प्राचीन भारत में शिक्षा के लक्ष्य का वर्णन करें ।

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प्रश्न – प्राचीन भारत में शिक्षा के लक्ष्य का वर्णन करें ।
(Describe the aims of education in Ancient India.) 
उत्तर – प्राचीन भारत में शिक्षा के लक्ष्य (Aims of education in Ancient India ) –
वर्धयैनं ज्योतयैनं महते सौभाग्य । संशितं चित् संतरं सं शिशाधि |
1. बुद्धि का परिष्कार और बौद्धिक विकास (Intellectual Development) – अथर्ववेद का कथन है कि शिक्षा का उद्देश्य है – व्यक्ति की बुद्धि को विकसित करना, उसे परिष्कृत करना, उसे तीक्ष्ण बनाना, उन्नति की ओर ले जाना और महान् सौभाग्य प्राप्त करना ।
तपस्तप्यामहे ……… श्रुतानि शृण्वन्तः सुमेधसः ।
2. जीवन को तपस्वी बनाना (Marking Life Pure ) – शिक्षा का अन्य उद्देश्य है— जीवन को सधा हुआ बनाना । तप और साधना से ही जीवन सधा हुआ बनता है । इसके लिए साधारण और कठिन साधनाएँ करनी पड़ती हैं । अतः अथर्ववेद का कथन है कि तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए, वेदों को पढ़ते हुए, दीर्घायु और मेधावी हों ।
इदमहम् अनृतात् सत्यमुपैमि ।
3. आचार शिक्षा और चरित्र निर्माण (Character Development) – शिक्षा के उद्देश्य में अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं— चरित्रनिर्माण, सत्यनिष्ठता, सत्याचरण । असत्य, झूठ, छल-प्रपंच आदि का परित्याग । जब तक चारित्रिक शुद्धि और परिष्कार नहीं होगा, तब तक विद्या फलीभूत नहीं होगी । अतएव यजुर्वेद में कहा गया है कि मैं असत्य को छोड़कर सत्य को अपनाता हूँ ।
व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् ।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥
4. व्रत और श्रद्ध (Dedication and Faith) — किसी एक लक्ष्य को लेकर उसके प्रति समर्पित भाव से जुट जाना व्रत है। यजुर्वेद में व्रत को जीवन की आधारशिला बताते हुए कहा गया है कि व्रत से मनुष्य दीक्षित होता है, दीक्षा से दाक्षिण्य या प्रवीणता आती है, उस दक्षता के कारण ही मनुष्य में श्रद्धा उत्पन्न होती है और श्रद्धा से ही जीवन के लक्ष्य रूप सत्य-ब्रह्म की प्राप्ति होती है ।
शं सरस्वी सह धीभिरस्तु ।
5. विद्या और बुद्धि का समन्वय (Integration of Education with Intelligence)—विद्या के साथ व्यावहारिक बुद्धि का होना आवश्यक है। व्यवहार-शून्य और शैक्षिक ज्ञान – शून्य विद्या को विद्या नहीं कहा जा सकता है । अतः वेद का कथन है कि सरस्वती (विद्या) के साथ धी ( व्यवहार – बुद्धि) आवश्यक है ।
अप्नस्वती मम धीरस्तु शक्र
6. ज्ञान और कर्म का समन्वय (Integration of Knowledge and Action) शिक्षा वही सफल होती है, जिसमें कर्मठता की दीक्षा दी जाती है । प्रगतिशील, कर्मठ एवं सतत् संघर्षशील बनाना शिक्षा का लक्ष्य है अतएव अथर्ववेद में कहा गया है कि मेरी बुद्धि सदा कर्मठ रहे ।
इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तम् ।
देवता पुरुषार्थी को चाहते हैं, अकर्मण्य को नहीं ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा, विद्यजाऽयमृतश्नुते ।
यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय ही अभीष्ट है। कर्ममार्ग (अविद्या) से जीवन निर्वाह होता है और ज्ञानमार्ग (विद्या) से भोक्ष (अमृत) प्राप्त होता है ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा, संभूत्याऽमृतश्नुते
7. अध्यात्मवाद और भौतिकवाद का समन्वय (Integration of Spiritualism and materialism)—वेद अध्यात्म और भौतिकवाद के समन्वय की शिक्षा देता है । यजुर्वेद और ईश उपनिषद् का कथन है कि केवल भौतिकवाद या प्रकृतिवाद अनर्थ का कारण है और केवल अध्यात्म उससे भी अधिक अनर्थकारी है, अतः जीवन के समन्वित विकास के लिए दोनों का समन्वय अभीष्ट है । भौतिकवाद जीवन की ज्वलन्त समस्याओं को हल करता है और अध्यात्मक अमरत्व एवं आत्मिक शान्ति प्रदान करता है ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये…. परा यया तदक्षरम् अधिगम्यते ।
मुण्डक उपनिषद् ने इसी बात को परा और अपरा विद्या कहकर स्पष्ट किया है। अपरा विद्या भौतिक जीवन को सफल बनाती है और परा विद्या (अध्यात्म) जीवन के लक्ष्य अमरत्व या ब्रह्म की प्राप्ति कराती है ।
भद्रमिच्छन्त ऋषय….तपो दीक्षाम् उपनिषेदुरग्रे ।
8. तप और दीक्षा ( अनुशासन और समर्पण) (Discipline and Dedication) – अथर्ववेद ने तप (अनुशासन, (Discipline) और दीक्षा (समर्पण, Dedication) को राष्ट्रीय उन्नति का आधार बताया है और कहा है कि इससे ही राष्ट्र, समाज और व्यक्ति की उन्नति होती है ।
केतुं कृण्वन् अकेतवे पेशो मर्या अपेशसे
9. ज्ञान – ज्योति प्रज्वलित करना (Development of Innersight)— ऋग्वेद में शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है— अज्ञानी को ज्ञान-ज्योति देना, उसके अज्ञानान्धकार को दूर करना, निष्क्रिय और निश्चेष्ट को सक्रिय और सचेष्ट बनाना तथा प्रबुद्ध बनाना ।
आहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम् ।
10. लोकहितकारी सद्बुद्धि देना (Development of Power or Deliberation or Reflection)– शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए यजुर्वेद में कहा गया है कि शिक्षा के द्वारा ऐसी सुमति (सद्बुद्धि) प्राप्त हो, जो विश्वजनीन हो अर्थात् जिससे संसार का कल्याण कर सकें ।
मनुर्भव, जनया दैव्यं जनम्
11. निर्णय – शक्ति को बढ़ाना (Increasing Power of Decision Making)– शिक्षा का उद्देश्य हैं— मनुष्य में विचार-शक्ति, मनशक्ति, चिन्तन – शक्ति और कर्त्तव्य के निर्धारण करने वाली विवेक शक्ति को जाग्रत करना और बढ़ाना । ऋग्वेद का इसके साथ ही आदेश है कि स्वयं में दिव्य गुणों का विकास करके दूसरों में भी दैवी गुणों का विकास करो ।

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