बाल्यावस्था में होनेवाले संवेगों की विवेचना करें।

प्रश्न – बाल्यावस्था में होनेवाले संवेगों की विवेचना करें। 
उत्तर – लगभग तीन माह की अवस्था से ही बालक में विभिन्न संवेग विकसित होने प्रारम्भ हो जाते हैं जिनका विकास आयु बढ़ने के साथ-साथ होता रहता है। इन संवेगों से सम्बन्धित बालक में कुछ सामान्य व्यवहार प्रतिमान या संवेगात्मक प्रतिमान पाए जाते हैं। बालकों के कुछ प्रमुख संवेगों का वर्णन अग्र प्रकार से है –
1. भय (Fear) — भय वह आन्तरिक अनुभूति है जिसमें प्राणी किसी खतरनाक परिस्थिति से दूर भागने का प्रयास करता है | भय की अवस्था में बालकों में रोने, चिल्लाने, काँपने, रोंगटे खड़े होने, सांस और हृदय की धड़कन मन्द होने तथा रक्तचाप बढ़ जाने जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। अध्ययनों में देखा गया है कि बालक की बौद्धिक योग्यताओं के विकास के साथ-साथ उसमें भय की तीव्रता ही नहीं बढ़ती है बल्कि वह अपेक्षाकृत अधिक चीजों से भय खाने लगता है।
बचपनावस्था (Babyhood) में अधिकांश बालक जनवरों, अँधेरे स्थान, ऊँचे स्थान, अकेलेपन, पीड़ा, अनजान व्यक्तियों और वस्तुओं, तीव्र ध्वनि और अचानक उन्हें गलत तरीके से उठा लेने से डरते हैं। बाल्यावस्था (Childhood) में बालकों के भय उद्दीपकों की संख्या बढ़ जाती है, साथ ही साथ भय की तीव्रता भी बढ़ जाती है। कारमाइकेल (1944 ) का विचार है कि दो वर्ष की अवस्था से छः वर्ष की अवस्था तक भय संवेगों का विकास सामान्यतः चरम सीमा तक पहुँच जाता है। अधिक बड़े बच्चों में काल्पनिक भय, मृत्यु का भय, चोट लग जाने का भय आदि भी विकसित होने लगते हैं। वयःसन्धि अवस्था तक बालक को अपने स्वयं की प्रतिष्ठा और स्तर का भय लगने लगता है। बालकों में भय अचानक उत्पन्न होता है।
लगभग तीन वर्ष के बालकों में देखा गया है कि भय की परिस्थिति में वे अपने को असहाय समझते हैं, सहायता माँग सकते हैं, अपना मुँह छुपाकर वह समझ सकते हैं कि भय उत्तेजना से बच गए, वह भागकर परिचित व्यक्ति या माँ के पास छुप जाते हैं। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, उनके भय की उत्तेजना से भागने की यह अनुक्रियाएँ कम होती जाती है। परन्तु उनकी मुखात्मक अभिव्यक्तियों में भय की अवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आते हैं। कुछ और बड़े होने पर बच्चे भय उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों में दूर रहते हैं। बालकों में भय अनेक कारणों से उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए अध्ययनों में देखा गया है कि बुद्धि की मात्रा के बढ़ने के साथ-साथ बालकों में भय बढ़ने लग जाता है। कम बुद्धि वाले बच्चे कम डरते हैं। लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा अधिक डरती हैं। निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के बालकों को उच्च तथा मध्यम आर्थिक सामाजिक स्तर वाले बालकों की अपेक्षा हिंसा का भय अधिक होता है। भूख, थकान, दुर्बल स्वास्थ्य की अवस्था में भय बच्चों को अधिक लगता है। बालकों को जैसे-जैसे सामाजिक सम्बन्ध बढ़ते जाते हैं उनकी मित्र-मण्डली की संख्या बढ़ती जाती है, उनका भय कम होता जाता है। जन्मक्रम (Ordinal Position) भी बालकों के भय को प्रभावित करता है। पहले जन्मे बच्चे को अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक डर लगता है। जिन बालकों में असुरक्षा की भावना जितनी ही अधिक होती हैं, उन्हें उतना ही अधिक भय लगता है।
