ब्लूम द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों के वर्गीकरण की विवेचना करें ।

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प्रश्न – ब्लूम द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों के वर्गीकरण की विवेचना करें ।
उत्तर – अभी तक शैक्षिक उद्देश्यों के वर्गीकरण के लिए जो विभिन्न प्रतिमान विकसित हुए हैं उनमें बी. एस. ब्लूम (B. S. Bloom) एवं उसके सहयोगियों द्वारा विकसित प्रतिमान सबसे अधिक उपयुक्त एवं ग्राह्य है । इसे ‘ब्लूम्स टैक्सोनॉमी ऑफ एजूकेशनल आबजेक्टिव्स’ का नाम दिया गया है ।
इस वर्गीकरण को मानसिक जीवन के तीन पक्षों-ज्ञान, भावना और कर्म के आधार पर विकसित किया गया है जिन्हें क्रमशः ज्ञानात्मक, भावातमक एवं क्रियात्मक क्षेत्रों की संज्ञा प्रदान कर गई है। टैक्सोनॉमी शब्द जीवविज्ञान से संबंधित है जिसके अन्तर्गत प्राणियों एवं पौधों को क्रमिक रूप में इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि वे सामान्य से विशिष्ट की ओर बढ़ते हुए अधिक से अधिक स्पष्ट होते जायें ।
ब्लूम तथा उसके सहयोगियों ने शिकागो विश्वविद्यालय में ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया । 1956 ई. में ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष का, 1964 में ब्लूम, करथवाल तथा मसीझा ने भावात्मक पक्ष का तथा 1969 में सिम्पसन ने क्रियात्मक पक्ष का वर्गीकरण प्रस्तुत किया । यह टैक्सोनामी शैक्षिक, तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण का एक न्यायोचित एवं सन्तुलित एकीकरण है। इसमें विभिन्न वर्गों का भेद शैक्षिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इसमें शब्दावली को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है कि उनके अर्थ तार्किक दृष्टि से सही मालूम पड़ते हैं । यह वर्गीकरण आधुनिकतम मनोवैज्ञानिक खोजों पर आधारित है।
इस वर्गीकरण में विशुद्ध वर्णनात्मक प्रणाली को अपनाया गया है । जिसके अन्तर्गत सभी प्रकार के शैक्षिक उद्देश्यों को निरपेक्ष रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है । इस टैक्सोनॉमी की एक प्रमुख विशेषता इसका दशमलव प्रणाली में प्रस्तुतीकरण है । इसका विस्तृत विवरण निम्नांकित पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
ज्ञानात्मक क्षेत्र (Cognitive Domain) -ज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत बौद्धिक पक्ष आता है जिसका शैक्षिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्व है। पूर्वकाल में तो औपचारिक शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मस्तिष्क का प्रशिक्षण ही माना जाता रहा है। इस बात से सभी सहमत होंगे कि विद्यालयों में इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि विद्यार्थी अपने वातावरण से कैसे सीखते हैं, अवधारणाएँ कैसे बनती और विकसित होती हैं। इसके साथ ही इस पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है कि बालक की अभिरुचि क्या है, वह दूसरे व्यक्तियों से तथा दूसरे व्यक्ति उससे कैसे व्यवहार करते हैं वह तर्क को क्या महत्व देता है तथा कारण एवं परिणाम में कैसे सम्बन्ध स्थापित करता है निर्णय किस प्रकार लेता है तथा समस्याओं का समाधान कैसे करता है, तार्किक चिन्तन की योग्यता एवं आदत का विकास कैसे करता है ? विद्यालयों में बालकों की भाषा संबंधी, वैज्ञानिक, सौन्दर्यबोधात्मक, ऐतिहासिक, तकनीकी, चिन्तन की मानसिक प्रक्रियाओं, विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं, अभिमुखी (Convergent) एवं अपसारी (Divergent) बौद्धिक प्रक्रियाओं के अंतर को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है ।
इस दृष्टि से ब्लूम ने ज्ञानात्मक क्षेत्र में समाहित समस्त प्रक्रियाओं को छः वर्गों में विभाजित किया है
1. ज्ञान (Knowledge)
2. अवबोध (Comprehension)
3. अनुप्रयोग (Application)
4. विश्लेषण (Analysis)
5. संश्लेषण (Synthesis)
6. मूल्यांकन (Evaluation)।
1. ज्ञान (Knowledge ) – यह स्मरण नामक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है। इसके अन्तर्गत छात्रों के प्रत्यास्मरण (Recall) तथा अभिज्ञान (Recognition) की क्रियाओं को तथ्यों, शब्दों, नियमों, सिद्धांतों, सूचनाओं, नमूनों, प्रक्रियाओं आदि की सहायता से विकसित किया जाता है। इसमें परम्पराओं, वर्गीकरण, मानदण्डों, नियमों तथा सिद्धांतों के प्रत्यास्मरण तथा अभिज्ञान के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं । पाठ्य-वस्तु की दृष्टि से ज्ञान वर्ग के तीन स्तर होते हैं –
(i) विशिष्ट बातों का ज्ञान (तथ्य, शब्द आदि)
(ii) विधियों तथा साधनों का ज्ञान
