पाठ्यक्रम सहभागी किया से क्या तात्पर्य है ? उसके महत्व की विवेचना करें ।

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प्रश्न – पाठ्यक्रम सहभागी किया से क्या तात्पर्य है ? उसके महत्व की विवेचना करें ।
उत्तर- सहपाठ्यक्रम अथवा पाठ्यान्तर क्रियाओं का अर्थ उन शैक्षिक क्रियाओं से है जो पाठ्यक्रम के साथ-साथ चलाई जाती हैं। ये क्रियाएँ पाठ्यक्रम को बल तो प्रदान करती हैं परंतु जीवन में रहने की कला में भी प्रशिक्षण देती हैं। इन क्रियाओं को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग माना जाता है । सहपाठ्यक्रम वह पाठ्यक्रम है जिसका आयोजन विभिन्न विषयों के शिक्षण-कार्य के अतिरिक्त विद्यालय में आयोजन किया जाता है । इसमें वे सभी क्रियाएँ आ जाती हैं जिनसे बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायता मिलती है । सहपाठ्यक्रम का दूसरा नाम पाठ्यान्तर सहगामी क्रियाएँ हैं। ।
पाठ्यान्तर क्रियाओं का महत्व (Importance of Co-curricular Activities) – शिक्षा का लक्ष्य छात्र की सर्वांग उन्नति है। छात्र की सर्वांग उन्नति में पाठ्यान्तर क्रियाओं का विशेष महत्व है ।
पाठ्यान्तर क्रियाओं का पाठ्यक्रम में उतना ही महत्व है जितना अन्य विषयों का । शिक्षा का लक्ष्य केवल 3 Rs ( Reading, Writing and Arithmetic) पढ़ना, लिखना तथा गणित की शिक्षा देना नहीं है अपितु 7 Rs (Reading, Writing, Arithmetic, Right, Responsibility, Relationship, Recreation) की शिक्षा देना है । यह शिक्षा तभी दी जा सकती है जबकि पाठ्यांतर क्रियाओं का स्कूल में उचित प्रबंध हो । वास्तव में जीवन की शिक्षा देने के लिए यह क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अन्य विषयों से भी महत्वपूर्ण हैं |
प्रत्येक विद्यालय ‘क्रियाशील विद्यालय’ (Activity School) होना चाहिए । ऐसे विद्यालय में छात्रों को ‘जीवन की शिक्षा’ (Education for life) मिल सकती है तथा उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं और वह जनतंत्रवाद के लिए प्रशिक्षण ले सकते हैं। पाठ्यान्तर क्रियाएँ इसमें विशेष भूमिका निभाती हैं । इन क्रियाओं का निम्नलिखित महत्व है :
1. उपयुक्त वातावरण का प्रारूप – माध्यमिक शिक्षा आयोग, 1952-53 ने कहा है “माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों में उचित मात्रा में नागरिक व्यावसायिक दक्षता और साथ ही चारित्रिक गुणों को लाने की जिम्मेदारी स्वयं लेनी चाहिए, जिससे वे राष्ट्रीय जीवन के सुधार में अपना योगदान निपुणतापूर्वक कर सकें। उन्हें ऐसे असहाय, साधनहीन व्यक्ति के रूप में नहीं बनना है, जो यह भी न जानते हों कि वे स्वयं क्या करें ।” विद्यालय शिक्षा की एक महत्वपूर्ण औपचारिक एजेन्सी है। यह बच्चे के विचारों, आदतों और रुचियों को मोड़ता है जिससे वे व्यक्तित्व की दृष्टि से सुसन्तुलित, शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ, मानसिक रूप से जागरूक, भावना की दृष्टि से स्थिर, सांस्कृतिक दृष्टि से शक्तिशाली और सामाजिक रूप से दक्ष बन सकें । शिक्षा की अनौपचारिक एजेन्सियाँ जैसे धर्मस्थान