पैगम्बर एवं खलीफा युग का समाज (Under the Prophet and Orthodox Caliphs)
पैगम्बर एवं खलीफा युग का समाज (Under the Prophet and Orthodox Caliphs)
खलीफाओं द्वारा इस्लाम प्रसार के कारण (Causes of Islam Expansion by Callphs)
मुहम्मद साहब द्वारा जिस इस्लाम धर्म एवं अरब शाक्ति को स्थापित किया गया था, उसका प्रतिपादन मुहम्मद साहब द्वारा किया गया था। मुहम्मद साहब के काल में ही इस्लाम धर्म लगभग सम्पूर्ण अरब में फैल गया था। तत्पश्चात खलीफा-ए-रासीदा काल में इस्लामी साम्राज्य का द्रुतगति से विस्तार शुरू हुआ। अबू बकर ने अरबी शेखों को जीतकर सारे अरब पर इस्लाम का झंडा फहराया। इसके बाद अरबी सेना ने सीरिया को जीत लिया। दमिश्क को लूट लिया गया तथा 636 ई. में सीरिया पराजित हो गया। तत्पश्चात इस्लाम के सैनिकों ने ईरानियों से इराक छीन लिया। लगभग इस साल के भीतर ही पैगम्बर की मृत्यु के बाद ईरान पर हमला करके उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। यहां से ईरानी साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। 640 ई. में मिस्र का एक विस्तृत क्षेत्र जीत लिया और उसे इस्लामी प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ गया। इन क्षेत्रों में इस्लाम के विस्तार के पूर्व कुस्तुन्तुनिया के रोमन साम्राज्य का भ्रष्ट एवं अत्याचारपूर्ण शासन था। इस्लाम की सेना द्वारा सन् 624 ई. के दौरान अपने अधीन कर लिया गया एवं इस प्रकार मिस्र पर उनका आधिपत्य हो गया। 645 ई. में अरबों ने कुस्तुन्तुनिया के रोमन सम्राट की नौसेना को परास्त कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि रोमन साम्राज्य ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली ।
योग्य खलीफाओं के सतत प्रयास के फलस्वरूप स्पेन से चीन तक इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस्लाम अरब के अतिरिक्त सीरिया, मेसोपोटामिया, उत्तरी अफ्रीका, मिस्र, इराक, बल्ख, हिरात, गजनी, समरकन्द बुखारा, अफगानिस्तान, स्पेन तथा फ्रांस आदि देशों में फैल गया। इस्लाम की यह जीत न सिर्फ महान थी, बल्कि यह अत्यंत आश्चर्यजनक भी थी। इस्लाम की इस आश्चर्यजनक सफलता के कुछ विशेष कारणों का उल्लेख किया जा सकता है—
राजनीतिक कारक (Political Cause)
लगातार पारस्परिक संघर्षों के फलस्वरूप सीरिया एवं साइप्रस जैसे राष्ट्रों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। इस कारण भी इस्लाम को सफलता मिली। फलतः इस्लाम की नवोदित शक्ति के एक ही धक्के से उनकी खोखली इमारत को ढहते देर न लगी। इस दौरान रोमन साम्राज्य आर्थिक व राजनीतिक रूप से कमजोर हो चुका था। छोटे-बड़े अनेकों सरदार मनमानी करने लगे थे । ईरान की शक्ति भी जवाब दे चुकी थी। अरब के आस-पास में कोई ऐसा राज्य नहीं था जो उत्साह, जोश एवं विश्वासों से भरे अरबों का सामना कर सके । अतः जल्द ही इस्लाम की सेना ने अपनी अपार शक्ति, असीम महत्वाकांक्षा, अदम्य उत्साह और योग्यता के बल पर इस्लामी साम्राज्य को विशाल बना लिया। जिन-जिन स्थानों पर एकजुट होकर लोगों ने उनका वीरतापूर्वक सामना किया, जैसे, फ्रांस में टूर्स के मैदान में, पूर्व यूरोप में तथा भारत के सिन्ध प्रान्त में वहाँ
उनके छक्के छूट गये और उनका विस्तार भी अवरुद्ध हो गया।
धार्मिक कारक (Religlous Cause)
