बालक के सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं ? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।

प्रश्न – बालक के सामाजिक विकास से आप क्या समझते हैं ? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर – बालकों के भावी जीवन की सफलता उनके सामाजिक विकास पर निर्भर करती है। जब बच्चे का जन्म होता है, तब उसमें सामाजिक क्रियाएँ नहीं देखी जाती हैं क्योंकि उस समय वह कुछ भी समझ पाने में असमर्थ होता है। उसकी सभी शक्तियाँ सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती है और जो भी क्रियाएँ हम देख पाते हैं, वे बहुत ही सीमित होती हैं।
मानव-शिशु अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर होते हैं, जबतक कि वे अपने कार्य स्वयं करने के लिए सक्षम नहीं हो जाएँ। किन्तु पशु-पक्षियों के साथ ऐसी बात नहीं होती । यद्यपि मानव – शिशु यह जान जाता है कि वह लोगों के बीच में है और धीरे-धीरे उन व्यक्तियों के साथ वह प्रतिक्रिया भी करने लगता है। उनकी प्रारंभिक क्रियाएँ दूसरों के लिए निरर्थक होती है किन्तु बाद में वे प्रतिक्रियाएँ सार्थक मानी जाने लगती हैं। बच्चों के सामाजिक विकास में माता का स्थानं सर्वप्रथम होता है । वह न केवल बच्चे की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, वरन् अन्य प्रतिक्रियाओं के लिए प्रोत्साहित करती है। इस सम्बन्ध में कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बच्चों के सामाजिक विकास की आधारशिला उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ हैं क्योंकि उनकी प्रारम्भिक प्रतिक्रियाएँ शारीरिक जरूरतों की पूर्ति के लिए ही होती हैं। माता के प्रत्येक व्यवहार का बच्चे पर इनता गहन प्रभाव होता है कि वह उसके जीवन का अंग बन जाता है और उसी के अनुसार उसके व्यक्तित्व का विकास (Personality development) होता है। बच्चा जितने अधिक प्रकार के अनुभावों के बीच रहता है, उसका सामाजिक विकास उतना ही परिपूर्ण एवं सुन्दर होता है।
सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ
(Different Stages of Social Development) 
1. प्रथम वर्ष की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ (Social responses in the first year of life ) – यों तो बच्चे की प्रारम्भिक प्रतिक्रियाओं का निश्चय रूप से वर्णन करना कठिन है किन्तु यह निश्चित है कि नवजात शिशु में कोई भी सामाजिक प्रतिक्रिया नहीं होती। उस समय वह जो भी प्रतिक्रिया करते हैं, वे सहज प्रक्रियाएँ होती हैं, न कि सामाजिक उस समय न तो उसकी ज्ञान-शक्ति विकसित होती है और न ही शारीरिक शक्ति पर्याप्त मात्रा में होती है। उम्र में वृद्धि के साथ-साथ उसकी प्रतिक्रियाओं की संख्या में भी वृद्धि होती जाती है। उनकी उम्र के साथ-साथ उनके सम्पर्क का दायरा भी बढ़ता जाता है। बुहलर (Buhlar) ने बच्चों पर किए गए अपने प्रयोग में पाया कि वह जन्म के पहले, दूसरे महीने में अन्य बच्चों की अपेक्षा अपने खिलौनों में ही उलझा रहता है और यह अभिरूचि दो महीने के अंत तक बनी रहती है। जो लोग उसकी सेवा करते हैं, उन्हें वह पहचानता है। इस आयु में जब कोई बच्चे की ओर देखता है, तब वह मुस्कुरा देता है और स्पर्श पाकर बहुत शांत हो जाता है। दो से तीन महीने में बच्चा