भारत में स्त्रियों की स्थिति एवं शिक्षा पर प्रकाश डालें ।
प्रश्न – भारत में स्त्रियों की स्थिति एवं शिक्षा पर प्रकाश डालें ।
उत्तर – स्त्रियाँ समाज का अभिन्न अंग रही हैं । ये धैर्य, शील, क्षमता तथा प्रेम की साक्षात् प्रतिमूर्ति मानी जाती हैं, परन्तु विडम्बना ही है कि स्त्रियों की स्थिति में समय-समय पर परिवर्तन आया और वे कभी शक्ति, कभी अबला तो कभी विलास और शृंगार की वस्तु मात्र बनकर रह गयीं । स्त्रियों ने देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इत्यादि सभी प्रकार की गतिविधियों को प्रभावित किया है और वर्तमान में भी करती आ रही हैं। स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा पर दृष्टिपात विभिन्न कालों में निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
> मध्य काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा
> प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा
> ब्रिटिश काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा
> आधुनिक काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा
> प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा
प्राचीन कालीन समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था प्रचलित थी जिसमें समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित था। चतुर्वर्णों में से शूद्र के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्णों— ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था तथा इन्हें द्विज नाम से सम्बोधित किया जाता था। इन तीनों वर्गों की स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था । सहशिक्षा का प्रचलन था। शिक्षा ही नहीं, स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनैतिक सहभागिता भी अभेदपूर्ण थी । वे पुरुषों के समान धार्मिक क्रियाकलापों में भाग लेती थीं । शास्त्रार्थ करती थीं तथा युद्धक्षेत्र में भी जाकर अपना कौशल प्रदर्शित करती थीं । गार्गी, घोषा, लोपामुद्रा, विश्वम्भरा, अपाला, उर्वशी, मैत्रेयी, अनुसुइया तथा शकुन्तला इत्यादि विदुषी महिलायें इसी युग में हुईं । कुछ विदुषियों ने वेदमन्त्रों की रचना भी की । उत्तर – वैदिक काल तक आते-आते स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आया, क्योंकि भारतीय संस्कृति का अन्य सभ्यताओं तथा संस्कृतियों के साथ संक्रमण हुआ, जिसके परिणामस्वरूप उनकी उन्नत स्थिति में विघटन के लक्षण परिलक्षित हुए तथा उन पर कुछ सामाजिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये ।
प्राचीन कालीन महिलाओं की स्थिति तथा उनकी शिक्षा के अन्तर्गत बौद्ध काल तथा उसकी शिक्षायें भी आती हैं। बौद्ध धर्म वस्तुत: कोई नवीन धर्म न होकर ब्राह्मणीय कर्मकाण्डों के विरुद्ध आवाज थी, परन्तु बाद में महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने इसे धर्म का स्वरूप प्रदान कर दिया । बौद्ध काल 250 ई. पू. से 1000 ई. पू. तक माना जाता है। महात्मा बुद्ध ने तत्कालीन समाज में जिन बुराइयों को देखा और जिन बुराइयों ने उनके अन्तस् को उद्वेलित कर दिया, वे निम्न प्रकार थीं –
1. कर्मकाण्ड की प्रधानता ।
2. ऊँच-नीच का भाव ।
3. जाति व्यवस्था ।
4. अस्पृश्यता तथा हिंसा का भाव ।
5. अन्धविश्वास तथा कुरीतियाँ ।
6. जनसामान्य की शोचनीय दशा ।
7. स्त्रियों की दयनीय दशा ।
8. जनसामान्य की शिक्षा की व्यवस्था न होना ।
9. जनसाधारण की भाषा की उपेक्षा ।
महात्मा बुद्ध ने स्वयं ज्ञान प्राप्ति के लिए कठोर तप किया तथा ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने घूम-घूमकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया । प्रारम्भ में तो उन्होंने बौद्ध संघों से स्त्रियों को पृथक् रखा, परन्तु बाद में अपनी मौसी तथा प्रथम बौद्ध भिक्षुणी महामाया गौतमी के कहने पर संघ में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति प्रदान कर दी । बौद्ध भिक्षुणियों ने देश-विदेश में घूम-घूमकर जनसामान्य की भाषा में प्रचार-प्रसार करने का कार्य किया । संघमित्रा, पद्मा इत्यादि स्त्रियों ने बौद्ध शिक्षा ग्रहण की, परन्तु जनसाधारण में स्त्रियों की शिक्षा की किसी सार्वभौमिक व्यवस्था के संकेत प्राप्त नहीं होते हैं । अपवादस्वरूप ही स्त्री शिक्षा के उदाहरण प्राप्त होते हैं ।
