प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृतियों की सुदृढ़ता में जनसंचार के साधनों की भूमिका का वर्णन करें ।
प्रश्न – प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृतियों की सुदृढ़ता में जनसंचार के साधनों की भूमिका का वर्णन करें ।
उत्तर – जनसंचार के साधनों द्वारा सूचना-प्रदाता व्यवस्थित रूप से सूचनाओं को प्रदान करने का कार्य करता है । भारतीय समाज की व्यवस्था धर्म, जाति आदि के द्वारा स्तरीकृत व्यवस्था और इनके कुछ विश्वास तथा संस्कृतियाँ हैं जो परम्परागत रूप से चली आ रही हैं। आधुनिकीकरण के पश्चात् अब भारतीय समाज आंशिक रूप से खुला है, परन्तु प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं तथा सांस्कृतिक मान्यताओं में आज भी बन्द तथा रूढ़िवादी समाज है । भारतीय समाज में प्रचलित कुछ विश्वास तथा सांस्कृतिक तत्त्व निम्न प्रकार हैं –
(i) कर्म की अपेक्षा भाग्यवादिता
(ii) भौतिक जगत् की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत् का महत्त्व प्रदान करना ।
(iii) समाज में ऊँच-नीच, जाति-पाँति, बालक-बालिका इत्यादि के आधार पर भेदभाव ।
(iv) पुरुष – प्रधान समाज
(v) कन्या को पराया धन मानना ।
(vi) आतिथ्य संस्कार अर्थात् अतिथि देवो भव ।
(vii) शरणागत की रक्षा ।
(viii) अनेकता में एकता |
(ix) पुत्र नरक से बचाता है ।
(x) पढ़ाने से लड़कियाँ बिगड़ जायेंगी ।
(xi) महिलाओं से पुरुष श्रेष्ठ हैं ।
(xii) घरेलू कार्य महिलाओं की जिम्मेदारी तथा बाहरी कार्य पुरुष की जिम्मेदारी ।
(xiii) स्त्रियों को वही कार्य करने चाहिए जो पुरुष कहें ।
(xiv) स्त्रियों को दैवीय स्वरूप मानना तथा पारिवारिक सुख शान्ति हेतु उनका ध्यान रखना ।
(xv) आर्थिक अधिकार सिर्फ पुरुषों को प्राप्त ।
(xvi) रजस्वला होने से पूर्व ही बालिका विवाह करने की स्वीकृति, क्योंकि तभी कन्यादान फलित होता है ।
इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारी सामाजिक परम्पराओं, मान्यताओं, विश्वासों तथा संस्कृति में परिवर्तन आये हैं । आधुनिकीकरण की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप प्राचीन प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृति में परिवर्तन आये हैं, जिसमें जनसंचार के साधनों की भूमिका सर्वाधिक है क्योंकि यदि आज भारत से लेकर अमेरिका, चीन से लेकर ब्रिटेन तक किसी एक ही विषय को लेकर चर्चा होती है तो वह जनसंचार के साधनों के ही कारण है । हम घर बैठे देश-विदेश के समाचारों से अवगत होते हैं, सांस्कृतिक आदान-प्रदान करते हैं तो ये भी जनसंचार के साधनों की ही देन है। जनसंचार के साधनों ने प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृतियों के सुदृढ़ीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन तथा कार्य निम्न प्रकार किया है –
- प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृति के संरक्षण और हंस्तान्तरण द्वारा ।
- सांस्कृतिक आदान-प्रदान ।
- परम्परागत प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृति में निहित दूषित तत्त्वों के स्थान पर जनसंचार के साधन नये विश्वांस और विश्वास के पीछे निहित मूल्य, धारणा तथा संस्कृति में गतिशीलता वाले तत्त्वों को सम्मिलित करते हैं ।