और घर आदि आज के समाज की बढ़ती हुई शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति से असफल हो गई हैं तथा उनका महत्व प्रतिदिन कम हो रहा है। विद्यालय एक सामाजिक संस्थान है जिसकी स्थापना समाज ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की है । यह वह स्थान है जहाँ नागरिकों को निश्चित प्रकार के कार्यक्रमों में प्रशिक्षित किया जाता है। विद्यालय में बच्चों की शिक्षा के लिए सामाजिक वातावरण प्रदान किया जाता है । इस प्रकार का वातावरण पाठान्तर क्रियाएँ प्रदान करती हैं ।
डॉ. जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Hussain) के शब्दों में, “हमारे सभी विद्यालय कार्य समुदाय होंगे । इन शैक्षणिक संस्थाओं में, छात्रों को प्रयोग करने, खोज करने, कार्य करने, रहने की सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए, जहाँ ‘कार्य’, चरित्र का निर्माण करेगा, जहाँ ‘रहना’ जीवन का निर्माण करेगा, सभी स्वस्थ कार्यों और अच्छे जीवन की तरह वे उन सहयोगी सामुदायिक घरों की तरह बन जाएँगे जो अपने आन्तरिक स्व- अनुशासन, स्व-अनुभव और आपसी सहायता से सहयोग एवं आत्मबल की वृद्धि, उत्तरदायित्वों की स्वीकृति के कार्यों में लगे रहेंगे।” इस प्रकार का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जबकि विद्यालय में अनेक पाठ्येत्तर क्रियाओं के आयोजन का प्रबंध हो ।
2. मूल प्रवृत्तियों का उन्नयन (Sublimation of Instincts) – पाठ्यान्तर क्रियाओं द्वारा किशोरावस्था (Adolescence) की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सामूहिक जीवन की मूल प्रवृत्ति बहुत उग्र होती है। छात्र सामूहिक जीवन चाहते हैं। यदि उन्हें उचित सामूहिक जीवन नहीं मिलता तो वे स्वयं अपनी ही टोलियाँ बनाएँगे । ये टोलियाँ अथवा संघ उनके लिए तथा समाज के लिए भी हानिकारक हो सकते हैं। उनकी शक्ति का दुरुपयोग होगा और वे समाज की दृष्टि से अवांछनीय कार्य करते हैं । अध्यापक यदि उचित मार्ग-निर्देशन नहीं करते तो छात्र सर्वनाश के मार्ग पर चलना शुरू कर देते हैं । शिक्षकों को चाहिए कि वे विभिन्न पाठ्यान्तर क्रियाएँ, स्वशासन, समाज सेवा की संस्थाएँ, स्काउटिंग आदि का प्रबंध करें जिनके द्वारा छात्रों को मूल प्रवृत्तियों के उन्नयन में ये पाठ्यान्तर क्रियाएँ अति सहायक सिद्ध होती हैं। ये क्रियाएँ मानसिक सन्तुलन रखने में सहायता देती हैं ।
3. सामाजिक शिक्षण – सहपाठीय कार्य ‘रहने की कला’ (Art of Living) में शिक्षण देने में सहायता करते हैं। छात्रों में सहयोग, एकता और सहानुभूति के पोषण द्वारा संघ – भावना उत्पन्न होती है। सैकण्डरी एजूकेशन कमीशन ने लिखा है कि ‘रहने की कला’ एक विस्तृत धारणा है जिसमें सामाजिक जीवन की शिष्टता, सांघिक, जीवन में कार्य करने की क्षमता, धैर्य, अच्छा स्वभाव, निष्कपटता, सेवा – भावना तथा साथी की भावना अनुशासन आदि सम्मिलित हैं। ये गुण तभी धारण किए जा सकते हैं जबकि पाठ्यान्तर क्रियाएँ स्कूल में रखी.. जाएँ । छात्र इन कार्यों में भाग लेते समय व्यावहारिक सहयोग की भावना का सुन्दर पाठ पढ़ते हैं। उनमें टोली – भावना (Team Spirit) आती है और वे समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य तथा समाज का उनके प्रति कर्त्तव्य क्या है, समझते हैं ।