मध्य काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा – मध्य काल को सल्तनत काल तथा मुस्लिम काल के नाम से भी जाना जाता है । इस काल तक आते-आते स्त्रियों की स्थिति तथा प्राचीन कालीन गौरव में बहुत अधिक ह्रास आ गया । मध्य काल राजनैतिक अस्थिरता का युग था । एक के बाद एक वंश तथा शासक परिवर्तित होते रहे । अतः राजनैतिक अस्थिरता का प्रभाव शिक्षा पर पड़ा । शिक्षा अब शासकों की इच्छा की मोहताज हो गयी । जो शासक शिक्षा के प्रति रुचि रखते थे, उनके काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ तथा जिन शासकों को शिक्षा में रुचि नहीं थी, उन्होंने शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया । इस काल में प्राचीन कालीन शिक्षा व्यवस्था पर कुठाराघात करने का प्रयास किया गया उसके स्थान पर मुस्लिम शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया गया । लाहौर, मुल्तान, जौनपुर, आगरा इत्यादि तत्कालीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे । मोहम्मद साहब शिक्षा को अत्यधिक पवित्र तथा आवश्यक मानते थे, फिर भी स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा में ह्रास के चिन्ह प्राप्त होते हैं, जिनके लिए निम्न कारण उत्तरदायी हैं—
1. पर्दा-प्रथा ।
2. स्त्रियों को विलास की वस्तु मानना ।
3. राजनैतिक अस्थिरता ।
4. स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा हीन मानना ।
5. स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक सीमित मानना ।
6. सती प्रथा, बाल विवाह इत्यादि कुरीतियां’ ।
7. स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार तथा उनकी अस्मिता के साथ खिलवाड़
8. मकतब तथा मदरसों में इस्लाम से ओत-प्रोत शिक्षा, जिससे अन्य लोग अपनी बालिकाओं को शिक्षित करने के इच्छुक नहीं थे।
9. सुल्तानों की व्यक्तिगत इच्छा पर शिक्षा की निर्भरता ।
10. राजनैतिक उठा-पटक के कारण स्त्रियों को लेकर समाज में असुरक्षा का भाव व्याप्त हो गया जो अभी तक चला आ रहा है ।
स्त्री शिक्षा का सबसे अधिक पतन यह काल रहा है, परन्तु अपवादस्वरूप कुछ स्त्रियों के नाम प्राप्त होते हैं, जिन्होंने शिक्षा ग्रहण की। इनमें रजिया सुल्तान, गुलबदन, नूरजहाँ, जहाँआरा, मुक्ताबाई, जीजाबाई तथा अहिल्याबाई का नाम प्रमुखता से लिया जा
सकता है । ध्यान देने योग्य है कि जिन विदुषी महिलाओं के नाम हमें प्राप्त होते हैं वे शासक वर्ग या कुलीन घरानों से सम्बन्धित थीं, जिनको व्यक्तिगत रूप से उनके घर पर ही शिक्षित किया जाता था। इस प्रकार ज्ञात होता है कि स्त्रियों की सामाजिक स्थिति तथा शिक्षा की व्यवस्था अच्छी नहीं थी और जनसामान्य की स्त्रियों की शिक्षा का सहसा अनुमान हम इस बात से लगा सकते हैं ।
ब्रिटिश काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा – ब्रिटिश काल में स्त्रियों की दयनीय स्थिति थी, परन्तु अब उनकी स्वतन्त्रता, स्थिति में सुधार तथा शिक्षा की माँग की कुछ प्रबुद्ध वर्गों द्वारा की जाने लगी। मिशनरियों ने भारत में स्त्रियों की दयनीय स्थिति को सुधारने एवं उनकी शिक्षा के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रयास किये, जिसमें डेविड हेयर द्वारा 1820 में कलकत्ता में बालिकाओं हेतु विद्यालय की स्थापना विश्युन महोदय के द्वारा बालिका विद्यालय की स्थापना के कार्य किये गये । तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति के कारण अग्रवत् बिन्दुओं के अन्तर्गत वर्णित किये जा रहे हैं –
1. स्त्रियों तथा पुरुषों मैं लैंगिक विभेद माननां ।
2. स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा हीन मानना ।
3. स्त्रियों को विलास तथा वासना की वस्तु मानना ।
4. स्त्रियों को पुरुष की पूरक मानना तथा उनके स्वतन्त्र अस्तित्व को नकारना ।
