बिहार में संथाल (1855-56) विद्रोह के कारणों और परिणामों का मूल्यांकन करें।
संथाल बिहार में बड़े पैमाने पर केंद्रित आदिवासियों का एक समूह है। वे मुख्य रूप से कृषक हैं। भारत का पहला बड़ा किसान आंदोलन सन 1855-56 के संथाल विद्रोह से जुड़ा है। यह संथाल बगावत 1793 ई. के स्थायी भूमि बंदोबस्त की स्थापना से सम्बंधित है। अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए बंदोबस्त पैटर्न ने संथालों से भूमि छीन ली, जिस भूमि पर वे सदियों से खेती कर रहे थे। जमींदारों ने ब्रिटिश सरकार से नीलामी के तहत जमीन हासिल कर ली और इसे खेती करने वाले किसानों को दिया। संथालों का विद्रोह धन उधार देने की प्रथाओं और जमींदारी प्रथा के विरुद्ध जनजातीय प्रतिक्रिया के रूप में आदिवासी पट्टी (क्षेत्र) में प्रारम्भ हुआ, जो उस समय बंगाल प्रेसीडेंसी के रूप में जाना जाता था। संथाल अपना जीवन-यापन वनों को साफ करके तैयार की गयी भूमि में खेती करके और शिकार के द्वारा करते थे। लेकिन नए औपनिवेशिक शासन के एजेंटों ने संथालों की भूमि पर अपने अधिकारों का दावा किया, वे (संथाल ) राजमहल की पहाड़ियों में निवास करने के लिए पीछे हट गए। एक संक्षिप्त अवधि के बाद, स्थानीय जमींदारों और जमींदारों के बाहरी लोगों (दिकू) के साथ ब्रिटिश अधिकारियों ने संयुक्त रूप से इस नई भूमि में भी अपने अधिकारों का दावा करना शुरू कर दिया। अपरिष्कृत, सीधे-साधे और अशिक्षित संथाल ने खुद को ठगा हुआ और विश्वासघात से पीड़ित महसूस किया। संथाल जनजाति को जमींदारों और साहूकारों द्वारा बंधुआ मजदूर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया, जो पहली बार संथालियों को व्यापारियों और ट्रेडर्स के रूप में दिखाई दिए थे और उन्हें उधार में वस्तुओं की खरीद और लोन के रूप में ऋण वापसी का प्रलोभन दिया करते थे। हालाँकि, संथालों ने इन ऋणों को चुकाने की कोशिश की, लेकिन ये ऋण कभी खत्म नहीं हुए। वास्तव में महाजनों (मनी लेंडर्स) की भ्रष्ट प्रथाओं के माध्यम से, लोन की मूल राशि पर चक्रवृद्धि ब्याज की बड़ी राशि, एक राशि (चुकाने के लिए) से गुणा किया जाता है, जिसे चुकाने लिए एक निर्धन और गरीब संथाल परिवार की पूरी पीढ़ी को बंधुआ मजदूरी का काम करना पड़ता था। जिस स्वतंत्रता और सम्मान का संथाल आनंद लेते थे, उस स्वतंत्रता और सम्मान के अभाव ने संथालों को विद्रोही बना दिया और आखिरकार उन्होंने शासन के सबसे दृश्यमान प्रतीक अर्थात ब्रिटिश राज पर हमला करने की शपथ ली।
सामाजिक परिस्थितियाँ जिन्होंने उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित किया –
- संथालों के खिलाफ जमींदारों, पुलिस, राजस्व विभाग और अदालतों ने जबरन वसूली, अत्याचारपूर्ण आरोहण (oppressive exactions), संपत्ति से उन्हें बलात (forcible) बेदखल करना, उनके प्रति दुर्व्यवहार और व्यक्तिगत हिंसा और विभिन्न प्रकार के निर्दयी अत्याचारों की एक संयुक्त प्रणाली का उपयोग किया।
- ऋणों पर असामान्य ब्याज ( 50-500% )
- ढुलाई और बाजार प्रक्रियाओं में गलत युक्ति
- अमीरों द्वारा गरीब जाति के उगे हुए फसलों पर स्वेच्छाचारी दयाहीन तरीके से अपने निर्बाधित पशु (untethered cattle), टट्टू और यहां तक कि हाथियों के अनावश्यक प्रवेश के माध्यम से निर्दयी और अशोभनीय अतिचार ।
- जादू-टोना में विश्वास – वे लोग जादू में विश्वास करते थे, वे मानते थे कि उनके कार्यों में भगवान का आशीर्वाद था। सिद्धो और कान्हू, प्रमुख विद्रोही नेताओं ने दावा किया कि ठाकुर जी (भगवान) ने उनके साथ संवाद किया था और उन्हें हथियार उठाने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए आदेश दिया था।
