पितृसत्तात्मकता की अवधारणा पर प्रकाश डालें ।
प्रश्न – पितृसत्तात्मकता की अवधारणा पर प्रकाश डालें ।
उत्तर – धरती पर अधिकार के साथ-साथ ही सम्पत्ति की अवधारणा विकसित हुई अपनी सृजनात्मक क्षमता की जानकारी के साथ ही पुरुष ने मातृत्व के महत्त्व को कमतर करके आँकना प्रारम्भ किया । औजारों, उपकरणों का सृजन, भूमि पर कब्जा, सन्तानोत्पत्ति में पुरुष की सृजनात्मक क्षमता के ज्ञान ने उत्तरोत्तर पुरुष को शक्ति सम्पन्न बनाया । सन्तानोत्पत्ति में स्त्री की भूमिका ‘पोषक’ तक सीमित हो गई । धरती से पहचानी जाने वाली स्त्री ‘बीज’ की भूमिका के सम्मुख नगण्य हो गई है । पुरुष उत्पादक शक्ति का प्रतीक बना प्रजनन की जिस शक्ति ने स्त्री को ताकतवर बनाया था, पुरुष वीर्य की अहमियत स्थापित होते ही वह कमतर होती गई । स्त्री अपनी प्रजनन क्षमता को हथियार की तरह उपयोग नहीं कर पाई ।
सत्ता के इस परिवर्त्तन को ऐंगल्स स्त्री की बहुत बड़ी हार मानते हैं। अपने वंश व अपने वंशज को सम्पत्ति सौंपने की कामना ने पितृसत्ता के लिए जमीन तैयार की। अपने वंशज की चाह में स्त्री देह पर अधिकार एवं धरती पर अधिकार के लिए संसाधनों पर अधिकार पुरुष सत्ता के महत्त्वपूर्ण अस्त्र थे। जैसा कि अरविन्द जैन कहते हैं—“ धरती पर अधिकार के लिए उत्तराधिकार एवं देह पर अधिकार के लिए विवाह संस्था अनिवार्य हो गई ।” पुरुष ने न तो विचार में, न श्रम में और न ही सन्तानोत्पत्ति में स्त्री का साझा स्वीकार किया, स्त्री को एक निष्क्रिय और अक्षम साथी की भाँति स्वीकार किया, जिसकी देखभाल का दायित्व पुरष पर ठीक उसी प्रकार था जिस प्रकार पशुधन एवं जमीन की । पशुधन जमीन, स्त्री के साथ-साथ सन्तान भी पुरुष के थे, उसकी सम्पत्ति व ताकत थे । सम्पत्ति के लिए सन्तत्ति के विचार ने पितृसत्ता को क्रमशः शक्ति सम्पन्न बनाया और पुरुष की अपनी सन्तति के विचार ने स्त्री को कमजोर । पुरुष ने इस सत्ता को क्रमिक रूप से प्राप्त किया, सत्ता संस्थानों पर कब्जा पुरुष को स्त्री पर आधिपत्य के अवसर आज भी प्रदान करता है ।
केट मिलेट के अनुसार- “हमारा समाज पितृसत्तात्मक है । यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है, यदि कोई ध्यान दे कि सेना, उद्योग, प्रौद्योगिकी, विश्वविद्यालय, विज्ञान, राजनीति, कार्यालय, वित्त हस्तक्षेप में, समाज में, शक्ति के सभी अंगों में पुलिस के दमनकारी बल सहित सभी कुछ पूर्णत: पुरुर्षों के हाथ में है।” पितृसत्ता के विजय अभियान के परिणाम स्त्री के पक्ष में भयंकर निकले । सत्ता, संम्पत्ति और सन्तान से अधिकार विहिन स्त्री वस्तु मात्र रह गई ।
विवाह और उत्तराधिकार पुरुष वर्चस्व के महत्त्वपूर्ण हथियार साबित हुए । कालान्तर में पुरुष शोषण का दमन – चक्र स्त्री के खिलाफ गहरा होता गया ।
परिवार की संस्था के संस्कारगत व सांस्कृतिक आयाम नारी को उससे पूर्णरूपेण आबद्ध किए हुए हैं। भारतीय नारी परिवार तोड़कर स्वतन्त्रता व शक्ति को प्राप्त करने के लिए तत्पर नहीं है । इसी कारण वह शिक्षा व व्यवसाय के माध्यम से ज्ञान, सूचना व आर्थिक आधार प्राप्त करके भी गृहस्थ जीवन के भावनात्मक व सम्बंधात्मक परिधियों में बँधी हुई है। संस्था के रूप में परिवार का कोई उचित विकल्प समाज में उपलब्ध व स्वीकृत नहीं है । अतः गृहस्थ कार्य-भार को बिना त्यागे भारतीय नारी ने घर के बाहर व्यावसायिक कार्य को भी अपनाया है। उसकी भूमिकाओं के विस्तार ने उस पर दोहरे भार थोपे हैं। सामंजस्य व समझौते की परिस्थितियों में प्रायः नारी को ‘स्व’ की बलि देनी पड़ती है। समाचार पत्रों में छपने वाले विज्ञापनों में योग्य जीवन साथी के गुणों के विवरण में पुरुष के लिए शिक्षा, व्यवसाय की प्रकृति व आय प्रस्तुत किए जाते हैं और महिला के लिए गौर वर्ण, सौन्दर्य व स्वभाव के गुण ।