5. विधवा विवाह न होना, सती- प्रथा, पर्दा – प्रथा तथा बाल विवाह इत्यादि कुरीतियों ने स्त्रियों की स्थिति को गर्त में पहुँचा दिया।
6. पढ़ी-लिखी स्त्री को घर के विनाश का कारण मानना ।
7. स्त्रियों की सामाजिक असुरक्षा |
8. तत्कालीन परिस्थितियाँ |
स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा में सुधार के लिए भारतीयों ने भी आवाज उठायी, जिनमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा गाँधी इत्यादि ने स्त्रियों के उत्थान के लिए प्रयास किये तथा उनमें जागरूकता भरने और उनकी सहभागिता सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक सभी क्षेत्रों में सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। भारतीयों ने जब स्वतन्त्रता की माँग मुखर की तो उसके साथ-ही-साथ स्त्रियों की स्थिति में सुधार और उनकी शिक्षा की आवश्यकता अनुभूत की जाने लगी तथा भारतीयों और ब्रिटिश सरकार की ओर से स्त्रियों की शिक्षा की उन्नति हेतु किये गये प्रयासों का क्रमिक विवरण निम्न प्रकार है-
- 1854 में आये वुड़ के घोषणा पत्र में भारतीयों की नैतिक तथा चारित्रिक उन्नति हेतु स्त्रियों की शिक्षा को आवश्यक माना गया और स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने हेतु अनुदान इत्यादि की घोषणा की गयी ।
- 1882 में हण्टर आयोग ने स्त्रियों की शिक्षा को गम्भीरता से लेते हुए बालिका विद्यालयों को उदार आर्थिक सहायता प्रदान करने की संस्तुति की। बालिका विद्यालयों हेतु निरीक्षिकाओं की नियुक्ति, छात्रवृत्तियों तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था, पर्दे में रहने वाली बालिकाओं की नियुक्ति हेतु घर पर शिक्षा प्रदान करने हेतु महिला अध्यापिकाओं की नियुक्ति तथा व्यवसायिक शिक्षा देने हेतु ‘महिला प्रशिक्षण विद्यालयों’ की स्थापना की घोषणा की गयी ।
- सैडलर आयोग (1917-19) ने 14-15 वर्ष की बालिकाओं हेतु ‘पर्दा स्कूल’ की स्थापना के सुझाव दिया ।
- सार्जेण्ट रिपोर्ट, 1944 ने बालिकाओं हेतु विशेष रूप से गृहविज्ञान की शिक्षा के प्रबन्ध का सुझाव दिया ।
- द्वैध शासन के परिणामस्वरूप भारतीय शिक्षा का प्रबन्धन भारतीय मन्त्रियों के हाथ में आने के कारण 1946-47 में बालिकाओं हेतु 28, 196 शिक्षण संस्थाएँ, 59 महाविद्यालय, 2,370 माध्यमिक विद्यालय तथा 2,479 प्राथमिक पाठशालायें, 4,288 व्यावसायिक शिक्षण संस्थायें थीं, जिनमें कुल अध्ययनरत बालिकाओं की संख्या 34,75,165 थी ।
- श्रीमती ऐनी बेसेण्ट द्वारा बनारस में केन्द्रीय हिन्दू बालिका विद्यालय की स्थापना की गयी । 1916 में लेडी हॉर्डिंग चिकित्सा विद्यालय तथा महर्षि कर्वे द्वारा 1916 में ही महिला महाविद्यालय की स्थापना की गयी ।
इस प्रकार ब्रिटिश काल में स्त्रियों की दयनीय स्थिति में परिवर्तन लाने का भारतीयों तथा ब्रिटिश सरकार के द्वारा प्रयास किया गया, जिसके सकारात्मक परिणाम भी सम्मुख आये । महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकालकर देश की स्वतन्त्रता और स्वाधीनता के कार्य से जोड़ा गया ।
आधुनिक काल में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा – 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ, जिसमें स्त्रियों की स्थिति में उन्नति तथा उनकी शिक्षा हेतु विशेष प्रावधान किये गये । स्त्रियों को संविधान में पुरुषों की बराबरी का ही दर्जा नहीं दिया गया, अपितु उनकी प्रगति के लिए, उनकी दयनीय स्थिति में सुधार करने के लिए विशेष संवैधानिक उपबन्ध भी किये गये । विभिन्न आयोगों तथा पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा स्त्रियों की स्थिति में उत्थान करने के लिए शिक्षा को सबसे प्रभावी मानकर क्रमिक सुझाव दिये गये, जो निम्न प्रकार हैं—
- स्वतन्त्र भारत में गठित प्रथम आयोग राधाकृष्णन् आयोग (1948) जिसे विश्वविद्यालय आयोग के नाम से भी जाना जाता है, का गठन किया गया, जिसमें स्त्री शिक्षा के विषय में दिये गये सुझाव इस प्रकार थे— स्त्रियों हेतु शिक्षा के अधिक-से-अधिक अवसर, बालिकाओं हेतु उपयोगी पाठ्यक्रम तथा शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था ।