टोली का अच्छा सदस्य तभी बना जा सकता है जबकि टोली के हित के लिए निजी हित का त्याग किया जाए । यह सर्वविदित है कि छात्र प्रौढ़ता के मार्ग पर निजी स्वार्थ की भावना के सामाजिक जागृति की भावना पर पहुँचते हैं। आरम्भ में प्रत्येक खिलाड़ी गेंद को स्वयं ले जाना चाहता है और धीरे-धीरे अनुभव करता है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए उसे दूसरों का सहयोग लेना ही होगा, तभी गोल किया जा सकता है। टीम के अन्य सदस्यों को उसे अपना सहयोग देना ही चाहिए, आदि । स्वार्थ की भावना के स्थान पर सहयोग की भावना का निर्माण होता है ।
मेलों आदि पर सामाजिक सेवा छात्रों में सामाजिक भावना के निर्माण में सहायक सिद्ध होती है। इसी प्रकार स्कूल, मुहल्ले तथा नगर की स्वच्छता के लिए कार्यक्रम रखे जाने चाहिए ।
4. नागरिक प्रशिक्षण – गणतंत्र के सफल सदस्य बनाने के लिए तथा नागरिकता का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कराने के लिए ठीक प्रकार से तथा अध्यापकों द्वारा उचित मार्ग-निर्देशन होने पर अनेक प्रकार के कार्य छात्रों द्वारा आयोजित तथा व्यवस्थित किए जाएँ । स्वशासन प्रणाली में छात्र क्रियाशील भाग लेकर अपने अधिकार, कर्त्तव्य और दायित्व का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करता है । विभिन्न प्रकार के परिषद् स्कूल में बनाए जाएँ । छात्रों के जिम्मे अनेक प्रकार के कार्य लगा दिए जाएँ । उन्हें करने के लिए छात्रों को सहयोग और सद्भावना का पाठ मिलता है । किस प्रकार से सभाओं की सदस्यता मिलती है, कैसे सभा में बैठना चाहिए तथा भाग लेना चाहिए, वोट का उचित प्रयोग आदि में शिक्षण मिलता है। ।
5. नैतिक प्रशिक्षण – छात्रों को सामाजिक सम्पर्क के अवसर मिलते हैं तथा प्रत्येक सदस्य व्यावहारिक ढंगों से परिचित होता है और नैतिकता का पाठ पढ़ाता है । सद्भावना, सहानुभूति, सच्चाई, ईमानदारी आदि गुण सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं ।
6. अवकाश के समय का सदुपयोग – अवकाश की शिक्षा का भी उतना ही महत्व है जितना काम की शिक्षा का । यदि छात्रों में स्कूल में ही विनोद – सामग्री रुचियों का विकास किया जा सके तो बहुत ही उत्तम है। जीवन को अधिक सुखमय तथा आनन्दमय बनाने में सहायता मिलती है । कहावत है – “निठल्ले मनुष्य का मस्तिष्क भूतों का क्रीड़ास्थल है । “. अतः अवकाश के समय में मनुष्य को किसी उपयोगी और रोचक कार्य में लगे रहना चाहिए ।
अवकाश के समय छात्र नाट्य मण्डली बनाकर अपना अभिनय प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक होंगे, सुन्दर खिलौने बनाकर प्रसन्न होंगे। छात्र की संगीत – साधना में रत हो जाएँगे । इस प्रकार के अनेक प्रकार के उपयोगी कार्यों में अवकाश के समय में भी अपने को व्यस्त रखेंगे और पाप की ओर नहीं जाएँगे ।
