प्राचीन भारत : संकल्पनाएँ, विचार एवं शब्दावली (ANCIENT INDIA : CONCEPTS, IDEAS AND TERMS)

प्राचीन भारत : संकल्पनाएँ, विचार एवं शब्दावली (ANCIENT INDIA : CONCEPTS, IDEAS AND TERMS)

भारतवर्ष
भौगोलिक दृष्टि से कश्मीर से श्रीलंका तक और कश्मीर से असम तक का भू-भाग ही भारतवर्ष कहलाता था. ऐसा कहा जाता है कि दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर इसका नाम भारत पड़ा है. कुछ विद्वानों का मानना है कि भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम, भारतवर्ष पड़ा. ईरानियों ने इसे हिन्दुस्तान तथा यूनानियों ने ‘इण्डिया’ कहा है. इसे जम्बू द्वीप का एक भाग माना गया है. मत्स्य पुराण में भारतवर्ष के 9 भाग बताये गये हैं.
प्रागैतिहास
वह इतिहास जिसके लिए कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है और जिसमें मानव का जीवन अपेक्षतया सभ्य नहीं था, प्रागैतिहास कहलाता है. इस इतिहास को लिखते समय लेखक को पूर्णतया पुरातात्विक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है. इसके अन्तर्गत सुदूर अतीत के प्रारम्भ से लगभग 300 ई. पू. तक की मानव संस्कृति का अध्ययन करते हैं.
संस्कार
व्यक्ति के असंस्कृत स्वरूप को सुसंस्कृत और अनुशासित करने के निमित्त संस्कारों की रचना की गई. शुद्धता, आस्तिकता, धार्मिकता और पवित्रता संस्कार की प्रधान विशेषताएँ मानी जाती हैं. धर्म, यज्ञ और कर्मकाण्ड इसका मूल आधार रहा है. संस्कार का अर्थ शुद्धता अथवा स्वच्छता से है. धर्मशास्त्रों में संस्कारों की संख्या 16 बताई है, जो मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चलते हैं. सोलह संस्कार निम्नलिखित हैं- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदशास्त्र, केशांत, समावर्तन, विवाह एवं अन्त्येष्टि संस्कार.
दण्डनीति
न्याय व्यवस्था को सुचारु रू रूप से चलाने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने के लिए दण्डनीति का प्रावधान है. इसमें शारीरिक तथा आर्थिक दण्ड दिये जाते हैं. ‘हलफल परीक्षा’ भी दण्डनीति का एक प्रकार है जिसमें अपराधी को गर्म लोहे की सलाखों को छूना पड़ता था.
अग्रहार 
यह एक प्रकार का भूमि अनुदान होता था, जो केवल ब्राह्मणों को मिलता था और कर मुक्त होता था. इस प्रकार के अनुदान पर ग्रहीता के परिवार का वंशानुगत अधिकार हो जाता था, परन्तु इसे राजा छीन भी सकता था.
पुरुषार्थ
जीवन में भौतिक व आध्यात्मिक सुख दोनों का महत्व है और दोनों का समन्वित रूप ही जीवन को उन्नत करता है. भारतीय दर्शन इन दोनों प्रवृत्तियों का सन्तुलित, सम्मिलित और समन्वित रूप है जिसे पुरुषार्थ कहा गया है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ माने गये हैं, जिन्हें शास्त्रकारों ने चतुर्पुरुषार्थ कहा है.
सप्तांग
भारतीय राजनीतिशास्त्र के अन्तर्गत मनु, भीष्म एवं शुक्र आदि राजनीतिशास्त्रियों के द्वारा राज्य की कल्पना एक ऐसे जीवित जाग्रत शरीर के रूप में की गई है, जिसके कि सात अंग बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं— राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र. सप्तांग द्वारा राज्य संस्था को लौकिक एवं धर्मनिरपेक्ष रूप प्रदान कर दिया गया था.
षड्भाव
पड़ोसी राज्य और विशेषतया अन्य विदेशी राज्यों के प्रति व्यवहार के सम्बन्ध में षड्भाव अर्थात् 6 गुणों वाली नीति का प्रतिपादन किया है, जो निम्नलिखित हैं  –
(i) संधि – मित्रता करना..
(ii) विग्रह – युद्ध करना.
(iii) यान – वास्तविक आक्रमण करना.
(iv) आसन – तटस्थता की नीति.
(v) संश्रय – बलवान का आश्रय लेना.