- माध्यमिक शिक्षा आयोग, जिसे मुदालियर आयोग (1952-53) कहा जाता है । इसमें स्त्री शिक्षा हेतु दिये गये सुझाव थे कि गृहविज्ञान को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाना, गृहशिल्प तथा गृह-उद्योगों की स्थापना, सहशिक्षा की व्यवस्था आदि ।
- पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने हेतु सुझाव दिये गये । द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में स्त्री शिक्षा के प्रसार और शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण की विशेष रूप से व्यवस्था की गयी और 1958 में ही केन्द्रीय सरकार द्वारा श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति’ जिसे ‘देशमुख समिति’ के नाम से भी जाना जाता है, गठित की गयी । स्त्री शिक्षा विषयी सुझाव निम्न प्रकार दिये गये –
- स्त्री शिक्षा को राष्ट्र की प्रमुख समस्या मानकर इसका उत्तरदायित्व कुछ समय के लिए केन्द्र सरकार को सौंप दिया जाना चाहिए ।
- स्त्रियों तथा पुरुषों की शिक्षा में व्याप्त विषमता को समाप्त कर स्त्रियों की शिक्षा को पुरुषों की शिक्षा के ही समान महत्त्व प्रदान करना ।
- स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान केन्द्रित करने हेतु पृथक् रूप से प्रशासनिक व्यवस्था की जानी चाहिए ।
- केन्द्रीय स्तर पर ‘राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्’ तथा प्रान्तीय स्तर पर ‘राज्य महिला शिक्षा परिषद्’ का ग़ठन किया जाये और इन्हें स्त्री शिक्षा हेतु उत्तरदायी बनाया जाये ।
- केन्द्रीय सरकार स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में एक निश्चित नीति बनाये तथा इसके प्रसार के लिए निश्चित योजना का निर्माण कर उसे प्रान्तीय सरकारों को सौंपे ।
- स्त्री शिक्षा विषयी योजनाओं हेतु केन्द्रीय सरकार द्वारा अतिरिक्त धनराशि का आबंटन किया जाये ।
- प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं को अधिक सुविधायें प्रदान की जायें ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में सभी शिक्षा के प्रसार हेतु सरलीकृत अनुदान की नीति अपनायी जाये ।
- केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय द्वारा ‘स्त्री शिक्षा विभाग’ की स्थापना हो ।
- द्वितीय पंचवर्षीय योजना से स्त्री शिक्षा हेतु निर्धारित राशि में 10 करोड़ अतिरिक्त राशि के निर्धारण का प्रावधान किया जाना चाहिए ।
- देशमुख समिति के सुझावों के आधार पर 1959 में केन्द्र में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का गठन किया गया । तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् (N.C.W.E.) द्वारा श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में स्त्री शिक्षा के पुनर्गठन हेतु सुझाव देने हेतु हंसा मेहता समिति का गठन किया गया । समिति द्वारा स्त्रियों की शैक्षिक स्थिति में सुधार हेतु दिये गये सुझाव निम्न प्रकार हैं –
- प्राथमिक स्तर पर बालक तथा बालिकाओं हेतु समान पाठ्यक्रम ।
- माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं की आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए गृहविज्ञान शिक्षा की व्यवस्था ।
- बालिकाओं हेतु पृथक् व्यावासायिक शिक्षा की व्यवस्था ।
- किसी भी स्थिति में बालकों तथा बालिकाओं की शिक्षा में बहुत अन्तर नहीं होना चाहिए ।
- 1964 में ‘शिक्षा आयोग’, जिसके अध्यक्ष श्री दौलतचन्द कोठारी थे । इनके नाम पर इस आयोग को कोठारी आयोग भी कहा जाता है। इसमें स्त्री शिक्षा और स्त्रियों को सम्मानजनक स्थिति में लाने हेतु निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत किये गये –
- 6 से 14 आयुवर्ग के सभी बालकों तथा बालिकाओं हेतु अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा |
- 11 से 14 आयुवर्ग की बालिकाओं हेतु अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था |
- बालिकाओं हेतु पृथक् माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना ।
- बालिकाओं हेतु पृथक् महिला महाविद्यालयों की स्थापना ।
- बालिकाओं हेतु विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था ।