इस्लाम धर्म के अनुयायियों की संख्या में लगातार जो बढ़ोतरी हो रही थी, उसका प्रमुख कारण धार्मिक विचारधारा का कहा जा सकता है। उन अनेक देशों में जहाँ वे विजय-अभियान करने जाते, मूर्ति पूजा, अन्धविश्वास तथा वर्ग और श्रेणियों में विभक्त समाज होता था। उनमें से अनेक देशों में दासों की भारी संख्या थी तथा निम्न वर्ग के लोगों की स्थिति काफी चिन्ताजनक थी। अल्लाह और कुरान के नाम पर युद्ध करने वाले इस्लाम के सैनिक उन्हें मुक्तिदाता के समान प्रतीत होते। जल्द ही इस्लाम को गले से लगाकर वे अपने देश के धनी, विलासी एवं अत्याचारी सामन्त वर्ग को लूटने में शामिल हो जाते। हजरत मुहम्मद द्वारा सादगीपूर्ण एवं शुद्ध आचरण पर सर्वाधिक बल दिया गया।
इस्लाम के प्रथम चार खलीफाओं का जीवन भी सीधा-सादा था और वे भोग-विलास रहे। इस्लाम में धार्मिक भ्रातृत्व एवं अनुशासन पर भी काफी बल दिया गया है। इस भावना ने नये धर्म के अनुयायियों के बीच एकता एवं संगठन शक्ति का संचार किया। इस्लाम धर्म में ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, जाति का कोई भेद-भाव नहीं था। यहाँ तक कि गुलामों को भी सन्तान की भांति माना जाता था। अफ्रीका के हशियों को अरबों के समान सम्मान इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् ही दिया गया था। संभवतः इसी कारण विभिन्न देशों की भेद-भाव से पीड़ित जनता ने सहज ही इस्लाम को अंगीकार कर लिया होगा। इस्लाम धर्म का प्रसार मुहम्मद साहब’ वैश्विक स्तर पर करना चाहते थे। इस सपने को उन्होंने अपने जीवन काल में ही साकार करने के प्रयास शुरु कर दिये थे। उन्हें वांछित सफलता भी मिली थी। पैगम्बर के मरने के बाद ही उनके अनुयायियों द्वारा सभी सपनों की पूर्ति करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया। जब उन्हें विजय-पर- विजय मिलने लगी तथा अपार धन-राशि हाथ लगने लगी तो उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ी। सभी सैनिक मालामाल हुए।
सैन्य कारक (Military Cause)
इस्लाम को अरब के बदुओं की शक्ति एवं उत्साह का काफी लाभ मिला था। इस्लाम के कई प्रारम्भिक खलीफा बड़े ही दक्ष तथा कुशल सैन्य संचालक थे। विशेष रूप से अबू बकर एवं उमर तो युद्ध-कला में असाधारण रूप से पारंगत थे । खालिद एवं साद जैसे इनके सेनापतियों की तलवार की धार शत्रुओं के लिए सर्वनाशक सिद्ध हुई । तत्कालीन क्षेत्रीय गवर्नर भी कुशल सेनानायक प्रमाणित हुए। इस्लाम के सैनिक अथवा सेनापति किसी राजा या सम्राट के लिए ही नहीं, वरन् स्वधर्म के लिए युद्ध कर रहे थे। यह भावना उनमें अदम्य उत्साह का संचार कर रही थी।
हजरत मुहम्मद के अनुसार वही मुसलमान जन्त (स्वर्ग) प्राप्त करता है जिसकी मृत्यु धर्मयुद्ध (जिहाद) में होती है एवं जो मुसलमान इसके विपरीत कार्य करते हैं, उस दोज़ख (नरक) की प्राप्ति होती है। इस कारण सैनिक जी-जान की बाजी लगाकर युद्ध के मैदान में कूद पड़ते थे। विजय प्राप्त करने पर जो सम्पत्ति प्राप्त होती थी, उन्हें सैनिकों में ही बांट दिया था। अतः सैनिक सदा ही युद्ध के लिए तत्पर रहते थे और उनमें स्वधर्म एवं खलीफा के प्रति अ की भावना थी। साम्राज्य को विकसित करने में यही भावना लाभदायक सिद्ध हुई।
आर्थिक कारक (Economic Cause)
इतिहासकार का मानना था कि साम्राज्य विस्तार के अंतर्गत ये आर्थिक कार्य की ही को विकसित करने हेतु मुख्य रूप से धार्मिक मनोवृत्ति के फलस्वरूप ही मानते थे जबकि अधिकांश यूरोपीय इतिहासकारों का मत है कि अरब एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर इस्लाम धर्म के विस्तार में लग गये। किन्तु इस संदर्भ में आर्थिक कारणों के महत्व को भी आंखों से ओझल नहीं किया जा सकता है। अरब एक मरुभूमि है। इस दौरान अरब के बहुओं का जीवन चिन्ताजनक हो गया था, अतः उन्होंने अनुभव किया कि पास के सम्पन्न पड़ोसी राज्यों को जीतकर वे सहज ही अपनी सुख-समृद्धि में वृद्धि कर सकते हैं।