- जनसंचार के साधनों द्वारा सांस्कृतिक अवलम्बना नहीं होता है ।
- जनसंचार के साधन प्रचलित विश्वासों के स्वरूप को गतिशील, स्थायी तथा सांस्कृतिक तत्त्वों को उदार और व्यापक बनाते हैं ।
- जनसंचार के साधनों की ही देन है कि बालिका विद्यालयीकरण के प्रति जनसामान्य में उत्साह और जागरूकता आयी है ।
- जनसंचार के साधनों के द्वारा ही संस्कृति तथा प्रचलित विश्वासों ने जो विकृत रूप अन्धविश्वास के रूप में धारण कर लिया था, उनके प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है ।
- जड़ तथा अव्यावहारिक विश्वासों की समाप्ति ।
- समय-समय पर जनसंचार के साधनों द्वारा स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार, लैंगिक दुर्व्यवहार, भाषायी दुर्व्यवहार, शारीरिक हिंसा इत्यादि के विषय में आवाज उठायी जाती है और न्याय के लिए दबाव बनाया जाता है ।
- जाति, धर्म, लिंगादि के नाम पर किये जाने वाले भेदभाव को निषिद्ध कराने के लिए ये साधन कानूनी नियमों से अवगत कराकर, ऐसा करने वालों को सावधान करते हैं |
- लेखों, सम्पादकीय तथा वार्ता आदि के आयोजन द्वारा समय-समय पर महत्त्वपूर्ण विषयों पर जानकारी और समुचित दृष्टिकोण के विकास का ये साधन कार्य करते हैं ।
- सामाजिक कुरीतियों विशेषतः बालिकाओं के सम्बन्ध में जो प्रचलित हैं उन्हें समाप्त करने हेतु बालिकाओं की उपलब्धियों से अवगत कराना ।
- जनसंचार के साधनों द्वारा प्रचलित विश्वासों तथा संस्कृति में निहित अच्छे तत्त्वों को अपनाने की प्रेरणा प्रदान की जाती है ।
जनसंचार के साधन अपनी इस भूमिका की समुचित निर्वहन और प्रभाविता हेतु निम्न प्रकार के कार्य करते हैं—
1. जागरूकता अभियान द्वारा ।
2. रेडियो वार्ता, प्रायोजित कार्यक्रम, सूचनाओं इत्यादि के प्रसारण द्वारा ।
3. लघु फिल्मों द्वारा ।
4. नाटकों तथा नुक्कड़ नाटकों द्वारा ।
5. समाचार पत्रों में विज्ञापन, लेख तथा खबरों द्वारा ।
6. दूरदर्शन पर दैनिक धारावाहिकों, प्रचार, वाद-विवाद, परिचर्चा इत्यादि के आयोजन जैसी मनोरंजनात्मक क्रियाओं द्वारा ।
7. दीवाल लेखन करवाकर ।
8. लोगों के मध्य पैम्फलेट बँटवाकर |
9. प्रदर्शनियों के आयोजन द्वारा ।
10. पुस्तकालयों में तथा संग्रहालयों में सम्बन्धित सामग्री द्वारा ।
वर्तमान में जनसंचार के साधनों की भूमिका इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण और व्यापक हो गयी है कि ये देश-दुनिया के प्रत्येक कोने और उससे जुड़ी खबरों को तुरन्त सबके सामने ला देते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पुरातन और संकीर्ण लिंगीय विश्वासों, जैसे पुत्र ही नरक से तारता है, पुत्री सदैव दुःख का कारण होती है, स्त्रियों को बाहर के कार्य नहीं करने चाहिए, इससे परिवार का मान कम होता है, बालिकायें पराया धन हैं, अत: इनका शीघ्रातिशीघ्र विवाह कर देना चाहिए, शिक्षित स्त्रियाँ परिवार में बिखराब लाती हैं इत्यादि । परन्तु वर्तमान में स्त्रियों के विषय में प्रचलित इन विश्वासों के स्थान पर नवीन प्रतिमानों तथा विश्वासों की स्थापना का कार्य जनसंचार के माध्यमों द्वारा किया जा रहा है । अमीर हो या गरीब, जनसंचार के साधन सभी के लिए सुलभ हैं, अतः इनके द्वारा सकारात्मक लिंगीय विश्वासों के निर्माण का कार्य किया जा रहा है । लिंगीय विश्वासों की सुदृढ़ता का कार्य निम्न प्रकार किया जा रहा है –