7. पुस्तकीय ज्ञान में सहायक पाठ्यान्तर क्रियाएँ नागरिकशास्त्र, इतिहास, भूगोल, निबंध आदि में बहुत सहायता देती हैं। बाल सभा के कार्यों द्वारा छात्र केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सभाओं के काम को जान सकेंगे। ऐतिहासिक, भौगोलिक, तथा औद्योगिक स्थानों का भ्रमण छात्रों के अनुभव में बढ़ोत्तरी करके इन विषयों के ज्ञान में सहायता पहुँचाएगा । स्कूल-पत्रिका के लिए लेख भाषा का ज्ञान बढ़एगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि इन पाठ्यान्तर क्रियाओं द्वारा विषयों में रुचि उत्पन्न होती है और छात्रों का इनमें ज्ञान बढ़ता ।
8. वफादारी की भावना – जब छात्रों को स्कूल- शासन में अधिकारी कुछ उत्तरदायित्व हैं तो छात्रों के मन में स्कूल के प्रति वफादारी की भावना बढ़ती है । ‘ श्रम – सप्ताह’ अर्थात् स्कूल की सफाई का कार्य छात्रों मन में यह भावना भरता है – यह मेरा स्कूल है क्योंकि  इसे मैंने अपने श्रम से बनाया है। टूर्नामेंट तथा स्कूल के उत्सव भी छात्रों में यह भावना भरते हैं ।
9. नेतृत्व का प्रशिक्षण – छात्रों द्वारा बहुत से कार्य आयोजित तथा व्यवस्थित होते हैं। अनेक प्रकार की स्थितियों का सामना करना पड़ता है। तत्कालीन निर्णय लेने पड़ते हैं। ऐसा करते समय छात्रों में नेतृत्व के गुणों अर्थात् सत्यता, धैर्य, उत्साह, सहिष्णुता, विवेक, हृदय की विशालता, ईमानदारी, आत्मनिर्भरता, नि:स्वार्थता, कार्यरत रहना, आत्मविश्वास, मौलिकता, दक्षता, निर्णय करने की शक्ति, साधनपूर्णता आदि गुणों का विकास होता है। नियमित पाठ्यक्रम द्वारा इन गुणों को प्रोत्साहन नहीं मिलता ।
10. व्यक्तिगत रुचियों और प्रवृत्तियों के विकास में सहायक – प्रत्येक छात्र को पाठ्यान्तर क्रियाओं द्वारा अपनी रुचि के अनुसार काम करने का अवसर प्राप्त होता है तथा उसकी स्वाभाविक शक्तियाँ विकसित होती हैं । भाषण देने का, लिखने का, सामाजिक सेवा का, पत्रकारिता का, नाट्याभिनय का, संगीत तथा खेलने के अवसर प्राप्त होते हैं और अपनी कला को प्रकट करके छात्र मन प्रसन्न करते हैं ।
11. आत्माभिव्यक्ति का अवसर – पाठ्यान्तर क्रियाएँ छात्र को इस बात का मौका देती हैं कि वे अपने गुण-दोष जान सकें और अपने दोषों को दूर करके अपने गुणों का विकास करें। उन्हें अपने आपको समझने का अवसर मिलता है क्योंकि वे मन की बात कह सकते हैं और उसे पूरा करने का अवसर भी मिलता है ।
12. शारीरिक विकास – खेल, एन. सी. सी. ए ड्रिल आदि शारीरिक विकास में सहायता मिलती है ।
13. अनुशासन में सहायक – अनुशासन आत्मानुशासन बन जाता है। छात्र अनेक प्रकार के पाठ्यान्तर कार्यों में व्यस्त रहते हैं और अपने गुणों का विकास करते हैं। समय का सदुपयोग होता है और उनमें अच्छे गुण आते हैं । कर्त्तव्य की भावना आती है और अनुशासनहीनता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता ।
14. निर्देशन तथा परामर्श में सहायक – सहपाठीय क्रियाओं द्वारा छात्रों को स्वयं अपने को पूर्ण रूप से जानने का अवसर मिलता है। छात्र अपनी योग्यताओं, रुचियों, और क्षमताओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं । शिक्षकों का छात्रों के बारे में ज्ञान बढ़ता है और वे छात्रों को उनके व्यक्तित्व के विकास में निर्देशन तथा परामर्श देते ।