(vi) द्वैधीभाव – एक के साथ संधि व दूसरे के साथ युद्ध करना.
दिग्विजय
दिग्विजय वह विजय है, जिसमें राजा चारों दिशाओं में महत्वपूर्ण विजयें हासिल करता है. द्विग्विजयी राजा ‘चक्रवर्तिन’ कहलाता है. इस विजय के बाद राजा महत्वपूर्ण यज्ञ भी करता है.
वर्णाश्रम
धर्म और कर्म के आधार पर समाज को चार वर्गों में बाँटा गया है. इनको वर्ण कहा गया है. ये हैं— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र.  प्रारम्भ में वर्ण-व्यवस्था कर्म पर आधारित थी किन्तु बाद में जन्म पर आधारित हो गई.
(i) ब्राह्मण – अध्ययन अध्यापन करना, यज्ञ करना, दान लेना एवं देना.
(ii) क्षत्रिय – जनरक्षा करना, सैनिक कार्य करना.
(iii) वैश्य – कृषि, पशुपालन एवं व्यापार करना.
(iv) शूद्र – उपर्युक्त तीनों वर्गों की सेवा करना.
 स्तूप / चैत्य
किसी महान् व्यक्ति की स्मृति को सँजोये रखने के लिये उसके पवित्र अवशेषों को मिट्टी से ढककर बनाये गये बहुत बड़े अर्द्ध-गोलाकार मिट्टी के दूहे को स्तूप के नाम से जाना जाता है. कालान्तर में ईंटों व पत्थरों से ढककर भी स्तूप बनाये जाने लगे. स्तूपों का सम्बन्ध भगवान् बुद्ध की स्मृतियों से है. साँची व अमरावती के स्तूप प्रसिद्ध हैं.
अलवार
दक्षिण भारत में जिन संतों ने वैष्णव धर्म का प्रचारप्रसार किया, वे अलवार कहलाते थे ये सन्त गा बजाकर वैष्णव धर्म का प्रचार करते थे. अलवार सन्तों की संख्या 12 है. अलवार सन्तों के प्रभाव से कई दक्षिण भारतीय नरेशों ने वैष्णव धर्म अपनाया था. साध्वी अण्डाल का नाम भी बहुत प्रसिद्ध है.
नयनार
नयनार दक्षिण भारत में जिन सन्तों ने शैव धर्म का प्रचार-प्रसार किया, वे नयनार कहलाये. इनकी कुल संख्या 63 थी. जाति-पाँति के विरोधी थे तथा इन्होंने भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया. अप्पार, सुन्दर कीर्ति आदि नयनार सन्त थे.
श्रेणी
श्रेणियाँ एक ही प्रकार के व्यवसाय करने वाले लोगों के संगठन होते थे. सम्भवतः एक ही स्थान और एक ही व्यवसाय के लोग श्रेणियों का निर्माण करते थे, लेकिन अनेक स्थानों के लोग भी जो एक ही व्यवसाय करते थे श्रेणियों के रूप में संगठित हो सकते थे. श्रेणियों का एक मुखिया होता था जिसे ‘महत्तक’ कहा जाता था: श्रेणियों की एक कार्य समिति भी होती थी जिसे ‘कार्यचिन्तक’ भी कहा जाता था. श्रेणियों के अपने कानून व नियम भी बने होते थे. ये श्रेणियाँ बैंकों का कार्य भी करती थीं.
मुद्रा
काल लेन-देन और विनिमय का मुख्य माध्यम मुद्रा थी, जिससे प्राचीन इतिहास का ज्ञान होता है. प्राचीन मुद्रा ‘आहत’ सिक्के’ थी जो चाँदी की बनी होती थी और धातु के टुकड़ों पर ठप्पा मारकर बनाई जाती थी. इन पर पेड़, मछली, हाथी, साँड़ आदि अंकित होते थे. सर्वाधिक मुद्राएँ गुप्तोत्तर काल की मिली हैं तथा सोने की सर्वाधिक मुद्राएँ गुप्त शासकों ने जारी कीं. मुद्राओं से राजा की आर्थिक स्थिति, वंश, नाम, उपाधि, राज्य सीमा का ज्ञान प्राप्त होता है.
संगम युग
संगम शब्द का अर्थ है सभा या परिषद्. सुदूर दक्षिण तमिल कवियों द्वारा जो साहित्यिक सभाओं का आयोजन किया जाता था, वह संगम कहलाता है. चोल, चेर और पाण्ड्य वंशों का सामूहिक युग ‘संगम युग’ कहलाता है. पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में तीन संगमों का आयोजन किया गया था –
(i) मदुरै (अगस्त्य).