- गैर आदिवासी मदद – विद्रोहियों और आन्दोलनकारियों को गैर-आदिवासी और गरीब दिकुओं की एक बड़ी संख्या; ग्वाले (दूध वाले) और अन्य लोगों द्वारा खादय आपूर्ति और अन्य सेवाओं द्वारा निरंतर मदद प्रदान की गयी; लोहारों ने विद्रोही दल को अपने अच्छे आकार के हथियारों से हमेशा लैस रखा।
आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे –
- जमींदारों, पुलिस, राजस्व विभाग और अदालत ने जबरन वसूली करने की एक अत्याचारपूर्ण कार्रवाई की। संथाल सभी प्रकार के करों और लेवी का भुगतान करने के लिए बाध्य किये गए थे। उनकी सम्पत्तियां छीन ली गयी एवं उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया।
- हिंसा – जमींदारों के प्रतिनिधियों ने संथालों पर व्यक्तिगत रूप से अत्याचार किये । समय पर उपज देने के लिए संथालों पर कई तरह के क्षुद्र अत्याचार किए गए ।
- संथाल भूमि पर अतिचार – अमीर किसानों द्वारा जोतदारों की भूमि पर निर्दयतापूर्वक अत्याचार किये गए। वे उनके मवेशी उनसे छीनकर ले जाते थे ।
- अत्यधिक या अमर्यादित ब्याज दर – साहूकारों द्वारा लगाया ब्याज अविश्वसनीय रूप से उच्च था। इन साहूकारों को संथालों द्वारा दिकू, यानी शोषक कहा जाता था। इस मामले में संथाल क्षेत्रों में अपना व्यापार चलाने वाले सभी बंगालियों को दिकू के रूप में जाना जाता था।
- यूरोपीय लोगों द्वारा उत्पीड़न – बिहार में रेल निर्माण के लिए यूरोपीय लोगों को नियुक्त किया गया था। ये यूरोपीय लोग अक्सर संथाल महिलाओं का बलात अपहरण, यहाँ तक कि उनकी हत्या तथा अन्यायपूर्ण उत्पीड़न करते थे । इन सब के लिए रेलवे की लाइन पर कार्यरत यूरोपियनों द्वारा कोई भुगतान नहीं किया गया था। जमींदारों, साहूकारों, व्यापारियों और यूरोपीय कर्मचारियों ने इस प्रकार संथाल किसानों पर इस हद तक अत्याचार किये कि उनके पास विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
दमन –
- सरकार ने विद्रोह के गंभीरता का एहसास किया और एक प्रमुख सैन्य अभियान का आयोजन किया।
- कई रेजिमेंट जुटाए, मार्शल लॉ घोषित किए, संथाल विद्रोह से जुड़े विभिन्न नेताओं की गिरफ्तारी हेतु 10000/- रुपये तक के नकदी ईनामों की घोषणा की गई।
- विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया गया था
- 15,000 से अधिक संथाल मारे गए जबकि कई गाँव नष्ट हो गए।
- सिद्दो को धोखा देकर पकड़ लिया गया और अगस्त 1855 में मार दिया गया।
- कान्हू को फरवरी 1856 में विद्रोह के अंत में दुर्घटना से गिरफ्तार किया गया था।
- राजमहल पहाड़ियाँ जहाँ से संथाल लड़ रहे थे, किसानों के खून से सराबोर थी।
संथाल हुल का महत्व –
यद्यपि क्रांति को क्रूरता से दबा दिया गया था, लेकिन इसने औपनिवेशिक शासन और नीति में एक महान परिवर्त्तन को चिह्नित किया। विद्रोह का दिन आज भी संथाल समुदाय के बीच हजारों संथाल शहीदों के लिए बड़े सम्मान और भावना के साथ मनाया जाता है, जिन्होंने अपने दो प्रतिष्ठित नेताओं के नेतृत्त्व में अपने शानदार बलिदान के साथ अपने प्राणों की आहुति दी और जमींदारों तथा ब्रिटिश गुटों के शासन से आजादी हासिल करने की असफल कोशिश की । यद्यपि इसका प्रभाव काफी हद तक अन्य विद्रोह ( 1857 का भारतीय विद्रोह) के कारण थोड़ा फीका पड़ गया। संथाल विद्रोह की किवदंती संथाल गौरव और पहचान के रूप में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में विद्यमान है। संथाल हुल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के उन भयंकर युद्धों में से एक था, जिसमें उस दौरान किसी भी लड़ाई में सबसे अधिक जानमाल का नुकसान हुआ । संथाल हुल से जुड़े विद्रोहियों की संख्या 20,000 तक थी ।
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