कम-से-कम पतनोन्मुखी साम्राज्य को थोड़ा सहारा देता अथवा नवजीवन एवं शक्ति का संचार कर थोड़े समय के लिए भी साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करता । इस प्रकार दुर्बल, अयोग्य एवं महत्त्वाकांक्षाहीन शासकों ने अब्बासी साम्राज्य को पतन की ओर : आग्रसर किया।
10. अपने अभियानों को बीच में ही छोड़ना – प्रारम्भ के अब्बासी खलीफाओं के विजय अभियानों को कोई सार्थकता नहीं प्राप्त हुयी। उनके दमनकारी नीति से प्रभावित होकर उनका स्वामित्व धूमिल पड़ गया। वे हृदय से इस्लामी साम्राज्य के समर्थक अथवा प्रशंसक नहीं थे। जब तक अब्बासी खलीफा योग्य’ एवं शक्तिशाली रहे, इन राज्यों ने बगदाद का नेतृत्व स्वीकार किया। परन्तु जैसे ही विलास एवं अयोग्य खलीफाओं के शासनकाल में केन्द्रीय शक्ति क्षीण हो गयी, ये राज्य अब्बासी शासकों के खिलाफ हो गये।
11. बाह्य आक्रमण–गरीबी, बीमारी, एकता के अभाव, आपसी फूट के चलते जनता का विश्वास अब्बासी साम्राज्य से खत्म हो गया। मौका पाते ही इस साम्राज्य पर मंगोलों ने आक्रमण कर दिया। हलागू अब्बासी साम्राज्य पर एक शक्तिशाली सेना के साथ 1253 ई. में आक्रमण करने के लिये मंगोलिया से पहुँचा। प्रारम्भ में वह ख्वारिज्म के अवशेष पर पनपते हुए इस्माइली हत्यारों की बढ़ती हुई ताकतों को दबाने के पक्ष में था। वस्तुतः इस्माइली अब्बासियों के भी प्रधान शत्रु बन बैठे थे। हलागू को उम्मीद थी कि खालीफा उनकी सहायता करेगा लेकिन खलीफा ने कोई रुचि नहीं दिखायी। हलागू ने अकेले ही 19856 ई. तक इस्माइलियों की शक्ति को कुचलका अलामूत को अपने नियंत्रण में कर दिया। मंगोल अपनी नृशंसता के लिए प्रसिद्ध थे। वे मानवता और सभ्यता के बड़े दुश्मन थे। हत्या के इस दौर में वे बच्चे-बूढ़ों सभी को मौत के घाट उतार देते थे।
यद्यपि हलागू प्रारंभ से ही खलीफा को नष्ट करने का प्रयास था, फिर उसे बहाना भी मिल गया क्योंकि इस्माइलियों के खिलाफ युद्ध में खलीफा ने किसी प्रकार की सहायता नहीं दी थी। 1257 ई. के सितम्बर माह में उसने खलीफा को राजधानी के बाहरी दीवारों को तोड़ने तथा आत्म-समर्पण करने का आदेश दिया। जब खलीफा ने हलागू की आज्ञाओं का पालन नहीं किया तो जनवरी, 1258 ई. में हलागू ने आगे बढ़ कर अपने सरदारों को राजधानी की दीवारों को तोड़ देने का आदेश दे दिया। बाध्य होकर खलीफा ने अपने वजीर इब्न-अल-अलकामी तथा सैकड़ों अन्य अधिकारियों को हलागू के पास शान्ति-समझौता के उद्देश्य से भेजा और खुद खलीफा ने एक बड़े दस्ते के साथ जाकर विनती की लेकिन हलागू किसी भी प्रकार के समझौते के लिये बाध्य नहीं हुआ। उसने खलीफा और उसके परिवार की हत्या करवा दी और राजधानी को लूटने के वाद उसे आग के हवाले कर दी। ऐसा पहली बार हुआ जब इस्लाम के इतिहास में शुक्रवार के नमाज में किसी खलीफा का नाम न पढ़ा गया हो।
इस सफलता के बाद हलागू बगदाद की ओर रूख किया। वह आगे बढ़ता रहा और 1260 ई. में वह उत्तरी सीरिया तक जा पहुँचा। जल्द ही उसने अल्लपों पर अधिकार कर लिया और वहाँ लगभग पच्चास हजार लोगों की हत्या कर दी। हमा, हरीम आदि शहरों पर मंगोलों का अधिकार हो गया। लेकिन उसी दौरान उसके भाई की मौत हो गयी और वह तुरन्त वापस लौट गया। यद्यपि हलागू की सेना ने सम्पूर्ण सीरिया पर अधिकार कर लिया, बेबर्स ने मंगोलों को बुरी तरह से पराजित कर दिया। वे मिस्र के खलीफा नजारेथ के प्रसिद्ध सेनापति थे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण सीरिया पर मामलूकों का अधिकार हो गया और पश्चिम की ओर मंगोलों का प्रसार रुक गया। यद्यपि बाद में लौट कर हलागू ने पुनः सीरिया पर अधिकार करने के उद्देश्य से फ्रेंकों के साथ संधि करने का प्रयास किया, लेकिन इसमें वह सफल नहीं हुआ। फिर भी हलागू ने अब्बासी राजवंश को समाप्त कर दिया तथा सम्पूर्ण ईरान में मंगोल सत्ता की स्थापना कर दी। उसने ‘इल-खान’ की उपाधि धारण की और 1265 ई. तक ईरान पर राज्य करता रहा । इसी वर्ष अर्थात् 1265 ई. में इसकी मृत्यु हो गयी ।
ईरान पर हलागू और उसके वंशजों का लगभग 75 वर्ष तक शासन रहा। इस बीच फारसी साहित्य की पर्याप्त प्रगति हुयी । हलागू ने मरघा को अपनी राजधानी बनाया था। यहाँ उसने एक सुन्दर महल, अपनी प्रसिद्ध लाइब्रेरी तथा एक वेघशाला का निर्माण करवाया था। मंगोल-उत्कर्ष के इस काल में दमिश्क मंगोलों का एक अधीनस्थ प्रान्त रह गया। जब महमूद गजनी शासक बना, उसने इस्लाम को राजधर्म की मान्यता दी जिसे मंगोलों द्वारा भी स्वीकार किया गया।
ऑटोमन तुर्कों का अभ्युदय (Rise of Ottoman Turks)
वास्तव में मंगोलों को अत्यधिक सफलता प्राप्त हुई थी किन्तु इस्लामी साम्राज्य के विस्तार से लेकर सैनिक श्रेष्ठता स्थापित करने का श्रेय सजातीय ऑटोमन तुर्कों को मिला है। वस्तुतः ऑटोमन तुर्क इस्लाम के अन्तिम समर्थक थे। सुलेमान (1520-1563 ई.) के शासनकाल में ऑटोमन तुर्कों का साम्राज्य दूर-दूर बगदाद से बुडापेस्ट तक तथा असवान से जिब्राल्टर तक फैल गया। सुलेमान के पिता सलीम ने मिस्र के मामलूक खलीफा को भी परास्त कर दिया था। उन दिनों अब्बासी वंश के खलीफा भी मामलूकों से संरक्षण में रह रहे थे। अब्बासी वंश का अन्तिम खलीफा मुतावक्किल काहिरा में रहा करता था। मुतावक्किल ने अपनी सारी प्रशासनिक शक्ति तुर्की के सुलतान सलीम को सौंप दी थी । अन्त में मुतावक्किल का 1543 ई. में देहान्त हो गय और इसी के कुछ समय बाद अब्बासी साम्राज्य का नामोनिशान मिट गया।
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