प्रागैतिहासिक तथा आद्य इतिहास

प्रागैतिहासिक तथा आद्य इतिहास

मनुष्य के विकास के उस काल को प्रागैतिहासिक अथवा आद्य इतिहास कहा जा सकता है, जिस काल में मनुष्य को लेखन कला का ज्ञान नहीं था. यद्यपि हमें कुछ संस्कृतियों के द्वारा लेखन कला के प्रयोग की जानकारी प्राप्त होती है, परन्तु अभी उन्हें पढ़ने में सफलता प्राप्त नहीं होने के कारण इन्हें भी इसी काल में रखा जाता है.
प्राचीन भारतीय इतिहास को इतिहासकारों ने तीन भागों में बाँटा है—
(1) ऐसा काल जिसमें लेखन के साधन उपलब्ध नहीं थे. इस काल में मानव का जीवन अपेक्षाकृत सभ्य नहीं था, प्रागैतिहासिक काल कहलाता है. इसको आधार मानकर इतिहासकार हड़प्पा संस्कृति से पूर्व के भारतीय इतिहास के काल को प्रागैतिहासिक काल के रूप में मानते हैं.
(2) प्राचीन भारतीय इतिहास का वह काल जिसमें लेखन कला के साधन एवं प्रमाण तो उपलब्ध थे, लेकिन अपुष्ट या गूढ़ार्थ होने के कारण तत्कालीन लिपि का अर्थ ज्ञात करना सम्भव नहीं हो सका, उस काल को आद्य इतिहास कहा जाता है. इस आधार पर इतिहासकार हड़प्पा की संस्कृति और वैदिककालीन संस्कृति की गणना ‘आद्य इतिहास’ में करते हैं.
(3) ऐसा काल जिसमें सम्पूर्ण लिखित साधन उपलब्ध थे और इस काल का मानव पूर्णतः सभ्य बन गया, ऐतिहासिक काल कहलाता है. इस आधार पर ईसा पूर्व 600 के बाद का काल ऐतिहासिक काल के अन्तर्गत आता है.
(1) प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल
(2) आद्य इतिहास
(3) ऐतिहासिक काल
मानव तथा पर्यावरण : भौगोलिक कारक
मानव की उत्पत्ति के सन्दर्भ में अनेक मत प्रचलित हैं. इन्हीं मतों में एक मत ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट (Old Testament) में अभिव्यक्त है. इसके अनुसार नोआ ने भयंकर जलप्लावन से रक्षा कर संसार की रचना की. भारतीय धर्मग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और हम सभी मनु की सन्तान हैं. लेकिन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आ जाने से मानवीय उत्पत्ति सम्बन्धी दैव सिद्धान्त का खण्डन हो गया. आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार जीवों के क्रमिक विकास की प्रक्रिया के द्वारा मानव की उत्पत्ति हुई. इस सिद्धान्त के आधार पर मछली, मेढक, सरीसृप और फिर क्रमिक रूप से मानव की उत्पत्ति हुई. प्रागैतिहासिक पंचाग के अनुसार भू-वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर पृथ्वी लगभग 48 अरब वर्ष पुरानी मानी जाती है. इस आधार पर मानव जीवन का आरम्भ लगभग 35 अरब वर्ष पूर्व माना जाता है. भू-वैज्ञानिकों ने भारत की समय सारणी को महाकल्पों (Eras) में वर्गीकृत किया है. प्रत्येक महाकल्प, कल्प (Periods) में और कल्प युगों (Epochs) में वर्गीकृत है. पाँच महाकल्प निम्नलिखित हैं-
(i) आयजोइक (प्राचीन) (Archaeozoic)
(ii) प्रोटेरोजोइक (प्रारम्भिक) (Proterozoic)
(iii) पोलियोजोइक (प्राचीन जीव) (Polyozoic)
(iv) मेसोजोइक (मध्य जीव) (Mesozoic)
(v) सेनोजोइक (नूतन जीव) (Cenozoic)
नूतन जीव महाकाल की अवधि 8 करोड़ वर्ष पूर्व से 10,000 वर्ष पूर्व तक की मानी जाती है. इन युगों में मानव का क्रमिक विकास हुआ. सबसे पहले झिल्ली या काई जैसे प्राणी और पौधे का. इसके पश्चात् जलचर, जीव-जन्तु और मछलियाँ उत्पन्न हुईं. अगले क्रम में अर्द्ध-जलचर थलचर प्राणियों का आविर्भाव हुआ. अगले चरण में सरीसृपों का एवं विकास के अन्तिम चरण में पक्षी एवं स्तनधारी जीवों का आविर्भाव हुआ. स्तनधारी प्राणियों में सबसे प्रमुख जीव प्राइमेट या नर वानर था, जिससे आगे चलकर मानव का विकास हुआ (नवजीवन युग के अभिनूतन काल में).