समाज में नारी के प्रस्थिति निर्माण पर पितृसत्तात्मकता का गहरा प्रभाव रहा है । यही पितृसत्तात्मकता सभी वर्त्तमान समाजों एवं कालों में सार्वभौमिक पारिवारिक व्यवस्था के रूप में सदैव विद्यमान रही है और पुरुष की शक्ति एवं सत्ता को इस व्यवस्था द्वारा निरन्तर प्रबल किया गया है। यही नहीं नारी की प्रस्थिति को निर्बल करके उसकी अबला की छवि एवं स्थितिं का निर्माण किया गया है क्योंकि नारी के शरीर के कुछ ऐसे आयाम होते हैं, जिनका सांस्कृतिक सम्बन्ध निर्मित करके दोहरे नैतिक मापदण्डों की स्थापना की गई है । विद्वानों द्वारा नारी का क्षेत्र घर की चारदीवारों में सीमित करने के लिए ही पुरुष और स्त्री के कार्य-विभाजनों को आन्तरिक एवं बाह्म स्थलों के रूप में विभक्त किया गया है, जिसके अनुसार घर के सभी कार्य और बच्चों के लालन-पालन का दायित्व नारी की भूमिका के साथ संस्थापक रूप से जोड़ दिया गया है ।
इस कार्य विभक्तिकरण का स्पष्ट प्रभाव उभरकर इस प्रकार सामने आया है— प्रथम नारी सदैव सत्ता व शक्ति की प्राप्ति से वंचित रही, क्योंकि सत्ता एवं शक्ति के अवसर, परिस्थितियाँ तथा सभी पद घर के बाहर विद्यमान होते हैं । अतः इस प्रक्रिया के पुरुषों ने इन क्षेत्रों में संस्थापक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के आधार पर एकाधिकार कर लिया । द्वितीय, समाज के सीमित क्षेत्र एवं पारिवारिक परिधि द्वारा नारी के सृजनात्मक पक्ष को भी कमजोर किया गया है। अतः समाज में नारी की सृजनात्मक क्षमताओं की अभिव्यक्ति एवं प्राप्ति के लिए सार्वजनिक एवं खुले स्थलों का अनुभव एवं अन्तः क्रिया होना आवश्यक है । पर्दा प्रथा ने नारी के क्षेत्र को सीमित ही नहीं किया, बल्कि उसको संकीर्ण भी बनाया है । शारीरिक बन्धन द्वारा मौखिक अभिव्यक्ति पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया है ताकि उसकी मानसिक-स्थिति एवं क्षमता का संस्थागत ह्रास हो सके ।
समाज में, मान्यताओं एवं विश्वासों के विशेष स्वरूपों ने नारी की प्रस्थिति एवं छवि दोनों को निम्न एवं हीन बनाने मे विशिष्ट भूमिका अपनाई है। समाज की सभी मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों में केवल महिलाओं से ही अपेक्षा की जाती है, जबकि पुरुष से किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं रखी जाती है बल्कि उसे अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएँ तथा सभी प्रकार की छूट दी जाती है । इस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज में रहने की अभ्यस्त महिलाओं की वर्त्तमान प्रस्थिति बहुत ही निम्न स्तर तक पहुँच गई है और स्वयं महिलाएँ भी इसकी आदि हो चुकी हैं कि उन्होंने कभी उस व्यवस्था का प्रतिरोध करने का सहास भी नहीं किया ।
जब कभी विचारक किसी आदर्श समाज की कल्पना करते हैं तो उसके अन्तर्गत परिवार के सभी सदस्यों का समान अधिकार प्राप्त हों और परिवार के सभी सदस्यों को निर्णय लेने का अधिकार भी हों । विद्वानों के अनुसार इस प्रकार की व्यवस्था हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का निष्पक्ष पालन करे। लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं होता है क्योंकि हमारे देश में हर क्षेत्र में पुरुष की ही प्रधानता है । आनुभाविक रूप से अब यही तथ्य समाने आ रहे हैं। हालांकि, वर्त्तमान परिस्थितियों में परिवर्त्तन आया है लेकिन यह काफी नहीं है । आज भी यह आवश्यकता है कि महिलाओं का सबलीकरण किस प्रकार किया जाए तथा सरकार द्वारा चलाई जा रही सभी योजनाओं का पूरा लाभ, किसी प्रकार से महिलाओं तक पहुँच सके, तक हमारा देश पूरी तरह से विकसित देश बन सकेगा । इस देश की जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी लगभग आधी मानी गई है । यदि आधी जनसंख्या पीड़ित होती है, तो देश का विकास सम्भव ही नहीं हो पाएगा। इसीलिए देश के चहुँमुखी विकास के लिए महिलाओं की प्रस्थिति में काफी सुधार करना अनिवार्य है।