ऐसा माना जाता है अरब राष्ट्रों पर हमला किया गया था। आधुनिक विद्वानों में सीटानी बीकर का मानना है कि इस्लामी साम्राज्य के विस्तार में आर्थिक कारण भी एक घटक रहा। अरबी इतिहासकार सदैव इस तथ्य के पक्षधर रहे हैं। उदाहरणस्वरूप-अलबलादूरी का कहना है कि सीरियाई अभियान के सिलसिले में खलीफा अबू बकर ने मक्का, तईफ, यमन, नज्द तथा हेजाज के अरबों को पवित्र युद्ध का नारा देकर एवं यूनानियों से लूट के रूप में धन-सम्पत्ति प्राप्त करने की भावना को जागृत कर उनका सहयोग प्राप्त किया था। प्रसिद्ध ईरानी सेनापति रुस्तम ने अरबों के विरुद्ध अपने देश की रक्षा करते हुए अरब के दूत से कहा था कि जो कुछ तुम लोग कर रहे हो, वह अपनी गरीबी और आजीविका प्राप्ति के उद्देश्य से कर रहे हो। यदि हम अरब के खलीफाओं द्वारा किये गये कार्यों का विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि किसी भी दशा में इनकी मानसिकता पहले लूटने की ही थी परंतु सफलता मिलते-मिलते ये साम्राज्यवादी नीतियों को अपनाने लगे और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर डाली।
युद्ध मुख्य रूप से धन प्राप्ति के उद्देश्य से ही किये गये थे। किन्तु जब अरबों को एक के बाद एक सफलता मिलती चली गयी, तब उन्होंने बड़े सोच-समझकर युद्ध अभियान योजनाओं का निरूपण एवं कार्यान्वयन करना शुरू किया और कालान्तर में विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली।
इस्लामी आंदोलन को इस वजह से भी सफल माना सकता है कि शुरूआत निश्चित् काल खंड में ही हुई थी । विभिन्न अवरोधों के बाद भी इस्लाम को सफलता मिली। यह भी कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर क्षेत्र में इस्लाम का विस्तार मुख्य रूप से एक धर्म के रूप में नहीं, बल्कि एक राज्य के रूप में हुआ। सीरिया, मेसोपोटामिया तथा ईरान में इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के बहुत बाद में जाकर लोगों ने इस्लाम धर्म को ग्रहण किया था। कालांतर में ईरान, सीरिया, मिस्र, यूनान आदि देशों की समृद्ध सभ्यता के सम्पर्क में आकर अरबों ने उल्लिखित सभ्यताओं को अंगीकार कर एक मिश्रित सभ्यता को जन्म दिया जिसे हम इस्लामी सभ्यता के नाम से जानते हैं। यह सभ्यता-संस्कृति क्रमशः एक देश से दूसरे देश के लोगों को काफी लंबे काल तक प्रभावित करती रही तथा इस प्रभाव के कारण इस्लामी साम्राज्य का विस्तार अनवरत् होता रहा। वर्तमान में इस्लाम का स्वरूप हमें देखने को मिलता है, वह इसी इस्लामी आंदोलन का परिणाम है।
खलीफा – ए -रासीदा युग का महत्व (Importance of Khalifa-a-Raseeda Ern)
ऐसा भी नहीं था कि प्रथम चार खलीफाओं को इस्लाम धर्म के विस्तार हेतु काफी शा दिखायी। अधिकांश विद्वानों ने स्वीकार किया है कि इस्लामी राज्य की नींव पैगम्बर मुहम्मद ने डाली, अबू बकर ने उसका संगठन किया और उमर ने उसका विस्तार कर उसे पराकाष्ठा पहुँचा दिया।’ मुहम्मद साहब ने अरब के कबीलों का एकीकरण किया था। मदीना को केन्द्र बनाकर पैगम्बर ने अरब में चारों ओर एक धर्म एवं राजनीति के रूप में इस्लाम का व्यापार प्रया किया। अतः इस्लाम धर्म का प्रतिपादन स्वयं पैगम्बर साहब द्वारा किया गया था। उन उत्तराधिकारी खलीफा अबू बकर ने भी अपने खलीफा युग में आंशिक रूप में इस्लामी साम्राज्य का विस्तार किया। किन्तु अबू बकर का काल इस्लामी साम्राज्य के इतिहास में मुहम्मद साहब की मृत्यु के पश्चात् अरब की अव्यवस्था का कारण बनी।