(ii) कपाटपुरम ( अगस्त्य ).
(iii) मदुरै (नक्कीरर).
सल्लेखना
उपवास द्वारा अन्न-जल के त्याग द्वारा स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करना ‘सल्लेखना’ कहलाता है. जैन धर्म में सल्लेखना का प्रावधान है तथा महावीर ने स्वयं इसकी अनुमति दी है. महावीर और चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना द्वारा ही अपनी देह त्यागी थी.
वीरगल (Hero Stone)
समस्त दक्षिण भारत में वीरगल अर्थात् वीरों के पाषाण स्तम्भ बनाये जाते थे. ये स्तम्भ उन वीरों के लिए बनाये जाते थे जो पशुओं की रक्षा करते हुए मारे जाते थे. इन स्तम्भों में उनकी वीरता का उल्लेख होता था.
सभा/समिति
यह वैदिककाल की जनतान्त्रिक संस्थाएँ थीं, जिन्हें अथर्ववेद में प्रजापति की दो पुत्रियाँ’ कहा गया है.
(i) सभा –  इसमें कुछ गिने-चुने एवं विशिष्ट लोग ही भाग लेते थे. इसका मुख्य कार्य न्याय करना था तथा इसका अध्यक्ष सभापति कहलाता था.
(ii) समिति – यह जनसाधारण की संस्था थी, जिसमें सभी लोग भाग लेते थे. इसका मुख्य कार्य राजा का चुनाव करना था. राजा समिति से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित था. इसका अध्यक्ष इसान कहलाता था.समिति राजा को उसके पद से हटा भी सकती थी.
धम्म विजय
धर्म प्रचार के द्वारा दूसरे राज्यों में अपना प्रभाव स्थापित करना तथा युद्ध का सहारा न लेना, धम्म विजय कहलाता है. इसमें धर्म-प्रचारकों द्वारा धर्म का प्रचार किया जाता है. कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने धम्म विजय को अपनाया था तथा युद्ध नीति को त्याग दिया था. अशोक ने अपने 13वें अभिलेख में इस विजय का उल्लेख किया था.
विष्टि
प्राचीन भारत में (मुख्यतः गुप्तकाल में ) बच्चों, स्त्रियों व पुरुषों द्वारा जो निःशुल्क श्रम या बेगार करवाया जाता था वह ‘विष्टि’ कहलाती थी. इसमें कुछ भी पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था.
यज्ञ (Yajna)
प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद से ही हमें यज्ञों का उल्लेख मिलने लगता है. यज्ञ मुख्य रूप से देवताओं (वैदिक) को प्रसन्न करने के लिए किये जाते थे, लेकिन इसके साथ ही अन्य उद्देश्यों; जैसे विजय प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, अपने को चक्रवर्ती घोषित करने आदि के लिए भी यज्ञों का विधान किया गया. यज्ञ को एक व्यक्ति से लेकर 16 व्यक्ति तक एक साथ कर सकते थे. वैदिक काल के बाद यज्ञ करने में जटिलता आ गयी तथा अब केवल पुरोहितों के माध्यम से ही इसे सम्पन्न किया जा सकता था.
नागर / द्राविड़ / वेसर ( Nagar/ Dravida/ Vesara)
ये भारतीय मन्दिर स्थापत्य कला की शैलियों के नाम हैं. नागर शैली का प्रचलन उत्तर भारत में, द्राविड़ शैली का प्रचलन दक्षिण भारत में था, जबकि वेसर शैली के निर्मित मन्दिर विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के दक्षिण में व कृष्णा नदी के उत्तर की ओर बनाये गये थे.