पितृसत्तात्मकता आनुभविकता और इसका व्यावहारिक पक्ष ( PatriarchyEmperical and.its Practicable Side ) — प्रत्येक निष्पक्ष व्यक्ति को विदित हो जाएगा कि प्रत्येक धर्म में महिला का स्थान पुरुष की अपेक्षा काफी नीचा है । समस्त त्यौहार, जैसे-करवा चौथ, श्रावणी तीज, गणगौर, तिलवा चौथ; जिउतियाँ आदि का व्रत महिलाएँ अपने पति एवं बेटों की आयु एवं स्वस्थ जीवन के लिए रखती हैं। पितृसत्तात्मक समाज के कुछ व्यावहारिक पक्ष निम्नांकित हैं—
- समाज में पति को परमेश्वर माना जाता है, चाहे वह शराबी, जुआरी अथवा पर स्त्रीगामी ही क्यों न हो । किन्तु उसकी पत्नी को, उसके लिए निर्धारित मापदण्डों पर खरा उतरना उसकी अच्छी पत्नी होने की निशानी मानी गई है ।
- विवाह के पश्चात् महिलाओं को सुहाग चिह्न धारण करना अनिवार्य है । पुरुषों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता एवं बाध्यता नहीं है । ये चिह्न इस बात के प्रतीक हैं कि यह महिला किसी पुरुष की अमानत है ।
- समाज में महिला को दाह संस्कार का हक न होने के कारण ही बेटों की चाहत व बेटियों की गंभीर उपेक्षा हुई है ।
- प्राचीन समाज में सती प्रथा का चलन था अर्थात् पति के बिना महिला के अपने जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रहता था, लेकिन पुरुषों के लिए इस प्रकार के नियम कभी नहीं रहे ।
- जब एक महिला विधवा हो जाती है तो उसके सुहाग बेरहमी से उतार दिए जाते हैं और उससे रंगीन वस्त्र पहनने तक का हक भी छीन लिया जाता है ।
- महिला के लिए, अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से यौन सम्बन्ध स्थापित करने की छूट नहीं होती है, जबकि प्रायः पुरुष ऐसा करते देखे गए हैं और उन्हें समाज के लोग किसी प्रकार भी हीन भावना से नहीं देखते ।
- समाज में बलात्कार जैसी घटनाएँ किसी महिला के साथ घट जाए तो उसका पति उसे प्राय: छोड़ देता है, किन्तु पति के पर स्त्रीगामी हो जाने पर भी महिलाएँ ऐसा नहीं कर सकती ।
- समाज में एक महिला अच्छी गृहिणी, माँ और पतिव्रता महिला सिद्ध होने की कोशिश में ही अपना पूरा जीवन गुजार देती है ।
- धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं के कारण ही महिलाओं के मन में सुहाग चिह्न धारण करने की बात इतनी गहरी जमी हुई है कि नारी को उसे अपनाए बिना अपना जीवन असुरक्षित – सा लगने लगता है।
पुरुष – प्रधानता की हानिकारक स्थिति (Demeritable Condition of Partiarchy)—समाज में पुरुष नियंत्रक एवं शासनकर्त्ता की भूमिका में रहने के कारण सामान्यतया अत्याचारी बन जाता है । पुरुष अपनी सारी मर्दानगी महिला वर्ग पर ही दिखाता है, चाहे वह घर में हो या घर से बहार । वह प्रायः अपना गुस्सा स्त्रियों पर ही उतारता है और कभी-कभी तो वह बहुत ही हिंसक हो जाता है। घर से बाहर दूसरों की बहन-बेटियों के साथ बलात्कार की घटना को भी अन्जाम दे देता है । इस प्रकार की खबरों से आज-कल रोजाना अखबार व पत्र-पत्रिकाएँ भरी रहती हैं । वस्तुतः संवेदनशील पुरुषों को यह बात सुनना कितना बुरा लगता होगा कि “आज समाज में लड़कियों एवं महिलाओं को जंगली जानवरों से भी उतना डर नहीं है जितना कि पुरुष वर्ग से होता है । “
वास्तविकता यह है कि इस व्यवस्था में व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी इंसानियत भी खोता चला जाता है | समाज में एक इंसान दूसरे इंसान को गुलाम बनाए, इससे बड़ी पीड़ा और सामाजिक त्रासदी क्या हो सकती है ? रोती, गिड़गिड़ाती और दया की भीख मांगती महिला के साथ बलात्कार करना, छोटी-छोटी लड़कियों के साथ बलात्कार करना, अपनी मंशा पूरी नहीं होने पर तेजाब छिड़कना, हत्या कर उसे अधंकूप में डाल देना— क्या यही इंसानियत के लक्षण हैं ? इसलिए यह कहा जा सकता है कि नारीवाद पुरुष को इंसान बनाने में सहायता करता है । वर्त्तमान समाज में इसकी आवश्यकता भी है, क्योंकि आज कई संवदेनशील पुरुष नारीवाद के इस संघर्ष में महिलाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग कर रहे हैं ताकि नारीवाद अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप में सफल हो सके ।
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