2. शर्मीलापन (Shyness) — शर्म एक प्रकार का भय है जिसमें व्यक्ति दूसरों के सम्पर्क में आने और परिचय प्राप्त करने में झिझकता या कतराता (Shrink) है। शर्म व्यक्तियों से ही होती है, वस्तुओं और परिस्थितियों से नहीं होती है। बहुधा बच्चे उन बच्चों या व्यक्तियों से शर्म करते हैं जो उनके लिए अपरिचित होते हैं या शर्म करने वाले से अधि क शक्ति या विशेषताओं वाले होते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि बालक एक समय में एक व्यक्ति से शर्म करे, वह एक समय में एक व्यक्ति या अधिक व्यक्तियों से शर्म कर सकता है। अध्ययनों (G.W.Bronzaft, 1968, 1970) से यह स्पष्ट हुआ है कि बालकों में शर्म की अभिव्यक्ति वैसे-वैसे कम होती जाती है जैसे-जैसे वे अधिक और अधिक व्यक्तियों के सम्पर्क में आते जाते हैं। उनकी शर्म की आवृत्ति और तीव्रता दोनों ही कम होती जाती हैं। यह संवेग बालकों के सामाजिक सम्बन्धों को भी दुर्बल बनाता है। बच्चे बहुधा अपने घर आने वाले मेहमानों, अध्यापकों से शर्म करते हैं या किसी समूह या किसी के सामने बोलने, बातचीत करने और गाना आदि सुनाने से शर्माते हैं। छोटा बच्चा शर्म के मारे अनजान व्यक्ति दूर भाग कर परिचित के पास छुप सकता है। अधिक बड़ा बच्चा शर्म के मारे तुतला से या हकला सकता है, कम बात कर सकता है या शर्म के मारे उसका चेहरा लाल हो सकता है।
यह संवेग बालकों के लिए कई प्रकार से हानिकारक है। यह देखा गया है कि शर्म के मारे जब एक बालक दूसरे बालक से बातचीत नहीं करता है तो दूसरा भी बातचीत नहीं करता है। फलस्वरूप बालक अकेला रह जाता है। दूसरे इस प्रकार के बालक समूह द्वारा कम पसन्द किए जाते हैं, इनका समूह द्वारा तिरस्कार किया जाता है। इन्हें कभी समूह का नेता नहीं बनाया जाता है। तीसरे, जब समूह में इनका तिरस्कार किया जाता है तो यह सामाजिक अधिगम से वंचित रह जाते हैं। चौथे, इस प्रकार से बच्चों का व्यक्तिगत और सामाजिक समायोजन दुर्बल होता है।
3. परेशानी (Worry) – परेशानी एक प्रकार का वह काल्पनिक भय है जो बालक के स्वयं के मन की उपज या उत्पादन होता है। यह वह अधिक बढ़ा-चढ़ा ( Exaggerated) हुआ भय है, जो गलत तर्क पर आधारित होता है। पेरशानी महसूस करना बालक उस समय से प्रारम्भ कर सकते हैं जब उनमें कल्पना और बौद्धिक योग्यताओं का विकास पर्याप्त मात्रा में हो जाता है। यही कारण है कि इसका विकास लगभग तीन वर्ष की अवस्था से प्रारम्भ होता है। सम्पूर्ण बाल्यावस्था में इसका विकास होता रहता है और वय:सन्धि (Puberty) अवस्था तक यह संवेग चरम सीमा तक पहुँच जाता है। इस अवस्था के बाद बौद्धिक क्षमताओं का तथा तर्क का विकास अपनी चरम सीमा की ओर बढ़ने से उनके इस संवेग की तीव्रता और आवृत्ति, दोनों ही कम हो जाती हैं। बहुधा बच्चे जब भय उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों का वर्णन सुनते हैं या टेलीविजन और फिल्मों आदि में देखते हैं तब उनमें उस संवेग का उत्पन्न होना कल्पना के आधार पर स्वाभाविक हो जाता है।
अध्ययनों में देखा गया है कि बालक उन वस्तुओं या चीजों के बारे में अधिक परेशान होते हैं जो उनके उस समय के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण चीजें होती है। बच्चों की अधिकांश मांशपेशियाँ, परिवार, मित्र-मण्डली और स्कूल आदि के सम्बन्ध में होती हैं। एक अध्ययन (H. Angelino, et., al., 1956) में यह देखा गया है कि वयः सन्धि अवस्था में शारीरिक परिवर्तनों के प्रारम्भ होते ही बालकों की परेशानियाँ शरीर और यौन के उपर्युक्त विकास के सम्बन्ध में होती हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व प्रतिमान वाले व्यक्तियों की परेशानियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। बहुधा देखा गया है कि जिन बालकों का समायोजन सामान्य सा अच्छा होता है, वे अक्सर उन व्यक्तियों या बच्चों के सम्बन्ध में परेशान होते हैं जो उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसी प्रकार जो बच्चे अपने आपकों हीन समझते हैं, बहुधा वे अपने ही सम्बन्ध में परेशान रहते हैं। यह संवेग बालक में यदि अधिक दिनों तक रहता है तो यह उसके (Homeostais) को गड़बड़ कर देता है । फलस्वरूप उसमें स्वास्थ्य सम्बन्धी वैसे ही विकास उत्पन्न हो जाते हैं कि भय संवेग में उत्पन्न होते हैं। इससे बालक की मानसिक दक्षता (Mental Efficiency) और बालक का समायोजन प्रभावित होता है। इतना होते हुए भी यह हर बालक के लिए उस समय लाभदायक हो जाता है जब वह अपने स्कूल के काम के सम्बन्ध में चिंतित रहता है। इस अवस्था में यह प्रेरक का कार्य करता है ।
4. चिन्ता (Anxiety) – चिन्ता व्यक्ति की वह कष्टप्रद मानसिक स्थिति है जिसमें वह भविष्य की विपत्तियों की आशंकाओं से व्याकुल रहता है। जर्सील्ड (1974) ने चिन्ता को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “Anxiety may be defined as a painful uneasiness of mind concerning impending or anticipated ill.” यद्यपि यह भय और परेशानी (Worry) से ही विकसित होती है परन्तु यह चिन्ता भिन्न इसलिए है कि यह वर्तमान परिस्थिति और उद्दीपक के सम्बन्ध में न होकर पूर्वानुमानित (Anticipated) उद्दीपक के सम्बन्ध में होती है। इसका विकास भय संवेग के विकास के बाद प्रारम्भ होता है क्योंकि यह बालक में उस समय उत्पन्न होती है जब उसमें कल्पना का विकास प्रारम्भ हो जाता है, यह बालकों में उस आयु में प्रारम्भ होती है जब वह स्कूल जाना प्रारम्भ करते हैं। इसका विकास बाल्यावस्था में होता रहता है। यह वयःसन्धि अवस्था में अति तीव्र हो जाती है। बालकों में इस संवेग की अभिव्यक्ति या प्रकाशन को समझाते हुए हरलॉक (1978) ने लिखा है कि “Anxiety may be expressed in readily recognizable behaviour, such as depression, nervousness, irritablility, mood swings, restless sleep, quick anger and extra-ordinary sensitivity to what others says or do.” यह हरलॉक द्वारा वर्णित हल्की चिन्ता के लक्षण हैं। जब चिन्ता तीव्र होती है तब इसे पहचानना कठिन होता है।
अनेक अध्ययनों (B.P. Frost 1968; n. Hicks, 1969; F.D. Horowitz, 1962;A.Ziv & H. Shauber, 1969) से यह स्पष्ट हुआ है कि तीव्र चिन्ता की उपस्थिति में लड़कियों की प्रतिक्रिया दिवास्वप्न और अनुपयुक्ता की भावना के द्वारा व्यक्त होती है। लड़के यह समझते हैं कि चिन्ता करना लड़कों का काम नहीं है। अतः वह उच्च चिन्ता को छुपाने के साधन ढूँढ़ते हैं। इन साधनों में वह विद्रोही (Rebellions), तंग करने बाले (Annoying) या कोलाहली (Boisterous) व्यवहार प्रतिमानों को अपना लेते हैं। बच्चे अपनी तीव्र चिन्ता को छिपाने में कुछ और व्यवहार प्रतिमान भी अपनाते हैं; उदाहरण के लिए वह अधिक खा सकते हैं, अधिक टेलीविजन या रेडियो सुन सकते हैं, अधिक मानसिक मनोरचनाओं (Defence Mechanism) का उपयोग कर सकते हैं, अपने चरित्र के विपरीत व्यवहार कर सकते है; जैसे— मित्रवत् व्यवहार करने वाला बालक निर्दयी हो जाए और बोरडम (Boredom) का अनुभव करने लग जाए।
5. क्रोध (Anger) — अन्य संवेगों की अपेक्षा यह संवेग अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में बालकों में पाया जाता है। सम्भवतः बालक को बहुत छुटपन में ही मालूम हो जाता है कि क्रोध एक प्रभावशाली तरीका है जिसकी सहायता से ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। भिन्न-भिन्न बालकों में इस संवेग की आवृत्ति और तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है। क्रोध क भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति हो सकता है। क्रोध में बालक आक्रामक (Aggressive) व्यवस्था अपनाता है। बालक आक्रामक व्यवहार में मारना, काटना, थूकना, धक्का देना, चुटकी काटना, झटका देकर खींचना आदि किसी प्रकार का व्यवहार अपना सकता है। क्रोध में वह अवरोधित व्यवहार अनुक्रिया भी अपना सकता है। जब बालक अपने क्रोध को नियंत्रित कर लेता है या दबा लेता है तब वह अवरोधित अनुक्रियाएँ (Inhibited Responses)