नागर शैली के मन्दिरों का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था तथा इनकी शैली पंचायतन है. इस शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण खजुराहो स्थित कन्दरिया महादेव मन्दिर है. द्राविड़ शैली के मन्दिर नीचे आधार पर अत्यधिक चौड़े होते थे तथा उनके ऊपर क्रमशः छोटे होते हुए मंजिलें बनी हैं. इसे विमान कहा गया है. इस शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण राजराज I द्वारा निर्मित तंजौर का वृहदेश्वर मन्दिर है, वेसर शैली में नागर व द्राविड़ शैली दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं. इस शैली के मन्दिर मुख्य रूप से एहोल में स्थित • चालुक्य शासकों द्वारा बनवाया गया था. हैं, जिन्हें
स्त्रीधन (Stridhana)
सामान्यतया एक स्त्री जब विवाह करने के बाद अपने पति के घर जाती है तो उसका पिता उसे कुछ धन आदि था इसे ही ‘स्त्रीधन’ कहा जाता है, परन्तु प्राचीनकाल में  स्त्री को चल सम्पत्ति माना जाता था और उसे उपहार में दिया जा सकता था. ऋग्वेद एवं महाभारत के उदाहरण उसे द्यूत क्रीड़ा में दाँव पर रखने के स्पष्ट प्रमाण हैं, परन्तु इसे निन्दनीय माना जाता था. सैद्धान्तिक रूप से स्मृतिकारों ने परन्तु स्त्रीधन पर स्त्री का सम्पूर्ण अधिकार माना है, व्यावहारिक रूप से स्त्री अपने इस धन को बिना पति की अनुमति से न तो बेच सकती थी और न ही किसी को दे सकती थी.
कर्म का सिद्धान्त (Doctrine of Karma)
कर्म के अनुसार कर्मफल मिलता है, यह कर्म का सिद्धान्त है. जैसा कर्म करोगे वैसा फल मिलेगा, यही कर्म की अवधारणा है. अपने प्रारब्ध के अनुसार ही व्यक्ति के जीवन की परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं, यह कर्म के सन्दर्भ में मान्यता है.
इस सिद्धान्त का सर्वश्रेष्ठ विवरण हमें गीता प्राप्त होता है. गीता में भगवान् ने स्वयं यह कहा कि व्यक्ति को मोक्ष तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह अपने कर्म का पालन निरन्तर करता रहे. वह इसे करने में किसी प्रकार के राग, द्वेष आदि से मुक्त होकर स्थितिप्रज्ञ के समान व्यवहार करे. वायु पुराण में भी व्यक्ति को अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कर्म करने की सलाह दी गयी है तथा ऐसे व्यक्ति को जो इस सिद्धान्त का पालन नहीं करता उसे यमलोक में भेज दिये जाने को कहा गया है.
बोधिसत्व / तीर्थंकर (Bodhisattva/Thirthankar)
बोधिसत्व और तीर्थंकर क्रमशः बौद्ध धर्म और जैन धर्म से सम्बन्धित हैं. बोधिसत्व बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अनुसार परम ज्ञान प्राप्त वह व्यक्ति है, जो स्वयं तो निर्वाण प्राप्त कर चुका है तथा अपने प्रयासों से दूसरों को निर्वाण प्राप्त कराने में सहायता देता है. जैन परम्परा के अनुसार अब तक कुल 24 तीर्थकर हुए हैं. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है. इस परम्परा के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर थे.
एकता
विभिन्न प्रकार की विविधताओं के फलस्वरूप किसी मत-मतान्तर, रीति-रिवाज, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या सैद्धान्तिक रूप से राष्ट्र/राज्य या समुदाय के व्यक्तियों का मतैक्य होना ‘एकता’ कहलाती है. भारतवर्ष एक विशाल राष्ट्र है और विभिन्न क्षेत्रों में बँटे होने के फलस्वरूप भी सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक रूप से एक है. यह भारत की विविधता में एकता वाले तत्त्व को उजागर करता है.
ऋण
प्राचीन धर्मशास्त्रों के अनुसार प्रत्येक ब्राह्मण तीन ऋण लेकर जन्म लेता है, ये तीन ऋण हैं – (i) ऋषि ऋण, (ii) देव ऋण, (iii) पितृ ऋण. ब्रह्मचर्य के पालन से ऋषि ऋण, यज्ञादि करने से देव ऋण एवं पुत्रोत्पादन करने से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है, ऐसी मान्यताएँ हैं. प्राचीनकाल में व्यक्ति को इन ऋणों से मुक्ति प्राप्त करना आवश्यक समझा जाता था.
स्मारक प्रस्तर
किसी की स्मृति में बनाये गये स्मारक के कालक्रम निर्माता या अन्य जानकारियों के लिए लगाये गये पत्थर को ‘स्मारक प्रस्तर’ कहा जाता है. ‘स्मारक प्रस्तर’ इतिहास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्रोत है. इसके द्वारा जिसका स्मारक बनाया हुआ है, उसके वंश, कालक्रम, जानकारी प्राप्त करना आसान हो जाता था. यह प्रस्तर लगाने । , कालक्रम, कार्य के सन्दर्भ मे की परम्परा प्राचीनकाल से चलती आ रही है.

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