पाषाणयुगीन संस्कृति
पाषाणयुगीन काल मनुष्य की सभ्यता का प्रारम्भिक काल माना जाता है, जिसे तीन भागों में बाँटा गया है –
(1) पुरा पाषाणकाल (Palaeolithic Age),
(2) मध्य पाषाणकाल (Mesolithic Age),
(3) नवपाषाण काल या उत्तर पाषाणकाल (Neolithic Age).
(1) पुरा पाषाण काल (Palaeolithic Age)—‘पेलियोस’ या ‘लिथोस’ को यूनानी भाषा में ‘पाषाण’ के रूप में प्रयोग किये जाने के कारण इसे इस नाम से पुकारा गया. यह काल आखेटक तथा खाद्य संग्राहक काल के रूप में जाना जाता है. अभी तक इस काल में मनुष्य के अवशेष (शारीरिक) नहीं मिले हैं, बल्कि उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थरों के उपकरण ही प्राप्त हुए हैं. इस काल का समय लगभग 2,50,000 ई. पू. से माना जाता है. महाराष्ट्र के ‘बोरी’ नामक स्थान से इस काल के अवशेष प्राप्त होते हैं. गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्यतया सोहन नदी घाटी में मिले हैं. कोर तथा फ्लेक प्रणाली के औजार म्यांमार में मिले हैं. सिंगरौली घाटी, मिर्जापुर एवं बेलन घाटी इलाहाबाद से इन दोनों प्रणालियों के औजार मिले हैं. मध्य प्रदेश (भोपाल) के भीमबेटका की पर्वत गुफाएँ एवं शैलाश्रय भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं. इस काल का मनुष्य जीवन शिकार पर निर्भर था तथा अग्नि का प्रयोग नहीं करना जानते थे.
(2) मध्य पाषाण युग (Mesolithic Age) — इस काल के उपकरणों को ‘माइक्रोलिथ’ कहा जाता था, क्योंकि ये आकार में बहुत अधिक छोटे होते थे. ये औजार जैस्पर, एगेत, चर्ट, चाल सिडनों जैसे पदार्थों से बनाये गये थे. राजस्थान, मालवा, बंगाल, उड़ीसा आदि के क्षेत्रों में इनके अवशेष प्राप्त होते हैं.
इस काल के मानव अवशेष प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) के सराय नाहर तथा महादहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं. इस युग के लोगों का जीवन भी शिकार पर ही निर्भर था तथा बैल, गाय, भेड़, बकरी, घोड़े एवं भैंसों का शिकार प्रमुखता से इस युग में किया जाता था.
इस काल के अन्तिम चरण में लोग कृषि एवं पशुपालन की ओर आकर्षित होने लगे थे. समाधियों के साथ-साथ कुत्तों के अवशेषों के मिलने से पता चलता है कि मानव का सबसे प्राचीन सहचर कुत्ता था.
(3) नवपाषण काल (Neolithic Age)– ‘Neo’ शब्द यूनानी भाषा से लिया गया है. जिसका अर्थ ‘नवीन’ है. इसका सामान्यतः काल 3500 ई. पू. से 1000 ई. पू. तक माना जाता है. इस काल की सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है. सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश की टोंस नदी घाटी क्षेत्र से इस काल के प्रस्तर उपकरण प्राप्त हुए. इसके बाद कर्नाटक के बेलारी को दक्षिण भारत में इस सभ्यता का मुख्य क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इस सभ्यता के अन्य केन्द्र-कश्मीर, सिन्धु प्रदेश, बंगाल, बिहार, आन्ध्र प्रदेश आदि हैं.
