बहुभाषिकता का तात्पर्य बताते हुए भारतीय भाषाओं को वर्गीकृत कीजिए।
प्रश्न – बहुभाषिकता का तात्पर्य बताते हुए भारतीय भाषाओं को वर्गीकृत कीजिए।
उत्तर – हिंदी भाषा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। संसार में किए गए भाषा सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में हिन्दी का तीसरा स्थान है। भारत में यह लगभग 60 करोड़ लोगों की भाषा है। भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्र, भारत की के अन्य राज्यों तथा विदेशों में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग पर्याप्त हो रहा है। हिंदी भाषा की विभिन्न बोलियों का परिचय प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित तालिका अत्यधिक उपयोगी होगी –
(क) पश्चिमी हिन्दी – पश्चिमी हिंदी की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। इसकी पाँच प्रमुख उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। ये हैं— खड़ी बोली, ब्रजभाषा, हरियाणवी (बांगरू) तथा कन्नौजी |
(i) खड़ी बोली – खड़ी बोली पश्चिमी हिन्दी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपभाषा है। आज यह अत्यधिक विकसित होकर मानक हिन्दी का रूप धारण कर चुकी है। यही कारण है कि इस ‘मानक हिन्दी’, ‘हिन्दुस्तानी’ अथवा ‘कौरवी’ नामों से भी पुकारा जाता है। मूलतः यह हिन्दी दिल्ली-मेरठ के आस-पास बोली जाती थी। लेकिन आजकल इसका क्षेत्र मेरठ, देहरादून, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, बुलन्दशहर, मुरादाबाद, रामपुर तथा पश्चिम में यमुना नदी के पार अम्बाला तक फैला हुआ है। खड़ी बोली के नामकरण को लेकर में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। कुछ विद्वान् शुद्धता के कारण खड़ी पाई के कारण खड़ी बोली की संज्ञा देते हैं। इस समय इसकी दो शैलियाँ प्रचलित हैं। इसकी पहली शैली उर्दू से प्रभावित है। दूसरी शैली तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण परिनिष्ठित हिन्दी कही जाती है। आधुनिक युग में खड़ी बोली सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा कही जा सकती है। स्वामी दयानन्द सरस्वती, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसार द्विवेदी आदि साहित्यकारों ने खड़ी बोली की खड़खड़ाहट को दूर करके इसे साहित्यिक भाषा बनाया।
(ii) हरियाणवी ( बाँगरू ) – ये हरियाणा के बाँगर क्षेत्र की बोली है। यह हरियाणा राज्य के बहुसंख्यक लोगों की बोल भी कही जा सकती है। हरियाणा राज्य का निर्माण और सीमा निर्धारण इसी बोली के कारण हुआ। बाँगरू में बाँगरू, अहीरवाटी, कौरवी, ब्रज, बंबालवी, बागड़ी तथा मेवाती सात उप-बोलियाँ हैं इसमें प्रायः ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग होता है तथा इसके सर्वनाम रूप कहीं पंजाबी, कहीं राजस्थानी से मिलते-जुलते हैं।