- मनोरंजन के साथ-साथ लैंगिक मुद्दों पर जागरूकता उत्पन्न करना ।
- कार्यक्रमों, धारावाहिकों, वार्ता इत्यादि के द्वारा लिंगीय भेदभावों की समाप्ति हेतु प्रयास करना ।
- जनसंचार के साधनों के द्वारा अन्धविश्वासों और कुरीतियों से जन-समूह को अवगत कराया जाता है | ये साधन वर्तमान में बालिकाओं से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता के आधार पर महत्त्व देते हैं ।
- जनसंचार के साधनों के द्वारा बालिका विद्यालयीकरण तथा अपव्यय और अवरोधन को रोकने हेतु प्रयास किये जा रहे हैं ।
- जनसंचार के साधन लैंगिकता के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव तथा उससे सम्बन्धित दण्ड के प्रावधानों से अगवत कराते हैं ।
- जनसंचार के साधन लिंगीय विश्वासों में आयी जड़ता और रूढ़िवादिता के खतरों से अवगत कराते हैं ।
- समय-समय पर लिंगीय आँकड़े, लिंगीय भेदभाव विषयी आँकड़ों को ये साधन प्रदर्शित करते हैं, जिससे लिंगीय विश्वासों में सुदृढ़ता आती है ।
- लिंगीय भेदभाव के कारण बालिकाओं के गर्भ में या शैशवावस्था में ही निर्मम हत्या कर दी जाती है, जिससे लिंगानुपात में अन्तर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में ये साधन हमें भविष्य की समस्याओं से अवगत कराते हैं ।
- महिलाओं की सशक्त छवि तथा खेलकूद, राजनीति, चिकित्सा शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, तकनीकी तथा सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में किये गये कार्यों से ये लोगों को अवगत कराते हैं, जिससे स्वस्थ लिंगिक विश्वासों का विकास होता है ।
- जनसंचार के साधन प्रशासन पर लिंगीय दुर्भावनाओं, हिंसा आदि की शिकार महिलाओं को न्याय प्रदान करने हेतु जनाधार तैयार कर दबाव बनाने का कार्य करते हैं ।
- महिलाओं की बराबरी, स्वतन्त्रता आदि अधिकारों से महिलाओं और लोगों को जागरूक कर ये लिंगिक विश्वासों को सुदृढ़ करते हैं ।
- जनसंचार के साधनों द्वारा प्रबुद्ध वर्गों तथा समाजसेवियों से सहायता प्राप्त कर स्वस्थ लैंगिक विश्वासों के सुदृढ़ीकरण की दिशा में प्रयास किया जाता है ।
- जनता की राय द्वारा ये साधन लैंगिक सुदृढ़ता की स्थापना का कार्य सम्पन्न करते हैं ।
- जनसंचार के साधन महिलाओं को आगे आकर अपनी अबला की छवि तोड़ने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करते हैं ।
- जनसंचार के साधनों के द्वारा देश-विदेश में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला जाता है, जिससे महिलाओं में आत्मविश्वास और लैंगिक भेदभावों से लड़ने की हिम्मत उत्पन्न होती है ।
जनसंचार के साधनों के बिना हम वर्तमान जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । ये साधन न केवल हमें ज्ञान प्रदान करते हैं, जागरूक बनाते हैं, वरन् मनोरंजन तथा ज्ञान को सुग्राह्य बनाकर प्रस्तुत करते हैं जो प्रत्येक आयु वर्ग के व्यक्तियों हेतु लाभप्रद बन जाता है । इन अभिकरणों द्वारा लैंगिक सुदृढ़ता हेतु लेख, चित्र, रेखांकन, कहानियाँ, कवितायें, उपन्यास, डॉक्यूमेण्ट्री, धारावाहिक सूचनायें, आँकड़ों का प्रस्तुतीकरण इस प्रकार किया जात है कि उसकी अमिट छाप लोगों के मनोमस्तिष्क पर पड़ती