बिहार के महापुरुष वीरचंद पटेल

बिहार के महापुरुष वीरचंद पटेल

बिहार के महापुरुष वीरचंद पटेल

वीरचंद पटेल

महान् स्वतंत्रता सेनानी और आधुनिक बिहार के निर्माताओं में एक गौरवपुरुष वीरचंद पटेल सच्चे अर्थों में एक कर्मयोगी योद्धा थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन क्रांति और सामाजिक आंदोलन को समर्पित कर दिया।
उनका जन्म 12 मार्च, 1911 को पटना नगर के मच्छरहट्टा गली में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीलाल पटेल और माता का नाम यशोदा देवी था। उनके दादाजी का नाम महताब लाल था, जिनके चार पुत्र थे – गोवर्धन लाल, मणि लाल, श्रीलाल और मदन लाल। मच्छरहट्टा में ही उनका गल्ले और धागे का कारोबार था। फतुहा-खुशरूपुर के समीप स्थित प्रसिद्ध पौराणिक मंदिर, बैकरपुर में कृषियोग्य भूमि भी थी, जहाँ खेती होती थी।
वीरचंद जब बहुत छोटे थे, तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया। माँ बच्चों को लेकर अपने मायके हाजीपुर आ गईं। ननिहाल में ही वीरचंद और उनके छोटे भाई गोपीनाथ की परवरिश हुई। उनके मामा तीन भाई थे-महंथ प्रसाद, देवी प्रसाद और अंबिका प्रसाद। वीरचंद की स्कूली शिक्षा-दीक्षा हाजीपुर में ही हुई।
जैसे ही उन्होंने होश सँभाला, उनका झुकाव स्वतंत्रता संग्राम की ओर हो गया। पढ़ाई-लिखाई के साथ स्वतंत्रता-आंदोलन के विविध कार्यक्रमों में वे हिस्सा लेते। उन दिनों महात्मा गांधी का ‘नमक सत्याग्रह’ चल रहा था। उसमें उन्होंने हिस्सा लिया। इसी क्रम में वे 1930 में लगभग साल भर जेल में रहे। क्रांतिकारी संगठनों से भी उनका साहचर्य था। वे उन संगठनों के सक्रिय सदस्य थे। कार्यक्रमों को अपने इलाके में कार्यान्वित करना उनका ही काम था। स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में बार-बार जेल जाने के कारण उनकी पढ़ाई में काफी बाधा उत्पन्न होती थी, फिर भी वे सदा प्रथम श्रेणी में उच्च स्थान प्राप्त करते हुए विश्वविद्यालय की छात्रवृत्ति पाया करते थे; परंतु उस छात्रवृत्ति की राशि को वे जरूरतमंद और आर्थिक रूप से कमजोर साथियों में बाँट दिया करते थे। वे स्वयं आर्थिक संकटों से घिरे रहे, फिर भी पैसों का लोभ उन्हें कभी नहीं रहा। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण अपराधी करार दिए जाने से कभी-कभी उन्हें छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया जाता था।
सन् 1928 में वे पटना विश्वविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और उन्हें प्रमंडलीय छात्रवृत्ति भी मिली। सन् 1930 में वे भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज मुजफ्फरपुर से पटना विश्वविद्यालय की आई.ए. की परीक्षा में बैठे और विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया, फिर पटना कॉलेज और कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए गए, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण वे सदा सरकार के कोपभाजन बनते रहे। परिणामतः इन स्थानों में अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर सके। अंत में पं. मदनमोहन मालवीय की कृपा से उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। सन् 1933 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ही अर्थशास्त्र में स्नातक हुए और प्रथम श्रेणी प्राप्त की। यहीं से 1935 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में एल-एल.बी. की उपाधि प्राप्त की। पढ़ाई पूरी करने के बाद 1935 में वे हाजीपुर लौट आए और हाजीपुर न्यायालय में वकालत शुरू की। 1935 में ही उन्हें ‘तिरहुत षड्यंत्र’ केस के सिलसिले में कठोर कारावास का कष्ट झेलना पड़ा। कई वर्षों तक जेल में रहने के बाद जब वे रिहा हुए तो लोगों ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठाया। 1929 में हाजीपुर स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें अध्यक्ष चुना गया।