(iii) ब्रजभाषा – ब्रजभाषा मूलतः ब्रज प्रदेश की भाषा है। यह मुख्यतः मथुरा, अलीगढ़, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, आगरा, बरेली, बदायूँ में बोली जाती है। मथुरा के समीप के क्षेत्र को ब्रजमण्डल कहा जाता है। राजस्थान के धौलपुर, करौली तथा भरतपुर, हरियाणा के पलवल, होडल आदि तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर के पश्चिमी भाग में भी ब्रजभाषा का प्रयोग होता है। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल तथा रीतिकाल में यह एक साहित्यिक भाषा थी । भक्तिकालीन कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख कवियों में सूरदास, नन्ददास, रसखान आदि ने इसी भाषा में साहित्य की रचना की थी। रीति-कालीन कवियों में केशवदास, मतिराम, भूषण, चिन्तामणि, बिहारी, घनानंद आदि ने भी ब्रजभाषा में उच्चकोटि की काव्य की रचना की। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके मण्डल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में साहित्य रचना की। ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादक महावीर प्रसार द्विवेदी ने भी अपना आरम्भिक काव्य ब्रजभाषा में ही लिखा था।
(iv) कन्नौजी – कन्नौजी का प्रमुख क्षेत्र कन्नौज है। कन्नौजी शब्द का विकास कान्यकुब्ज से हुआ है जो कि संस्कृत शब्द है। ये बोली पीलीभीत, हरदोई, शाहजहाँपुर, इटावा, कानुपर में बोली जाती है। आज यह केवल कन्नौज तक सीमित है। इसमें कुछ लोक-साहित्य उपलब्ध है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। कन्नौजी पर ब्रजभाषा का प्रभाव स्पष्ट है। चिंतामणि, भूषण, मतिराम आदि, इसी क्षेत्र के निवासी थे। लेकिन उन्होंने ब्रजभाषा में साहित्य का निर्माण किया।
(v) बुन्देली – बुन्देली सम्पूर्ण बुंदेलखण्ड की सर्वाधिक प्रमुख जाति बुन्देलों की भाषा है। इसे ही कुछ विद्वानों ने बुन्देलखण्डी या बुन्देली नाम दिया है। इस भाषा का क्षेत्र जालौन, हमीरपुर, झाँसी, बाँदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, दमोह, नरसिंहपुर, सिवनी, जबलपुर तथा होशंगाबाद तक व्याप्त है। इस भाषा के क्षेत्र का विस्तार लगभग 40 हजार मील है। इस क्षेत्र में रहने वाले लगभग डेढ़ करोड़ से अधिक लोग इस भाषा का प्रयोग करते हैं। यह सारे प्रदेश में प्राय: एक ही भाषा थोड़े- बहुत अन्तर के साथ बोली जाती है। पंवारी, राठौरी तथा खटोला इसकी तीन उपबोलियाँ हैं।
(ख) पूर्वी हिन्दी – पूर्वी हिन्दी की उत्पत्ति अर्धमागधी के अपभ्रंश से हुई है। इसकी तीन प्रमुख उपभाषाएँ हैं- अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी।
(i) अवधी – यह अवध प्रदेश की प्रमुख बोली है। इसलिए इसे अवधी कहते हैं। पूर्वी हिन्दी की बोलियों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बोली है। इसके अन्य दो नाम हैं- कोसला और बैंसवाड़ी अर्धमागधी प्राकृत से विकसित होने वाली यह प्रमुख बोली है। हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में अवधी एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर चुकी थी। हरदोई जिले को छोड़कर शेष सम्पूर्ण अवध प्रान्त के लखीमपुर खीरी, बहराइच, गौण्डा, बाराबंकी, रायबरेली, लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, फैजाबाद, सुल्तानपुर, जौनपुर तथा मिर्जापुर में आज भी अवधी ही बोली जाती है। इस बोली को बोलने वालों की संख्या दो करोड़ से अधिक है। 1971 की जनगणना के अनुसार, इसके बोलने वालों की संख्या एक करोड़ अस्सी लाख थी।