(iii) अमूर्त संकल्पनाओं अर्थात् सामान्यीकरण नियमों एवं सिद्धांतों का ज्ञान ।
2. अवबोध (Comprehension)-जिस पाठ्य-वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया गया है उन्हीं का अपने शब्दों में अनुवाद करना, व्याख्या करना तथा उल्लेख करना आदि क्रियाएँ अवबोध उद्देश्य के स्तर पर की जाती है । इसके अन्तर्गत प्राप्त ज्ञान और विचार सामग्री को अन्य सामग्री से सम्बद्ध किये बिना और इसकी पूरी सम्भावनाओं को जाने बिना उपयोग में लाया जाता है। अतः अवबोध स्तर पर संबंध स्थापित करने पर बल नहीं दिया जाता है किन्तु अवबोध के लिए ज्ञान का होना आवश्यक होता है । इस उद्देश्य की क्रियाओं के भी तीन स्तर होते हैं
(i) अनुवाद (तथ्यों, शब्दों, नियमों, साधनों तथा सिद्धांतों को अनुवाद करके अपने शब्दों में व्यक्त करना) ।
(ii) भावार्थ (अर्थापन अर्थात् पाठ्य-वस्तु की व्याख्या करना)
(iii) प्रक्षिप्तता (Extrapolation) अर्थात् पाठ्य-वस्तु की बाह्य गणना तथा उल्लेख करना ।
3. अनुप्रयोग (Application) – इसके अन्तर्गत अमूर्त संकल्पनाओं को मूर्त स्थितियों में प्रयुक्त करने तथा इस प्रकार की समस्याओं के समाधान पर पहुँचने की योग्यता सम्मिलित होती है । इस उद्देश्य के लिए ज्ञान एवं अवबोध का होना आवश्यक होता है जिससे छात्र प्रयोग स्तर की क्रियाओं में समर्थ हो सके । अनुप्रयोग उद्देश्य में भी पाठ्य-वस्तु को तीन स्तरों पर प्रस्तुत किया जाता है –
(i) नियमों, साधनों, सिद्धांतों का सामान्यीकरण
(ii) निदान (Dignosis) अर्थात् कमजोरियों को जानने का प्रयास करना
(iii) पाठ्य-वस्तु का प्रयोग ( शब्दों, नियमों को छात्र द्वारा अपने कथनों में प्रयोग करना) ।
4. विश्लेषण (Analysis) – इसके अन्तर्गत किसी सूचना को स्पष्टता समझने के लिए उसके निर्माणकारी तत्वों में बाँटा जाता है। इसके लिए ज्ञान, अवबोध तथा अनुप्रयोग उद्देश्यों की प्राप्ति होना आवश्यक है। इसमें पाठ्य-वस्तु के नियमों, सिद्धांतों, तथ्यों तथा प्रत्ययों को तीन स्तरों पर प्रस्तुत किया जाता है
(i) तत्वों का विश्लेषण करना
(ii) संबंधों का विश्लेषण करना ।
(iii) व्यवस्थित सिद्धांतों के रूप में विश्लेषण करना ।
अवबोध तथा अनुप्रयोग उद्देश्यों की अपेक्षा विश्लेषण उच्च स्तर का उद्देश्य होता है क्योंकि इसमें पाठ्य-वस्तु के तत्वों को अलग-अलग करना तथा उनमें संबंध स्थापित करना होता है ।
5. संश्लेषण (Synthesis) – इसमें विभिन्न तत्वों तथा अंगों को एक साथ जोड़कर एक नवीन रूप में व्यवस्थित किया जाता है। संश्लेषण उद्देश्य के भी तीन स्तर होते हैं
(i) विशिष्ट संज्ञापन की उत्पत्ति (अर्थात् विभिन्न तत्वों के संश्लेषण में विशिष्ट सम्प्रेषण करना) ।
(ii) योजना की उत्पत्ति (तत्वों के संश्लेषण से नवीन योजना प्रस्तावित करना)
(iii) अमूर्त सम्बन्धों का अवलोकन एवं निर्माण ।
संश्लेषण को सृजनात्मक उद्देश्य भी कहा जाता है। इसमें छात्रों को अनेक स्रोतों से तत्वों को निकालना होता है । इन विभिन्न तत्वों को मिलाकर नया ढाँचा तैयार करना होता है जिससे सृजनात्मक क्षमताओं का विकास होता है ।
6. मूल्यांकन (Evaluation) – मूल्यांकन, ज्ञानात्मक पक्ष का अंतिम एवं सर्वोच्च उद्देश्य माना जाता है । इसके अन्तर्गत पाठ्य-वस्तु के नियमों, सिद्धांतों तथा तथ्यों के सम्बन्ध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है । इसके लिए निर्णय लेने में आन्तरिक तथा बाह्य मानदण्डों को प्रयुक्त किया जाता है । मूल्यांकन को नियमों, तथ्यों, प्रत्ययों तथा सिद्धांतों की कसौटी का स्तर माना जाता है । इसके दो स्तर होते हैं
(i) आन्तरिक प्रमाणों या साक्ष्यों का आकलन ।
(ii) बाह्य मानदण्डों का आकलन ।
विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों के माध्यम से ज्ञानात्मक पक्ष का विकास किया जाता है तथा ज्ञान उद्देश्य से लेकर मूल्यांकन उद्देश्यों तक की प्राप्ति की जाती है । अतः शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में ज्ञानात्मक पक्ष पर विशेष ध्यान देना होता है । वास्तव में विभिन्न विषयों की पाठ्य-वस्तु में शब्दावली, तथ्य, नियम, उपाय, साधन, विधियाँ, प्रत्यय, सिद्धांत तथा सामान्यीकरण ही होते हैं । उदाहरणार्थ – इतिहास की पाठ्य-वस्तु में तथ्य होते हैं, विज्ञान की पाठ्य-वस्तु में नियम, विधियाँ तथा सिद्धांत होते हैं और भाषा की पाठ्य-वस्तु में शब्दावली, साधन, प्रत्यय एवं नियम आदि होते हैं ।
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से ब्लूम के ज्ञानात्मक उद्देश्यों के वर्गीकरण को तालिका के रूप में भी प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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