1941 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में शिरकत करने के लिए उन्होंने हाजीपुर लोकल बोर्ड के चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया। आंदोलन के कारण उनका संपर्क डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, जगजीवन राम, बलिराम भगत, पं. विनोदानंद झा आदि नेताओं से हुआ। 1942 की ‘अगस्त क्रांति’ में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का चैन छीन लिया। आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के कारण इन्हें कठोर और लंबे कारावास की सजा भुगतनी पड़ी। जेल से बाहर आते ही वे पुनः आंदोलन में सक्रिय हो गए। इनका नाम बिहार के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों में शुमार हो चुका था। अंग्रेजों ने आंदोलन को कुचलने के लिए इन्हें फिर से जेल में डाल दिया। अंततः 1945 में इन्हें जेल से रिहा किया गया। कुल  मिलाकर वे सात वर्ष से अधिक समय तक जेल में रहे। आंदोलन के कारण इनके परिवार को बहुत कष्ट झेलने पड़े। पटना में फतुहा-खुशरूपुर के निकट बैकरपुर की इनकी जमीन का बड़ा हिस्सा बेच देना पड़ा। इस समय इनका परिवार भयानक रूप से आर्थिक संकट झेल रहा था। इन सबके बावजूद वीरचंद स्वतंत्रता आंदोलन से कभी विचलित नहीं हुए।
1945 में जब बिहार विधानसभा के लिए चुनाव हुए तो हाजीपुर की जनता ने इन्हें निर्विरोध अपना विधायक चुना और जब 1946 में राज्य में अंतरिम सरकार बनी, तब इन्हें संसदीय सचिव बनाया गया। 1947 में देश आजाद हुआ और जब बिहार में श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी तो इन्हें भी मंत्रिमंडल में सम्मिलित किया गया। तत्कालीन उद्योग और यातायात मंत्री डॉ. महमूद के साथ इन्हें संसदीय सचिव (पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी) बनाया गया। आजादी के बाद अनेकानेक समस्याएँ, जो उद्योग और यातायात से संबंधित थीं, बिहार जैसे पिछड़े राज्य में उठ खड़ी हुई थीं। इन समस्याओं को सुलझाने में इनका सक्रिय योगदान रहा। इसी क्रम में ‘बिहार राज्य ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन’ की स्थापना की गई और संपूर्ण राज्य के यातायात की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश हुई। यातायात की तरह उद्योग विभाग में भी इनके कार्य और योगदान की समय-समय पर मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और मंत्री डॉ. महमूद दोनों ने प्रशंसा की।
सन् 1952 के विधानसभा चुनाव में मुजफ्फरपुर जिला के महुआ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्विरोध विधायक चुने गए और श्रीकृष्ण सिंह मंत्रिमंडल में कृषि विभाग के उपमंत्री बनाए गए। 1957 के विधानसभा चुनाव में इन्हें फिर जनता ने चुनकर विधानसभा में भेजा। इस बार मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने इन्हें मंत्रिमंडल में कृषि, स्वास्थ्य और खाद्य मंत्री बनाया। इतने महत्त्वपूर्ण विभागों को कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया जाना इनकी कर्मठता और योग्यता का सम्मान था, जिसे इन्होंने बखूबी निभाया। 1961 में श्रीकृष्ण सिंह के देहावसान के बाद राज्य में पं. विनोदानंद झा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में वीरचंद पटेल को वित्त मंत्री का महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा। 1963 में कामराज योजना के बाद राज्य में के.बी. सहाय के नेतृत्व में सरकार बनी। इस बार मंत्रिमंडल में उन्हें राजस्व, भूमि सुधार और पुनर्वास मंत्री बनाया गया। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक इसी पद पर रहे। 