भक्तिकाल में अवधी ने साहित्यिक रूप धारण कर लिया। इस काल में अवधी के दो भेद हो गए—ठेठ अवधी तथा साहित्यिक अवधी । सूफी प्रेमाख्यानक कवियों में मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, जायसी, शेखनबी आदि ने ठेठ अवधी में प्रेमाख्यानक काव्य रचनाएँ लिखीं। मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ ठेठ अवधी में रचित एक गौरव ग्रन्थ है। कविवर तुलसीदास तथा अन्य राम कवियों ने साहित्यिक अवधी में साहित्य की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ साहित्यिक अवधी में रचित हिन्दी का एक महान् महाकाव्य है। रामलला नहछू, बरवै रामायण, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि भी साहित्यिक अवधी की ही श्रेष्ठ काव्य रचनाएँ हैं। रीतिकाल में अवधी का प्रयोग नहीं के -बराबर था। लेकिन आधुनिक काल के भारतेन्दु युग में एक बार पुन: कुछ विद्वानों ने अवधी का प्रयोग नहीं के बराबर था। लेकिन आधुनिक काल के भारतेन्दु युग में एक बार पुनः कुछ विद्वानों ने अवधी में लिखने का प्रयास किया। इनमें रमई काका का नाम उल्लेखनीय है।
(ii) बघेली–क्योंकि यह भाषा बघेलखण्ड में बोली जाती है, अतः इसका नाम बघेली या बघेलखण्डी है। अधिकांश विद्वान् भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसे अलग बोली न मानकर अवधी में ही इसकी गणना करते हैं। उनका विचार है कि यह दक्षिणी उपशाखा है तथा इसका क्षेत्र बघेलखण्ड तक सीमित है। बघेलखण्ड का केन्द्र म. प्र. राज्य स्वीकार किया. गया है। इस बोली का अधिकतर प्रयोग दमोह, जबलपुर, मण्डला तथा बालाघाट आदि जनपदों में होता है। फतेहपुर, हमीरपुर, बांदा आदि में बुन्देली के मिश्रित रूप का अधिक प्रयोग होता है। इसलिए बघेली में दो प्रकार की बोलियाँ स्वीकार की गई हैं —
( क ) शुद्ध बघेली – जिसका प्रयोग सम्पूर्ण बघेलखण्ड में होता है । ( ख ) मिश्रित बघेली—यह समीपस्थ बोलियों के मिश्रण के कारण सीमान्त क्षेत्रों में बोली जाती है। इसके बोलने वालों की संख्या आज 75 लाख के लगभग है। बघेली में ललित साहित्य न के बराबर है। मध्यकाल में रीवा में संगीत सम्राट तानसेन जैसे उच्चकोटि के कलाकार रहते थे। बीरबल जैसा प्रतिभाशाली राजा भी यहीं का था तथा नरहरि जैसे सिद्ध कवियों ने इसी क्षेत्रों में साधना की थी। स्वयं रावां नरेश गुण ग्राहक होने के साथ-साथ उच्चकोटि के कलाकार भी थे। बघेला मं ललित साहित्य का सृजन इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि सभी ने अवधी के साहित्यिक रूप को अपना लिया था।
( ख ) छत्तीसगढ़ी – मध्य प्रदेश के भूखण्ड छत्तीसगढ़ी के आधार पर इस भाषा का नाम छत्तीसगढ़ पड़ा था। इसके अन्य नामों में लरिया तथा खल्यही भी हैं। इसके भौगोलिक क्षेत्र में रायपुर, बिलासपुर, कांकेर, नांदगाँव, खैरागढ़ तथा रामगढ़ आदि हैं। इसके कुछ भिन्न रूपों में उदयपुर, जशपुर आदि सम्मिलित है। इस भाषा के बोलने वालों की संख्या एक करोड़ के लगभग है। छत्तीसगढ़ी की कोई अन्य बोली नहीं है। लेकिन यह सीमावर्ती भाषाओं से अत्यधिक प्रभावित हुई है। यद्यपि छत्तीसगढ़ी के व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध हैं लेकिन इसमें साहित्य न के बराबर है। केवल लोकगीत ही प्राप्त होते हैं ।