है। कितने अभिभावक ऐसे हैं जिन्होंने जनसंचार के माध्यम से प्रभावित होकर अपनी बालिकाओं की शिक्षा निरन्तर रखी, कितनी बालिकायें और स्त्रियाँ ऐसी हैं जिन्होंने जीवन में कुछ करने का संकल्प ले लिया, कितने बाल-विवाह तथा दहेज़ की घटनायें रुक गयीं और लैंगिक सुदृढ़ता को कमजोर करने वाले अपराधियों को दण्डित कराने के लिए आवाज उठाई गयी । निस्सन्देह ऐसे एक-दो नहीं, वरन् हजारों-लाखों मामले हैं। अतः जनसंचार के साधनों की भूमिका लैंगिक सुदृढ़ता और वैचारिक आदान-प्रदान में अत्यधिक है ।
विद्यालयी वातावरण में लिंगीय सुदृढ़ता की स्थापना में जनसंचार के साधनों की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय ही वह स्थान है जहाँ बालकों के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया तथा मूल प्रवृत्तियों के मार्गान्तरीकरण और शोधन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। औपचारिक अभिकरणों में विद्यालय का स्थान सर्वोपरि है, भले ही रूसो प्रभृत्ति प्रकृतिवादी दार्शनिक ने विद्यालयों के महत्त्व को अस्वीकार किया, परन्तु उसके पीछे मूल निहितार्थ था— बालकों को कृत्रिमता तथा बन्धन से मुक्त करना, क्योंकि विद्यालयी वातावरण नितान्त अस्वाभाविक तथा कृत्रिम होता है जिससे बालकों की सहजता और सरलता का ह्रास होता है। परन्तु ‘बालकेन्द्रित शिक्षा’ में शिक्षा को सहज, स्वाभाविक तथा कृत्रिमता रहित बनाये जाने पर बल दिया जा रहा है, जिस कारण वर्तमान विद्यालयों की कक्षायें, शिक्षण विधियाँ तथा पाठ्यक्रम व्यावहारिक और प्रकृतोन्मुखी हैं।
विद्यालय ही वह स्थान है जहाँ बालकों के विचार, विवेक, शक्ति तथा बुद्धि का परिमार्जन, शारीरिक विकास, आत्मविश्वास की उत्पत्ति, स्वावलम्बन, आत्मविश्वास, धैर्य. प्रेम तथा सहयोग, सामूहिकता की भावना की सीख एक साथ प्रदान की जाती है । इस मामले में परिवार भी पीछे रह जाता है। विद्यालय में सोद्देश्यपूर्ण शिक्षण निश्चित समयावधि में प्रदान किया जाता है । वर्तमान में विद्यालयों की महत्ता दिनोंदिन और भी बढ़ती जा रही है, क्योंकि इनकी आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। दृष्टव्य है–
- शारीरिक क्षेत्र–शारीरिक क्षेत्र के अन्तर्गत विद्यालयी शिक्षा बालकों के शरीर का विकास करती है । बालकों की अभिवृद्धि तथा विकास को दृष्टिगत रखते हुए बालकों की शिक्षा की व्यवस्था की जाती है, क्योंकि विद्यार्जन के लिए शारीरिक स्वास्थ्य अत्यावश्यक है ।
- मानसिक क्षेत्र – शिक्षा के मानसिक क्षेत्र के अन्तर्गत विविध क्रियाओं द्वारा बालकों का मानसिक विकास करना आता ।
- आध्यात्मिक क्षेत्र – शिक्षा के आध्यात्मिक क्षेत्र के अन्तर्गत बालकों को पवित्र जीवन की तैयारी तथा आत्म-ज्ञान प्रदान किया जाता है जिससे वे अच्छे रास्ते पर चलते हुए जीवन में परम सत्य की खोज और प्राप्ति कर सकें ।
- सामाजिक क्षेत्र – सामाजिक क्षेत्र के अन्तर्गत बालकों को विद्यालय में सामाजिकता का पाठ पढ़ाया जाता है । सामाजिकता की नींव तो परिवार से ही पड़ जाती है, पर उसको व्यापक स्वरूप विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों द्वारा प्राप्त होता है ।