अपनाता है। इस प्रकार की अनुक्रियाओं में वह उदासीनता या तटस्थता (Apathetic) का व्यवहार अपना सकता है अर्थात् वह जिस वस्तु या व्यक्ति से क्रोधित है, उससे अपने आपकों Withdraw कर सकता है। क्रोध में बालक आक्रामक व्यवहार अपनाएगा या अवरोधित व्यवहार अपनाएगा, यह निश्चित नहीं होता है। कई बार यह देखा गया है कि बालक जब संरक्षकों के भय के कारण घर पर क्रोध प्रदर्शित नहीं कर पाता है तो वह उनकी अनुपस्थिति में घर में, बाहर या स्कूल में अपना क्रोध प्रदर्शित करता है। क्रोध की व्यवहार अनुक्रियाओं में विचलन छोटे बच्चों की अपेक्षा बड़े बालकों में अधिक इसलिए पाया जाता है कि वह इन अनुक्रियाओं को अनुभव के आधार पर सीख चुके होते हैं।
एक अंध्ययन (J. Macfarlane, et al., 1954) में यह देखा गया है कि लगभग तीन वर्ष की अवस्था में बालक-बालिकाओं में क्रोध सर्वाधिक मात्रा में होता है, इसके बाद यह थोड़े उतार-चढ़ाव के साथ-साथ चौदह वर्ष की अवस्था तक तीन वर्ष आयु की अपेक्षा लगभग एक-तिहाई रह जाता है। छोटे बालकों जब उनका खिलौना ले लिया जाए, उनकी शारीरिक क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाएँ, उन्हें पीटा जाए, उन्हें चिढ़ाया जाए तो उन्हें क्रोध आता है। भूख, प्यास, बीमारी, अस्वस्थता और कुसमायोजन की अवस्था में भी बालकों को क्रोध अपेक्षाकृत शीघ्र आता है।
6. ईर्ष्या (Jealousy) – ईर्ष्या के मूल में अप्रसन्नता होती है और इसकी उत्पत्ति क्रोध से होती है। हरलॉक (1974) का विचार है कि “Jealousy is a normal response to actual supposed or threatened loss of affection.” बहुधा देखा गया है कि जब एक बच्चे के माता-पिता उसे स्नेह न देकर दूसरे बच्चों को देते हैं तो बालक में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है। नवजात शिशु के आगमन पर इस शिशु के भाई-बहनों में आगमन के कारण ईर्ष्या उत्पन्न हो सकती है। लगभग डेढ़ वर्ष की अवस्था में ईर्ष्या का अंकुरण बालक में प्रारम्भ हो जाता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में ईर्ष्या अधिक होती है। अन्य अवस्था की अपेक्षा ईर्ष्या की मात्रा तीन-चार वर्ष की अवस्था में अधिक होती है। अधिक बुद्धि वाले लोगों में ईर्ष्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा सबसे बड़े बच्चों में ईर्ष्या अधिक होती है। छोटे परिवारों के बच्चों में ईर्ष्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। ईर्ष्या के कुछ प्रमुख कारण निम्न प्रकार है से हैं— नवजात शिशु का उत्पन्न होना, भाई-बहनों में अधिक अन्तर होना, संरक्षकों में पक्षपात की भावना का होना, माता-पिता की अभिवृत्ति आदि। ईर्ष्या को नियन्त्रित या कम करने के उपाय निम्नलिखित हैं— बच्चों को नकारात्मक आदेश न दिए जाएँ, माता-पिता सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार करें, चिढ़ाया न जाए, तंग न किया जाए, दिनचर्या को मनोरंजक बनाया जाए।
ईर्ष्या की उपस्थिति में बालक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दोनों प्रकार की प्रतिक्रियाएँ कर सकता है। प्रत्यक्ष प्रतिक्रियाओं में वह आक्रामक व्यवहार; जैसे —काटना, नोंचना, धक्का देना आदि व्यवहार अपना सकता है। जब ईर्ष्या में द्वेष होता है तब बालक चालाकी (Cheating) का व्यवहार अपनाता है। ईर्ष्या की उपस्थिति में बालक जब अप्रत्यक्ष व्यवहार अनुक्रियाएँ अपनाता है तो ईर्ष्या को पहिचानना कठिन हो जाता है; उदाहरण के लिए वह बिस्तर पर पेशाब कर सकता है, ऊँगली या अँगूठा चूस सकता है, विध्वन्सात्मक (Destructiveness) व्यवहार अपना सकता है, तीखे प्रकार और गाली-गलौज भी कर सकता है।