(ग) राजस्थानी – राजस्थान में प्रयुक्त होने वाली सभी बोलियों के लिए जार्ज ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम राजस्थानी भाषा का नाम दिया। उन्होंने राजस्थानी को हिन्दी भाषा से सर्वथा अलग माना है। खड़ी बोली के समान इसका विकास भी शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। 1800 ई. से पहले वर्तमान राजस्थान इक्कीस भागों में बँटा हुआ था। सर थॉमस ने संयुक्त रूप से इसका गठन किया और इस राज्य के लिए राजपूताना शब्द का प्रयोग किया। राजस्थानी भाषा का कई ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। मौड़ जी ने बाबू प्रकाश में इसे मरु भाषा कहा है तो ‘वंश भास्कर’ के रचयिता ने इसके लिए ‘मरुभानी’ शब्द का प्रयोग किया है। इसी प्रकार कवि मंध ने ‘रघुनाथ रूपक’ में इसके लिए ‘मरुभूमि भाषा’ का प्रयोग किया है।
राजस्थानी भाषा का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। इसके पश्चिम में गुजराती तथा सिन्धी भाषा का क्षेत्र आरम्भ हो जाता है। पूर्व में हरियाणवी तथा ब्रजभाषा का क्षेत्र है। उत्तर में पंजाबी तथा लहदा का और दक्षिण में मराठी भाषा का क्षेत्र है। इस सभी भाषायी सीमावर्ती क्षेत्रों के मध्य राजस्थानी भाषा का क्षेत्र है। हरियाणा के गुड़गाँव जनपद के कुछ भाग, अलवर, भरतपुर, बूँदी, कोटा, बराड़, उदयपुर आदि क्षेत्रों में यह भाषा बोली जाती है। आधुनिक विद्वानों ने राजस्थान की पाँच प्रमुख बोलियाँ स्वीकार की हैं। ये हैं— मारवाड़ी, जयपुरी, मालवी, मेवाती तथा मेवाड़ी |
(i) मारवाड़ी – यह पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर तथा अजमेर के आस-पास की उपबोली है। यह सर्वाधिक विकसित और प्रसिद्ध बोली मानी जाती है। अधिकांश राजस्थानी साहित्य इसी बोली में उपलब्ध है। हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई ने इसी बोली में साहित्य की रचना की। पुरानी मारवाड़ी को डिंगल भाषा के नाम से जाना जाता तथा। आदिकाल का वीरगाथात्मक साहित्य डिंगल भाषा में ही रचित है । पृथ्वीराज रासो पुरानी मारवाड़ी का गौरव ग्रन्थ है।
(ii) मेवाती – यह उपबोली राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाती है। इसका प्रयोग गुड़गाँव, अलवर तथा भरतपुर के आसपास के क्षेत्रों में देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में मेव जाति के लोग रहते हैं। उन्हीं के नाम पर इसे मेवाती कहा गया है। राठीनहेर, कट्ठर, गुजरी आदि इसकी कुछ उपबोलियाँ हैं। इसमें कुछ लोकगीत भी उपलब्ध हैं।
(iii) मालवी – इस उपभाषा का प्रयोग मालवी के आसपास के क्षेत्रों में होता है। इसकी प्रमुख बोलियाँ – सोनवाड़ी, रांगड़ी तथा पाटवी आदि। इन्दौर, उज्जैन, रतलाम आदि मालवा क्षेत्र में प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम मावली पड़ा है। साहित्यिक दृष्टि से यह अधिक सम्पन्न उपभाषा नहीं है। लेकिन लौकिक साहित्यिक दृष्टि से इसे हम समृद्ध उपभाषा कह सकते हैं।