इस काल के बने प्रस्तर उपकरण गहरे ट्रेप के बने थे जिन पर एक विशेष प्रकार की पॉलिस लगी थी. इस काल के मनुष्य ने कृषि करना सीख लिया था इसका उदाहरण इलाहाबाद का कोलडीहवा है, जहाँ चावल की खेती के अवशेष मिले हैं. इस काल का मनुष्य अब मनुष्य आखेटक, पशुपालक से आगे निकलकर उत्पादक तथा उपभोक्ता बन गया था और एक स्थान पर निवास बनाकर रहने लग गया था. इस काल का मनुष्य बर्तन बनाने की कला सीख गया था तथा पशुओं की खालों से अपना तन ढकने लग गया था. इस काल में लोगों ने अग्नि का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया था.
इस तथ्य के पूरे साक्ष्य आज उपलब्ध हैं कि नवपाषाण युग में कृषि का प्रारम्भ हो गया था, परन्तु किस स्थान पर कृषि सर्वप्रथम प्रारम्भ की गयी विवादित विषय है. 1977 ई. से चल रही खुदाई द्वारा इस बात का केवल अनुमान है कि ब्लूचिस्तान या सिन्ध में सम्भवतः सर्वप्रथम खेती की गयी. बेलन नदी के किनारे मेहरगढ़ नामक स्थान पर कृषि के प्रथम साक्ष्य मिलने की घोषणा की गयी है.
ताम्र पाषाण युग
इस काल की प्रमुख विशेषता मनुष्य द्वारा पत्थर और ताँबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग है. इसी कारण से इस युग को ताम्र-पाषाण काल कहते हैं. मनुष्य ने सर्वप्रथम ताम्र धातु का प्रयोग 5000 ई. पू. प्रारम्भ किया. इसके सभ्यता के अवशेष राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दक्षिण-पूर्वी भारत में देखने को मिलते हैं. राजस्थान की बनास घाटी में आहड़ तथा गिलूण्ड इसके प्रसिद्ध स्थल हैं. अन्य स्थल मालवा, कायथा एवं एरण इत्यादि हैं.
पश्चिमी महाराष्ट्र में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा, दैमाबाद, पुणे में चंदौली, सोनागाँव, इनामगाँव आदि हैं. ये सभी क्षेत्र जोर्वे संस्कृति के नाम से जाने जाते हैं. इस सभ्यता का काल 1400-700 ई. पू. तक माना जाता है. इसी प्रकार राजस्थान की आहड़ सभ्यता का समय 2100-4500 ई. पू. के आसपास निर्धारित किया गया है.
इस काल में लोग मुख्यतः गेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे. लोग अनेक पशुओं; जैसे—गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर तथा ऊँट आदि पालते थे. लोग मकान बनाकर रहते थे, मकान मुख्यतः घास-फूस एवं मिट्टी के बने होते थे तथा ग्रामीण जीवन व्यतीत करते थे.
लोग बर्तन बनाने की कला से भली-भाँति परिचित थे तथा चाक द्वारा लाल एवं काले रंग के मिट्टी के बर्तन बनाते थे. मालवा से मिले चरखे एवं तकलियाँ तथा सूत एवं रेशम के धागे एवं कायथा से मिले मनके के हार आदि इस बात को स्पष्ट करते हैं कि वे लोग वस्त्र एवं सुनार के व्यवसाय से परिचित थे.
इस काल के लोगों को लेखन कला का ज्ञान नहीं था. राजस्थान और मालवा से प्राप्त मिट्टी की बैल मूर्ति तथा इनामगाँव से प्राप्त मातृदेवी की मूर्ति इस बात को सिद्ध करते हैं कि लोग मातृदेवी एवं वृषभ की उपासना करते थे.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य ने अपनी उत्पत्ति के बाद पाषाण युग, ताम्र युग, काल युग से होते हुए आधुनिक युग में प्रवेश किया है.

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