7 दिसंबर, 1966 को उनका असामयिक निधन हो गया। पूरे राजकीय सम्मान के साथ पटना के बाँसघाट स्थित श्मशान घाट पर हजारों नम आँखों के बीच उनकी अंत्येष्टि हुई। इस अवसर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री के. बी. सहाय, पूर्व मुख्यमंत्री पं. विनोदानंद झा, शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा, सिंचाई मंत्री महेश प्रसाद सिंह, सहकारिता मंत्री हरिनाथ मिश्र, केंद्रीय श्रम मंत्री जगजीवन राम, लोक निर्माण मंत्री रामलखन सिंह यादव, बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष राजेंद्र मिश्र सहित अनेक मंत्री और सांसद, विधायक, विभिन्न दलों के नेता-कार्यकर्ता मौजूद थे ।
अपनी 55 वर्ष की अल्पायु में वीरचंद पटेल ने बहुत सारे महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय कार्य किए। अध्ययन काल में अच्छे अंकों के साथ परीक्षाओं में उत्तीर्ण, युवावस्था में देश की जंग-ए-आजादी में सक्रियता और आजादी के बाद संसदीय सचिव से लेकर कैबिनेट स्तर तक के मंत्री के रूप में जनता और सूबे की दीर्घकाल तक कर्मठता से सेवा-इनकी शख्सियत के ऐसे प्रभावकारक पहलू हैं, जिन पर आज भी प्रत्येक सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ता को गर्व होता है ।
जटिल समस्याओं से जूझते और विषम परिस्थितियों से गुजरते वक्त न तो वे कभी विचलित और बेचैन होते थे और न ही कभी तनावग्रस्त। हर मसले को शांत रहकर धैर्यपूर्वक सुलझाना उनके व्यक्तित्व का विशेष गुण था। उनमें नैतिक मूल्यों के प्रति अखंडित निष्ठा थी। उनके अंदर राज-काज के संचालक तथा सांगठनिक एवं अन्य सामाजिक संदर्भों से जुड़े प्रश्नों और मुद्दों पर पूर्वग्रह पक्षपात से परे हमेशा सही, शीघ्र और समुचित निर्णय लेने की अनोखी क्षमता उन्हें अन्य राजनेताओं से अलग करती थी।
वे अतिशय स्वाभिमानी मूल्यों की राजनीति करनेवाले ईमानदार और देशभक्त राजनेता थे। हिंदी और अंग्रेजी भाषा के अलावा उर्दू, बँगला तथा अन्य कई आंचलिक भाषाओं पर समान अधिकार रखनेवाले वीरचंद पटेल एक ओजस्वी वक्ता भी थे। विधि, कृषि, वित्त, राजस्व, भूमि सुधार जैसे विषयों पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। जिन दिनों वे विनोदानंद झा मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बने, उस समय बिहार ओवर ड्राफ्ट के लिए रिजर्व बैंक में काफी बदनाम हो चुका था और राज्य की वित्तीय स्थिति बड़ी दयनीय हो चुकी थी। उन्होंने राज्य के वित्तीय इतिहास में पहली बार सरप्लस बजट बिना किसी अतिरिक्त कर की व्यवस्था किए बनाया। इस कार्य के लिए उनकी काफी सराहना हुई। उनके इस कार्य के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुलाकर उनसे मुलाकात की और उन्हें बधाई दी। कहा जाता है कि नेहरूजी ने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण दिया, लेकिन बिहार से विशेष लगाव होने के कारण उन्होंने नेहरूजी के इस आमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। तत्कालीन ‘ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी’ की अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी उनसे बिहार के मामलों पर विमर्श किया करती थीं।
सभी राज्यवासियों और देशवासियों को अपने परिवार का हिस्सा मानने वाले वीरचंद पटेल का निजी परिवार अत्यंत छोटा था। उनकी शादी युवावस्था में तब हुई, जब वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन्हें एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति भी हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी पत्नी और पुत्र का असमय ही निधन हो गया। लोगों के विशेष आग्रह पर उनकी दूसरी शादी उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर निवासी श्यामा देवी पटेल से हुई। श्यामा देवी उनके निधन के बाद कुछ समय तक बिहार विधानसभा की सदस्या रहीं।
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