- अशिक्षित प्रौढ़ महिलाओं हेतु प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था ।
- बालिकाओं को विद्यालय भेजने हेतु जनता को जागरूक करना ।
- बालिकाओं हेतु पृथक् व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था ।
- 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गयी, जिसमें स्त्री शिक्षा के प्रसार तथा उन्नति पर विशेष बल दिया गया ।
- 1970 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् (N.C.W.E.) द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट के अन्तर्गत निम्नांकित चार बिन्दुओं पर ध्यान आकृष्ट कराया गया—
- स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु योजनाबद्ध कार्यक्रम का निर्माण |
- केन्द्रीय सरकार द्वारा स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु पर्याप्त धनराशि का आबंटन ।
- केन्द्रीय सरकार द्वारा स्त्री शिक्षा में उन्नति के लिए प्रान्तीय सरकारों को पर्याप्त धनराशि तथा प्रोत्साहन प्रदान करना ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने हेतु शिक्षिकाओं को प्रोत्साहन भत्ता तथा सुविधायें प्रदान करना । “
- चतुर्थ पंचवर्षीय योजना के कार्यकाल (1969-74) में ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करने वाली शिक्षिकाओं को विशेष भत्ता, सुविधा तथा आवास प्रदान किये गये, जिससे स्त्री शिक्षा में सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए । 1971 में छात्राओं की संख्या 1961 की संख्या से अनुमानतः 140 लाख से बढ़कर 280 लाख हो गयी जो लगभग दो गुनी थी ।
- 1974-79 में पंचम पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई तथा 1975 के वर्ष को यूनेस्को ने ‘महिला वर्ष’ के रूप में मनाया । भारत में भी महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया गया । महिलाओं की शैक्षिक स्तर विषयी रिपोर्ट जो 18 मई, 1975 को राज्यसभा में प्रस्तुत की गयी, इस विषय पर बहस में भाग लेते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के शब्द इस प्रकार थे—“किसी भी समाज का स्तर वहाँ की महिलाओं के स्तर से आँका जा सकता है। महिलायें आज भी पुरुष प्रधान समाज में रह रही हैं। उन्हें जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त हर क्षेत्र में इस मानसिकता से गुजरना पड़ता में है, चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा समाज में रहने की बात ।” तत्कालीन शिक्षामन्त्री नुरूल हसन ने स्त्रियों की शिक्षा पर अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये – “पिछले 18 वर्षों में स्त्रियों की दशा में व्यापक सुधार आया है। उन्हें संविधान ने पूरी सुरक्षा के साथ-साथ कई शैक्षिक योजनाओं में भी सहगामी बनाया है तथा कानूनी मापदण्ड भी उनकी प्रगति में सहायक हुए हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आदि भी बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करने पर बल देता है ।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1979 में सर्वाधिक प्रमुखता प्राथमिक शिक्षा को दी गयी तथा बालिकाओं को और प्रौढ़ महिलाओं को साक्षर बनाने पर विशेष बल दिया गया | आँकड़ों के अनुसार 1971 में जहाँ 280 लाख के लगभग छात्रायें अध्यनरत थीं वहीं 1981 में बढ़कर इनकी संख्या 400 लाख हो गयी ।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गयी कि स्त्री तथा पुरुषों की शिक्षा में किसी भी प्रकार का विभेद नहीं किया जायेगा । लैंगिकता के आधार पर शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और स्त्रियों की शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए । इस शिक्षा नीति में स्त्रियों की शिक्षा की उन्नति तथा प्रचार-प्रसार हेतु कदम इस प्रकार उठाये गये –
- जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (District Primary Education Programme : DPEP) का शुभारम्भ किया गया । जिन जिला में स्त्रियों की साक्षरता दर न्यून है ।
- बालिका निरौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को 90% अनुदान दिया गया ।