- भाषायी क्षेत्र – विद्यालय में बालकों की भाषा और शब्दावली का परिमार्जन, शुद्धीकरण तथा उनके शब्द-ज्ञान में वृद्धि का कार्य किया जाता है। जिस प्रकार की भाषा, जैसे— शुद्ध, अशुद्ध, अभद्र, भद्र आदि का प्रयोग बालकों द्वारा किया जाता है, जिसमें विद्यालयी शिक्षा का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है । शाब्दिक दुर्व्यवहार के विषयों में विद्यालय की भूमिका का अप्रभावी होना है।
- सांस्कृतिक क्षेत्र – विद्यालय में सांस्कृतिक आदान-प्रदान हेतु पाठ्यक्रम तथा पाठ्य- सहगामी क्रियाओं के अन्तर्गत अवसर प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक अन्त:क्रिया की स्थापना में विद्यालय महत्त्वपूर्ण है ।
- आर्थिक क्षेत्र – विद्यालय में बालकों को आर्थिक आत्मनिर्भरता की शिक्षा प्रदान की जाती है जो व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिए अत्यावश्यक है ।
- राष्ट्रीय क्षेत्र — विद्यालय में समय-समय पर कराये जाने वाली पाठ्य-सहगामी क्रियाओं तथा पाठ्यक्रम के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना का विकास बिना किसी भेदभाव के किया जाता है । विद्यालयों में राष्ट्रीय पर्वों, राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों तथा राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों और कर्त्तव्यों से अवगत कराकर आदर्श नागरिकता का विकास किया जाता है ।
- राजनैतिक क्षेत्र – विद्यालयों में बालकों की संसद बनायी जाती है तथा उनमें नेतृत्व के गुणों का विकास किया जाता है जिससे वे देश की राजनैतिक स्थिति को समझ सकें तथा अच्छे राजनैतिक विचारों को समर्थन दे सकें ।
- अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र – विद्यालयों में राष्ट्रीय विषयों के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय विषयों से भी बालकों को अवगत कराया जाता है ताकि वे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सहयोग तथा सद्भावना की स्थापना में योगदान दे सकें । आर्थिक उदारीकरण तथा भूमण्डलीकरण की प्रवृत्तियों जैसे अन्तर्राष्ट्रीयता के क्षेत्रों के विषय में विद्यालय अवगत कराते हैं ।
इस प्रकार विद्यालयी शिक्षा का क्षेत्र अति व्यापक है । यह संवेग, मनोविज्ञान इत्यादि क्षेत्रों में भी कार्य करता है और विकास करने का कार्य सम्पन्न करता है ।
विद्यालयी वातावरण में लिंगीय सुदृढ़ता की स्थापना का कार्य किस प्रकार जनसंचार के साधनों के सहयोग द्वारा सम्पन्न होता है ? इसका उत्तर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से परिलक्षित होता है । एक में विद्यालय तथा लिंगीय सुदृढ़ता और जनसंचार के माध्यमों के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध है तो दूसरे में अप्रत्यक्ष |
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विद्यालय में बालक तथा बालिकायें अर्थात् दो परस्पर लिंग के लोग साथ-साथ ‘सह-शिक्षा’ द्वारा अध्ययन करते हैं और जनसंचार लिंगीय सुदृढ़ता की विद्यालय में स्थापना प्रत्यक्ष रूप से करता है, जिसको हम निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत देख सकते हैं—
- जनसंचार बालिका विद्यालयीकरण के कार्यक्रमों में प्रत्यक्ष रूप में सहभागिता दिखाता है।