बड़ों को देखकर मुस्कुराने लगता है। जब उसकी देखभाल करने वाले, जिन्हें वह पहचानने लगता है, उसके दूर जाने पर वह रोना शुरू कर देता है। जब उसके निकट कोई छाया होती है या कोई आवाज सुनता है, तो उसपर ध्यान लगकर सुनता है। वह क्रोधित आवाज एवं हंसी की आवाज में भेद नहीं कर सकता। कुछ बच्चे इसी कारण पुचकारने, डाँटने और हँसने आदि सभी की प्रतिक्रिया में हँसते ही हैं। किन्तु कुछ बच्चे भाव-भंगिमा (facial expression) को समझते हैं। इसका कारण है कि वे प्रत्येक बात को धनात्मक (positive) ही मानते हैं निषेधात्मक (negative) नहीं ।
चार-पाँच महीने की आयु का बच्चा दूसरे बच्चों को देखकर खुश होता और मुस्कुराता है। अब वह डाँटने हँसने एवं पुचकारने का अर्थ समझने लगता है। भीड़ उसे नहीं भाती । छ:-सात महीने में बच्चा खेलने हेतु हाथों से मुँह को छिपाता है ओर एक ही खिलौने से बहुत देर तक खेलता है। आठ, नौ या दस महीने का बच्चा शब्दों का उच्चारण करने लगता है और विभिन्न ध्वनियों का अनुकरण कर पाता है। वह बड़ों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए जोर से चिल्लाता है। हाथ का फैलाना, पुनरूक्ति, दूसरों के वस्त्र खींचकर उसे अपनी ओर आकृष्ट करने की प्रवृत्ति, बड़ों के साथ खेलने आदि की प्रवृत्ति का विकास होता है। ग्यारहवें एवं बारहवें महीने के बच्चे में नित नये व्यवहार देखने को मिलते हैं। वह दूसरों बच्चों के कपड़े नोचता अथवा अपने खिलौनों की रक्षा करता है। यद्यपि बच्चों के सामाजिक व्यवहार में व्यक्तिगत भिन्नता होती है, तथापि ये वर्णित व्यवहार प्रत्येक बच्चे में पाए जाते हैं।
बारहवें एवं चौदहवें महीने में दो बच्चों को साथ रखने पर वे आपस में एक-दूसरे से सामाजिक व्यवहार न करके खिलौनों में ही उलझे रहते हैं। इस आयु के बाद बच्चों में लड़ने-झगड़ने के बजाय मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध ज्यादा दिखाई देते हैं।
दो वर्ष की आयु में बच्चों में सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध विकसित होने लगते हैं। छः महीने से पच्चीस महीने के बच्चे का निरीक्षण कर मार्गन ने पाया कि इस अवधि में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन होते हैं जो वस्तुतः सहयोग एवं मैत्री पर आधारित होते हैं।
2. पूर्व पाठशालीय बच्चे का सामाजिक विकास (Social development of child in pre-school period) – पूर्व पाठशालीय अवस्था को हम दो वर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक मानते हैं, क्योंकि इस समय बच्चा घर पर बढ़ता पलता है। किन्तु विदेशों में उसकी यह उम्र नर्सरी स्कूलों में बीतती है। दो साल की उम्र तक बच्चा आत्मकेंद्रित होता है और सबका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता है। किन्तु 2-5 वर्ष की अवस्था में उसका सामाजिक विकास अत्यधिक तीव्र गति से होता है, मर्फी के अनुसार इस अवस्था में बच्चा समुदाय में रहकर अपने साथियों से सहानुभूति रखता है। किन्तु सभी बच्चों में इतनी उच्चकोटि के सामाजिक व्यवहार नहीं देखे जाते। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनमें तीन वर्ष की आयु में ही उन्नत सामाजिक विकास हो जाता है, अर्थात् सामाजिक विकास में भी वैयाक्तिक भिन्नताएँ होती हैं। इतना ही नहीं, सभी बच्चों में सामाजिक विकास की प्रगति एक समान नहीं होती। कभी-कभी उनका व्यवहार छोटे बच्चों के समान हो जाता है और उनमें गैर- सामाजिक व्यवहार विकसित हो जाता है। कुछ बच्चे दूसरों पर अपना प्रभुत्व (Dominance) दिखाते हैं तो कुछ दूसरों की अधीनता आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यदि अधीनताप्रिय बच्चों को उचित प्रोत्साहन तथा निर्देशन दिया जाय, तो वे सामाजिक रूप से प्रभुत्व की प्रवृत्ति दिखा सकते हैं। मर्फी तथा न्यूकॉम्ब का विचार है कि 2 से 5 वर्षों के बीच बच्चे बड़े आज्ञाकारी हो जाते हैं। वे खेलने के लिए दूसरों का साथ चाहते हैं किन्तु अधिक साथी नहीं चाहते। किसी एक साथी के ही संग वे खेलों में मग्न दिखते हैं। ढाई से तीन वर्ष के बच्चे प्रायः अपने संरक्षकों की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं और अपनी जिद्द पर अड़ जाते हैं। इस समय उसमें प्रतिरोध एवं निषेधात्मक प्रतिक्रियाओं (negative reactions) की अधिकता रहती है। जैसे-जैसे इसके अनुभवों में वृद्धि होती है, ऐसी प्रतिक्रियाओं में कमी आने लगती है एवं मैत्री तथा सामूहिक भावों (group feelings) की प्रधानता होती है। धीरे-धीरे सामाजिक उत्तरदायित्वों का ज्ञान हो जाता है और वह सही-गलत में विभेद करना जान जाता है। इस समय बच्चों की मैत्री बड़ी क्षणिक होती है। अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए वह होड़ लगा लेता है। अंतिम अवस्था में उनका आत्म-विश्वास बढ़ जाता है। किन्तु इसमें वैयक्तिक अंतर पाए जाते हैं और बाद में शिक्षा तथा वातावरण का उनके विकास पर प्रभाव पड़ता है।
3. मध्यकालीन सामाजिक विकास (Social development in the middle period of children)– पाँच से ग्यारह वर्ष की आयु को मध्यकालीन या school age कह सकते हैं। इस आयु में बच्चे स्कूल जाना शुरू कर देते हैं। उसमें शारीरिक एवं भाषा का विकास इतना हो जाता है कि वे अपने सभी भावों को भाषा द्वारा व्यक्त करते हैं। उनका वक्त सामूहिक खेलों एवं जीवन में व्यक्त होता है और वह पाठशालीय वातावरण में खुद को अभियोजित करना सीख जाते हैं। स्थायी मैत्री की भावना, स्पर्द्धा एवं प्रतिद्वन्दिता की भावना इस समय की मुख्य विशेषता होती है। इस उम्र में यौन-चेतना (sex consciousness) अधिक होती है। अतः लड़के और लड़कियाँ अपने-अपने समूह में अलग रहते हैं।
4. अंतिम अवस्था का सामाजिक विकास (Last stage of social development) इस अवस्था में (12-17 साल) बच्चा मिडिल क्लास में पहुँच जाता है। इस समय उनका सम्बन्ध पारिवारिक या ग्रामीण वातावरण से ही नहीं बल्कि उसका दायरा और भी बढ़ जाता है। बहुत से बच्चे हाई-स्कूल या कॉलेजों में चले जाते हैं। पुस्तकों के अध्ययन या अनुभवों के कारण सामाजिक ज्ञान बढ़ता है। विभिन्न दृश्य, श्रव्य माध्यमों से उसका ज्ञान घर, गाँव, प्रान्त, देश एवं विश्व तक फैल जाता है और उनमें अभियोजनशीलता आ जाती है। कभी-कभी कुछ बच्चों में एकान्तवास की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है किन्तु इसका अर्थ नहीं कि उसके सामाजिक विकास की सीमा अत्यंत सीमित रहती है। ऐसा प्रायः सभी लड़के-लड़कियों के साथ होता है, जिनके पीछे विशेष तौर पर सांवेगिक कारण होते हैं।
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