(iv) जयपुरी – यह राजस्थानी भाषा की एक अन्य उपभाषा है। जिसका सर्वाधिक प्रयोग जयपुर, कोटा, बूँदी तथा किशनगढ़ आदि जनपदों में होता है। कुछ विद्वान् इस भाषा के क्षेत्र को प्राचीन नाम ढूँढाण के आधार पर इसे ढूँढाणी भी कहते हैं। इसकी अनेक उपबोलियाँ हैं जिनमें तोरावटी, चौरासी, काटढ़ा आदि प्रमुख हैं। इसमें साहित्य तो न के बराबर है, लेकिन लोक साहित्य काफी मात्रा में प्राप्त हो जाता है।
(v) मेवाड़ी – यह बोली मेवाड़ क्षेत्र में सर्वाधिक बोली जाती है। प्राचीनकाल में मेवाड़ी बोली का विशेष महत्त्व था। इसमें पर्याप्त मात्रा में लोक-साहित्य का निर्माण हुआ है। इस बोली में रचित आज भी असंख्य लोकगीत प्रसिद्ध हैं, जिसमें अनेक राजाओं की वीरता का वर्णन किया गया है।
(घ) बिहारी भाषा – डॉ. जार्ज ग्रियर्सन ने बिहार के आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली तीन बोलियों का समानता के आधार पर बिहारी उपभाषा नामकरण किया था, लेकिन उन्होंने इसे हिन्दी से सर्वथा अलग उपभाषा माना है। बिहारी उपभाषा का उद्भव मागधी अपभ्रंश से हुआ है। यह लगभग पूरे बिहार, उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, देवरिया तथा गोरखपुर आदि जनपदों में बोली जाती है। ग्रियर्सन ने बिहारी की तीन बोलियों (मैथिली, मगही तथा भोजपुरी) को दो वर्गों में विभक्त किया है, क्योंकि दो बोलियों में अत्यधिक समानता देखी जा सकती है और तीसरी बोली इनसे भिन्न है।
(i) भोजपुरी – भोजपुरी का सर्वाधिक प्रयोग भोजपुर जिले में होता है। इसलिए इसे भोजुपरी कहा जाता है। इसका एक अन्य नाम पूर्वी भी है। यह गोरखपुर, देवरिया, छपरा, गोलालगंज, मिर्जापुर, जौनपुर, बलिया तथा भोजपुर आदि क्षेत्रों में बोली जाती है। इसका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। इसलिए इसकी कई उपबोलियाँ भी हैं जिनमें नागपुरिया, उत्तरी भोजपुरी, मधेसी, बँगरही, दक्षिणी भोजपुरी, गोरखपुरी आदि प्रमुख हैं। भोजपुरी बोलने वालों की संख्या एक करोड़ के लगभग है। भोजपुरी में लोक-साहित्य का तो विशाल भण्डार मिलता है, परन्तु साहित्य का इसमें अभाव है।
(ii) मैथिली – यह बिहार की एक प्रमुख भाषा है। इसका क्षेत्र मुजफ्फरपुर, मुंगेर, भागलपुर, दरभंगा, पूर्णिया, चम्पारन आदि तक फैला है। मैथिली शब्द मिथिला से सम्बन्धित है तथा मिथिला शब्द भारतीय साहित्य में बहुत पहले से प्रयुक्त होता आ रहा है। बोलियों के आधार पर इसे चार वर्गों में बाँटा जा सकता है। पूर्वी मैथिली, पश्चिमी मैथिली, उत्तरी मैथिली तथा दक्षिणी मैथिली। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान् छिका, छिकी तथा जोलहा को भी मैथिली की उपबोली मानते हैं। इनमें से उत्तरी मैथिली ही परिनिष्ठित मैथिली है। यह एक साहित्य सम्पन्न भाषा है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने पदावली की रचना मैथिली में ही की थी।
(iii) मगही – मगही भाषा बिहार के पटना, हजारीबाग, भागलपुर, मुंगेर, गया, पालामाऊ आदि जिलों की भाषा है। गया में प्रमुख रूप से बोली जाने वाली भाषा ही परिनिष्ठित मगही कही जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार मगही मैथिली का ही एक रूप है, किन्तु अब यह प्रमाणित हो चुका है कि मगही बिहारी की एक स्वतन्त्र उपभाषा है। इसकी अनेक उपबोलियाँ हैं। इसमें साहित्य नहीं मिलता, किन्तु लोक-साहित्य प्रचुर रूप में प्राप्त होता है। यह भाषा उड़िया, बंगाली आदि भाषाओं से प्रभावित है। इसलिए बंगाली तथा उड़िया लिपि में भी लिखी जाती है, किन्तु अब यह देवनागरी लिपि में ही लिखी जा रही है।