- जनसंचार लिंगीय भेदभावों को समाप्त करने के लिए जन-जागरूकता तथा समाचार पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं, इण्टरनेट एवं दूरदर्शन इत्यादि पर सामग्री एवं सूचनाओं का प्रेषण करता है।
- जनसंचार बालिका विद्यालयीकरण की समस्याओं की ओर ध्यान केन्द्रित करता है । जनसंचार बालिकाओं की शिक्षा और सामाजिक, आर्थिक आदि सशक्तीकरण के नियमों, कानूनों तथा प्रावधानों से सम्बन्धित जानकारियाँ जनहित में जारी करता रहता है।
- जनसंचार के साधनों की पैनी दृष्टि लैंगिक भेदभावों की घटनाओं पर होती है, भले ही ऐसी घटना किसी विद्यालय में ही क्यों न घटित हो । अतः विद्यालयों में लैंगिक सुदृढ़ता की स्थापना को बल मिलता है ।
- जनसंचार के साधनों द्वारा राज्य की छात्रवृत्तियाँ जो बालिकाओं के लिए हैं तथा उनकी शिक्षा हेतु प्रदान की जाने वाली सुविधाओं की जानकारी प्रदान कर लैंगिक सुदृढ़ीकरण का कार्य सम्पन्न किया जाता है ।
- जनसंचार के साधनों द्वारा जागरूकता अभियान एवं बालिका शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति, दीन-हीन दशा तथा शोषण की शिकार बालिकाओं की शिक्षा हेतु प्रयास किये जा रहे हैं ।
जनसंचार द्वारा प्रेषित सामग्री का प्रभाव व्यापक होता है और इनके द्वारा प्रदान की गयी सूचनाओं के भ्रामक होने की आशंका न्यून होती है । वर्तमान समय में ये साधन केवल खबरें छापने, दिखाने तक ही सीमित नहीं है, अपितु सामाजिक सरकारों जैसे लिंग की सुदृढ़ता इत्यादि के लिए प्रयासरत हैं और आगे आ रहे हैं जिससे सक्षम व्यक्तियों को इस दिशा में कार्य करने हेतु प्रेरणा और जनसामान्य को अपेक्षित सहयोग करने की सीख प्राप्त होती है।
जनसंचार के साधनों द्वारा विद्यालयी वातावरण में लिंगीय सुदृढ़ता का कार्य अप्रत्यक्ष रूप से भी सम्पन्न किया जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से विद्यालय में लिंगीय सुदृढ़ता को प्रभावित न करके हमारे सामाजिक परिवेश से जुड़े होते हैं । इनके परिणाम दूरगामी तथा दीर्घकालिक होते हैं ।
इस प्रकार जनसंचार के साधन लिंगीय सुदृढ़ता के लिए कार्य अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से न पड़कर समाज के द्वारा विद्यालयों तक पहुँचता है । ये अप्रत्यक्ष कार्य तथा प्रभाव विद्यालय में लिंगीय सुदृढ़ता हेतु जनसंचार निम्न प्रकार करता है ।
- समाज शिक्षा द्वारा – जनसंचार के साधनों द्वारा समाज शिक्षा के प्रसार का पक्ष लिया जाता है, जिससे शिक्षा का सभी आयु वर्गों में विस्तार होता है और इस प्रकार विद्यालयों में लिंगीय सुदृढ़ता में योगदान मिलता है ।
- सांस्कृतिक गतिशीलता – जनसंचार के साधनों द्वारा संस्कृतियों के मध्य अन्तः क्रिया की स्थापना की जाती है जिससे सांस्कृतिक गतिशीलता और उदारता आती है । इस कारण बालिकाओं के विद्यालयीकरण के प्रति स्वस्थ एवं सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास होता है जो कालान्तर में बालिकाओं को सुदृढ़ बनाती है।
- जागरूकता — स्वास्थ्य, संस्कृति अर्थ जगत्, राजनीति तथा सामाजिक क्षेत्र में जनसंचार के साधनों द्वारा जागरूकता लाने का कार्य किया जाता है। बालिकाओं के विषय में प्रचलित कुछ अन्धविश्वास तथा रूढ़ियाँ हैं जिनसे उनको अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शैक्षिक क्षेत्र में भी उपेक्षित रखा गया है, परन्तु जनसंचार के साधनों के द्वारा उनका विद्यालयीकरण हो रहा है और विद्यालयी परिवेश में अभेदपूर्ण व्यवहार भी ।
- रूढ़ियों एवं कुरीतियों की समाप्ति – समाज में अनेक रूढ़ियाँ और कुरीतियाँ व्याप्त हैं, जिनमें स्त्रियों से सम्बन्धित कुरीतियाँ सर्वाधिक हैं, जैसे –
(i) बाल विवाह(ii) दहेज-प्रथा(iii) विधवा पुनर्विवाह निषेध(iv) कन्या भ्रूण हत्या(v) कन्या शिशु हत्या(vi) डायन-बिसाही(vii) बाँझ महिलाओं की उपेक्षा(viii) पुत्र जन्म न देने वाली महिलाओं को प्रताड़ना(ix) महिलाओं के आर्थिक हितों की सर्वथा उपेक्षा(x) महिलाओं से अमर्यादित आचरण करना, मार-पीट करना और उनको दासी बनाकर रखने की मानसिकता(xi ) बालिका शिक्षा को महत्त्व न देना ।इस प्रकार जनसंचार के साधनों द्वारा लेखों, विज्ञापनों, जनहित में जारी सूचनायें, डॉक्यूमेण्ट्री फिल्म, चलचित्र, दूरदर्शन के धारावाहिक, वार्ता, गोष्ठी, मुशायरा, नाटकों इत्यादि के द्वारा उपर्युक्त विषयों पर समुचित दृष्टिकोण विकसित कराने का कार्य सम्पन्न किया जाता है जिससे बालिका शिक्षा और उनकी सुदृढ़ता लैंगिक स्थिति की स्थापना विद्यालयों में होती है । “
- आधुनिकीकरण — आधुनिकीकरण की प्रवृत्ति को समाज में लाने तथा शीघ्रता से प्रसारित करने में जनसंचार के साधनों का महत्त्व अत्यधिक है। आधुनिकीकरण की प्रवृत्ति द्वारा स्त्री-पुरुष समानता को बल मिल रहा है जिससे विद्यालयों में महिला शिक्षिकाओं, महिला निरीक्षिकाओं की नियुक्ति हो रही है जो लैंगिक सुदृढ़ता के कार्य को गति प्रदान कर रही है।
- उदारीकरण — उदारीकरण की प्रवृत्ति भी जनसंचार के अभिकरणों में हुई क्रान्ति का परिणाम है । उदारीकरण आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में भी परिलक्षित हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में भी परिवर्तन आया है। उदारीकरण के प्रसार में जनसंचार के साधनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है और इनके द्वारा लैंगिक सुदृढ़ता में भी वृद्धि हो रही है ।
- भूमण्डलीकरण – भूमण्डलीकरण के द्वारा वैश्विक ग्राम और प्राचीन भारतीय ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा साकार हो गयी है । वैश्वीकरण की इन परिस्थितियों में लैंगिक भेदभावों को समाप्त करने के लिए चहुँमुखी प्रयास किये जा रहे हैं । भूमण्डलीकरण में जनसंचार के साधनों का महत्त्व अत्यधिक है और इसी के परिणामस्वरूप हमारे विद्यालयी परिवेश में लैंगिक भेदभावों में न्यूनता आ रही है । “
- अन्य देशों से तुलनात्मक अध्ययन- जनसंचार के साधनों द्वारा अन्य देशों में जीवन की गुणवत्ता, स्त्री शिक्षा का प्रसार, स्त्रियों के अधिकारों के विषय में जागरूकता इत्यादि । अन्य देशों की शिक्षा प्रणाली तथा विद्यालय में लिंगीय सुदृढ़ता के लिए कराये जाने वाले कार्यों से अवगत होने के पश्चात् भारतीय विद्यालयों में भी लैंगिक सुदृढ़ता हेतु क्रियाकलापों और वातावरण का सृजन किया जा रहा है ।
इस प्रकार जनसंचार के साधनों के द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से लैंगिक सुदृढ़ता का कार्य विद्यालयी वातावरण में किया जाता है। लैंगिक सुदृढ़ता हेतु ये साधन जनसामूहिक भागीदारी को सुनिश्चित करते हैं ।
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