15. समुदाय तथा स्कूल के अच्छे संबंध – विद्यालय तथा समुदाय इन गतिविधियों द्वारा समीप आ जाते हैं ।
16. व्यावसायिक विकास – कुछ पाठान्तर क्रियाओं में भाग लेते-लेते अनेक छात्र इतने पारंगत हो जाते हैं कि वे आगामी जीवन में इन क्रियाओं को अपनी जीविका उपार्जन का साधन बना लेते हैं ।
17. कलात्मक भावनाओं का विकास – नृत्य, नाटक, लोक संगीत तथा चित्रकला आदि क्रियाओं द्वारा छात्रों में कलात्मक भावनाओं का विकास होता है ।
18. सांस्कृतिक एकता की भावना – विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य, संगीत तथा नाटकों से सम्बन्धित क्रियाएँ छात्रों को देश के विभिन्न क्षेत्रों तथा राज्यों की संस्कृति से परिचित कराती हैं तथा सांस्कृतिक एकता के भावों का विकास कराती हैं ।
निष्कर्ष-सहपाठीय क्रियाएँ भी इतनी ही पुरानी हैं जितनी कि शिक्षा प्रणाली, यद्यपि पहले इनका क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं था जितना कि आज है । गुरुकुल प्रणाली में तो इन सहपाठीय क्रियाओं का विशेष महत्व था । छात्र और शिक्षक इकट्ठे मिलकर रहते थे और छात्रों को वास्तविक जीवन की शिक्षा दी जाती थी । एथेंस तथा स्पार्टा में खेलकूद, व्यायाम, संगीत, स्वशासन आदि बहुत महत्वपूर्ण क्रियाएँ समझी जाती थीं ।
पाठ्‌यान्तर क्रियाओं द्वारा ही छात्र का पूर्ण व्यक्तित्व निखर सकता है । पाठ्यांन्तर क्रियाओं द्वारा ही छात्रों की स्वास्थ्य, चरित्र, रुचियाँ, अभिरुचियाँ, मनोरंजन, कार्यकुशलता तथा खेल आदि सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। ये क्रियाएँ पाठ्यक्रम की पूरक और आवश्यक अंग हैं ।
मनोविज्ञान तथा दर्शनशास्त्र से शिक्षा क्षेत्र में अपूर्व परिवर्तन आया है। समय की पुकार है कि जनतंत्रवाद के लिए शिक्षा हो । छात्रों में इस प्रकार के गुणों का निर्माण हो जिनके द्वारा वे बड़े होकर समाज के कार्यों में उचित रूप से भाग ले सकें । परम्परागत पाठ्यक्रम छात्रों में इस प्रकार के गुण निर्माण करने में असफल रहा और उसको सफल बनाने के लिए सहपाठीय कार्यक्रमों पर विशेष बल दिया जाने लगा, अतः ये कार्यक्रम पाठ्यान्तर कार्यक्रम न होकर सहपाठी ही होने चाहिए ।
मनोविज्ञान के पंडितों ने इस बात पर बल दिया कि छात्र की अभिरुचियाँ समझे बिना शिक्षा अधूरी है और सुझाव दिया कि छात्रों की शक्तियों के विकास के लिए उचित मार्ग सहपाठीय कार्यक्रम ही है ।
चूँकि पहले-पहल इस प्रकार के कार्यक्रम छुट्टी के पश्चात् रखे जाते थे इसलिए इनका नाम पाठ्यान्तर क्रियाएँ पड़ा। यह भी समझा जाता था कि इन क्रियाओं का पाठ से कोई सम्बन्ध नहीं इसलिए यह ‘अतिरिक्त’ कार्य है ।
परंतु जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, ऐसे कार्यक्रमों का तो आज की शिक्षा में एक विशेष स्थान है इसलिए इन्हें सहपाठीय क्रियाएँ ही कहना उपयुक्त होगा । इनके द्वारा ही विद्यालय ‘क्रियाशील शिक्षालय’ बनता है । इन कार्यों के सम्बन्ध में प्रिंसिपल जी. पी. सोंधी (Principal G.P. Sondhi) का कहना है ।
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