7. जिज्ञासा (Curiosity) — जिज्ञासा बालक के जीवन को सुखात्मक रूप से उद्दीप्त करती है। यह बालक को नए अर्थों (New meanings) को सीखने और अन्वेषण (Explore) करने के लिए प्रेरित करती है। जिज्ञासा बालक के लिए उत्तेजना का कार्य करती है। यदि इसको बालकों में नियन्त्रित न किया जाए तो वह बालकों के लिए हानिकारक और खतरनाक हो सकती है। वह दियासलाई या बिजली के खेल खेलकर अपने को नुकसान पहुँचा सकते हैं। जिज्ञासु बालक अपने वातावरण की प्रत्येक चीज में रुचि रखता है। वह अपने स्वयं में भी रुचि रखता है। वह अपने शरीर के अंगों के सम्बन्ध में सोचता है कि वह अंग क्यों हैं, इनका क्या कार्य है, उसका शरीर दूसरों से क्यों भिन्न है, आदि । वह दूसरे व्यक्तियों के बारे में जिज्ञासु हो सकता है। स्कूल जाने की अवस्था तक उनकी जिज्ञासा घर की तमाम चीजों की मेकैनिज्म की ओर होती है। उसका जैसे-जैसे वातावरण से सम्पर्क बढ़ता जाता है, उसकी जिज्ञासा भी उसी अनुसार बढ़ती जाती है। लगभग तीन वर्ष की अवस्था में बालक प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा की सन्तुष्टि करने लग जाता है। बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा के प्रकाशन का वर्णन करते हुए हरलॉक (1978) ने लिखा है, “शिशु जिज्ञासा की अभिव्यक्ति चेहरे की तनी हुई माँसपेशियों से, मुँह खोलकर, जबान निकाल कर और माथे पर सिकुड़न डालकर प्रदर्शित करता है” (The baby expresses curiousity by tensing the face muscles, opening the mouth, stretching out the tongue and wrinkling the forehead) । जिज्ञासा का बालकों के जीवन में बहुत महत्त्व है, उदाहरण के लिए यह बालक के जीवन को सुखात्मक ही नहीं बनाता है बल्कि यह उनके जीवन को रुचिपूर्ण और उद्दीप्त बनाता है। यह बालक की रुचि को वातावरण की चीजों की ओर बढ़ाती है। यह बालक को चेतन्य करती है। यह बालक के बौद्धिक विकास में सहायक है। यह बालक को सीखने के लिए प्रेरित करती है।
8. स्नेह ( Affection) – प्रेम या स्नेह व्यक्ति की वह आन्तरिक अनुभूति है जिसकी उपस्थिति में व्यक्ति दूसरे व्यक्ति या वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है और उन्हें देखकर सुख और सन्तोष का अनुभव करता है। बच्चा माँ को देखकर लगभग तीन महीने की अवस्था में ही मुस्कुराना प्रारम्भ कर देता है, परन्तु वास्तव में प्रेम का संवेग शुद्ध रूप से बच्चों में इस अवस्था में नहीं पाया जाता है। बच्चों का इस प्रकार से मुस्कुराना केवल एक सामान्य उद्दीप्तावस्था (General Excitement) है। प्रेम की अवस्था में देखा गया है कि व्यक्ति के ओठों पर कम्पन, प्रसन्नता, मुस्कराहट, शरीर में सिरहन, वाणी मधुर और लयात्मक प्रतीत होती है। कई बार व्यक्ति अपने प्रेम उद्दीपक का आलिंगन, स्पर्श और चुम्बन भी करता है। अन्य संवेगों की अपेक्षा यह संवेग व्यक्ति के समायोजन और उसके व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। हरलॉक (1964) का विचार है कि लगभग 6 महीने की अवस्था से बच्चों में प्रेम अंकुरित होने लगता है। सर्वप्रथम बालक में अपनी माँ के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है अथवा उस व्यक्ति के प्रति जो शैशवावस्था में उसका पालन-पोषण करता है। लगभग एक वर्ष की अवस्था से वह दूसरे व्यक्तियों और जानवरों के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करने लग जाता है।
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