जो पक्ष इस्लाम का विरोधी था, वह दुबारा सक्रिय हो चुके थे। बहुत से नकली पैगम्बर पैदा हो गये थे। ऐसी स्थिति में एक ऐसे शक्तिशाली एवं सुदृढ़ विचार वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो इस्लाम के खोये हुए गौरव को फिर से स्थापित करने, विरोधियों का दमन करके राज्य में शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना करने और अरबों के बीच पुनः एकता एवं सहयोग की भावना का संचार करने में सफल हो । परंतु उन्हें भी विरोध का शिकार होना पड़ा था। हालाँकि खलीफा काल बहुत कम समय के लिए था लेकिन इस अल्पावधि में ही उन्होंने अराजकता और अशान्ति का दमन कर इस्लाम की इमारत को फिर से मजबूत बनाया, झूठे पैगम्बरों का दमन किया, अरबों के बीच राष्ट्रीय एकता की पुनर्स्थापना की ।
इस्लामी सेना एवं अर्थव्यवस्था को सुसंगठित किया, साम्राज्य विस्तार के कार्य किये तथा इस्लाम धर्म एवं राजनीति को नव-जीवन प्रदान कर उसे प्रगति के पथ पर अग्रसरित किया। उस दौरान साम्राज्य विस्तार में उमर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी । इस्लामी साम्राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने का श्रेय उमर को ही है । उस्मान इतना कुशल था कि उसने दस वर्षों के अन्दर इराक, ईरान, सीरिया, मिस्र तथा पश्चिमी एशिया के अन्य क्षेत्रों में इस्लामी साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया। यूरोप में उसने स्पेन तक धावे मारे । साम्राज्य विस्तार के साथ-ही-साथ उमर ने संगठन के महत्वपूर्ण कार्य भी किये। इस प्रजातांत्रिक काल के रीति-रिवाज में काफी परिवर्तन आ गया। खलीफा का चयन अरबी कबीलों के परंपरा के अनुसार ही किया गया था। प्रशासन, सेना, अर्थ-व्यवस्था, समाज आदि का संगठन किया । उमर की मृत्यु से उमैयद वंश की स्थापना के साथ खलीफाई का गणतांत्रिक काल समाप्त हो गया । मात्र उस्मान को छोड़कर खलीफा-ए-रासीदा युग के सभी खलीफा बड़े ही चरित्रवान, संयमी, दयालु और धर्म के प्रति आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। बाद में खलीफा के रूप में जिन लोगों का चयन किया गया था, उनमें नैतिकता लेशमात्र भी नहीं थी। अब खलीफा छल-कपट से पूर्ण, धोखेबाज और असंयमी भी होने लगे। निःसंदेह इस्लाम पर इसके अहितकर प्रभाव पड़े । खलीफाओं का रहन-सहन अत्यंत सादा था परंतु उनकी सुरक्षा के समुचित प्रबंध नहीं थे। ऐसा न कर उन्होंने भयंकर भूल की। उनमें से तीन की हत्या कर दी गयी। इसका कोई औचित्य नहीं है। दूसरा, खलीफा पद के उत्तराधिकारी के लिए कोई संतोषजनक विधान विकसित नहीं हो सका। अन्तिम बात जिसे मुसलमान धर्मसुधारक प्रायः भूल जाते हैं, यह है कि पवित्र खलीफाई उसी समय तक रह सकती थी, जब तक कि वास्तविक शक्ति प्रान्तों के शासक, सेनाध्यक्षों और खलीफा के परामर्शदाताओं के रूप में मुहम्मद साहब के चुने हुए सहचरों के हाथ में रहती। जियाउद्दीन ब के अनुसार पवित्र खलीफाई स्वाभाविक रूप से स्थायी संख्या के रूप से अपनी पहचान नहीं बना सकी थी।
सारांशतः हम कह सकते है कि खलीफा-ए-रासीदा युग इस्लाम के उत्कर्ष और क्रमिक उत्थान का काल था । इस पृष्ठभूमि की आधारशिला भी उसी काल में रखी गई थी जिसमें में कालान्तर में एक धर्म, राजनीति एवं सभ्यता-संस्कृति के रूप में इस्लाम ने एक विश्वव्यापी रूप धारण किया।
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