(ङ) पहाड़ी हिन्दी–पहाड़ी भाषा का उद्भव खस अपभ्रंश से हुआ है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे महाराष्ट्री अपभ्रंश से प्रभावित माना जाता है जबकि डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसे शौरसेनी अपभ्रंश से प्रभवित माना है। इसके तीन प्रधान रूप मिलते हैंपूर्वी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी तथा पश्चिमी पहाड़ी । पूर्वी पहाड़ी में नेपाली भाषा का प्रमुख स्थान हैं। जिसे ‘गोरखाली’ और ‘पर्वतीय’ भी कहा जाता है। इसकी दो प्रमुख उपभाषाएँ— कुमायूँनी तथा गढ़वाली। कुछ विद्वान् मंडियाली को भी पहाड़ी भाषा की बोली के ही अन्तर्गत स्वीकार करते हैं। पश्चिमी पहाड़ी में लगभग तीस बोलियाँ प्रचलित हैं जिनमें जौनसारी, सिरमौरी, बघाटी आदि प्रमुख हैं।
(i) गढ़वाली— इस भाषा का प्रमुख केन्द्र गढ़वाल है और इसलिए इसे गढ़वाली भी कहा जाता है। यह गढ़वाल के अतिरिक्त टेहरी, अल्मोड़ा, देहरादून के उत्तरी भाग बिजनौर के उत्तरी भाग आदि में भी व्यवहृत होती है। इसकी अनेक उपबोलियों में लोहब्या, बघानी, दसौलया, सलानी, टेहरी, श्रीनगरीया आदि प्रमुख हैं। श्री नगरीया उपबोली ही गढ़वाली का परिनिष्ठित रूप है। गढ़वाली में साहित्य का तो अभाव है, परन्तु लोग साहित्य की दृष्टि से यह अत्यन्त सम्पन्न है। यह देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है।
(ii) कुमायूँनी – इसका प्रमुख केन्द्र कुमायूँ है और इसलिए इसको कुमायूँनी कहा जाता है। यह अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चमोली आदि क्षेत्रों में व्यवहृत होती है। इसकी अनेक उपबोलियाँ हैं जिनमें खसपरिणया, कुमायाँ, सिराली, सारियाली, गंगोल, दानपुरिया, अरकोटी, जोहारो आदि प्रमुख हैं। इस बोली में राजस्थान का प्रभाव देखा जा सकता है । यह साहित्य तथा लोक-साहित्य सम्पन्न भाषा है। इसकी लिपि देवनागरी है।
(iii) मंडियाली – इस बोली का प्रयोग हिमाचल प्रदेश के मण्डी जिले के अतिरिक्त चम्बा, शिमला तथा चकराता आदि क्षेत्रों में होता है। मण्डियाली में लोक-साहित्य के अतिरिक्त लोग-गीत भी उपलब्ध होते हैं। मण्डियाली बोली के लोकगीत अक्सर आकाशवाणी शिमला से प्रसारित होते रहते हैं। यह टाकवी तथा नागरी दोनों लिपियों में लिखी जाती है। इसकी प्रमुख उपबोलियों में जौनसारी, बघाटी, चमिपाली तथा पांडवी आदि के नाम गिनवाए जा सकते हैं। यद्यपि शिमलावासी हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करते हैं लेकिन आसपास के देहात में मंडियाली का प्रयोग होता है।
इस प्रकार मानक हिन्दी की कुल बाइस बोलियाँ हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि में प्रचलित हैं। कुछ प्रदेशों में हिन्दी राजभाषा के पद पर अधिष्ठित है। लगभग 60 करोड़ लोग इसी भाषा के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करते हैं।
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