- बालिकाओं हेतु माध्यमिक विद्यालय खोले गये जहाँ ये नहीं थे ।
- बालिकाओं हेतु +2 स्तर पर उनकी रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप नवीन व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का शुभारम्भ किया गया
- केन्द्रीय तथा नवोदय विद्यालयों में बालिकाओं हेतु 30% आरक्षण किया गया तथा उनकी निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी ।
- महिलाओ हेतु पॉलिटेक्निक महाविद्यालयों की स्थापना की गयी । “
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में महिला अध्ययन केन्द्र खोलने हेतु सहायता प्रदान की।
- 1989 में महिला समाख्या कार्यक्रम’ का प्रारम्भ किया गया, जिसके द्वारा ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं की शिक्षा तथा उनको अधिकारसम्पन्न करने का ठोस कार्यक्रम बनाया गया | यह कार्यक्रम वर्तमान में दस प्रान्तों— उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, असम, मध्य प्रदेश तथा झारखण्ड के 83 जिलों के 21,000 गाँवों में चलाया जा रहा है ।
इन नीतियों के परिणामस्वरूप 1981 में जहाँ देश में लगभग चार करोड़ बालिकायें अध्ययनरत थीं वहाँ 1991 में इनकी संख्या बढ़कर 6.2 करोड़ हो गयी । स्त्री-पुरुष शिक्षा के मध्य खाई पाटने में इस शिक्षा नीति का योगदान अत्यधिक रहा है ।
इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा में परिवर्तन आता रहा है। वर्तमान में स्त्रियों की शिक्षा हेतु प्रयास सरकारी तथा निजी दोनों ही स्तरों पर किये जा रहे हैं, जिससे स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा के स्तर में सुधार भी आया है।
भारत में स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा का अवलोकन करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि स्त्रियाँ सदैव से ही उपेक्षा तथा दीन-हीन स्थिति में नहीं थी, विदेशी आक्रान्ताओं के आने तथा समाज में संक्रमण की स्थिति के बाद स्त्रियों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक प्रतिष्ठा को आघात लगा । ब्रिटिश काल में ईसाई मिशनरियों के प्रयास से भारत में स्त्रियों की स्थिति में सुधार तथा शिक्षा के लिए प्रयास किये गये, जिससे स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ । इस दिशा में सर्वप्रथम ईसाई मिशनरी रेवरेण्डम ने चितपुरा में अलग से बालिका विद्यालय की स्थापना की, तत्पश्चात् इंग्लैण्ड की मिस कूक ने 1821-23 के मध्य 22 बालिका विद्यालयों की स्थापना पृथक्-पृथक् स्थानों पर की । भारतीयों ने भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हेतु उनकी . शिक्षा तथा दयनीय स्थिति में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया, फिर भी जितनी प्रगति होनी चाहिए थी, उस दृष्टि से ये प्रयास महत्त्वपूर्ण तो थे, परन्तु कम तथा व्यक्तिगत थे । स्वतन्त्रता के समय 1947 में मात्र 6% महिलायें ही साक्षर थीं जो संख्या में 43 लाख थीं । स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना हुई और स्त्रियों की स्थिति सुधारने हेतु शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावी बनाया गया । स्त्री-पुरुषों के मध्य विभेद में कमी, स्त्रियों की शिक्षा के द्वारा ही की जा सकती है । अतः विविध आयोगों ने स्त्रियों की शिक्षा के लिए सारगर्भित सुझाव दिये । परिणामतः स्त्री शिक्षा 1951 में बढ़कर लगभग 0.6 करोड़, 1961 में 1.4 करोड़, 1971 में 2.8 करोड़, 1981 में 4 करोड़, 1991 में 6 करोड़, 2001 में 8.4 करोड़, 2001-06 में 10.9 करोड़ हो गयी । स्त्री शिक्षा के प्रयासों का अनुमान हम इसी बात से लगा सकते हैं कि आजादी के समय मात्र 6% स्त्रियाँ ही शिक्षित थीं, परन्तु 2001 में 54.16% स्त्रियाँ शिक्षित हो गयीं । शिक्षा के पायदानों पर चढ़ने के साथ-साथ स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका में भी परिवर्तन आया । घर गृहस्थी के चूल्हे से लेकर अंतरिक्ष तक उन्होंने अपनी पैठ शिक्षा के द्वारा बनायी ।
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