पाठ्य पुस्तक से क्या तात्पर्य है ? इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की विवेचना करें ।

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
प्रश्न – पाठ्य पुस्तक से क्या तात्पर्य है ? इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की विवेचना करें ।
उत्तर – अनुदेशनात्मक सामग्री के रूप में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली सामग्री पाठ्य-पुस्तकें ही हैं । आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पाठ्य पुस्तकों का महत्त्व सर्वविदित है। पाठ्यक्रम की वास्तविक रूपरेखा को पाठ्य पुस्तकों द्वारा ही विस्तार मिलता है, जिससे वह शिक्षक एवं छात्र दोनों के लिए सुगम हो पाता है। सीखने के अनुभवों में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । पुस्तकों के माध्यम से अतीत के ज्ञान तथा अनुभवों को संचित किया जाता है, जिससे आने वाली पीढ़ी उसका उपयोग करके लाभान्वित हो सके । पाठ्य-पुस्तक में किसी विषय विशेष का संगठित ज्ञान एक स्थान पर रखा जाता है । इस प्रकार अच्छी पाठ्य-पुस्तकें शिक्षण-प्रक्रिया में निर्देशन का कार्य करती है । अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए यह महत्त्वपूर्ण साधन है।
पाठ्य-पुस्तक का अर्थ (Meaning of Text-Book) – किसी विषय के ज्ञान को जब एक स्थान पर पुस्तक के रूप में संगठित ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे पाठ्य-पुस्तक की संज्ञा प्रदान की जाती है । पाठ्य-पुस्तक के अर्थ को सुस्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख विद्वानों के कथनों को प्रस्तुत करना यहाँ पर समीचीन प्रतीत हो रहा है ।
हैरोलिकर (Harolicker) के अनुसार, “पाठ्य पुस्तक ज्ञान, आदतों, भावनाओं, क्रियाओं तथा प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण योग है । “
हाल-क्वेस्ट (Hall-quest) के शब्दों में, “पाठ्य पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों के लिए व्यवस्थित प्रजातीय चिन्तन का एक अभिलेख है । “
लैंज (Lange) के अनुसार, “यह अध्ययन क्षेत्र की किसी शाखा की एक प्रमाणित पुस्तक होती है । “
डगलस (Duglas) का कथन है, “अध्यापकों के बहुमत ने अन्तिम विश्लेषण के आधार पर पाठ्य पुस्तक को वे क्या और किस प्रकार पढ़ायेंगे की आधारशिला माना है।”
बेकन (Bacon) का कहना है, “पाठ्य-पुस्तक कक्षा प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है । यह शिक्षण युक्तियों से भी सुसज्जित होती है ।”
पाठ्य पुस्तकों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background of TextBooks) – मानव सभ्यता के प्रारम्भ में ज्ञान मौखिक रूप से दिया जाता था। लिखने की कला का विकास लगभग छः हजार वर्ष पूर्व ही हुआ। इससे पहले ज्ञान को कंठस्थ करने की ही व्यवस्था थी । वैदिक काल में भी वेदों के श्लोकों को गुरु द्वारा शिष्यों को कंठस्थ कराया जाता था ।
पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर पाठ्य पुस्तकों के विकास का इतिहास सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है । सर्वप्रथम कमेनियस (1592-1670) ने भाषा-शिक्षण की पाठ्य-पुस्तक लिखी थी । इसके बाद पाठ्य पुस्तकों के महत्त्व को देखते हुए इसका प्रचलन बढ़ता गया तथा एक ही विषय अनेक शिक्षाविदों एवं विषय विशेषज्ञों द्वारा पाठ्य पुस्तकें लिखी जाने लगी ।
19वीं शताब्दी में फ्रोबेल, डीवी तथा महात्मा गाँधी ने पुस्तकीय ज्ञान का विरोध किया तथा अनुभव – केन्द्रित एवं क्रिया – प्रधान शिक्षा पर बल दिया । परिणामस्वरूप पाठ्य पुस्तकों के महत्त्व को कम समझा जाने लगा, किन्तु तथ्यों, सिद्धान्तों आदि के बोधगम्यता की दृष्टि से इनकी पूर्ण उपेक्षा नहीं की जा सकी ।
कुछ शिक्षा-शास्त्रियों ने पुस्तक – विहीन शिक्षण के भी प्रयोग किये, किन्तु वह भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाठ्य पुस्तकों का अन्त नहीं हो सकता है । अतः अब यह सिद्ध हो चुका है कि पाठ्य-पुस्तकों के अभाव में शिक्षण प्रक्रिया सम्भव नहीं है । शैक्षिक तकनीकी के विकास से पाठ्य-पुस्तकों के लिखने के ढंग में भी परिवर्तन हुए हैं। कुछ देशों में अभिक्रमित सामग्री के रूप में निर्मित पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा अनुदेशन प्रदान किया जाने लगा है । इसके द्वारा छात्र कठिन प्रत्ययों को भी स्वाध्याय द्वारा ही बोधगम्य कर सकते हैं। हमारे देश में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT), नई दिल्ली द्वारा भी इस क्षेत्र में कार्य किया जा रहा है । इस प्रकार परम्परागत पाठ्य-पुस्तकों के साथ-साथ इनके कई तरह के नवीन रूप भी प्रस्तुत किये गये हैं ।
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *