प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग के लिए भारत में विकास योजनाएं, प्रशासनिक आधारित राज्य इकाइयों के बजाय, भू- आर्थिक क्षेत्रीय विशेषताओं पर आधारित होनी चाहिए। क्या एसईजेड ( विशेष आर्थिक क्षेत्र) इसके लिए सही रणनीति है और यदि नहीं, तो वैकल्पिक रणनीति का सुझाव दें ।
विकास योजना निर्माण को प्रायः विकास के प्रबंधन की तकनीक के रूप में माना जाता है – क्षैतिज के साथ-साथ ऊर्ध्वाधर, संसाधन उपयोग, समावेशन आदि। जब किसी अर्थव्यवस्था की संरचना जटिल हो जाती है और तेजी से परिवर्तन और काया-पलट (जनसंख्या वृद्धि, संसाधनों की खोज, अविवेक, आदि के कारण) के अधीन होती है, तो उस जटिलता को हल करने और उस बदलाव के प्रति अर्थव्यवस्था को तैयार करने के लिए एक प्रकार की अग्रिम उन्नत सोच आवश्यक हो जाती है। इस तरह की तैयारी ही योजना है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।
अधिकांश लोगों के लिए विकास योजना का अर्थ बाजार की शक्तियों के मुक्त संचालन के विरुद्ध, विकास को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप से है। हालांकि, राज्य के हस्तक्षेप के किसी भी रूप को योजना के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि इस तरह के सरकारी हस्तक्षेप को कुछ पूर्व निर्धारित लक्ष्यों, या तो बाजार तंत्र को बदलने या पूरक बनाने को प्राप्त करने हेतु आर्थिक संसाधनों को आवंटिते करने के वैकल्पिक तरीके के ठोस एवं संगठित प्रयास के रूप में माना जा सकता है। इस विचार से, कोई यह तर्क दे सकता है कि अर्थशास्त्रियों के विचार आर्थिक नियोजन की अवधारणा पर विभाजित हैं।
भारत में विकास योजना की संभावनाओं को निम्नलिखित कारकों द्वारा अपहृत कर लिया गया है-
- योजना के प्रति, दशकों से समावेशी प्रक्रिया के बजाय एक ‘शीर्ष निस्यंदन’ (top-down) दृष्टिकोण रहा है।
- भू-टैगिंग, थर्मल इमेजिंग आदि जैसी तकनीकों का उपयोग, दुनिया के अन्य भागों में उनकी प्रमाणित दक्षता के बावजूद, विलम्ब से किया गया है।
- क्षेत्रीय विशेषताओं और भू-आर्थिक स्थितियों को काफी हद तक नजरअंदाज किया गया है।
- प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर कम ध्यान देने के साथ योजना विशुद्ध रूप से प्रशासनिक अभ्यास के रूप में रही है।
भारत में विकास योजनाओं में मौजूद शून्यता को संबोधित करने में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) की उपयोगिता –
देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र कई उच्च लक्ष्यों और उद्देश्यों के साथ योजनाबद्ध थे। लेकिन समय के साथ, इन क्षेत्रों की सामाजिक और आर्थिक लागत उस सीमा तक अधिक हो गई है कि आज कई लोग इन क्षेत्रों से सीधे प्रभावित हो रहे हैं। दुर्भाग्य से, अधिकांश प्रभावित लोग गरीब और भूमिहीन हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए अधिग्रहित भूमि अक्सर उपजाऊ कृषि भूमि होती है। एक रिपोर्ट से पता चला है कि इनमें से लगभग 80% भूमि अभी भी अप्रयुक्त है जो कभी गरीब, आदिवासी और दलितों की थी। अक्सर भूमि अधिग्रहण अधिनियम का इन लोगों को अपनी भूमि से विस्थापन करने के लिए दुरुपयोग किया गया है। दुर्भाग्य से, राज्य सरकारों ने जमीन हासिल करने के लिए कॉर्पोरेट्स और उद्योगों की ओर से सुविधाजनक, वार्ताकार के रूप में काम किया है। इन जमीनों को अक्सर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर अधिग्रहित किया जाता है और बाद में इन जमीनों को गैर-अधिसूचित कर और उच्च दरों पर बेचा जाता है। यह माना जाता था कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना वाले क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि इन क्षेत्रों में अभी भी रोजगार की कमी है। विशेष आर्थिक क्षेत्र द्वारा कुशल रोजगार सृजित किया जाना था, में भी उपलब्ध नहीं हो पाया है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों से संबंधित एक और मुद्दा यह है कि इन क्षेत्रों में भूजल को प्राथमिकता दी जाती है और कृषि खेतों के बजाय एसईजेड की ओर विचलित कर दिया गया है। विशेष आर्थिक क्षेत्र अक्सर भूजल संसाधनों को बहा ले जाते हैं, स्थानीय लोगों को इससे वंचित छोड़ देते हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों की प्रभावशीलता बहुत कम रही है। यदि यह खाद्य उत्पादन और कृषि धनात्मक संसाधनों जैसे पानी को प्रभावित करता है, तो यह फायदे की तुलना में अधिक नुकसानदेह है। देश में खाद्य सुरक्षा बुनियादी आवश्यकता है और कोई भी नीति इसे अध्यारोहित नहीं कर सकती । विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता है ताकि उनके दुरुपयोग को रोकने के लिए कानूनों का उचित कार्यान्वयन किया जा सके।
इस प्रकार, विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड), हालांकि एक विचारशील नीति बनी हुई है, लेकिन निस्तेज प्रदर्शन ने इसकी प्रभावशीलता को कम कर दिया है। भारत में विकास योजना में सुधार प्रक्रिया की तत्काल आवश्यकता है, सरकार अपनी नीतियों को तीव्र विकास और देश के समस्त क्षेत्रों में विकास की सुविधा के रूप में देखना चाहती हैं।
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